घरौंदा कहूँ या सराय :: ©


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::: घरौंदा कहूँ या सराय :: ©

प्रेम सागर से झील की ओर जाता हुआ ...
जैसे छोटी सी दुनिया बसाना चाहता हो ...
छोटे सपनों सा घरौंदा बसाना चाहता हो ...

कोई आये कह दे मुझे रह लूँ बन पथिक ...
कुछ समय के लिए , तेरे इस आसरे में ...
सोच रहा हूँ अब इसे घरौंदा कहूँ या सराय ...
आना है तुम्हें फिर से चले जाने के लिए ...

तुम न आते तो मैं राह तकता तुम्हारी ...
सालता मुझे यह गम मगर ज्यादा नहीं ...
आकर चले जाना न बर्दाश्त होगा मुझे ...
बेहतर है तुम न आओ इस घरौंदे में ..
घर ही रह जाने दो मेरे इस घरौंदा को ...
क्या फर्क हो जाना है ? पहले भी तो ...
तुम बिन अकेला था , सूनी दीवारों में ..

प्रेम सागर से झील की ओर जाता हुआ ...
जैसे छोटी सी दुनिया बसाना चाहता हो ...
छोटे सपनों सा घरौंदा बसाना चाहता हो ...
पर अब राह पोखर की ओर जाती हुई ...

एक अकेली तलैया बन रही वीरानों में ...
ठहरे पानी में अब अक्स दिखना बंद हैं ...
ठहरेपन में यादों की झाडियाँ उग पड़ी हैं ...
क्या करूँ बूंदों से नज़र जो धुंधली हो रही है ...
कोई चेहरा जोगी पानी में नज़र नहीं आता ...

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 29 सितम्बर 2010 )

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आश्रित इंसानियत

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एक सोच :

इंसानियत आज मज़हब/ राजनीति/ झूठ/ फरेब आदि के तले दब कर मरणासन्न है ...
किसे पुकारते हो तुम ... ?
जो आज खुद आश्रित है चंद भले लोगों पर वो ख़ाक जमाना बदलेगी ...

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh


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फेसबुक में भक्तों की आँधी :: ©



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::: फेसबुक में भक्तों की आँधी :: © (मेरा व्यंग्य लेख)

► दोस्तों ... फेसबुक में मेरे जानने वालों के बीच दो तरह की सोचें घूम रही हैं ... एक तरफ मेरे सभी मित्रगण और अपने लोग कहते हैं कि मुझे फेसबुक नहीं छोडनी चाहिए और वे गलत भी नहीं हैं ... मेरा कोई भी अपना गलत सलाह दे भी कैसे सकता है ... मुझे पता है , जो मुझे थोडा भी ठीक से जानते हैं वे कभी मेरा या मैं उनका साथ नहीं छोड़ने वाला हूँ , न ही वो मुझे पलायन की सलाह देंगे ... वहीँ दूसरी तरफ कुछ महान आत्माएं हैं जो मुझे यहाँ से तड़ी ही कर देना चाहती हैं ... मगर वो सभी जो मुझे गायब कर देना चाहते हैं वे भूल में हैं ... मैं किसी से डर कर भाग नहीं रहा हूँ बल्कि यूँ समझिए यह मेरे आराम फरमाने का समय है ...

► खालिस "जाट" हूँ , हाथी ही समझो ... ऐसे कुत्ते-बिल्लियों के पीछे भोंकने या खिसियाने से मुझे कितना फर्क आ जाना है जो ... ऐसे लोग तो मुझे आराम देने का जरिया ही बनते हैं , अब इतनी सेवा तो इनको करनी भी चाहिए ... कैसे मैं इनको ना कर सकता हूँ ... कि ना पडो मेरे पाँव और ना ही दिन रात मेरे नाम की माला ही ज़पो ... साथ ही बिना ज्यादा मेहनत किये इन भक्तों की भक्ति स्वरुप फेसबुक में अब मुझे पहले से अधिक लोग जानने लगे हैं , समझो यह भी इन्हीं बे-दाम के नौकरों की वजह से ही है ... इन्होने अपने भगवान और माँ-बाप का नाम भी उतना नहीं जपा होगा जितना आजकल ये लोग मेरा नाम जपते हैं ... दोस्तों अब आप ही बताएं , इससे अच्छे बेगार करने वाले फोकटिये सेवक मुझे और कहाँ मिलेंगे ... ? लोग अपना नाम कमाने में पूरा जीवन गुजार देते हैं जोकि इन मरदूदों की सहायता से मुझे घर बैठे मुफ्त ही में हांसिल हो रहा है ... हा.हा.आहा...

