गुस्ताखी और नशा
आँखें तेरी दिल मेरा हो..गुस्ताखी तेरी दुखन मुझे हो..
नशा इश्क का कुछ हो ऐसा, बिन नशे फिर रहा ना जाये..
..जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh.. ( 31 जुलाई 2010 )
समय खपाई
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उठते सवाल..?
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उभरती सोच
@..मेरी समझ..@
आज और कल के बीच अधूरे सवाल छोड़ देना अथवा अनायास ही उनका छूट जाना फिर अनसुलझे प्रश्नों के उत्तरों को ठीक उसी प्रकार खोजना जैसे आज तक विद्वान एवं मनीषी मोनालिसा की मुस्कान का रहस्य समझने में लगे हैं.. क्या यह समय खपाई ज़रूरी है..? .....(.....जोगी.....)
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समय खपाई
आज और कल के बीच अधूरे सवाल छोड़ देना अथवा अनायास ही उनका छूट जाना फिर अनसुलझे प्रश्नों के उत्तरों को ठीक उसी प्रकार खोजना जैसे आज तक विद्वान एवं मनीषी मोनालिसा की मुस्कान का रहस्य समझने में लगे हैं.. क्या यह समय खपाई ज़रूरी है..? .....(.....जोगी.....)
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सिगरेट और आदमी
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उभरती सोच
@..मेरा ख़याल..@
सिगरेट का जीवन इंसानी जीवन से बहुत ज़ुदा नहीं है.. पहले उसे मुँह से लगा फिर टोटा जूते टेल रौंदा जाता है ठीक वही हाल इन्सान का भी है.. पहले पूजा जाता फिर काम निकल जाने के पश्चात् क़दमों तले रौंदा जाता है.. "दर है दो कौड़ी की.. आदमी अब है यही नियति तेरी".....
Babita Shroff : in such case jogi what should one do ?????............
Jogendra Singh जोगेंद्र सिंह : तुम्हारा सवाल मुश्किल है @ बबीता.. ये तो उसी समय की situation पर depended है....
Shailendrasinhji Sarvaiya : Jogisa'b! Ye tumne kadva sach kahe diya, kya yaar, kabhi to juth bola karo, radhekrishna!
Jogendra Singh जोगेंद्र सिंह : क्या करूँ ज़नाब झूठ बोलने की कोशिश तो बहुत करता हूँ पर बोल ही नहीं पाता,,,!!
Babita Shroff : bhakti,shakti aur yukti yadi ye teen tantra insaan apnaa le toh usse koi nahin raund sakta,,,.........
Jogendra Singh जोगेंद्र सिंह : अपना अपना सोचना है @ बबीता.. भगवान कृष्ण ने कोई यूँही शंख बजा कर कलयुग का आह्वान नहीं किया था.. आज सच से बड़ा झूठ है.. ईमानदारी से बड़ी भ्रष्टाचार की नियत है.. आज बाली से विजित होने के लिए राम को नाकों चने चबाने पड़ते हैं फिर भी राम नहीं जीत पाता, क्योंकि पहले की तरह आज के राम के हाथों में धनुष चलने का अधिकार नहीं है, और अदालतों में राम की फकीरी नहीं रावण के सोने की पूछ है..
Babita Shroff @jogi very true jogi fr such revolutions we need to work in a group ek akela insaan kuchh nahin kar sakta isiliye hum kahte hai na ki ''SANGCHHATVAM''need to be together....
राजेश शर्मा यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः ।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ॥
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम् ।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥
भावार्थ : यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और... मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते, तो भी हे जनार्दन! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिए क्यों नहीं विचार करना चाहिए?॥38-39॥
Braj Kishore Singh उपमा-उपमेय की अद्भूत छटा.
