हाँ बूढा हूँ, पर अकेला नहीं
Friday 27 August, 2010
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कविता कोष
दिन का हौले चुपके से..
ढलते चले जाना..
क्षितिज रेखा से झाँकना सूरज का..
छिटका रहा सूरज..
रक्ताभ बसंती आभा..
रुई के फाहे सम आसमान पर..
तैरना वह बादलों का..
क्षितिज के किसी कौने से..
उड़ आते पंछी बन रेखा से..
अपने ही दायरे में..
दिन भर सिमटते वृक्ष..
अब साँझ के आँचल तले..
सीमाओं के विस्तार में लगे हैं..
चहचहाते कलरव करते खग..
गदर्भ ध्वनि से भयभीत होते शावक सिंह के..
आगोश नहीं पर लगता आगोश सा..
खगी का स्नेह भरा आभास चूजों से..
एक ओर खड़ा सब देख रहा हूँ..
मुझ पर भी चढ़ा था कभी यह रंग..
पृकृति संग..किया था रमण मैंने भी..
अब जान पड़ता सब आघात सा..
ज़रिये..जो थे वायस मेरी खुशियों के..
चुभते हैं ह्रदय में अब..
उन्हीं के होने से तीखे शूल से..
नज़ारे..पहले भी थे मेरे चारों ओर..
कुछ नहीं बदला..
आलम अब भी वही है..
गर कुछ बदला है..
तो हैं वह अहसासात मेरे..
न था कभी..पर अब अकेला हूँ..
निस्सहाय अब मैं मौन खड़ा हूँ..
सूख गयी है काया..
मुक्त-बंधन हो रह गया अकेला..
ज़र्ज़र काया में रमती जान..
हाँ अब बूढा हूँ मैं..
एक कमरे वाले घर की छत..
अब चुचाने लगी है..
बारिश के मौसम में..
हर बूँद के नीचे भांडे पड़े हैं..
उमड़-घुमड़ रही हैं..
अतीत की यादें..
किसी कौने में पड़े..
मुझ से ज़र्ज़र मेरे मन में..
जितने भी कहाते मेरे अपने हैं..
हैं नहीं..थे हो गए हैं अब वो..
माल मिला फिर चलते बने सब..
पड़ा हूँ पीछे मर-खप जाने को..
दृश्य वही हैं..सौंदर्य वही है..
बदल चुका मन अब वह मोह नहीं है..
फिर से..
दिन का हौले चुपके से..
ढलते चले जाना..
क्षितिज रेखा से झाँकना सूरज का..
छिटका रहा सूरज..
रक्ताभ बसंती आभा..
रुई के फाहे सम आसमान पर..
तैरना वह बादलों का..
क्षितिज के किसी कौने से..
उड़ आते पंछी बन रेखा से..
स्वयं को खोकर स्वयं मे खोजता..
निर्मिमेष निहारता बदस्तूर..इन दृश्यों को..
कि अब मैं अकेला हूँ..निपट अकेला..
जुड़ने लगा है नाता टपकती बूंदों से..
खटकते नहीं हैं अब फूटे भांडे..
दीमक लगी लकड़ी की खूँटी..
सम्हालती है जो फटे कुर्ते को..
अपनी सी अब लगने लगी है..
सालती थी जो बात अब तक..
अपनी बन नया नाता गढ़ने लगी है..
शायद कभी अकेला था ही नहीं..
इन्हें जान भर लेने की देरी थी..
निर्जीव नये संसार के साथ..
हाँ बूढा हूँ, पर अकेला नहीं..
हाँ अब मैं अकेला नहीं हूँ..
जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 27 अगस्त 2010 )
Photography by : Jogendra Singh ( all the photographs in this picture are taken by me )
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आजकल खयाल
Wednesday 25 August, 2010
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कविता कोष
आजकल खयाल ..
किसी नाव से पानियों पर बहते हैं ..
न रह पाते पानी पर तब भी ..
कुछ देर विचर लहरों पर ..
गुम फिर पानी में हो जाते हैं ..
चैन वहाँ भी अब न पाते हैं ..
