बच्चा गरीब का

poor child-2

आँखें तनहा खोली
लिया जनम जब उसने
टिमटिमाते दीये सी
नन्ही सी..
मासूम सी..
भोली भाली.. वे दो आँखें
दुनिया से..
पहली पहचान की कोशिश में
चाहे समझ न पाया वो
जनम लिया जहाँ उसने
वो जगह
वो फुटपाथ
सड़क किनारे था
भूख-प्यास लगने पर
छाती माँ की
थी सूखी वीरान
बिलख-बिलख हलकान हुआ
नल का पानी माँ ले आती
फिर पुकारा जो उसने
दे जाती दो चाँटे उसको
मजबूर है माँ
क्या करती वह
बैठी एक तरफ को
सोच रही
समझाऊं कैसे
इस मासूम को
बिलख रहा वो बच्चा
वो बच्चा गरीब का है
क्या जाने वह
खटराग दुनिया के
वह तो बस
नन्ही सी दो बाँहें फैलाए
माँग रहा माँ से
दूध और दुलार
क्या कह पाती माँ
मजबूर है वो
बिलख रहा वो बच्चा
वो बच्चा गरीब का है.. !!


__________________जोगेंद्र सिंह ( फरवरी-2010 )

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लड़की बड़ी उदास है..

Girl-8

लड़की बड़ी उदास है..
अपने में सिमटी हुई..
छिल गए हैं बस से उतरते..
उसके घुटने और कोहनी..
उठ रही तीव्र लहर पीड़ा की तन में..
तन संग मन भी है घायल..
पलकों के कोरों तक..
ढुलक आये दो आँसू..
तुरंत ही उठाना है उसे..
वरना बढ़ आयेंगे बीसियों हाथ..
जिस्म छूने के बहाने..
नकली हमदर्दी का लबादा ओढ़े..
मरा शील जिलाना है उसे..
बढे हाथ उसे गिरा देख..
धवल-वर्णी चोले के पीछे..
कलुषित सोच छिपी मानुष की..
ज़तन ये सारे सभ्य प्राणी के..
गिरा पुरुष देख कोई न आता..
देख नारी मचलते ख्वाब सारे..
होड़ लगी आऊँ दूजे से पहले..
गिद्धों की मार से घबरायी..
उनके आने से पहले..
बचा मोती अपनी लाज का..
उठी लड़की अपने आप से..
दुल्लर हुआ दर्द से..
कोमल तन रमणी का..
न आना गिद्धों के हाथ मुझे..
कृत संकल्प हो उठ चली..
सोच रही कोमला रमणी..
कैसी विडम्बना जीवन की..
समाये एक में दो इंसान..
लड़की बड़ी उदास है... !!!!!
_____जोगेंद्र सिंह ( 27 अप्रैल 2010___04:32 pm )


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((मेरे मित्र "पवन दत्ता" जी ने अपनी एक रचना मुझे publish करने के लिए मुझे दी थी ! साथ ही यह भी कहा की इसे में अपने तरीके से भी लिखूं ! रचना वही है दोनों पर हम दोनों के नाम लिखे हैं ! यहाँ कोई तुलना नहीं कीजियेगा ! उसकी कोई आवश्यकता नहीं है ! ये तो बस दो मित्रों का प्रेम है ! जो तुलना की भाषा नहीं समझता ! "पवन दत्ता" जी की कविता अपने मूल रूप में है ! ))


लड़की उदास है ! बेहद उदास ! चलती बस से उतारते वक़्त छिल गए हैं उसके घुटने और कोहनी ! भयंकर एहसास दर्द का बमुश्किल से काबू में हैं उस कि आँखों में आँसू ! उफ़ ! क्या करूँ ? उस को उठ खड़ा होना होगा तुरंत ही ! तुरंत नहीं तो बढ़ आयेंगे दसियों हाथ उस के जिस्म को छूने
कि खातिर आँखों में...नकली हमदर्दी का पुटाव लिए ! नहीं ये ! कभी नहीं ! और उठ के चल देती है लड़की ! अपने तीस मारते दर्द को शालीनता के आवरण में लपेटे हुए ! यही तो उस के पास बेमोल शर्मो हया बेशकीमती लाजो शरम जिस को टके के भाव पे ना बिकने देने के भाव लिए कृत संकल्प है ! यह लड़की उदास है बेहद उदास...
__________पवन दत्ता ( 26 अप्रैल 2010 )

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तेरी याद..


अब भी जीने को तेरी यादों का सहारा है...
नहीं ज़रूरत मुझे झूठे सहारों की है...

तो क्या हुआ दूर अगर किनारा हो...

तैर कर इसे भी पार कर जाना है...


◄◄▬◊ ..Jogi.. ◊▬►►

( 26 अप्रैल 2010___10:40 am )

(( उपरोक्त चित्र में अंगड़ाई लेती एक अस्पष्ट सी लड़की है जिसे मैंने अपने मन में बसे ख्वाबों की रोज़ आती यादों के प्रतीक के रूप में लिया है ! जिस प्रकार प्रेम में लिप्त मनुष्य को कुछ भी समझ नहीं आता है, ठीक उसी प्रकार मेरा नायक भी बाकी हर चीज़ या बातों को झूठे सहारों की तरह से ले रहा है ! अब चूँकि बात यादों की हो रही है तो ज़ाहिर सा है की उसे अपना प्रेम मिला नहीं है या फिर अगर मिला भी है तो वह अभी उसकी पहुँच में नहीं है ! इस चित्र में दिखाए सागर को इस तरह से लिया गया है कि जो प्रेम अभी उसकी पहुँच में नहीं है उसी को पाने के लिए वह सभी अवरोधों के अथाह सागर को तैर कर पार कर जाना चाहता है ! ))

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तेरी याद..SocialTwist Tell-a-Friend

जीवन

जीवन — सरोबार है जीवंत हर रंग सा !
जीवन — 14-हजार योनियों पश्चात मिली रब की नेमत सा !
जीवन — सदिच्छाओं का है दूसरा नाम !
जीवन — जन्मान्तरों के शुभ कर्मों का सुखद परिणाम !
जीवन — चिलचिलाती दोपहर की धूप में आगे बढ़ने का अहसास !
जीवन — कंठ-चुभती सूचियों के बोध से निजात की तीखी प्यास !
जीवन — ठहराव, स्थिरता, भरते घावों का अहसास !
जीवन — एक संन्यास समाज में तब्दीली का !
__________जोगेंद्र सिंह ( 25 अप्रैल 2010___03:42 pm )

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जीवनSocialTwist Tell-a-Friend

तुम पूछों और मै न बताऊँ


तुम पूछों और मै न बताऊँ, जीवन में अभी ऐसे हालात नहीं !