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सिगरेट और आदमी
सिगरेट का जीवन इंसानी जीवन से बहुत ज़ुदा नहीं है.. पहले उसे मुँह से लगा फिर टोटा जूते टेल रौंदा जाता है ठीक वही हाल इन्सान का भी है.. पहले पूजा जाता फिर काम निकल जाने के पश्चात् क़दमों तले रौंदा जाता है.. "दर है दो कौड़ी की.. आदमी अब है यही नियति तेरी".....
Jogendra Singh जोगेंद्र सिंह
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Babita Shroff : in such case jogi what should one do ?????............
Jogendra Singh जोगेंद्र सिंह : तुम्हारा सवाल मुश्किल है @ बबीता.. ये तो उसी समय की situation पर depended है....
Shailendrasinhji Sarvaiya : Jogisa'b! Ye tumne kadva sach kahe diya, kya yaar, kabhi to juth bola karo, radhekrishna!
Jogendra Singh जोगेंद्र सिंह : क्या करूँ ज़नाब झूठ बोलने की कोशिश तो बहुत करता हूँ पर बोल ही नहीं पाता,,,!!
Babita Shroff : bhakti,shakti aur yukti yadi ye teen tantra insaan apnaa le toh usse koi nahin raund sakta,,,.........
Jogendra Singh जोगेंद्र सिंह : अपना अपना सोचना है @ बबीता.. भगवान कृष्ण ने कोई यूँही शंख बजा कर कलयुग का आह्वान नहीं किया था.. आज सच से बड़ा झूठ है.. ईमानदारी से बड़ी भ्रष्टाचार की नियत है.. आज बाली से विजित होने के लिए राम को नाकों चने चबाने पड़ते हैं फिर भी राम नहीं जीत पाता, क्योंकि पहले की तरह आज के राम के हाथों में धनुष चलने का अधिकार नहीं है, और अदालतों में राम की फकीरी नहीं रावण के सोने की पूछ है..
Babita Shroff @jogi very true jogi fr such revolutions we need to work in a group ek akela insaan kuchh nahin kar sakta isiliye hum kahte hai na ki ''SANGCHHATVAM''need to be together....
राजेश शर्मा यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः ।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ॥
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम् ।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥
भावार्थ : यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और... मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते, तो भी हे जनार्दन! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिए क्यों नहीं विचार करना चाहिए?॥38-39॥
Braj Kishore Singh उपमा-उपमेय की अद्भूत छटा.
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सवाल और समस्या
Tuesday 27 July, 2010
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@..उठते सवाल..@
देश के सवाल और समस्या दोनों ही बड़ी किस्म के हैं.. हम, आप या पूरा देश लाख झक मार ले पर ये उच्च कोटि के रंगमंचीय अदाकार (नेतागण) ऐसे नहीं मानने वाले.. उसके लिए कुछ क्रांतिकारी क़दमों की आवश्यकता होती है.. और जैसा कि हम जानते ही हैं कि हर रोज़ एक क्रांति नहीं होती, एक स्वतंत्रता संग्राम जन्म नहीं लिया करता.. सो इन्हें झेले जाओ बस .....
.....(..जोगी..)
सत्येन्द्र कुमार bahut khoob jogindra bhai......
haan ek wyakaranik jaankari chahunga...ki kya सटीकता sahi bhaaw wachak sangya hai???
kripya ispar prakash dalenge...
Jogendra Singh जोगेंद्र सिंह ▬► सत्येन्द्र जी.. आज व्याकरण शायद उतनी बड़ी ज़रूरत नहीं रह गयी है जितनी कि बदलावकारी सोचों का उचित मस्तिष्क तक पहुँच पाना...... :)
सत्येन्द्र कुमार jogi ji soch apni jagah hai aur use jahir karne ka praaroop apni jagah..to jab praroop hi nahi bhala hoga to badlaawkari shabdo ke sanche kitne prabhawi honge ye aboojh nahi..!..haan kisi ek-wishesh ke liye apni daanyi aankh daba lena ham-a...p jaise shabdwanshi ko shobha nahi deta na.....
waise aajtak maine kahin "sateekta "shabd nahi padha tha...sach kahoon to mujhe bhi nahi pata ki ye sahi hai ya galat...
bas aapse jaankari chahi thi ki kya ye rojmarra ki bhasha me upyog ho rha hai....
kripya anyatha na le...