लेते थाती गहरे पानी की हैं ..
डूब-ऊब गहरे रहस्यों में ..
खोज लाते हैं नित नए अर्थ जहाँ के ..
न था मालूम होगा गहरे में गहरा ..
यह सोच समंदर ..
आजकल खयाल ..
किसी नाव से पानियों पर बहते हैं ..
कुछ देर विचर लहर पर ..
गुम फिर पानी में हो जाते हैं ..
_____जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 25 अगस्त 2010 )
(इस कविता की प्रथम दो पंक्तियाँ मेरे मित्र सोहन से प्रेरणा स्वरुप ली गयी हैं ... )
Photography by : Jogendra Singh (10 July 2010 )
at keshav Srishti , Bhainder ( Mumbai )
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हम
Monday 23 August, 2010
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उठते सवाल..?
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उभरती सोच
@► एक सच @
इतने बुरे तो हैं हम ... जब हमारे साथ कुछ बुरा होता है तो इल्जामों की झड़ी लगा देंगे और दूसरे पर बीत रही पर नज़र घुमाने तक की फुर्सत नहीं ... वाह रे हम ... हमारे हम होने पर बधाई ...
... ( जोगेन्द्र सिंह ) ...
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अलगाववादी
Sunday 22 August, 2010
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@ एक सोच @
क्या लगता है..? अलगाववादी सिर्फ आतंकी ही हो सकते हैं, वे भीतर भी भरे हुए हैं, जो अपनी हर बात पर बवाल खड़ा कर अन्यों को तकलीफदेह स्थितियों में पहुंचा देते हैं, फिर चाहे वह जाति व धर्म के नाम पर हो या व्यक्तिगत कुंठा को निकलने जरिया मात्र.....
: जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh )
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आम आदम
Friday 20 August, 2010
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उभरती सोच
@ एक विचार @
अपने और समाज के बीच पिस जाता है आम आदम.. न अपने लिए ही कुछ कर पाता है और न समाज ही को कुछ दे पाता है.. यही है बहुलता से उपलब्ध इंसान की कड़वी सच्चाई.. जो इसके विपरीत हैं वे संख्या में ज़रा से हैं.. उनके होने न होने से कोई बड़ा फर्क नहीं आ जाता..
(..जोगेन्द्र सिंह..)
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स्वतंत्र-परतंत्र ( सवाल हैं बहुतेरे, है कोई उत्तरदाता..? )
Saturday 14 August, 2010
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- स्वतंत्र-परतंत्र
- मात्र-भूमि पर कुर्बान हो होकर दी गयी क्रांतिकारियों की शहादत का अंजाम आज कुछ यूँ नज़र आता है कि पहले गोरे अंग्रेज़ हम पर राज किये जाते थे और अब वाले अंग्रेज़ काले रंग के हैं l मात्र शासक बदला है मगर व्यवस्था बद से बदतर होती चली गयी है l
- आज़ादी से करीब 63-वर्ष बीत चुके हैं मगर तंत्र कहीं ज्यादा बिगड़ा नज़र आता है l आज भी पुराने लोग कहते नज़र आ जाते हैं कि इससे अच्छा राज तो अंग्रेजों का ही था l तब कम से कम यह दुःख तो न था कि अपने ही खाए जाते हैं l पैदा होने से लेकर पढाई, खेल, एडमिशन, नौकरी, दफ्तर तक़रीबन सभी जगह भ्रष्टाचार का बोलबाला है l जैसे बिन पैसे खिलाये तो आदमी चैन से मर तक नहीं सकता, वहां भी सर्टिफिकेट का खेल शुरू हो जाता है l
- किसी भी मुद्दे पर बात या बहस करना जितना आसन है उतना ही मुश्किल होता है उसके समग्र समुचित हल तक पहुंचना..और यह कोई एक दिन या एक वर्ष का कमाल नहीं हो सकता बल्कि खुद को इसमें झौंकना होता है जो कि आम तौर पर सामान्य इन्सान अपने बस के बाहर समझते हैं.. या यूँ कहें कि एक आम भारतीय मुसीबतों को झेल-झेल कर इतना पक्का हो चुका है कि उसे अपने मूलाधिकारों तक का भान भी नहीं रहा है..सिस्टम में जितनी गन्दगी है उसे बढ़ावा देकर वह भी आगे की ओर अग्रसर हो लेता है यह सोचकर कि यह तो होता ही है.. इसे कौन रोक सकता है.. फिर चाहे वह रिश्वत देना हो या लेना या चाहे कोई चारा ही चर जाए यहाँ किसी को कोई अंतर नहीं आता..