हुआ ही क्या है ज़रा दिल ही तो टूटा है कोई पहाड़ तो नहीं !

अब दिल ना दुखाओ तुम अपना यह मेरी अक्सर की बात है !

कभी अगर स्वप्न संजो भी लूँ तुम्हें पाने का..मेरा हक है यह !

किसी मानुष का अपने ख्वाबों पर भी भला बस चला है कहीं ?

सकून नज़रों का बन..मचलती हो स्वप्न-लोक की दुनिया में !

पलक झपकते आना-जाना तुम्हारा नींद-ओ-हवासों का फर्क है !

इसी से लगती नींद प्यारी.. दिखते बाकी सब हवास गलीज़ हैं !

__________जोगेंद्र सिंह ( 24 अप्रैल 2010__03::25 )


( यह कविता मेरे निजी जीवन के अपने खुद के अनुभव पर है...)
( प्रेरणा स्वरुप पहली पंक्ति की आधी लाइन कहीं से ली गयी है...)

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अनकही बातें...

एक सुबह..जब देखा मैंने आँखें खोल कर
बरांडे से आती आवाजें महसूस होने लगीं
कौन आया कदमों की चाप भी जता देती है
शरीर से ज्यादा कान सक्षम नज़र आते हैं
गुज़रे कुछ दिन पहले ही की तो बात है यह
खाना खाने ऊपर जाते मेरे क़दम फिसले थे
कमज़ोर पड़ा हूँ अब फालिज़ से ग्रस्त होकर
जीवन भर हुआ अब पड़ा हूँ आश्रित उनके
लकवाग्रस्त सी लगती अब आत्मा भी है मेरी
आने-जाने वालों की अब लगी है रेलम-पेलम
दो बात सुना चल देते हैं गीत अपने गा-गाकर
दर्द घटा या बढ़ा मर्म इसका यहाँ जानेगा कौन
घूमता हूँ अब भी गाँव में पहले ही की तरह से
हो आता हूँ हर जगह.. रह जाता है पीछे शरीर
मन कहाँ माध्यम चाहे घूम आता यूँही कहीं
नाई की छोटी दूकान हो या हो कल्लू हलवाई
टूट जाते दिवा स्वप्न चारपाई की चर-चर से
कुछ कहने की आस में खाँस के रह जाता हूँ
रात बात होती है.. बीच दीवार घडी और मेरे
अजन्मे शब्दों संग साथ देती है घडी सारी रात
जान से प्यारी भूरो भैंस दिखती है किनारे से
ध्यान खींचने के जतन में साँसें उखड जाती हैं
बोलने की कोशिश में निकले अस्फुट शब्द भी
पड़ते ही कानों में पहले कान हिले फिर आँख
मिलना नज़रों का जन्म दे गया कुछ बूंदों को
अनकहे होने लगी बात जो सुन पाया कोई
आज जाना अविरल बहते पानी की भाषा को
पत्नी संग बीता जीवन बात आज भी बाकी है
निष्कासित से जीवन ने वो मौका भी दे डाला
करी अब तारीफ.. आँखों आँखों बात कर लेता
सकुचाई शरमाई कुछ घबराई अर्धांगिनी मेरी
कैसे हो..आदत ही कहाँ पड़ने दी ऐसी मैंने
उहापोह-भावना का आवेग और शब्द साफ़ हैं
झर-झर गिरते आँसू.. हमारे जकड़े हाथों पर
मेरे हाथों का ठंडापन तडपा गया अब उसको.
ठिठकी हुई पुतलियों ने जता दिया सब कुछ..
दिख रहीं दो लाशें खड़ी और पड़ी अब एक साथ
फिर से जाना अविरल बहते पानी की भाषा को !!

_____जोगेंद्र सिंह ( 22 अप्रैल 2010___07:30 pm )

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विचित्र प्रेम

कैसी लीला है प्रेम की देखो नयी
आया कैसा अब ज़माना भी नया
करते दखल देखो नभचर भी हैं
दावेदार प्रेम के अब पंछी भी हैं

_____जोगेंद्र सिंह
( 22 अप्रैल 2010__12:52 pm )



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"स्त्री-पुरुष" ::: "Male-Female"


"स्त्री-पुरुष" ::: "Male-Female"

( "स्त्री की व्यक्तिगत जिन्दगी मे पुरुष मित्र कोयले की भाँति होते है......... गर्म होने पर वो जला देते है , और ठन्डा होने पर कालिख ।" )

उपरोक्त पंक्तियाँ आज मेरी किसी महिला मित्र ने फेसबुक में अपनी वाल पर लिखीं थीं ! मुझे लगा कि आज के परिप्रेक्ष्य में यह बात चरितार्थ नहीं होती है ! सो कहे जाने पर लगा कि इस पर अपने विचार भी व्यक्त कर ही दूँ...

मेरा सोचना है कि इस बात से सहमत होने का सवाल ही नहीं उठता है स्त्री कि व्यक्तिगत जिन्दगी मे पुरुष मित्र कोयले की भाँति होता है ! क्यूंकि जब आज की स्त्री अपने पूर्ण समझदार होने का दावा बड़े ही असरदार तरीके से करती है ! तो क्या इस मित्रता के सही-गलत होने जैसी हलकी सी परख भी क्यों नहीं कर पाती वह !

गर्मी से जल जाना और ठंडा होने पर कालिख ये सब किताबी बातें हैं ! असल जीवन में दोनों ही जानते हैं कि क्या सही है और क्या गलत है ! इसके बावजूद भी कुछ होता है तो दोनों ही जिम्मेदार कहलायेंगे, ना कि कोई एक ! ये तो वही बात हो गयी कि बराबरी के समय भी स्त्री सबसे आगे और कभी कुछ सिर पर पड़ता नज़र आये तो फिर वही बारहवीं सदी की अबला नारी बन जाती है ! एक ही नारी में एक ही समय ये विरोधाभास क्यों...? और बात अगर जलने, राख होने या कालिख लगने की ही है तो जाइए और देखिये अपने आस-पास ही जाने कितने पुरुष ऐसे मिल जायेंगे जिनकी जिंदगी में स्त्री ही पुरुष का पात्र निभा रही है ! उस स्थिति में जलता भी पुरुष ही है, कालिख भी उसी के मुंह पर पुतती है, और निष्कासित भी वही बेचारा होता है !