Jogendra Singh जोगेंद्र सिंह ▬► सत्येन्द्र जी.. अच्छा सवाल उठाया है आपने.. जिज्ञासा ज़रूरी है, और होनी भी चाहिए क्योंकि जिज्ञासा ही ज्ञान की ओर जाने वाला पथ है.. लेकिन जानकारी के लिए बता दूँ कि ऐसे बहुत से शब्द हैं जिनका आविष्कार इसी तरह मनमाने तरीकों से हुआ है.. स्थान...ीय निवासियों के वार्तालाप का अंदाज़ सदियों में भाषा के साथ नए शब्द जोड़ता चलता है.. सो गलत कुछ भी नहीं और मानो तो सब कुछ ही गलत है.. देखें तो कभी हिंदी नाम कि कोई भाषा थी ही नहीं.. इसे कई भाषों का सम्मिश्रण करके व्युत्पन्न कर दिया गया.. तो क्या हम इसे भाषा मानने से ही इनकार कर दें, जबकि विश्व कि आबादी का एक हद से अधिक बड़ा हिस्सा इसी को अपने भावों के आदान-प्रदान का माध्यम बनाये बैठा है..?
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बेलगाम महत्वाकांक्षायें
@ उभरती सोच @
बेलगाम महत्वाकांक्षायें पूरी तरह से वर्तमान युग को सटीकता से परिभाषित करती हैं.. अधूरी असम्भाव्य महत्वाकांक्षाओं से पार पाना आज के दौर में लाईलाज रोग का सा दर्ज़ा पा चुका है.. इनसे पार पाने के बदले इन्हीं के दलदल में और गहरे धँसते जाना बेवकूफों की नियति बनती जा रही है.. कोई नहीं समझता कि वस्तुस्थिति जो आज है कल बदल भी सकती है, तब क्या करोगे..? है कोई ज़वाब..?
.....(..जोगी..)
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मानसिक जुड़ाव
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उभरती सोच
@..एक सोच..@
किसी को जानने के लिए साथ की ज़रूरत होती है..
सिर्फ साथ ही नहीं उससे मानसिक जुड़ाव की भी आवश्यकता होती है..
कुछ समयोपरांत आप कह ही नहीं सकते की कोई आपको या आप किसी को ठीक से समझ ही नहीं पाए.....
...(..जोगी..)
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बता ऐ ज़िन्दगी..!!
Thursday 22 July, 2010
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कविता कोष
बता ऐ ज़िन्दगी..!!
पृथक सा हर ज़गह रूप तूने पाया क्यूँ है..?
ले सवाल हर कोई तेरे पास आया क्यूँ है..?
ओस की बूंदों सी छलना दिखती क्यूँ है..?
पल भर की झलक फिर ओझल होती क्यूँ है..?
जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 22 जुलाई 2010_11:34 am )
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स्मृति समंदर
Wednesday 21 July, 2010
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कविता कोष
बंद पलकों भीतर समाया है स्मृति समंदर..
अतीत के वे अनछुए पन्ने बन जिल्द पड़े हैं..
हर रोज़ समेट लाता है इक लम्हा ऐसा भी.
कर देता है जो साकार अनबनी बूंदों को भी..
जोगेंद्र सिंह Jogendra singh ( 21 जुलाई 2010_08:11 pm )
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श्यामल मुख
Tuesday 20 July, 2010
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कविता कोष
: श्यामल मुख :
तिरछा, अल्प सा सामने की ओर..
कुछ घूरता सा..
नज़र आ रहा इक चक्षु तुम्हारा..
दूजा छुपा केश-लता के पीछे..