- आज सेना जैसा सुरक्षा तंत्र भी इसका अपवाद नहीं रहा l सुनी सुनाई बातें ही नहीं कुछ संपर्को द्वारा भी जान पाया कि इस सर्वाधिक सम्माननीय तंत्र में भी भ्रष्टाचार घुसपैठ बना चुका है l हथियारों का सौदा हो या फौजी रसद का कॉन्ट्रेक्ट सभी जगह पैसे का खेल दिखाई पड़ता है l अक्सर यहीं से राष्ट्रीय सुरक्षा से सम्बंधित गोपनीय दस्तावेज़ बेचते अधिकारीगण पकडे जाते हैं l और भी जाने क्या क्या l
- जिसे देखो राष्ट्र के नाम आज अपनी भावनाओं को बाँटे जा रहा है lजैसे आज सिर्फ एक ही दिन में सारे सुधार आन्दोलन हो लेंगे l किसी और का मत जो इनकी समझ से परे है या जो इनकी सोचों के विपरीत है इनकी नज़र में वह यक़ीनन एक गद्दार का मत है l जैसे आज राष्ट्र-भक्ति साबित करने के लिए इन्होने सर्टिफाई कोर्स खोल राखा है और जिसने इनसे दीक्षा नहीं पायी वह कॉंग्रेसी या पाकिस्तानियों का पिट्ठू है l
- जिन मुद्दों को ये लोग उठाते हैं वे भी व्यक्तिगत अहमों के चलते गौण हो जाते हैं या मुद्दे उठाये ही इसीलिए जाते हैं कि कोई थोथी प्रसिद्धि मिल सके l कभी टीवी चैनल पर तोड़-फोड़ कि जाती है तो कभी परप्रान्तियों को भागने के नाम पर उनकी रोज़ी-रोटी पर हमला किया जाता है l अपने प्रान्त के लोगों को क्षेत्रीय भाषा के माध्यम से शिक्षा पाने को कहा जाता है और खुद के बच्चे इंग्लिश स्कूल में ऐश करते नज़र आते हैं l परप्रांती इनकी पार्टी में भी जगह पाते हैं और उनकी सहायता से उन्हीं को भी भागते नज़र आते हैं l कोई हिन्दू की बात करते हैं और हिन्दू ही उनसे प्रताड़ित दिखाई देता है l
- कब बंद होंगी ये दोगली नीतियाँ..? एक ही मुद्दे पर अपने लिए कोई और सोच और अन्यों के लिए कोई और ही मानदंड, आखिर क्यूँ..?
- सवाल हैं बहुतेरे, है कोई उत्तरदाता..?
( शहीदों की मजारों को रौशन करने से कुछ हांसिल नहीं होगा..
जो होगा कुछ तो बस उनके सौंपे देश को चमन बनाने से होगा.. )
- जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 14 अगस्त 2010 )
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शहीदों की मज़ार
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शहीदों की मजारों को रौशन करने से हांसिल कुछ नहीं होगा..
जो होगा कुछ तो बस उनके सौंपे देश को चमन बनाने से होगा..
(..जोगी..) 11-अगस्त-2010
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तिरंगे की दुर्गति
Wednesday 11 August, 2010
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सबसे पहले ll भारत माता को सादर वन्दे ll
► मैं आज सभी भारतीयों से एक बात बांटना चाहता हूँ.. वह यह कि अचानक फेसबुक पर किसी मोहतरमा के द्वारा डाले गए स्टेटस पर मेरे मित्र सत्यव्रत जी की नज़र पड़ी तो उन्होंने इसकी भाषा पर आपत्ति जतायी कि अगर कुछ गलत किया गया है तो उस गलत को जाताने का भी एक सम्माननीय तरीका होता है.. फिर मेरा मानना भी है कि जब बात राष्ट्र-ध्वज की हो रही हो तो आपकी भाषा में और अधिक शालीनता आ जानी चाहिए..