आज जाने कितने प्रताड़ित नर हैं जिन्हें वाकई मदद की भी आवश्यकता है ! कभी इस ओर भी ध्यान दीजियेगा, स्त्री के लिए गहने की तरह होता है रोना-धोना ! सदियों से स्त्री का रोना हर किसी को सामान्य महसूस होता है, लेकिन यही कार्य पुरुष करे तो नामर्द ! बेचारा जाए तो आखिर जाए कहाँ...? कैसे दिखाए कि उसे भी रोना आ सकता है ! अपनी विपदा किसको जाकर रोयें...? कोई समझेगा तो क्या बस उसी का मजाक बन कर रह जाएगा !

और फिर अगर नारी जीवन में आने वाले तमाम पुरुष कोयले सामान ही होने लगे तो वह उन्हें स्वीकारती ही क्यों है...? मुझे नहीं लगता की नारी विचार शून्य होती होगी... स्त्री हो या पुरुष गर्मी दोनों को जला देती है, ठंडा होने पर दोनों ही सामान असर में लिप्त नज़र आते हैं ! फिर दोष एक ही पर क्यूँ आयद होता है...? कैसे कह सकते हैं की ऐसी गलतियों का खामियाजा सिर्फ स्त्री के ही भुगतने में आता है...? जो मानुष होता है वह भी कोई बचा नहीं रहता ! मुझे लगता है कि आज हम गर्म, ठन्डे, कालिख एवं राख जैसी बातों से काफी ऊपर आ चुके हैं ! इन पुरातनपंथी सोचों के पीछे भागना शायद अब बेवकूफी ही हो ! दोनों ही ने अपने-अपने सिर के उपरी हिस्से में बुद्धि रूपी किराएदार को पाल रखा है, तो बेहतर है कि सही और गलत को केवल वास्तविक परिस्थियों के लिए ही छोड़ दिया जाए ! संभव है वही कोई फैसला कर पाए !

मुझ पर उस वाल पोस्ट पर कुछ लिखने के लिए कहा गया था अन्यथा सच यह है कि मैं इस मुद्दे पर लिखना नहीं चाहता था...

अब आप लोग ही बताएँ... आप क्या सोचते हैं इस बारे में...??????????

__________________जोगेंद्र सिंह ( 13 अप्रैल 2010 03:11 pm )

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Ph.D phases (a comic phase) :::::

Ph.D phases (a comic phase) :::::
( Note :- this article is not writen by me. )

Before joining PhD (Decide a topic for PhD) :-
I want to win the Nobel Prize.
I want to win the Abel Prize.
I want to win the The Fields Medal.
I want to win the Turing Award.

First phase of PhD (During synopsis preparation) :-
I want to finish PhD in two years.
I want to publish papers only in top tier conferences.
I want to make ground-breaking research.
I want to win the best PhD Thesis award.

Second phase of PhD (After approval of synopsis) :-
I want to finish PhD in 5 years.
I want a problem.
Shall I change my advisor?

Third phase of PhD (First Year of work) :-
I want a paper; I don't care which conference.
Shall I change my topic?
I want to finish PhD!
My industry-friends have two children by now. When will I get married?

Fourth phase of PhD (Second Year of work) :-
Why did I come here?
Why did I choose this advisor?
Why did I choose this topic?

Fifth phase of PhD (End of second year) :-
Someone give me a degree!
I want to leave this place — for ever.
Let me leave.

Sixth phase of PhD (Submission of Thesis) :-
People call me uncle.
She waited and finally married someone else.
I don't want any degree. I just want to live peacefully.

____________________________________________
LET THE SOUL BE IN PEACE....
____________________________________________
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संवेदना बनाम संवेदना.. !!

( This photo is clicked by Jogendra Singh..)

खड़ा है वह सड़क किनारे
बाल बढ़े दाढ़ी अस्त-व्यस्त
किसी ने कहा पागल है
गुज़र गए लोग कतरा कर
कोई ज़ुमला उछालते हुए
क्या फर्क पड़ता है
कुछ शब्द ही तो कहने थे
बहुत आसान है कुछ कह देना
बनिस्पत मदद कर देने के
किसी ने न सोचा
उस बेबस के बारे में
क्या संवेदना हैं उसकी ?
क्या हैं ज़रूरत उसकी ?
बिन संवेदना जन जी रहे हैं
इंसानियत पुस्तक की वस्तु बन
झलक दिखलाती कभी कभी

आज फिर सड़क किनारे
खड़ा नहीं अब पड़ा हुआ है
फिर गुज़र गए लोग कतरा कर
कोई ज़ुमला उछालते हुए
क्या फर्क पड़ता है
कुछ शब्द ही तो कहने थे
एक कान्धा ना मिला
पागल की अर्थी को
म्युनसिपैलिटी की गाडी का
इंतजार उसे अब आने का है
जैसे कुत्तों को ले जाते
उसे भी अब ले जाना है

अब शायद नहीं गुज़र रहे जन
बने हैं भीड़ कतरा कर उससे
संवेदना अब भी वांछित है
बिन संवेदना जन जी रहे हैं
घंटे दो घंटे बात करेंगे
फिर चल देंगे अपनी राह

_____जोगेंद्र सिंह ( 18 अप्रैल 2010___09:29 pm )

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तुम्हें मिल जाऊँगा.. !!


वे शब्द नहीं मिलते,

जिनसे अपना प्रेम व्यक्त करूँ,

माफ़ करना ख़त संभव नहीं,

झाँक कर देखो मेरी आँखों के दरिया में,

शब्दों का बहता सैलाब नज़र आएगा तुम्हें,

डूबता-ऊबता तुम्हारे प्रेम सागर में,

ढूंढ लेना जाकर मुझे,

तुम्हें मिल जाऊँगा,

वहीँ बहते धारे बीच कहीं !!