स्वेत-धवल विशाल चक्षु..
हो रहा शुशोभित श्यामल मुख पर..
है विराजमान धवल पृष्ठ के मध्य ..
नेत्र सितारा तुम्हारा..
ऐसा प्रतीत होता मानो..
किया दृष्टिपात तुमने मुझ ही पर है..
एकटक-निष्कटक सीधा दृष्टिपात..
देख तुम्हें..
सन्न सा संज्ञा शून्य हो गया हूँ मैं..
मूर्ती सा खड़ा मैं अविचल..
ओंठ चुप-चुप से हैं मगर..
लग रहा कुछ कहने को हैं आतुर..
हो रहा प्रतीत ऐसा मुझे..
है दबा रखा ओंठों मध्य कुछ..
आओ.. समझा दो तुम मुझे..
निशब्द की शब्द भाषा..
समायी अनजानी पहचानी सी..
नेत्रों में इक अभिव्यक्ति..
है कामना समझना तुम्हें..
एक ही मुख में क्यूँ हैं इतने भाव..?
आँखें कह रही आक्रोश को..
तथासमय देती उच्छ्रंखल चंचल हँसी का भाव भी..
अनूठा जान पड़ता सम्मिश्रण द्वि-भावों का..
मुख-वसन-केश तीनों श्याम..
श्याम-श्याम का मेल..
मनभावन मनमोहना रूप तुम्हारा..
अवांछित सी वांछना..
खींच लायी मोहे तुमरी ओर..
काहे आता मैं तुम ओर..?
नहीं आना था तिहारे देश..
फिर ऐसा क्या हुआ..?
क्यूँ आया मैं तुम्हारी ओर..?
कर देखे मैंने लाख जतन..
खा देखी ढेरों कसमे भी..
सिफ़र नतीजा पाया तब भी..
उफ़ क्यों देखा मैंने तुम्हें..?
क्यों जोड़ा खुदसे तुम्हें..?
अब ना कहूँ तब भी तुम बिन..
यह जीवन व्यतीत करूँ कैसे अपना..?
एक मन कहता न आओ पास चली जाओ..
नहीं विजित हो पाता मन मेरा..
होकर विलग तुमसे..
लगता मरण ज़ीने से बेहतर..
आ जाओ, अब आ भी जाओ..
हो चुका हूँ पराजित सोच से भी..
कब तक दौड़ूंगा मैं खुद ही से..
अंतर नहीं आता 30 दिवस अथवा 30 बरस से...
राह में तेरी अपना..
कर दिया अर्पित जीवन सारा..
आ जाओ, प्रतीक्षारत हूँ सदैव तुम्हारे लिए..
तुम्हारा..जोगेंद्र सिंह..
Jogendra Singh ( 20 जुलाई 2010_07:07 pm )
Note :- कल एक चित्र देखा जिसका अन्य रूप बहुत पहले ही देख चुका था, यह कविता उसी देखने का परिणाम है.. विचारों में कहीं एक सच्चाई भी दबी पड़ी है.. मन के भाव शायद ऐसे ही होते हैं..
इस रचना के बन जाने के पीछे उस चित्र के आलावा किसी और वज़ह की भागीदारी नहीं है.. वह है ही ऐसा कि उस पर मन कि गहराइयों से पुकार निकले बगैर रह ही नहीं सकती.. Zankari ke liye bata dun ki ye vah chitr nahin hai jise dekh maine apni kavita likhi hai.. That is a real life face..
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ममता और सत्य
Friday 16 July, 2010
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उभरती सोच
@ एक सोच @
दूसरों के लिए मन में ममता का भाव और अपने अंतरतम में सत्य का वास हो तो बाकी की सभी गलत बातें स्वयं ही अपना स्वरुप बदलने लगती हैं..
...जोगी..
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मुद्रा प्रतीक
Thursday 15 July, 2010
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उठते सवाल..?