► ► ►
इन्हीं भक्तों के कारण सभी को पता चलने लगा है कि मैं पेड आर्टिकल्स भी लिखता हूँ और मेरे खींचे फोटोज बिकते हैं ... सो क्या पता इनकी दी हुई प्रसिद्धि से , मुझे कोई अच्छी डील ही मिल जाये ........ :)

► मैंने तो ठीक से अभी आशीर्वाद देना तक नहीं सीखा ... क्या करूँ , कैसे करूँ , कोई तो मुझे बताये , और नहीं तो किसी कोचिंग का ही पता बता दे जहाँ यह विधा भी सिखा दी जाती हो ... अपने इन अनमोल भक्तों को मैं निराश नहीं करना चाहता ... इन्हीं की बदौलत ही तो आने वाले समय में मेरे जानने वालों की संख्या में तगड़ी संख्या का तडका लगने वाला है ... हे.हे.एहे... आज मैं समझ सकता हूँ कि भगवान को कितनी सुहाती होगी यह भक्ति और नराजगी में दी हुई गालियाँ ...

► राक्षस भी ज़रूरत होने पर तपस्या का सहारा लेते थे ... समझो ये लोग भी मेरे उपासक बने हुए हैं ... अब इन लोगों के पास अपना तो कोई गुण है नहीं तो क्यूँ न किसी दूसरे के नाम से खेलते हुए उसके नाम से पायी दिमागी रोटियों से ही पेट भर लिया जाये ... ? अरे भाई खाली दिमाग शैतान का घर होता है ... वो कहते हैं ना कि जिसमें कोई गुण नहीं होता , उसमें विवाद पैदा कर देने का विलक्षण गुण होता है ... अपने इसी गुण की वजह से ये चमचे या गुंडे-मवाली कहलाते हैं ... और हाँ यही सब बेच कर ही तो ये लोग अपनी रोटी भी जुटाते हैं ... सो मेरे प्रिय भक्तों मेरा स्नेहाशीर्वाद तुम्हारे सर पर हमेशा रहेगा ... जाओ और मेरे नाम को उछालते हुए अपना नाम कमाओ ... मेरी रचनाओं-कविताओं को चुराओ , मेरे फोटोज को इस्तेमाल करो और एक अच्छे और सच्चे गुलाम की तरह मेरा नाम सारे संसार में फैलाओ ...चिंता न करो एक दिन मैं भी तुम्हें आशीर्वाद देना अवश्य ही सीख लूँगा ... हा हा आहा ... :

 ► हाहाहा........ क्या करूँ ऐसा ही हूँ मैं ...
दोस्तों आप सभी बड़े हैं , आपका अनुभव भी मुझसे बड़ा है तो जो कहेंगे गलत नहीं कहेंगे ...वैसे मैंने इस पुराने बेतुके विवाद को अपने ही अंदाज़ में हमेशा के लिए एक हास्य-व्यंग्य की शक्ल में समाप्त कर दिया ...है ... इसके बाद वे लोग जो भी कहेंगे तो मेरा ज़वाब सिर्फ यही होगा कि ये लोग मेरी सेवा कर रहे हैं ...


जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 27 सितम्बर 2010 )

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बिना मुखौटे



एक सोच : 

आज कितने हैं जो बिना मुखौटे रहते हैं... ? सबकी अपनी माया-खटराग हैं... कोई दाम का भूखा तो कोई नाम का भूखा... ना मिले तो दूजों की इज्ज़त या मनुष्यों की लाशों पर से गुज़रना भी इनके लिए गुरेज़ के लायक नहीं होता है... दूसरों की अस्मिता का हनन करते हुए आगे बढ़ जाना जैसे इनकी आदत में शुमार हो गया है... जिसे ये अपना मान समझते हैं चाहे वह दूसरों की नज़र में इन्हें बेशरम-बेईज्ज़त दर्शाता हो पर वही इन्हें खुद को ऊँचा महसूस करता है ...
जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh    :(


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आँसू ©




::: आँसू ::: ©

मोतियों से अश्क बहे जाते हैं जिसके लिए ,,, कोशिश है गिरने न दूँ इन्हें मगर ...
बिनबुलाए बेवजह नामुराद ये आँसू ,,, अनथक जाने कहाँ से चले ही आते हैं ...

► Jogendra Singh जोगेंद्र सिंह ‎( 26 सितम्बर 2010 )


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गुलिस्तान





कहने को तो तुम्हें दे देने थे, यह फूल मगर, ज़माने को यह गवारा न था !!
सूख चुके हैं फूल मगर, अब भी तत्पर हूँ देने को यह गुलिस्तान तुम्हें .. !!

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 25 सितम्बर 2010 )



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धर्म या राजनीती ( सोचने की अभी बहुत ज़रूरत है हमें )


धर्म या राजनीती ( सोचने की अभी बहुत ज़रूरत है हमें )

विवाद और मानव ► विवाद और मानव, दोनों का चोली दामन का साथ है ... प्राचीन काल, जब मनुष्य सभ्य नहीं था तभी से संघर्षों, ईर्ष्या, जलन आदि का चलन चला आ रहा है ...मगर उसका जो स्वरुप आज है उससे खुश होने की नहीं वरन शर्मिंदा होने की आवश्यकता है ... बच्चे ने छींक मारी, चुड़ैल पड़ोसन जिम्मेदार है ... घर, दफ्तर, बाज़ार सभी इसकी चपेट में हैं ... मंदिर के बाहर अधखाये माँस के टुकड़े पाए गए यह धार्मिक दंगा फ़ैलाने की साजिश है ... इन दिनों नया एक फैसला आने वाला है ... जो अगर एक समुदाय के पक्ष में आया तो वो लोग लड़ेंगे और यदि विपक्ष में आया तो ये लड़ेंगे , मगर इनका लड़ना तय है ...

मानवीय पहलू ► कुछ टुच्चे किस्म के स्वार्थी नेतागण अपनी-अपनी रोटियों को सेंकने को कोशिश में जाने कितने ही घरों के चूल्हे बुझा जाते हैं यह किसी को दिखाई नहीं देता  ... रोज-रोटी की जुगाड में लगे लोग इन दंगों की भेंट चढ जाते हैं ... रोते बच्चे के लिए कुछ खाने की जुगाड करने को घर से निकला मजलूम बाप शाम को जब घर नहीं लौट पाता तब कोई नेता या संगठन का अधिकारी इन्हें पूछने नहीं आता ... कई बार तो परिवार को यह तक पता नहीं चल पाता कि जो लौट नहीं पाया उसके न आने के पीछे छुपी असल वज़ह क्या है ... दूसरी ओर लोग सोच रहे होते हैं कि यह जो क्षत-विक्षत शरीर पड़ा हुआ है वह आखिर है किसका ... ?

पंचनामे में पुलिस की तरफ से एक लावारिस लाश पाई दिखा दी जाती है ... कुछ का पता चल जाता है तो मीडीया एवं अखबारनवीसों की ऐसी छीना-झपटी जैसे मुर्दे के घर वालों से ही अब उनकी रोटी चलने वाली हो ... थोड़े से रुपये देने की घोषणा जोकि कम ही लोगों को नसीब होती है , कारण कि बेचारी बीवी अपने पति के मरने का सबूत नहीं दिखा पायी ... अब वह बेचारी सड़क पर छितराए माँस के लोथड़ों में से कैसे ढूंढें अपने पति को ... और वह लाश जिसका सर सड़क के दांये फुटपाथ के किनारे , एक आँख सुए द्वरा फोड कर विक्षत बनायीं हुई या  फिर बम के धमाके से फटी-टूटी एक दूसरी लाश जिसके छितराकर फ़ैल चुके चेहरे की पहचान अब शायद उसके अपने घरवाले भी ना कर सकें ... शहर की सड़कों पर ऐसे ही नज़ारे आम होने लगते हैं जिन्हें देखना तो दूर सुनना भी ह्रदय-विदारक होता है ...