_____जोगेंद्र सिंह ( 18 अप्रैल 2010___11:25 pm )

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तुम..


तुम ही तुम बसे हो सर्वस्व में !

तुम भी तुम हो और मैं भी तुम !

तुम्ही से जीवन.. मरण तुम्हीं से !

साँसों में बसा वो नाम तुम्हीं हो !

सुबह का पहला ख्वाब तुम्हीं हो !

साँझ की पहली याद तुम्हीं हो !

पहले हो रब से मेरा रब तुम्हीं हो !

जाओ दिल से तो याद करूँ तुम्हें !

न जाती दिल से वो याद तुम्हीं हो !

_____जोगेंद्र सिंह ( 17 अप्रैल 2010___10:31 pm )

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भूखे का दर्द.. !!


भूख का दर्द..मुझसे न पूछो..क्या होता है !
जाओ चौराहे पर..बने तमाशा मिल जायेंगे !
कुछ लोग बोलियाँ लगाते मिल जायेंगे !
और कुछ खड़े लगवाते होंगे बोलियाँ भूख पर !
वे कहेंगे कम पड़ता है बाबू जी !
कौन सुने भूखे की..एक छोड़ हज़ार खड़े हैं !
दूजा मान रहा उसी दर पर !
शायद उसकी भूख को ज्यादा जल्दी है !
बच्चे उसके जिनका बचपन भूख ही है शायद !
भूख से आगे न जाती सोच-समझ उनकी !
बच्चा गरीब का है.. दूध कहाँ रोटी के भी हैं लाले !
हैं सनाथ फिर भी दिखते क्यूँ अनाथ हैं !
किसी शाम रोज़ देसी शराब के ठीये पर !
मिल जाएगा वही भूखा बाप कहीं !
तब देखो झाँक कर झूमती उन दो आँखों में !
कहाँ ग़ुम हैं अहसास उसकी भूख के दर्द का ?
एक साडी में जीवन काटती बीवी उसकी !
पडौस में मिल रही पानी वाली चाय पर पलते बच्चे !
रईसों के बच्चों के हाथ लगी चीज़ों को घूरते बच्चे !
फिर कूड़ेदान से बीन कर भूख मिटते बच्चे !
दूसरी तरफ उधार ना चुकाने पर पिटता बाप !
झूमता गिरता पड़ता घर लौट के आता बाप !
फिर होने वाला दंगा फसाद हक है उसी भूखे का !
दीन हीन श़क्ल देखी जो तुमने चौराहे पर !
छिपा दर्द भी उनका जाकर कब देखोगे तुम !
नहीं यहाँ सिर्फ एक शकल.. है पूरा कारवाँ यहाँ !
श़क्ल के पीछे श़क्ल छुपी.. पूरा कुनबा भूखा यहाँ !
दिन का दीन बन जाता शेर शाम को !
पड़ी यहाँ संवारने को हैं कहानियाँ कितनी ?
सोचो.. अपना हिस्सा तय कर पाओगे कैसे ?
शायद तब तुम्हे एहसास हो जाये..उस भूखे के दर्द का !!!

__________जोगेंद्र सिंह ( 16 अप्रैल 2010 ___ 08:28 pm )

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(( मेरी मित्र गरिमा ने फेसबुक पर कमेन्ट में कहा था की "Bht bht khub jogi.bht badhiya likha hai apne.bt dnt mind,cnt stop myslf telng u dat m flng dat pic is nt goin acc 2da poem.as far as m getn it,dse r nt dose poor people.dse r da pahaadi log.es kavita mein jin deen heen bhookh se pidit logo ki durdasha ka varnan hai woh ye nahi hai.es poem ke sath apki woh wali pic jo apki h click ki hui hai jisme woh ek nangaa baccha khaane dhoondh raha hai jaayegi.hai naa jogi?apko bura toh nahi laga?"
इस पर मैंने ज़वाब दिया :- @ गिरी.. वो मेरी क्लिक की हुई पिक नहीं थी दोस्त... और पहाड़ी हैं तो क्या ये भूखे नहीं हो सकते...? अभी तुमने भूखे देखे ही कहाँ हैं ! जो नंगों से ज़रा ही ऊपर होते हैं वो शायद अधिक बुरी स्थिति मैं होते हैं... ना तो भीख माँग सकते हैं और ना ही कूड़ा बीन सकते हैं... इज्ज़त के कारण मजबूरी में बस बेबस से पिस जाते हैं बेचारे... किस्से कहें कि आज घर में आता नहीं है रोटी किस्से बनाएं...? सोचना कभी बैठ कर...))
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एकला चलो रे.. !!

(dis phpto is not clicked by me...)

पसरने लगा चाँद आकाश में रजनी के संग !
हो रही विस्तारित चाँदनी चहुँ दिशा ओर !
वन उपवन और क्या ही गली कूंचे हर ओर !
हर रोज़ आता चाँद ले अपना उल्लासित मन !
निकली चाँदनी आई है अब धरती भ्रमण पर !
देख रही रक्त रंजित दीवारें वैसे ही गली कूंचे !
सोच रही चाँदनी सदियों से यही कहानी है !
पहुँच रहा सन्देश यही उसके मीत चाँद तक !
हो स्तब्ध निशब्द खड़ा चाँद अपने पथ पर !
समझ ना पाया क्यूँ जाती छोड़ उसे उस ओर !
क्या है नाता मध्य प्राण प्रिया और इस धरती के !
बेखबर इस सोच से विचार रही चाँदनी ज़मीं पर !
हर तरफ छूटे हुए रक्तिम भग्नावशेष कुकृत्यों के !
वहाँ बेखबर चाँद मना रहा ऊपर पूनो का उत्सव !
दहलीज़ पे नीचे धरती पर.. गूँज रही सिसकियाँ !
रो रही ज़मीं पर इंसानियत धर चाँदनी का रूप !
दूजी ओर चाँद रूपी मानुष मना रहा उपलब्धियाँ !
रात भर बिखरी कराहटें रुदन के साथ घुली हुई !
कौन सुनेगा मजबूर उस मानुष के सीने का दर्द !
भूख से बिलखता तड़पता कलेजे का टुकड़ा उसका !
बिन चाँदनी के रूप धरा दूजा अमावस का चाँद ने !
अमावस रख गयी अपना काला कफ़न शहर पर !
लौट गयी बेबस चाँदनी छोड़ गयी कराहें पीछे !
और तारों संग चाँद पूनो मना रहा..बिन चाँदनी !
सुबह आई चुपके से.. किसी को खबर नहीं हुई !
शोर-गुल.. चीख-पुकार में.. जाने कब सरक गयी !
खड़ा हूँ किनारे..आँखें बंद..होश गुम अब मेरे भी !
मैं "जोगी" क्या सोच रहा कैसे बटाऊँ हाथ उनका !
अकेला चना कैसे झोंके भाड़.. भून्जूं कैसे इनको !
दमकी सहसा किरण उम्मीद की चाहे अकेला हूँ !
आस न छोडूंगा एकला चलो रे और कब उतारूंगा मन में ?