तक़रीबन सभी देशों के मुद्रा प्रतीक देखने दिखने लायक हैं.. जाने कितने लोगों की मेहनत और एक लम्बे रिसर्च के पश्चात् जब डिजाईन निकला भी तो क्या..? ढेंडस..?
हिंदी या संस्कृत में हम "र" लिखते हैं.. इसे ऐसा लिखना सदियों से चला आ रहा है.. एक आड़ी लाईन मार देने भर से इसे सिम्बौल का दर्ज़ा दे दिया गया.. नया क्या किया..? कमाल है..
मेरी समझ में जब आप कुछ करने जा रहे हैं और वो सदियों तक के लिए हो तो उसे कुछ हटकर और ऐसा होना चाहिए कि एक ही नज़र में भा जाये साथ ही सादापन भी हो.. लेकिन जो मुद्रा प्रतीक बनाया गया है वह मुझे किसी भी कोण से अद्वितीय नज़र नहीं आता..
भाई जब यह अच्छा है और आसन ही है तो इस आसानी में इतने बरस या महीने क्यूँ लगे..? मानव और संसाधन दोनों का इतना हर्जा क्यूँ किया गया.. और जैसा कि सरकारी कामों में होता है, धन भी भरी मात्रा में खर्च हुआ ही होगा.. जब कुछ तोप सा नहीं कर सकते तो इतने झमेले क्यूँ..? सादा लेकिन सुन्दर और भी हो सकता है जो इससे भी अधिक खूबसूरत हो सकता है.. लेकिन कोई बात नहीं हमें तो आदत है..
....(..जोगी..)
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मॉडर्न चुड़ैल
Monday 12 July, 2010
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कविता कोष
मॉडर्न चुड़ैल ©
चुड़ैल के घर बच्चा हुआ..
हे भगवान् यह क्या हुआ..
मादा चुड़ैल का नवागमन हुआ..
बड़े होते खेल रहे बच्चे..
खेलती उन संग मॉडर्न चुड़ैल..
भोज़न संग खिलंदड बनी..
बच्ची है सोचा नर-मादा चुड़ैल ने..
बड़ी है आज यह मॉडर्न चुड़ैल..
माँ ने कहा एक बार ले खाना खा ले..
डाईट प्रोग्राम पर है मॉडर्न चुड़ैल..
माँ कहती है कलंक पेड़ पर..
एक बार मिली इक आदमी से..
फैशन की मारी नयी चुड़ैल..
लगा भागने आदमी लैंयाँ-पैंयाँ..
बोलती क्या है..?
न भाग तू ऐ आदमी..
मैं आज डाईट पर हूँ..
बाप दादा कोस रहे होंगे उसको..
वंश चुड़ैल का लज़ा दिया..
क्या कलंक पैदा हुआ पेड़ पर..
भूतों ने कहा बगल के दरख़्त से..
अरी कंट्रोल रख जुबान पर..
क्या कर रही है तू..
नहीं जानती क्या खो रही है तू..
ना मानी बात, मॉडर्न जो है..
खुश आदमी अगले दिन भागा नहीं..
कहता है..
क्या आज फिर डाईट पर हो..?
क्या जाने बेचारा..
था आखिरी यह प्रश्न उसका..
आज नहीं कोई डाईट आयोज़न..
खीं-खीं करके हँस पड़ी चुड़ैल..
नहीं मर सकती हर दिन भूखी..
माफ़ करना आज आजा..
कल होगी फिर से डाईट की बारी..
हीहीही..हाहाहा..होहोहिओ..
जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 12 जुलाई 2010_11:52 pm )
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हिन्दुस्तानी नायिका
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कविता कोष
भोर के धुंधलके संग निकल रहा सूरज..
अहसास करा जाता मेरा उसको..
ख्वाब सजा देता रिक्त-सिक्त से नयनों में..
संज्ञान है उसे मेरे होने का फिर भी..
बैठी है बन अज्ञानी अंधी-बहरी नायिका..
