"बंद का आह्वान" ..क्या सच में ज़रूरी है..?


जनता से 05 जुलाई 2010 को पूरे भारत में कथित नेताओं के द्वारा मंहगाई के विरुद्ध बंद का आह्वान किया गया है ! यह क़दम क्या वाकई मंहगाई के खिलाफ है..? ज़बरदस्ती के ये नेता और आँखें मूंदे उनका अनुसरण करने वाली जनता क्या यह बात जानती है कि सिर्फ एक दिन के बंद से भी देश की अर्थव्यवस्था को अरबों रुपयों का गंभीर आघात पहुँचता है..? हाल-फिलहाल होने वाले बंद की जड़ पेट्रोल पर बढे दाम हैं जिसे जाहिरा तौर पर लागू सब्सिडी को हटाने की दिशा में उठाये गए एक सकारात्मक क़दम के रूप में लिया गया है ! जनता-जनार्दन क्या यह बात नहीं जानती कि कोई भी अर्थव्यवस्था सब्सिडी या मिली छूटों के बल पर नहीं चल सकती..? मिसाल के तौर पर कुछ वर्ष पूर्व विघटित हुए सोवियत संघ से बेहतरीन उदाहरण और क्या हो सकता है !


निश्चित कालांतर के पश्चात या थोड़े और लम्बे समय के बाद दी गयी इस तरह की सब्सिडी अपने असर दिखने लगती हैं, और देश कि अर्थव्यवस्था पतन के गर्त की ओर धसकने लगती है ! आखिर घाटे की व्यवस्था टिकेगी भी कब तक..? दूसरी तरफ नेतागण अपने भविष को सँवारने का सुनहरी मौका जान बंद, तोड़-फोड़ और जाने कितने राष्ट्रघाती कदम शान से उठाते नज़र आते हैं ! जैसी की हमारी भोली जनता (यहाँ भोली शब्द व्यंग्य से इस्तेमाल किया है) की आदत है, उसे हमेशा जानवरों की तरह हाँके जाने की बुरी लत नशे की तरह से पड़ चुकी है ! जब तक दिशा न दिखायी जाए उसे चलना ही नहीं आता..!! फिर चाहे दिशा में भ्रम ही क्यों न भरा हो ..!!

यह जो देशव्यापी हड़ताल और बंद वगैरह आयोजित किये जाते हैं, इनका औचित्य अगर कोई समझा सके तो सच बड़ा आभार होगा उसका ! करोड़ों लोग इन हरकतों से प्रभावित होते हैं ! अनगिनत गरीब ऐसे होते हैं जिन्हें रोज़ खोदो रोज़ निकालो वाली स्थिति मारे डालती है.. इस महान दिन पर उन्हें सपरिवार भूखे ही सो जाना पड़ता हैं ! बेचारे मासूम मजदूरों का क्या कसूर है जो इस दिन की दिहाड़ी उन्हें नसीब नहीं होती..? परिवहन के लाखों माध्यम और हर तरह के उद्योग-धंधे बंद पड़े होते हैं, जाने कितना नुकसान सिर्फ एक दिन के बंद से ही हो लेता है ! चाहे सामन की ढुलाई हो या यात्री ढुलाई सभी बंद नज़र आते हैं ! कोई मरे या जिये बंद के इन ठेकेदारों को तो मंहगाई कम करवानी है ! कैसे होगी इसे वे खुद भी नहीं जानते, परन्तु बंद का आह्वान ज़रूर होगा, क्योंकि यह उनका जन्मसिद्ध अधिकार है !

जनता कब समझेगी कि उनके लिए उठाये जाने वाले सही क़दम ये सब नहीं है बल्कि इन कथित अगुवाओं को दरकिनार कर सीधे तरीके से हल निकले जाने कि आवश्यकता है ! जितने भी विक्सित देश हैं वहां हर बात का एक कायदा तय हो चुका है और यह कोई एक दिन की कवायद का नतीजा नहीं वरन दशकों के प्रयासों का परिणाम है ! मैं कोई नीति-निर्माता नहीं हूँ सो सटीक हल मेरे पास भी नहीं है परन्तु जनता में भी भरे पड़े हैं ऐसे लोग जिनके प्रयासों से शायद कुछ सकारात्मक हल निकल पायें ! लेकिन यहाँ फुर्सत है भी किसे..? यहाँ भी हमारी सड़ी-गली मानसिकता आड़े आ जाती है.. मैं क्यूँ किसी और के लिए मेहनत करूँ..? मेरे काम का फायदा कोई और क्यूँ उठाये..? और परिणिति में सारे ही हाथ पर हाथ धरे बैठे नज़र आते हैं ! हमारे देश में अधूरे सवालों का बड़ा चलन है सो यहाँ एक और सही.. क्या फर्क पड़ता है..?

जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 03 जुलाई 2010_07:12 pm )
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