अंजाम-ए-दिल




 पीते हैं वे दर्द भागने को, मैं पीता हूँ दर्द बुलाने को..
फर्क बस नाम ही का है, अंजामे दिल जुदा नहीं होता..




_____जोगेंद्र सिंह "Jogendra Singh" ( 29 मई 2010_04:50 pm )





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बेवफाई

Bevafai (JPEG)


उन्हें भेजे थे कुछ गुलाब,
नज़रें इनायत हों इस चाहत में..
वापस लौटा गए मेरी देहरी पर,
वो उन चाहत के फूलों को..
है बेवफाई तुम्हारी, पर..
हमने इसे नज़रें करम समझा..
आज तक सहेजे बैठे है,
कि सूखे फूलों में अब खुशबु तुम्हारी है..

_____जोगेंद्र सिंह "Jogendra Singh" ( 28 मई 2010_05:49 pm )
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विरासत

Virasat (JPEG)
मेरी शर्ट का बटन तो लगा देना..
रुमाल, घडी या कुछ इसी तरह..
दिन की शुरुआत..
ऊंह.. घडी होना..!
यह भी एक सम्भावना है..
एक आम.. कुछ ज्यादा ही आम घर..
वही दो कमरे का घर.. टूटी चारपाई..
रस्सी बंधी कुर्सी की टांग..
टूटे-फूटे से तीन चार बच्चे..
दो-तीन साडी में गुज़र करती..
खुद को आया सा समझती माँ..
वे जानते ज़रूर हैं प्यार को..
पर मतलब समझने की फुर्सत ही किसे है..
फूँकनी से चूल्हे में फूँक मारते-मारते..
गैस तक का सफ़र जाने कब तय हुआ..
इस पर ध्यान किसी का न गया होगा..
घर से दफ्तर.. दफ्तर से घर..
अपने लिए कैसे जीना है..
यह समझ सीमाओं से परे की कौड़ी है..
काँय-किलबिल करते बच्चे..
हर रोज़ ठुकते बच्चे..
रोटी के टुकड़े पर भी लड़ जाते..
पानी वाली वाली चाय सभी को..
निपनिया दूध छोटे बेटे को..
ज़िम्मेदारी समझ..
बहनें इसे अपने हाथ से निभातीं..
दही एक कटोरी पानी में..
एक-एक चम्मच बँट जाता..
फोड़-फोड़ दाने दही के..
हो जाता पानी सफ़ेद शक्कर मिला..
खा जाते उससे रोटी सारी..
सब चाहें सुन्दर बेटी उसकी..
पर घर की ज़ीनत कोई न करता..
अपने से नीचा बेटी संग..
घर अपना भर लेना चाहे..
अंत समय बिस्तर पर बीते..
खाँसी बलगम जाने क्या क्या..
एक तरफ कौने में खड़ा..
रो रहा.. पा रहा बेटा..
शर्ट, बटन,रुमाल, घडी की विरासत..

_____जोगेंद्र सिंह "Jogendra Singh" (27 मई 2010_ 02:30 am )
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चिर-प्रतीक्षित कुहुक

Chir Pratikshit Kuhuk (JPEG)

गूँज उठी..
चिर-प्रतीक्षित कुहुक..
घुल गया शहद सा..
अरसे से भूली कुहुक..
हुलरा गया फिर सुनना तुम्हें..
याद है मुझे..
अपना बचपन..
अमराई के आते बौरों संग..
आता कोकिल स्वर तुम्हारा..
इस डाल तो कभी उस डाल..
स्वादु संगीत सा..
आता तुम्हारा स्वर..
और तुम...!!
डाली-डाली फुदक-फुदक..
नन्हे बालकों मध्य..
करती संगीत समारोह अपना..
सुर में तुम्हारे सुर मिलाते..
कुहू-कुहू करते बच्चे..
यही प्रसंशा थी शायद..
हाँ.. याद है मुझे..
मंद होता नीलाभ आकाश..
धूप चढ़े..
आरोह-अवरोह इक संग..
चमक सह..
मंदित होती नीली आभा..
मुन्दित पलकों की झिर्री से..
दीठ पड़तीं कृष्ण वर्णी तुम..
कौए और तुम में कभी फर्क न मिला..
पीछा किया सदैव कुहुक का..
दो-फुटी ऊंची मेंड खेत की..
दौड़-भाग अंतिम किनारे तक..
था डेरा वहीँ तुम्हारा..
अबके बौर ना आया..
तुम कैसे आती..
रत प्रतीक्षा में तुम्हारी..
सूने खलिहान..
सूनी हैं बागिया..
न थीं तुम शहर में..
गाँव भी अब तरसे..
बिन मिले कुहुक से..
कैसे पकेंगे आम..
कि अब स्वाद नहीं..
बेस्वाद हैं आम..