श्रृंगार की मनोकामना से वांछना संग टकटकी लगा..
वह ताकना नायक को नायिका का..
जाने क्या सूझा आज उसे..कहती वह नायक से..
आओ तनिक श्रृंगार कर दो तुम मेरा..
माँग बैठी चाँद, तारे, सूरज सब कुछ..
बेसुरे से कहती..
प्रेम भरे गीतों को भर दो मेरे घुंघरू के भीतर..
कहने लगती रंग दो आँचल मेरा तुम..
प्रेम सुधा बरसाकर करो उसे तुम रतनार..
क्या करूँ..?
सहज उपलब्ध संसाधनों से विरक्ति दिखा..
असहज प्रतीकों से स्वयं को अलंकृत करने की चाह..
सच एक विलग सी काल्पनिक सृष्टि दर्शा जाती है..
कैसे करूँ..? नायक सोच रहा, चाँद-तारे लाने जो हैं..
प्रेम समझ आता है..चाँद, तारे, सूरज जा मैं लाऊँ कहाँ से..?
सुन इतर अपने सपनों से बात मेरी..
हो आक्रोशित..कह उठती वह..
ना लाते तो क्यूँ आते तुम पास मेरे..?
ना कर सकते तो प्रेम का दम क्यूँ भरते हो..?
कर बैठा वादा बेबस बेचारा नायक बेतुकी सी माँगों का..
नायिका जाने किस जनम का निकाल रही है बदला..
माँगा जैसे तुमने शब्दों सह,
क्यूँ न होती संतुष्ट वैसे ही शब्दों का चोला ओढ़..?
हा हन्त..!! क्या होगा कल ? जब ना होगी पूरी माँग उसकी..
ले चला व्यथित मन अपना, हो अगले ताने को प्रतीक्षित..
संज्ञान में भरा है सब उसके, संज्ञा-शून्य बस इक मैं ही हूँ..
क्यूँ न कर लेती वह काल्पनिक माँग और काल्पनिक उसकी पूर्ती..
वाह रे आधुनिका पर माँग से पुरातनपंथी हिन्दुस्तानी नायिका..
जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 11 जुलाई 2010_11:52 pm )
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आग..
Sunday 11 July, 2010
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कविता कोष
धधक उठी है आग हमारे सीने में..
लगाते हो तुम भी, लगाते वो भी हैं..
फर्क हुआ तो बस इतना सा ही..
इक आग ज़लाती सीना है..
दूजी आग बदलती प्रारब्ध है..
लगाते हो तुम भी, लगाते वो भी हैं..
फर्क हुआ तो बस इतना सा ही..
इक आग ज़लाती सीना है..
दूजी आग बदलती प्रारब्ध है..
जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 11 जुलाई 2010_01:30 pm )
Photography by : Jogendra Singh
Location : My home at Bharatpur ( Rajasthan ) ( 06-06-2010 )
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पागल..
Saturday 10 July, 2010
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कविता कोष
ना बहलाता हूँ दिल अपना..
ना समझाता हूँ मैं खुद को..
जग कहता हूँ मैं पागल..
मुझको लागे जग दीवाना..
हूँ मैं बातों से दीवाना..
वो हैं दीवाने दौलत के..
वो कहते जीता मैं सुध बिन..
बिन सुध दौड़ लगाते वो भी..
जग कहता हूँ मैं पागल..
मुझको लागे जग दीवाना..
_____जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 10 जुलाई 2010_08:20 pm )
Photography by : Jogendra Singh
Location : Railway Over Bridge, Vasai ( Mumbai ) ( 01-7-2010 )
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ज़िन्दगी..
Thursday 8 July, 2010
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कविता कोष
दौड़ती भागती ज़िन्दगी..
खुद ही में सिमटी ज़िन्दगी..
क्या कहूँ मैं...?
कभी न सुनने वाली ये ज़िन्दगी..