__________जोगेंद्र सिंह ( 12 अप्रैल 2010 ___ 12:20 pm )

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माँग लो आज मुझको मुझी से..

( dis is me in dis picture...)

माँग लो आज मुझको मुझी से तुम,
फिर न कहना कि मौका न मिला,
लगा है मेरा आज सर्वस्व दांव पर,
लूट मची है तुम भी भर लो दामन,
प्रेम बचा है अंतर में.. है भरा ठूँस-2,
यूँ भी है अधिकार तुम्हारा मुझ पर,
लगे हैं मेले चारों तरफ लूटखोरों के,
फिर क्यों पीछे तू भी रहे आ लूट मुझे,
जी रहा हूँ जीवन तेरी आशा से रहित,
नहीं है तू.. अब लग रही बोलियाँ हैं,
मन बैठा सोच रहा कौन घडी थी वह,
मैंने जब तुझसे लगाया अपना दिल,
"तीस बरस" बाकी जीवन के तेरे बिन,
बिन तेरे अब उनको जी पाउँगा कैसे,
एक पहर भी अब जी पाना मुश्किल है,
अरसा है लम्बा अब जी पाउँगा कैसे,
माँग लो आज मुझको मुझी से तुम,
फिर न कहना कि मौका न मिला,
लगा है मेरा आज सर्वस्व दांव पर !!

__________जोगेंद्र सिंह ( 10 अप्रैल 2010 ___ 04:10 pm )

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अधखिला पहला प्यार..


अहसास है यह ऐसा.. कहते जिसे हम प्यार हैं,

ना बस तेरा है ना ही मुझ नामुराद का इस पर,

खुशगवार सा जीवन.. दिल पागल सा हो जाता है,

चुन चुन मेहनत कर नीड़ बनाया जिस तिनके से,

उड़ हवा में हो लीन अकसर लुप्त प्राय हो जाता है,

जैसे हो टूटी पुष्प-कली अधखिली सी रह जाती है,

साहिल से पहले ही मंज़र सुनामी सा बन जाता है,

क्यूँ अक्सर पहला प्यार आधा ही बन रह जाता है?

_______जोगेंद्र सिंह ( 08 अप्रैल 2010 ___ 12:06 pm )

( यह चित्र अधूरे प्यार के लिए संकेत रूप में लिया गया है... कि किस प्रकार अकसर भरभरा कर नष्ट भ्रष्ट हो उठता है पहला प्यार...)

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रिश्ता ही क्या है तेरा मेरा..?

( dis photo is not clicked by me...)


ना आ रहा है समझ है रिश्ता ही क्या तेरा मेरा,
हूँ कौन मैं और कौन है तू आ बैठी जीवन में मेरे,
क्या सोच रहा मन मचल रहा उद्वेलित सा क्यूँ है,
सोच रहा क्या रखूँ नाम अनजाने से इस नाते का,
होता प्रतीत अलग थलग सा स्थापित उन नातों से,
होती मिश्र अनुभूति पूर्व स्थापित उन रिश्तों की,
फिर भी जाने क्यूँ लगती अनजानी निराली सी,
मन तरंग मोरी क्यों मचल जाती हुलर भी जाती,
जीवन में मेरे बनके बयार आई है.. इक झोंका बन,
क्या और क्यूँ है तू .. है अस्तित्व भी क्या मेरा भी,
ना चाहूँ ये मंथन सा मन में.. अब उठ रहा क्यूँ है,
बन मन मयूरी नाच उन्मत्त अब दिखा रही क्यूँ है,
ग़र चाहूँ ना सोचूं मैं.. यह सोच दिल उदास क्यूँ है,
छोड़ मंथन अब निश्छल मन पाता आनंदित भाव,
हाँ...!! है शायद संध्या यही इस जीवन दिवस की,
छाँव में जिसकी सकून दीखता है निर्मल कोमल सा,
करता शांत उद्वेलना इक अहसास वो शायद यही है,
आदत सी हो गयी है तेरी जाने से तेरे डरता क्यूँ हूँ,
गिरी पलकें झपक कर ख्वाब बने अब दिल में क्यूँ हैं,
अब भी ना आ रहा समझ है रिश्ता ही क्या तेरा मेरा !!

___________जोगेंद्र सिंह ( 07 अप्रैल 2010 ___ 09:45 pm )

रिश्ता ही क्या है तेरा मेरा..?SocialTwist Tell-a-Friend

बेटियाँ...!!



ओस की बूंदों सी होती हैं बेटियाँ !
दिल से सलोनी ढोतीं हैं बेटियाँ !
दिल का मरहम भी होती है बेटियाँ !
दो कुलों की लाज होती है बेटियाँ !
कहते हैं करेगा नाम रौशन बेटा ही !
क्यूँ भूल जाते लगती है ठोकर उसी से !
अक्सर है भटकाता दर दर बेटा ही !
ना विधि का विधान ना दुनिया की रीत है !
लगती भार हैं यहाँ बहुतों को बेटियाँ !
वक़्त पड़े तो मरहम भी होती हैं बेटियाँ !
माँ की मासूम ममता सी होती हैं बेटियाँ !
वक़्त पर मित्र बहिन सी होती हैं बेटियाँ !
क्यों लगती भार यहाँ बहुतों को बेटियाँ !

__________जोगेंद्र सिंह ( 07 अप्रैल 2010 ___ 11:31 am )


बेटियाँ...!!SocialTwist Tell-a-Friend

क्या है मेरी पहचान..?