► उक्त महिला ने अपने स्टेटस में जो लिखा था उसे ब्रेकेट्स में यहाँ ज्यों का त्यों दे रहा हूँ >>>
(( आज देश प्रेम की बाते बरसाती मेंढक की टरटराहट की तरह हो गयी है ! सारा फेसबुक देशभक्ति से रंगा हुआ है ! कुछ अपने प्रोफाइल फोटो में तिरंगा लगा रहे हैं तो कुछ पाकिस्तान को कोसने में लगे है और कुछ फेसबुकियो ने ऐसा बवाल मचाया है आजकल कि वे देश कि सारी समस्याओ का सारा निपटारा अभी फेसबुक पर ही कर के दम लेंगे! इसके ठीक एक दिन बाद ही यानि कि १६ अगस्त और २७ जनवरी को ही हमें तिरंगा कूड़े या सडको पर फेंका हुआ हुआ नज़र आएगा ! ))
► आप सभी से एक सवाल है मेरा कि जिस भी महान विभूति ने ने फेसबुक में ऐसा स्टेटस डाला है उसकी अपनी मंशा क्या रही होगी इसके पीछे, यह तो वही बता सकती है, परन्तु क्या आप में से कोई एक, सिर्फ एक भी मुझे इस बात कि गारंटी दे सकेगा कि ऐसा सच में नहीं होने वाला है..?
► किसी और ने देखा हो या नहीं देखा हो लेकिन अपने बचपन से बचपन से अब तक इस तरह के कुकृत्य देखता आ रहा हूँ मैं..ऊपर वाले की है उन पर जिन्हें ऐसा करते मैं कभी देख नहीं पाया अन्यथा उनकी गत अपेक्षाकृत कहीं अधिक बुरी होती..
► इसका हल किसी इंसान मात्र को कोसने से नहीं निकलने वाला, बल्कि सार्थक हल निकलेगा जब हम ऐसी सफलता पायें जो किसी भी ख़ास दिन जो राष्ट्र के लिए समर्पित हो, पर सार्वजानिक रूप से झंडे का वितरण रोक सके..
► क्या लगता है आप लोगों को..? कोई भी हाथ में देश के सम्मान चिन्ह के रूप में एक झंडा लिए चलता आएगा और कहेगा मैं देश भक्त हूँ तो यह मान लेने लायक बात है..? या सिर्फ ध्वजा हाथ में ले लेना ही राष्ट्र-भक्ति का परिचायक है.. अगर सिर्फ झंडे को हाथ में लेना ही सबूत है तो सारे गद्दार इसे ले लेकर इसकी आड़ में अपनी करतूतों को अंजाम दिए जायेंगे.. कौन रोकेगा उन्हें..
► मेरा यह मानना है कि जिस तरह वर्ष के अन्य दिवसों में राष्ट्र-ध्वज केवल जगह विशेषों पर ही फहराया जाता है ठीक वैसे ही ख़ास दिवसों पर भी होना चाहिए ताकि ध्वज के साथ हो रही कथित संभावित अवमानना से बचा जा सके..
► जो लोग मेरे इस विचार विरोध में आना चाहें, पहले वे बिना ध्वज अपनी राष्ट्र-भक्ति साबित करें फिर ध्वज को हाथ लगाने कि जुर्रत करें..
► ll वन्दे मातरम ll
► जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 11 अगस्त 2010 )
Note :- उपरोक्त लेख पर मेरे फेसबुक प्रोफाईल पर छिड़ी बहस देखना चाहें तो नीचे वाले लिंक पर क्लिक करे >>>
http://www.facebook.com/photo.php?pid=192991&id=100000906045711&ref=fbx_album
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अंकुरण
Tuesday 10 August, 2010
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कविता कोष
परस्पर विपरीत गुणधर्मों का मेल..