_____जोगेंद्र सिंह "Jogendra Singh" ( 26 मई 2010_05:00 pm )

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मुस्कराहट

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जाने क्यूँ पसंद है हमें... तेरे होटों की प्यार भरी मुस्कराहट...
जी कर चाहे ना सही.. मर कर ही सही.. तेरे आँसू की एक मुस्कराहट दे दे..

_____जोगेंद्र सिंह "Jogendra Singh" ( 24 मई 2010_10:04 pm )

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कविवर ::::: बन्धु या जंतु ::::: (व्यंग)


जंतु या बंधू यह एक ऐसा विचार है जो कविवर नामक प्राणी के बारे में जाने कितने दिनों से मेरे मन-मस्तिष्क में गर्दिश किये जा रहा है ! एक कवि जिसे समाज अस्पर्श्य माने बैठा है, क्यों है ऐसा ? क्यों उसे बन्धु नहीं वरन जंतु का सा दर्ज़ा मिला हुआ है ! क्यों उसे देखते ही भागने का सा मन हो आता है ? यूँही जन्मते ऊटपटांग विचार, बेतरतीब-बिखरे से !


पिछले कुछ समय से यही कीड़ा मुझे भी काट खाने लगा है ! अचानक एक चित्र पर नज़र पड़ गयी ( 30 जनवरी 2010 ) जिसमें अपने ओबामा जी एवं सरकोजी महोदय दोनों खड़े बड़ी ही ललचायी लपलपाती सी दृष्टि का इस्तेमाल करते पाए गए ! हुआ कुछ यूँ कि ओबामा साहब पास ही से गुज़रती एक सुन्दर काया वाली महिला के पृष्ठ भाग पर गिरे पड़े भूखे से दृष्टिपात कि मुद्रा में थे और साथ ही अपने परम पूज्य श्रीमान सरकोजी साहब भी उसी वस्तु को कुछ और मनचले अंदाज़ में निहारते पाए गए ! बस यही वह पल था जब मैंने सोचा कि कुछ तो अवश्य ही कहा जाना चाहिए ! थोड़े सोच विचार के उपरांत मन से जो निकला उसे यहाँ भी लिखे देता हूँ ◊▬►


"हर दिल में कुछ हैं अरमान..... निकल आते हैं कुछ इस क़दर..
जुबाँ से निकल पायें जो अल्फाज़..नज़रें ही बयाँ कर देती हैं उन्हें.."


तत्पश्चात यकायक ही लगा कि इसने तो शायद लघु कविता का सा रूप ले लिया है ! बस फिर क्या था लगे हाथ उसे अपनी फेसबुक वॉल पर भी चिपका डाला ! अगले कुछ दिनों में इसी प्रकार के कुछ काण्ड और भी कर डाले ! गलती से कुछ लोगों की टिप्पणियाँ क्या मिल गयीं और उनमें ज़रा तारीफें क्या मिल गयीं, लगा फूलने ! अरे भाई कौन है जो तारीफ के पुष्पों से खुशबू नहीं पाता ? पुराने ज़माने में तो राजा महाराजाओं ने इसी कार्य के लिए बाकायदा चारण और भाट रख रखे थे, कि कोई अन्य प्रसंशा करे करे खुद अपनी ही करवा लें ! परन्तु शायद मैं इस लेख के मूल मुद्दे से भटक रहा हूँ !


तो हुआ कुछ इस तरह कि मिल रही इन तारीफों ने इतना फुलाया कि खुदको अब समाज के इन्हीं विरले जंतुओं की जमात में खड़े पाया ! अजीब सी वास्तु होती है यह आत्मप्रसंशा भी ! जाने कहाँ से उठा कर कहाँ ला पटकती है ! अब योग्यताएं तो सीमित थी, नयी रचनाएँ लाता कहाँ से ? सो गूगल सर्च से कॉपी पेस्ट में लग पड़ा, साथ ही पाने लगा शाबाशी ! हवा भारती गयी, मैं फूलता गया ! इसी बीच जाने किस तरह कुछ कीड़े मेरे अंतर्मन में भी ज़गह बना कुलबुलाने लगे ! अब कुछ-एक बार मेरी कलम ने भी अपना जादू बिखेर दिया, तो दूसरों की रचनाओं का कॉपी पेस्ट बंद हो गया !