( यह चित्र मेरे द्वारा क्लिक किया गया है... वरली see face मुंबई पर...)

अब तक जो था" मैं "...
नहीं - अबसे वो " मैं " नहीं हूँ ~
कौन हूँ और क्या ही पहचान है मेरी,
कहाँ था मैं अब तक..हूँ कहाँ अब मैं,
क्यूँ छुपी पहचान है अब तक,
वे कहते हैं लोग "जोग" मुझे,
हूँ कहाँ अब जोग भी मैं,
हूँ जानता कहाँ अर्थ जोग का,
यह तो बस संजोग ही है,
कोई तो हो.. बता दे आकर,
अब जुड़ा दे जोग को संजोग से,
कोई और नहीं अब तू ही बता दे,
गुहार है मेरी तुझसे ऐ तारनहार,
आ बता सार्थक बना जीवन मेरा,
अब तक जो था" मैं "...
नहीं - अबसे वो " मैं " नहीं हूँ ~
कौन हूँ और क्या ही पहचान है मेरी,
कहाँ था मैं अब तक..हूँ कहाँ अब मैं...

__________जोगेंद्र सिंह ( 05 अप्रैल 2010 ___ 11:21 pm )


(( यहाँ इस चित्र का इस्तेमाल एक खालीपन एवं ऊहापोह वाली मनःस्थिति को दर्शाने के लिए किया गया है...जो कि ठीक इस चित्र कि भाँति खाली और वीरान है... सोच एवं हलचल रहित...))
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मेहमान मेरी आँखों के... !!

( ये फोटो मेरी अपनी क्लिक की हुई है...)


"नहीं मिल्कियत किसी एक की आँखों के ये हसीन लम्हे,

तेरी आँखों में हैं आज.. कल होंगे मेहमान मेरी आँखों के,

अश्क के मोतियों से चुकाते रहो इन्हे ब्याज के मानिन्द,

कल फिर होंगे मेहमान ये हसीन लम्हे महाजन के मानिंद !!"


______________जोगेंद्र सिंह ( 03 अप्रैल 2010 ___ 01:00pm )


(( इस फोटो में जो तराजू और उस पर रखा धोखेबाज़ बाट है... वो किसी कृपण महाजन की याद दिलाता है... किस प्रकार उसे किसी भी बात से मतलब नहीं होता... और हर बार आ जाता है धोखा देने या अपना ब्याज वसूलने... यहाँ हसीन लम्हे "महाजन" है और आँसू उससे पाए "ब्याज या धोखे" की तरह है... जो जीवन में अक्सर हमें मिलते ही रहते हैं...))
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नंगा सच जीवन का...

( dis photo is not clicked by me...)

ढह गयी वो दिशा भरभरा कर इक रोज़,
समझा जिसे अब तक प्राचीर के मानिंद,
दिखता है अब मुझे उस पार भी नज़ारा,
नंगा सच जीवन का छुपा था जाने कहाँ,
हैं बिलख रहे टिमटिमाते दिए जीवन के,
हैं शामिल सभी.. क्या ही बच्चे और बूढ़े,
तरसते क्षुधा चक्षु.. हैं ताक रहे इस ओर,
क्या सार्थक यही जीना है हम ऊँचों का..?
क्यूँ ना बढ़ते क़दम हमारे उस पथ ओर,
जो ठान लिया सहेजेंगे अब इक जीवन भी,
सोच देखो अब हैं कितने हम बदल पायेंगे,
तरसते क्षुधा चक्षुओं की क्षुधा मिटा पाएंगे,
ना है यह कहने की बात आओ कर दिखाएँ,
निकलकर खोखले बुनियादी चोले से अपने,
बना सकते हैं हम जाने कितनी बुनियादें,
देखो निकलकर बुनियादी चोले से अपने,
हैं बिलख रहे टिमटिमाते दिए जीवन के,
तरसते क्षुधा चक्षु.. हैं ताक रहे इस ओर,
आओ देखें बना कर एक नया जहां खुद से...

______________जोगेंद्र सिंह ( 04 अप्रैल 2010 ___ 11:53pm )

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सो कैसे सकता हूँ मैं...


अभी आया नहीं समय, आगोश में सो जाने का,

है करना संघर्ष बहुत सा, सो कैसे सकता हूँ मैं,

बहुत सी ज़रूरत है अभी ज़िन्दगी की मुझको,

जिंदादिली भी रहनी बन ज़रूरत संग है मेरे,

आ देख ले क़ज़ा भी आकर, होगा लौटना उसे भी,

अभी आया नहीं समय, आगोश में सो जाने का,

है करना संघर्ष बहुत सा, सो कैसे सकता हूँ मैं...

___________जोगेंद्र सिंह ( 02 अप्रैल 2010 ___ 09:14 pm )

( यह कविता मैंने अपनी एक ऐसी दोस्त के लिए लिखी है जिसने अपनी सारी आशाएँ कम कर रखी हैं... और इस कविता को लिखने के पीछे, उसमें जीवन की ऊर्जा भरना ही मेरा मकसद है... मैं चाहूँगा की वो अपने सारे नकारात्मक विचारों को अपने मस्तिष्क से निकाल फेंके और फिर से जी ले अपनी ज़िन्दगी...)

▬▬►दोस्तों◄▬▬ वो गंभीर बीमारी से ग्रस्त है...
▁▂▃▄▅▆ मेरी मित्र के लिए दिल से दुआ कीजिये ▆▅▄▃▂_
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पर बहते मेरी आँखों से क्यूँ हैं...


दिया है दर्द तुमने ही... क्यूँ ना अपनाते दर्द तुम भी...
पिसता रहूँगा मैं कब तक.. वफ़ा और ज़फ़ा के बीच...

है अजीब दास्ताँ.. अजीब सा ही सफ़र इन आंसुओं का,
भर गया है दामन बहते आंसुओं से अपने ही,
बख्श दी गयीं भीगीं पलकों को कुछ ओस की बूंदें,
कितना भीगीं पलकें.. अब क्या जान पाओगे तुम,
दामन तर है.. ना इलज़ाम है फिर भी तुझ पर,
हो जब दर्द भी अपना..कैसे होते आँसू उधार के..?
दिया है दर्द तुमने.. पर बहते मेरी आँखों से क्यूँ हैं...