एक तरफ है सूखी धरती बंज़र-वीरान..
और है बाढ़ग्रस्त लबालब सोच सी दूजी..
मिलन उनका क्या संभव है..?
बन जाता जल मौत का वायस दोनों ही में..
फिर हो चाहे वह मौत प्यास से..
या होता प्रलय फिर बाढ़ विभीषिका सा..
क्यूँ होता है मानव मन दो भाग बँटा..?
बन बंज़र न उपजाता वह त्रण-मात्र कहीं..
न पनपता बन अतिआर्द्र भी त्रण-मात्र कहीं..
हैं विपरीत पर होता यह आकर्षण हर बार..
न संभाव्य न होता दृष्टिगत यह मेल कहीं..
तथापि "अंकुरण" पाता कोमल भाव निरंतर..
स्थान, स्थिति, अनुभूति हैं सब भिन्न-भिन्न..
है कुछ भान पारिस्थितिक वस्तुस्थिति का भी..
परन्तु है जाने कैसा मोह फंसा द्विपक्षों मध्य..
खिंचे चले आना उनका, बन रहा नियति जैसे..
है बेमेल पर नयनाभिराम सा, मेल द्वि-ध्रुवों का..
जुड़े हों जैसे रक्त-नील वर्ण परस्पर आधे-आधे..
परस्पर विपरीत गुणधर्मों का मेल..
एक तरफ है सूखी धरती बंज़र-वीरान..
और है बाढ़ग्रस्त लबालब सोच सी दूजी..
हाँ कदाचित बन जाये अब एक उपमान नया..
जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 10 अगस्त 2010 )
Photography by : Jogendra Singh ( Mumbai )
(सामान्य जीवन में अच्छे या बुरे का चरम बहुधा नहीं हुआ करता है.. परन्तु यह भी तो देखिये कि यहाँ मानव मन को अभिव्यक्त किया गया है, जिसकी सोचों का कोई पारावार नहीं होता.. जितना सोच जाये वही कम है.. सीमा बंधन सोचों के लिए बने ही नहीं हैं.. फिर लिखते वक्त मेरे मन में अपने मित्र सी हुई बातचीत थी जिसमे मैंने कहा था कि परस्पर दो विपरीत सोचों वाले लोग किस तरह एक दुसरे से आकर्षित हो लेते हैं, और होने पर जुड़े भी कैसे रह लेते हैं.. तत्पश्चात उसी के आगे पीछे जो विचार मन में आते गए, बस उन्ही को लिखता गया..)
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मैं एक हर्फ़ हूँ
Monday 9 August, 2010
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कविता कोष
मैं एक हर्फ़ हूँ..
मिले तुम भी एक हर्फ़ बनकर..
साथ जुड़े..
बना इक लफ्ज़..
साथ चले कुछ अरसा हम दोनों..
रंग जीवन के देखे संग संग..
लब, जुबान, वक़्त, जगह..
सब बदले..
तब भी..
न बदला संग हमारा..
जाने क्या हुआ अचानक..
तुम चले एक नयी दिशा को..
बनने भाग इक नयी कहानी का..
रह गया पीछे..
मैं तुम बिन..
पड़ा उसी कहानी में..
ऐ हर्फ़..
मेरे हमराही..
छोड़ मुझे क्यूँ चले गए तुम..
क्यूँ साथ मेरा न भाता तुम्हें..
नयी कहानी, नए अंतरे..
ह्रदय हुलराते अब तेरा..
सोच रहा हूँ..
तलाश रहा हूँ..
नयी सम्भावना..
फिर संग हो जाने की..
आये फिर से कोई..
खोज करे इक नए लफ्ज़ की..
और हो जाये प्रादुर्भाव..
फिर एक नयी कहानी का..
जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 09 अगस्त 2010 )
Photography by : Jogendra Singh ( Mumbai )
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चाँद की चाहत
Saturday 7 August, 2010
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चाँद की चाहत करोगे कब तक, न मिले तो बसर करोगे कब तक..