आते-जाते रोटी तलाशती ये ज़िन्दगी..
न मिले कभी तो भूखी ही सो जाती ये ज़िन्दगी..
जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 08 जुलाई 2010_10:17 pm )
Photography by : Jogendra Singh
Location : Worli Naka ( Mumbai ) ( 12-04-2010 )
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ऑनर-किलिंग
Monday 5 July, 2010
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कविता कोष
मैं तेरे गर्भ में पली हूँ माँ..
नौ माह फिर बरस बीस..
खुद का जीवन गुजरने निमित्त..
हक क्यूँ नहीं है मुझे..
फैसले लेने का..?
गया कहाँ लाड-दुलार तुम्हारा..?
लिया जो कोई फैसला गर मैंने कहीं..
अपने फैसले संग..
आज पड़ी हूँ मिटटी पर..
मिटटी बन जाने निमित्त..
कहाँ हैं तेरी वे लोरियाँ..?
क्यूँ झूठ कहा तुमने..?
क्यूँ ख़त्म करी तूने..
इहलीला मेरी..?
दिल भी न पसीजा तेरा..
क्यूँ आते हैं माईक-मीडिया वाले..?
क्यूँ नाम धरा ऑनर-किलिंग इसका..?
छोटे चोर को तुम चोर कहते..
फिर क्यूँ होता है फर्क हत्या-हत्या में..?
हत्या का दोषी हत्यारा है..
क्यूँ पाता मुझ मासूम का दोषी..
किलिंग संग ऑनर भी..?
मारी जाती थी मैं गर्भ में..
अब भी बात वही है..
पहले गर्भ में, अब मारी जाती हूँ बाहर भी..
जोगेंद्र सिंह "Jogendra Singh" ( 05 जुलाई 2010_04:53 pm )
▬► पारिवारिक ईज्ज़त के ढकोसले के नाम पर सजातीय व विजातीय विवाहों की परिणिति वीभत्स हत्या के रूप में होती है ! मीडिया भी अपनी सही भूमिका भूल कर इसे "ऑनर-किलिंग" जैसा नाम दे देता है ! क्यूँ भाई इसमें ऑनर जैसी क्या बात है ! जैसे बड़ा कारनामा है यह !
▬► अरे जब चोर को चोर और पॉकेटमार को पॉकेटमार कहते हैं तो इन हत्याओं के दोषियों को सम्मान-ज़नक उपमान क्युओ..? इनका इन्तर्विएव लिया जाता है जैसे कितना बड़ा कारनामा कर आये हों !
▬► पुलिस दाम लेकर इनका ऑनर कर देती है, बदले में प्रेरणा पाकर ये या कोई नया ऑनर-होल्डर फिर एक नया कारनामे को अंजाम दे आते हैं !
▬► कब तक होगा यह सब..? कब तक क़ानून हाथ पर हाथ धरे बैठा रहेगा..?
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"बंद का आह्वान" ..क्या सच में ज़रूरी है..?
Saturday 3 July, 2010
- By Unknown
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गंभीर लेख (Articals)
जनता से 05 जुलाई 2010 को पूरे भारत में कथित नेताओं के द्वारा मंहगाई के विरुद्ध बंद का आह्वान किया गया है ! यह क़दम क्या वाकई मंहगाई के खिलाफ है..? ज़बरदस्ती के ये नेता और आँखें मूंदे उनका अनुसरण करने वाली जनता क्या यह बात जानती है कि सिर्फ एक दिन के बंद से भी देश की अर्थव्यवस्था को अरबों रुपयों का गंभीर आघात पहुँचता है..? हाल-फिलहाल होने वाले बंद की जड़ पेट्रोल पर बढे दाम हैं जिसे जाहिरा तौर पर लागू सब्सिडी को हटाने की दिशा में उठाये गए एक सकारात्मक क़दम के रूप में लिया गया है ! जनता-जनार्दन क्या यह बात नहीं जानती कि कोई भी अर्थव्यवस्था सब्सिडी या मिली छूटों के बल पर नहीं चल सकती..? मिसाल के तौर पर कुछ वर्ष पूर्व विघटित हुए सोवियत संघ से बेहतरीन उदाहरण और क्या हो सकता है !