______________जोगेंद्र सिंह ( 01 अप्रैल 2010 ___ 11:25 pm )

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जो है आज वो कल होगा कैसे...???


कलकल कर गिरते झरने की मधुर ध्वनि,
अब हुलराती उछ्लाती मन को है दिन रैन,
आती कहाँ से है जाती कहाँ को जल धार,
देखें उत्तर क्यूँ इसका.. क्यूँ ना देखें बीच,
खोने से पहले लहरों, भंवरों और सागर में,
निकलती जहाँ से छाप छोड़ जाती अपनी,
कनात वृक्षों की या होती बाकी हरियाली,
ना हो पाता सीधे से तो भीतर ज़मीन के,
करती उनको सिंचित जीवन धारा से अपनी,
विभीषिका हो बाढ़ सी तब भी है छोड़ जाती,
तत्व नवजीवन के मिटटी में चहुँ ओर,
करती ना भेद वह.. हो चाहे जीव या इंसान,
देती जल सबको ना किया बंटवारा है उसने,
क्यूँ करता है कलुषित मानव इस भाव को,
समझा सब कुछ पर क्यूँ उम्मीद दूजे से है,
क्यूँ ना बनता खुद पहला क्यूँ ना आगे आता,
जोह बाट दूजे की कब तक राह ताकेगा मानुष,
आ जाओ मिल जुल कर हम तुम करें एक नया,
आह्वान कि बचायें अब जल ही है जीवन अपना,
ना करो बर्बाद इसे तुम आज है कल को तरसेंगे,
सोचो... सोचो... ठीक से सोचो... अब जागो तुम,
दिन रैन हैं करते लिए बच्चों के हम लाख जतन हैं,
दे पायेंगे हम कैसे... जो है आज वो कल होगा कैसे...???

____________जोगेंद्र सिंह ( 30 मार्च 2010 ___ 04:50 pm )

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"झलक"...

((dis is my only daughter "Jhalak Singh"...
and i'm d photogrepher for dis pic...))

आती है अचानक फिर विलुप्त हो जाती,
है नाम "झलक" इस प्रक्रिया का,
सुना करते थे होती हैं परियाँ भी,
कैसी होतीं हैं.. सोचा करते थे,
आई इक नन्ही परी घर में अपने,
रहती थी फलक के किनारे पर,
आई जब तो हुआ यकीं हमें भी,
उतर आई ज़मीं पर कहने पापा मुझे,
सोती है वह यूँ बेखबर,
जी चाहा हो जाऊं सरोबार मस्तियों में,
कैसे जगाऊँ इस प्यारी निंदिया से उसे,
बस होता है फक्र खुद अपनी ही किस्मत पर...

____________जोगेंद्र सिंह ( 30 मार्च 2010 ___ 08:46 am )

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नहीं बस, यूँ ही...!!


नहीं बस,
यूँ ही...!!
सोच रहा था,
आज या फिर कल,
कम से कम एक बार,
बात कर लेता,
पर कोई बात नहीं,
मुझे पता है अच्छी तरह,
कि मेरे और उसके बीच,
कहीं कुछ ठीक नहीं होना,

फिर भी,
जो तू ठीक समझे.. कर,
ये तेरी लाइफ है,
मेरी प्रोब्लम्स मेरे ही साथ रहने दे,

जो मन में है,
उसके साथ ये भी पता है कि,
हकीक़त क्या है,

सपना सिर्फ देखने के लिए होता है,
जागने के बाद कोई सपना नहीं होता,
फिर तो वही सब होता है,
जिससे भाग कर सपना देखा था,

तू फिकर न कर..
मुझे आदत है,
अब तो पक्का भी हो गया हूँ,
चमड़ी भी मोटी होती जा रही है,
फीलिंग्स भी मरती जा रही थी,
पर तू आ गयी,
कोई बात नहीं..
अब थोड़ी सी तकलीफ और सही,
चलता है,
अब तो आदत सी हो गयी है,
ये ही तो होता है जीवन,

जाने दे,
तू ज्यादा ना सोच,
तू क्यूँ पतली होती है.. मेरे जैसे स्टुपिड के लिए,
अब तू ना ही सोच.. मेरे लिए,
अकेला था मैं.. मरना भी अकेले ही होगा मुझे,
अलविदा.............................................................
____________जोगेंद्र सिंह ( 27 मार्च 2010 ___ 09:45 pm )

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( दोस्तों जिसे आप कविता समझ रहे हैं वो कोई कविता या कोई साहित्य नहीं है... और न ही इसे किसी टिपण्णी ही की दरकार है... क्यूंकि मन की असली भावनाओं को सांत्वना के सिवा किसी और चीज़ की ज़रूरत नहीं होती... बस यूँही बैठे मन में अपनी ज़िन्दगी के ताज़े हालात आ रहे थे... सो वे सारे हालात लिख डाले, बिना किसी सुर-ताल के... जिस क्रम में वे आये उसी क्रम में लिखता गया, बिना उन्हें सजाए संवारे... गलती मुझसे यह हुई कि इसे पोस्ट क्यूँ कर दिया मैंने... लोग मन की बात छुपा कर रखते हैं... पर शायद कुछ "गधे" मेरे जैसे भी होते हैं, जो अपने ही हाथों अपने ही भावनाओं का मजाक उडवाते हैं... पर फिर भी "धन्यवाद" आप सभी का... कि चाहे किसी ने मेरे दिल को न समझा पर लोग मेरे करीब तो आये....)

nahin bas,
yun hi...!!
soch raha tha,
aaj ya fir kal,
kam se kam ek baar,
baat kar leta,
par koi baat nahin,
mujhe pata hai achchhi tarah,
ki mere aur uske beech,
kahin kuchh theek nahin hona,

fir bhi,
jo tu theek samjhe.. kar,
ye teri life hai,
meri problems mere hi saath rahne de,

jo man main hai,
uske sath ye bhi pata hai ki,
haqiqat kya hai,

sapna sirf dekhne ke liye hota hai,
jaagne ke baad koi sapna nahin hota,
fir to vahi sab hota hai,
jisse bhag kar
sapna dekha tha,

tu fikar na kar.. mujhe aadat hai,
ab to pakka bhi ho gaya hun,
chamdi bhi moti hoti ja rahi hai,
feelings bhi marti ja rahi thi,
par tu aa gayi,
koi baat nahin.. ab thodi si thklif aur sahi,
chalta hai,
ab to aadat si ho gayi hai,
ye hi to hota hai jeevan,

jaane de,
tu jyaada na soch,
tu kyun patli hoti hai.. mere jaise stupid ke liye,
ab tu na hi soch.. mere liye,
akela tha main.. marna bhi akele hi hoga mujhe,
alvida.............................................................
____________Jogendra Singh ( 27 March 2010 ___ 09:45 pm )

.
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अनकहा प्रेम...