खुद की रचनाओं का असर हुआ कुछ इस क़दर कि लगा ढूँढने नए नए बकरे कि कोई तो फँसे और सुन कर कविता राग प्रसंशा का गाये ! एक-आध बार सुना बन्धु-मित्रों ने, तारीफ भी खेंच मारी, तदोपरांत जान बच-बचा सब घर को भागे ! और तो और हमारी जो अर्धांगिनी हैं, जिन्होंने शादी के हर फेरे संग लिए थे वादे, सुख-दुःख में साथ निभाने के, वादा तोड़ भागती नज़र आयीं वो भी ! हालाँकि नारीश्वर होने का कुछ नाजायज़ फायदा भी उठाया, पर कब तक ? मियाँ-बीवी में बात भी कम हो गयी ! सोचा.. कुछ तो गलत है, जो समझ से परे है, कि क्यों इस जंतु से जिसका नाम कविवर है, लोग दूर भागते हैं ! वह भी इस क़दर कि जैसे सच का कोई भूत ही देख लिया हो !


अब चूँकि यह कीड़ा बहुत अधिक काट नहीं पाया था, सो सुध-बुध शायद आने लगी ! इसी बीच मेरे देहली के एक मित्र ने अपने कवि रिश्तेदार के चर्चे मुझ पर आम कर दिए !बाप रे.. ऐसी ऐसी जानकारियाँ कि क्या बताऊँ ! अनगिनत ऐसी अजीब सी नवीन जानकारियों का पोटला साबित हुआ वह मित्र कि तौबा ही समझो ! अब जाकर पता चला कि आम मानव ने इस जंतु को देखते ही "जान बचाओ भागो लैंया-पैंया का मानसिक आदेश" क्यूँ पारित कर रखा है ! मित्रों अब सुनिए उनकी आत्मकथा जिसमें रंग मैंने अपने ही अंदाज़ में भरे हैं ताकि पाठकगण हास्यास्वादन भी कर सकें ! सुविधा के लिए उन्हें ताऊ कहकर बात करूँगा ! ◊▬►


अपने ताऊ किसी कॉलेज में प्रोफ़ेसर हैं ! ज्ञानी इतने की लगभग वे सारी डिगरियाँ प्राप्त कर डालीं उन्होंने, जिनके शायद नाम तक सुने हों मैंने ! याद रही तो बस एक "D-Lit", फिर ध्यान से देखा तो उच्चारण कुछ डिलीट की तरह का सा नज़र आया ! इनके बारे में जैसे जैसे जाना, वैसे वैसे ही महसूस होने लगा की क्यों लोग अपनी ज़िन्दगी से इन्हें "डिलीट" करने के चक्कर में संलिप्त रहते हैं !


कक्षा में लड़कियों को हिंदी पढ़ाते हुए बीच में अनायास ही आने वाले दौरों की तरह कहने लगते.. कि मेरी प्रिय छात्राओं इस पाठ के प्रसंग से पूरी तरह मेल खाती मेरी एक सुन्दर रचना सुनकर उसका रसास्वादन कीजिए ! बेचारी छात्रायें.. किससे जाकर रोयें दुखड़ा अपना ? कान भी तो बंद नहीं कर सकतीं, कि किसी तरह तो यह पिघला शीशा रुके कानों में उन्ड़ेले जाने से ! इसी कड़ी में कुछ सहशिक्षिकाओं ने पहुँचा दी शिकायत ऊपर तक ! कसमसा कर रह गए बेचारे ! कहें भी तो क्या कहें, नौकरी जाने का जो भय था ! घर आकर ताई ने भी क्लास ले डाली ! कहने लगीं.. "काम धाम तो कछु तुमपै होवै है नाहीं, बस छोरी-छापरिन कूँ कबिता सुनायेंगे ! अरे जनमजले हमें कहे भूखा मारत हो !"