है वक्ती यह कैफियत ज़हन की, होश आने पर खुद पे हँसोगे कब तक..
जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 08 अगस्त 2010 )
Photography by : Jogendra Singh ( Mumbai)
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बात लबों पर
Friday 6 August, 2010
- By Unknown
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कविता कोष
छुपी छुपी सी है बात लबों पर..
अहसासात भी हैं दबे दबे..
असर हुआ रद्दोबदल का..
कुछ इस क़दर..
कहनी थी तुमसे जो बात..
न पहना सके..
अमली जामा हम उसे..
जद्दोज़हद में है दिल शायद..
बीच इसके..
आकर तुम चले गए..
"कल रात बरसात में..
हुई तुमसे जो बात..
इशारों पर इशारे..
मौला क्या कहूँ..
बात तब भी न कह पाए तुमसे.."
कहना होता भी कैसे..?
सफ़र बचपन से ज़वानी तक..
गुज़रा है मेरा डर-डर के..
क्यूँ न समझ लेती..?
खुद ही तुम इसे..
बात परदे की..
रह जाती परदे ही में..
न तुम कुछ कहो..
न हम कुछ कहें..
बन जाने दो अब कहानी..
अनकही इस बात को..
चाहूँगा जगह अब..
दिन रात तुम्हारे खयालो में..
दे सको दे दो जगह वर्ना..
ज़बरन घुस-पैठ कर जाऊंगा..
जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 06 अगस्त 2010 )
Photography by : Jogendra Singh ( for both the pictures )
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सोचा न था
Thursday 5 August, 2010
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सोचा न था कि कभी, विविध पहलु जीवन के, होंगे उजागर इस क़दर कभी..
होंगी साँसें अधर में लटकी, हकीकी दुनिया से ज़ब होंगे वाकिफ यूँ हम कभी..
जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 05 अगस्त 2010 )
Photegraphy by : Jogendra Singh http://jogendrasingh.blogspot.com/
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खोया-खोया चाँद
- By Unknown
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खोये-खोये चाँद की तलाश में, ख्वाबों में क्यूँ खोये चले जाते हो तुम..
नज़रें उठा कर देखो ज़रा तुम आईना, एक चाँद छुपा बैठा हैं उसमें भी.. ©
जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 05 अगस्त 2010 )
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ख्वाबों सी कैफ़ियत
Monday 2 August, 2010
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मिल जाती है ख्वाबों सी कैफ़ियत, जब कहते हो तुम, रुक जाने के लिए..
लिल्लाह कैसे ना रुकें हम, जब सामने हो मौजूद, नायाब तुम सा..
जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 02 अगस्त 2010 )
Note :- दोस्तों, मेरी ये शायरी कोई यूँही नहीं बन पड़ी है.. "फरीदा-खानम" की एक मशहूर शायरी पर कहीं कमेन्ट लिख रहा था, तो जो कमेन्ट थी उसी ने शायरी का रूप ले लिया.. "फरीदा-खानम" की वह शायरी भी यहाँ नीचे लिखे दे रहा हूँ..
>>>
तुम ही सोचो ज़रा, क्यूँ न रोकें तुम्हें, जान जाती है जब उठ के जाते हो तुम..
आज जाने की जिद ना करो, यूँही पहलू में बैठे रहो, आज जाने की जिद ना करो..
>>>
Photography by : Jogendra Singh
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दोस्ती
Sunday 1 August, 2010
- By Unknown
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कविता कोष
तब भी है..
यह दोस्ती..
जब तुम न कहो..
जब हम न कहें..
शब्द सीमाओं से..
है परे की चीज़ यह दोस्ती..
ज़ज्बात मेरे-तुम्हारे..
बयाँ कर पाए..
वह है दोस्ती..
बिन कहे जो समझ जाए..
वह है दोस्ती..
न होने पर किसी के साथ निभाए..
वह है दोस्ती..
बिन चाहत जो दे चाहत..
है वह दोस्ती..
क्या कहूँ मैं..
जो मन मैं है मेरे..
है वह दोस्ती.....(..जोगी..) ( 01 अगस्त 2010 )
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