( यह तस्वीर मेरी क्लिक की हुई है...)

जीवन में आ रही अब देरी जल्दी,
क्या खोना क्या ही कुछ पाना है,
आँखों से तेरी है जग सुन्दर सा,
अब है जाना और पहचाना भी,
विकल हो रही लहर मिल जाने को,
नहीं अकेली वो इस सागर में,
है वह जी रही सागर के संग,
पवन संग है प्रीत वो रखती,
सरसराती आती पवन,
गीत प्रेम के गाती पवन,
कैसे रहती चुप लहर भी,
आने लगी ध्वनी कल-कल,
अद्भुत नज़ारा इस प्रेम क्रीडा का,
मचलते रहे वे सारी रात,
अरमान दिलों से निकलते रहे,
हो रही अठखेलियाँ,
क्या जानते थे वे..
अब आनी है सुबह भी,
देख हकीकत लहर अपनी,
आ बैठी सकते से में,
कैसे भूली वह है जीना सागर के संग,
फिर चाहे हो अपना या ना भी हो,
टपक पड़ीं कुछ बूंदें नमकीन,
जो ढूँढा तो एक ना मिली,
खो बैठीं सागर तन में,
नहीं बस.. यूँ ही...!!
सोच रही थी,
आज या फिर कल,
कम से कम एक बार,
बात कर लेती पवन से,
पर कोई बात नहीं,
उसे पता है.. अच्छी तरह,
कि मेरे और उसके बीच,
कहीं कुछ ठीक नहीं होना,
फिर भी हो कब तक इंतजार,
हैं चुप ख़यालात अब उसके,
क्या कहती वह... बस "अलविदा"
हाँ अलविदा मेरे दोस्त मेरे हमदम...
________जोगेंद्र सिंह ( 28 मार्च 2010 ___ 11:44 am )

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शंख... !!

( Dis picture is clicked by me...)

संतान है सागर के सीने की,
तैरता रहता है जीवन भर,
जी पूरा लेने पर भी ऐ शंख,
काम तेरा मन मोहना है,
आँख हों या वे श्रवण इन्द्रियाँ,
रूप ये हैं दोनों मन भीने से,
आँख से दिखती सुन्दरता है,
श्रवण तंत्र का भी प्यारा यह,
फिर चाहे सजे थाल में पूजा के,
या लगे कमल "पुष्प" से होठों पर...
_______जोगेब्द्र सिंह ( 25 मार्च 2010 ___ 02:34am )

.
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कैसा है.. यह नाते पर नाता...?




कैसा है.. यह नाते पर नाता...?

निकल कर देखा.. अपनी माँ के उदर से उसने,
अनजानी.. कुछ मिचमिचाती अपनी आँखों से,
सारा जहान था दिख रहा अजनबी सा उसको,
लग रही माँ भी उसकी.. अजनबी सी उसको,
बना फिर इक नया.. माँ से पहचान का नाता,
फिर भी अकसर.. क्यूँ लगती माँ अजनबी सी,
गोद में जनम ले रहा.. नाता नया जनम के बाद,
है कैसी विडम्बना.. कैसा है.. यह नाते पर नाता,
बनने के बाद बनाना पड़ता.. फिर एक नया नाता,
है कितना अपनापन.. समाया होता इसमें भी,
हर रोज़ है आती.. एक नयी हरकत भोली मासूम,
जुड़ता हर रोज़.. एक नया अहसास भी...
है कैसी विडम्बना.. कैसा है.. यह नाते पर नाता,
बनने के बाद बनाना पड़ता.. फिर एक नया नाता...

_____जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 23 march 2010 ___ 04:41pm )

( कुछ लोग कहते हैं कि एक baby के लिए माँ ही सारी दुनिया होती है..... पर मेरा कहना है की यह सब बाद की बातें हैं... newly born baby को किसी और को माँ बना कर हवाले कर दो जो उसे माँ जैसा ही प्यार करे... फिर six month के बाद वो उसे ही अपना समझेगा, ना की अपनी माँ को... ऐसा ना होता तो कृष्ण को देवकी अपनी लगती और यशोदा परायी...वैसे मेरा ये देखा हुआ भी है कई बार, वो भी खुद अपनी ही आँखों से... आप चाहें तो आप भी try कर लीजियेगा, अगर कभी मौका मिले तो...)

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कैसा है.. यह नाते पर नाता...?SocialTwist Tell-a-Friend

नयी सोच.. नयी उछाल के साथ...

( यह तस्वीर मेरी क्लिक की हुई है... और इस कविता में अमन, प्यार और शांति के बिगुल की तरह शंख है... और पास ही में गहरे रंग का छोटा सा केंकड़ा बुराइयों के छोटे होते जाने का प्रतीक है...)

एक नयी सोच.. नयी उछाल के साथ,
जात-पाँत.. धरम-कटघरे,
छोड़ दुनियावी बातों को,
आओ बनायें जहान एक अपना सा,
थूका-थाकी.. झगडा.. गुल-गपाड़ा हैं यही सब,
हिस्सा इस दुनिया का..
हो न जाएँ लुप्त.. नज़ारे प्यार के,
आओ गीत प्यार के गा लें हम,
ना धरम होगा.. और ना होंगे उपासक उसके,
मिल जुल कर देखो कैसे.. उदय सवेरा कर लेंगे,
एक नया गीत.. नयी सोच.. नयी उछाल के साथ,
देखो होता शायद ऐसा ही होगा स्वर्ग कहीं,
कि आओ गा लें हम गीत प्यार का.
एक नयी सोच.. नयी उछाल के साथ...

__________जोगेंद्र सिंह ( 24 मार्च 2010 ___ 01:18am )

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