फिर ताऊ को नया भूत चढ़ा, अपनी कविताओं का संग्रह छपवायेंगे ! बड़ी बात यह कि वाकई में जाकर एक अच्छा प्रकाशक जा छाप लिया, और आखिरकार खुद के खींसे से पूरे पच्चीस हज़ार रुपये उड़ा कर बाकायदा अपनी पुस्तक छपवा ही ली ! अब तो साहब जहां भी जाते चाहे खाने का टिफिन या पीने का पानी साथ हो हो परन्तु झोले में आठ-दस किताबें अवश्य ही पायी जाती थीं ! गलती से कोई प्रेम से बोल भी गया तो उसने समझो शामत ही बुला ली अपनी ! उत्कृष्ट कोटि की चार-छः कवितायेँ दे मारी गयीं बेचारे के दिमाग में, और साथ ही प्रेम से एक तोहफा भी पुस्तक की शक्ल में ! अपनी उल्टी कर ये ताऊ महोदय तो चलते बनते किसी नए बकरे की तलाश में, और ठगा सा श्रोता रह जाता पीछे हाथ में पुस्तकदान लिए !


पहुँच जाते यदा-कदा-सर्वदा प्रकाशक के डेरे पर और लगते पूछने कि ज़नाब हमरी कुछ पुस्तक बिकी के नाहीं ? शुरू में बेचारे ने लिहाज़ किया, परन्तु रोज़-रोज़ का हीला-हवाला लिहाज़ के लिए शायद तेजाब समान होता है ! सो भड़क उठे एक दिन और चिल्लाकर बोले, ले जाओ अपनी किताबें, एक भी नहीं बिकी, देख लो वो पड़ीं कोने में सारी की सारी, ले जाओ उठाकर ! अब जैसे-तैसे लौट तो आये वहाँ से, पर मरी सी रोनी सूरत देख ताई को शायदकुछ तरस गया !पूछने पर क्या कहते हैं.. चोर है एक नंबर का, मेरा सारा पैसा खा गया किताबें बेच-बेच कर, बस मुझे ही नहीं देता है ! छोडूंगा नहीं साले को !


कई बार अलग-अलग तरह की सनकें छूटती हैं ताऊ को ! गाहे-बगाहे दोस्तों की मदद भी करते रहते हैं, बदले में मित्रों को भरना होता है उनके कवितापाठ का ब्याज !एक बार अपने सभी फोकटिये मित्रों को चाय-नाश्ते पर आमंत्रित किया ! जब लगा कि पर्याप्त मित्र चुके हैं तो कहते क्या हैं.. "बंधुओं क्यों इस मित्र गोष्ठी को कवि संध्या में बदल दिया जाये" और शुरू हो गए अपनी एक रचना के साथ बिना किसी चेहरे के भाव देखे, किसी की सहमती भी ज़रूरी नहीं समझी ! मित्र अवाक्.. भिन्न-भिन्न दशाओं में बेचारे, किसी के हाथ में मुँह तक जाता बरफी का टुकड़ा तो कोई चाय का प्याला उठाने जा रहा था, कोई तो नमकीन का बुक्का भी मार चुका था ! जैसे ही यह मित्र गोष्ठी कवि-संध्या में बदली तो लगा जैसे सभी लकवे के मरीज़ हों, जिसकी जो स्थिति थी उसी में जम गया बेचारा !


बाहर से आते एक मित्र के कानों ने ताऊ का आखिरी जुमला सुन लिया था शायद, वहीँ से ऐसा अदृश्य हुआ जैसे कभी था ही नहीं ! एक नया बदनसीब जो शायद इन्हें ठीक से जानता तो था पर उससे गलती यह हो गयी कि बस ज़रा सा माथा आगे की ओर हुजका कर अपने चक्षुओं का इस्तेमाल भर कर लिया ! फिर क्या था जैसे ही पूरा मंज़र दिखा वैसे ही पलभर की दिखाई झलक भी गायब कर बैठा, और चम्पत होने को तैय्यार ! पर यह एक झलक शायद उसके जीवन की आखिरी गलती थी ! देख लिए गए वे भी, फिर पीछे से ताऊ की आती शहद घुली मधुर आवाज़ ! आहsssss क्या खिंचाव था, उन बेचारे को आना ही पड़ा ! मित्रों ने कुछ देर तो झेला जैसे तैसे, तत्पश्चात एक-एक कर उन्हें सारे काम याद आने लगे ! और तो और वे सारे काम भी जो खुद उन्होंने सोचे भी हों ! हायsssss एक-एक कर गायब होते मित्र, जैसे गधे के सर से सींग ! रह गया पीछे मुँह चिढ़ाता अधखाया-पीया चाय और नाश्ता !