निश्चित कालांतर के पश्चात या थोड़े और लम्बे समय के बाद दी गयी इस तरह की सब्सिडी अपने असर दिखने लगती हैं, और देश कि अर्थव्यवस्था पतन के गर्त की ओर धसकने लगती है ! आखिर घाटे की व्यवस्था टिकेगी भी कब तक..? दूसरी तरफ नेतागण अपने भविष को सँवारने का सुनहरी मौका जान बंद, तोड़-फोड़ और जाने कितने राष्ट्रघाती कदम शान से उठाते नज़र आते हैं ! जैसी की हमारी भोली जनता (यहाँ भोली शब्द व्यंग्य से इस्तेमाल किया है) की आदत है, उसे हमेशा जानवरों की तरह हाँके जाने की बुरी लत नशे की तरह से पड़ चुकी है ! जब तक दिशा न दिखायी जाए उसे चलना ही नहीं आता..!! फिर चाहे दिशा में भ्रम ही क्यों न भरा हो ..!!
यह जो देशव्यापी हड़ताल और बंद वगैरह आयोजित किये जाते हैं, इनका औचित्य अगर कोई समझा सके तो सच बड़ा आभार होगा उसका ! करोड़ों लोग इन हरकतों से प्रभावित होते हैं ! अनगिनत गरीब ऐसे होते हैं जिन्हें रोज़ खोदो रोज़ निकालो वाली स्थिति मारे डालती है.. इस महान दिन पर उन्हें सपरिवार भूखे ही सो जाना पड़ता हैं ! बेचारे मासूम मजदूरों का क्या कसूर है जो इस दिन की दिहाड़ी उन्हें नसीब नहीं होती..? परिवहन के लाखों माध्यम और हर तरह के उद्योग-धंधे बंद पड़े होते हैं, जाने कितना नुकसान सिर्फ एक दिन के बंद से ही हो लेता है ! चाहे सामन की ढुलाई हो या यात्री ढुलाई सभी बंद नज़र आते हैं ! कोई मरे या जिये बंद के इन ठेकेदारों को तो मंहगाई कम करवानी है ! कैसे होगी इसे वे खुद भी नहीं जानते, परन्तु बंद का आह्वान ज़रूर होगा, क्योंकि यह उनका जन्मसिद्ध अधिकार है !
जनता कब समझेगी कि उनके लिए उठाये जाने वाले सही क़दम ये सब नहीं है बल्कि इन कथित अगुवाओं को दरकिनार कर सीधे तरीके से हल निकले जाने कि आवश्यकता है ! जितने भी विक्सित देश हैं वहां हर बात का एक कायदा तय हो चुका है और यह कोई एक दिन की कवायद का नतीजा नहीं वरन दशकों के प्रयासों का परिणाम है ! मैं कोई नीति-निर्माता नहीं हूँ सो सटीक हल मेरे पास भी नहीं है परन्तु जनता में भी भरे पड़े हैं ऐसे लोग जिनके प्रयासों से शायद कुछ सकारात्मक हल निकल पायें ! लेकिन यहाँ फुर्सत है भी किसे..? यहाँ भी हमारी सड़ी-गली मानसिकता आड़े आ जाती है.. मैं क्यूँ किसी और के लिए मेहनत करूँ..? मेरे काम का फायदा कोई और क्यूँ उठाये..? और परिणिति में सारे ही हाथ पर हाथ धरे बैठे नज़र आते हैं ! हमारे देश में अधूरे सवालों का बड़ा चलन है सो यहाँ एक और सही.. क्या फर्क पड़ता है..?
जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 03 जुलाई 2010_07:12 pm )
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