शादियों में आतंकित से आमंत्रित करते लोग, आमंत्रित कर तो लेते पर यह कहते डरते कि आइयेगा सपरिवार ! कैसे कहें कि ताऊ बिन जो है वही है उन लोगों के लिए सपरिवार ! खैर जा पहुंचे सपरिवार, देखते क्या हैं सामने ही मिसेज नीना खड़ी हैं, जो उनकी सहशिक्षिका भी हैं ! गए उनके पास और झाँप लिया पल में ! इधर-उधर की आधी बात करके कहने लगे.. आपने मेरी नयी कविता सुनी है ? अचानक ही मिसेज नीना को उनके खाने की बड़ी फ़िक्र ही आयी, अरे प्रोफ़ेसर साहब ये मिठाई बड़ी गज़ब की है और गुलाब जामुन तो आपने खाए ही नहीं ! ऐंवे ही भरवा दी उनकी प्लेट ! फिर कहती हैं.. सरजी मैं अभी आयी, पर शायद ताऊ भी जानते थे कि जाने वाला भी कभी आया है लौट कर ? चल दिए दूसरा बकरा तलाशने के लिए !


गलती से एक बार किसी साहित्य विमोचन समारोह में आमंत्रित कर लिए गए ! भतीजी को साथ लेगए ! ज्योंही सभा का शुभारम्भ हुआ, अर्जुन के निशाने की तरह इनकी नज़र के बाणों का लक्ष्य भी एक ही ज़गह था ! निशाना थे वे दो हाथ जिनमें माइक लगा था ! गिद्ध भी मात खा रहे थे इस मामले में, जहाँ जहाँ से भी माइक गुज़रा, इनकी गिद्ध दृष्टि भी उसी अनुपात में घूमती रही, जैसे दृष्टि एवं माइक के मध्य कोई स्वचालित सा सामंजस्य हो ! जो आँखों से क़त्ल हो सकते तो सबसे ज्यादा क़त्ल के केस शायद अपने ताऊ पर ही चल रहे होते, संभव है कि इनके लिए अलग से विशेष न्यायपीठ का गठन भी करना पड़ जाता, कि सारे क़त्ल उन माइक वाले जैसों के ही हो रहे होते ! नैन जब असफलता का स्वाद चख चुके तब ताऊ ने अपने चरण कमलों को हरकत दी और हो गए अग्रसर माइक की ओर !


शुरू हो गया एक अघोषित युद्ध सा ! दोनों ही पक्ष अपनी-अपनी कोशिशों में थे ! ताऊ ने चाहा किसी तरह तो कब्ज़ा मिले माइक पर, पर जनता ज़नार्दन भी कुछ कम थी ! जहाँ-जहाँ से ये गुज़रे, माइक पहले सेही गुज़र चुका था, कभी इस हाथ में तो कभी उस हाथ में ! पर हार मान लें ऐसे कच्चे भी थे अपने ताऊ, आखिरकार झाँप ही लिया माइक, और लगे कहने.. इस आयोज़न के शुभ अवसर पर मेरी स्वरचित कविता की कुछ अनमोल पंक्तियाँ हैं जो यहाँ की परिस्थितियों से सौ फीसदी मेल खाती हैं और शुरू हो गए बिना किसी की परवाह किये ! वहीँ दूसरी ओर आयोजक जी ने घूर के देखा संचालाक जी को, आँखों ही आँखों में आदान-प्रदान हो गया सैकड़ों गलियों का ! इशारा समझ संचालक जी आगे आये और बीच मझधार में ही ताऊ से माइक लगभग छीन ही लिया एवं कहने लगे .....कितनी सुन्दर बात कही हमारे प्रोफ़ेसर साहब ने.....और अब हमारे मुख्य अतिथि .....Bla.Bla.Bla..... !! अपना सा मुँह लेकर लौटे ताऊ और वहीँ भीड़ में छुपी भतीजी अपना मुँह छुपाती फिर रही थी, कहीं किसी को पता चल जाये कि किसके साथ आयी है वह ! लेकिन जैसा कि हम लोग पहले ही जानते हैं कि ये जो जंतु है कविवर नाम का, इतनी आसानी से कहाँ मानने वाला है, लगे चिल्ला-चिल्ला कर भतीजी का नाम पुकारने ! अब बेचारी छुपे तो छुपे तो छुपे कैसे ? बस कसम खाकर सोचा कि बहुत खा लिया फ़ोकट का, पर अब और नहीं !


अमरिंदर कौर ( बदला हुआ नाम ) हाँ यही नाम है हिंदुस्तान के एक बड़े राजनेता की सुपुत्री का ! किसी तरह हो गया परिचय उनसे ताऊ का ! गए जाकर मिले दिल्ली में बंगले पर ! साथ ही कॉलेज से रीडर को भी ले गए ! दमदार सी एक कविता भी लिख ले गए थे पिताश्री पर और चिपका दी दोनों ज़गहों पर, पहले कानों पर फिर उनके हाथों में कागज़ के पुर्जे के रूप में, कि देखो कितनी सुन्दर रचना है तुम्हारे पिता पर ! बेचारी सभ्यता की मरी वो क्या जाने कैसा होता है यह जंतु कविवर ? बोली हाँजी पहुँचा दूंगी जी उन तक ! बड़े ही प्रसन्न मन से ताई को भी कह सुनाया अपना कारनामा ! ताई भी कम थी बोली लगे हाथों उनके हाथों प्रशंशापत्र भी लिखवा लेट अपने लिए ! कमाल देखिये.. सच में दोबारा पहुँच भी गए वो भी रेडार को साथ लेकर ! नयी कविता भी पुराने अंदाज़ में फिर से चिपका आये ! बेचारी अमरिंदर कौर क्या कहती ! झेल तो लिया ताऊ को जैसे तैसे परंतो तब से आज दिन तक ताऊ तरसते हैं सिर्फ एक तीसरी मुलाक़ात को भी ! संभव है कि गार्ड को भी ताकीद कर दी गयी थी इनके बारे में ! जब भी गए कभी मैडम नहा रही हैं तो कभी बीमार हैं, कभी सो रही हैं और यह भी नहीं तो बंगले में ही नहीं हैं !


और यदि दो जंतु एक साथ मिल जाएँ तो भई फिर तो कहने ही क्या ! देखिये कैसा बनता है उनके मिलन का मंज़र ! प्रारंभ बड़ा ही भावभीना एवं प्रेम से सरोबार होता है ! फिर दोनों अपनी अपनी गाना चाहेंगे ! ज़रा देर बाद मन ही मन एक-दुसरे के महाभयंकर शत्रु भी होंगे ! एक को मौका मिल गया तो समझो अपनी गाकर उसे अपने सारे काम याद जायेंगे ! भाषा भी प्रेम से लबालब कह रही होगी कि भैय्या आज तो कुछ काम निकल आये है परन्तु आपके सर्वोत्तम कार्य का रसास्वादन फिर कभी करेंगे ! आशा है आप मुझे ज़रूर कृतार्थ करेंगे ! पीछे छूटा कवि उम्मीद कर रहा होगा कि भोलेशंकर जी कुछ समय के लिए ही सही लेकिन अपना तीसरा नेत्र उधार दे दें !


अब क्या कहूँ.. कितना तरस आता है इस मजबूर से जंतु कविवर पर ! चाहे जीवन में एक मक्खी मारी हो पर इनके रौद्र रूप के दर्शन करने हों तो वे दुर्लभ नहीं हैं ! बस एक सिर्फ एक ही बार इनकी रचनाओं में कमी बताने की जुर्रत कर के तो देखें आप ! संसार का भयंकरतम प्राणी आपको इन्हीं में नज़र जायेगा !


सच मेरा तो मन भर आया ! आँखों से टप-टप आँसू भी बहने लगे हैं इनकी हालत पे ! बस एक आह्वान है ज़नता-ज़नार्दन से कि कुछ दयादान इन बेचारों पर भी करें ! आओ हम सब मिल जुल कर आज शपथ उठायें कि इस निरीह प्राणी ( कविवर ) को हम अपना कर्ण-दान करेंगे ! आखिर कुछ जिम्मेदारी ज़नता कि भी तो बनती है ताऊ प्रकार के निरीह भोले प्राणी के प्रति !!
बस इतना ही..!! इति..!!

_____जोगेंद्र सिंह ( 18 मार्च 2010 )

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