किलकारी मार-मार कर रोता बच्चा जिसके करीब उसकी माँ कज़ा (मौत) के हवाले हो चुकी है का करुण क्रंदन सुनने की उस समय जैसे किसी को फुर्सत ही नहीं होती ... उस समय कर्मकांडी अपना काम जो किये जा रहे होते हैं ... जैसे सभी को यमराज के पास हिसाब देना हो कि उसके दरबार में किसने कितने भेजे या किसके आदेश से कितने भेजे गए ...

मरता कौन है ► यह सवाल भी एक सोचने का एक नया मुद्दा हो सकता है ... ठीक से अगर सोचा जाये तो जो जलाये जाते हैं वे कच्चे झोंपड़े या सामान्य लोगों के घर होते हैं , उनमे से घसीटकर हिंदू या मुस्लिम बताकर काट डाले जाने वाले भी मजलूम ही होते हैं ... क्या कभी किसी ने सुना है कि कोई राजनेता या किसी संगठन का पदाधिकारी मारा गया हो ... या इस दौरान ऐसे किसी बंदे को देखा किसी ने जिसकी रोज़ी रोटी छिन कर उसके बच्चों के भूखों मरने की नौबत आई हो ...

आर्थिक पहलू ► दंगों के दुष्प्रभाव स्वरुप सरकारी गैर-सरकारी संपत्ति की तोड़-फोड से कितना नुकसान होता है उसका आकलन कर तो लिया जाता है मगर उसका सत्यापन कौन करे ? असली आंकड़े किये गए आकलन से कहीं आगे की चीज़ होते हैं ... जो तथ्य सरकार पेश करती है वे आधे-अधूरे होते हैं ... इस दौरान जाने कितने घरों का आर्थिक गणित गड़बड़ा जाता है इसका हिसाब कौन रखता है ? इन्हें हर्जाना कौन देगा ? बड़े स्तर के हर दंगे या बंद से देश को हजारों करोड रुपयों की चपत लगती है , सरकार तो इसे झेल जाती है परन्तु व्यक्तिगत स्तर पर चल रहे व्यापारों को मिली क्षति पर कौन जिम्मेदार कहलायेगा ?

आखिरी सवाल ► चाहे मंदिर रहे या मस्जिद रहे उसका फायदा क्या है ? क्या भगवान तुम्हारे अल्लाह/भगवान ने यह कह दिया है कि जब तक मेरे नाम पर हजारों-लाखों मनुष्यों की बलि नहीं चढाई जायेगी तब तक मुझे चैन नहीं आएगा ? या बलि चढ़वाने का काम अब ऊपर वाले ने अपने हाथों में ले लिया है ? और अगर ऐसा है तब भी कौन है वह जिसे खुदा/भगवान ने स्वयं आकार ऐसा करने को कह दिया  है ? सिर्फ मंदिर में शीश नवाने से या मस्जिद की अजान गाने से ही क्या हम इंसान होने का दर्ज़ा पा जाते हैं ? अगर ऐसा है तो क्यूँ नहीं सभी धर्मावलंबी मंदिरों या मस्जिदों के बाहर लाईन लगाकर खड़े नज़र आते ? या इंसानियत अब ईद का चाँद हो गयी है जो साल में सिर्फ कुछ-एक बार ही आती है ? अपने झूठे नाम के लिए औरों की छाती पर पाँव रखना कब छोड़ेंगे हम ? और घर को भरने के लिए मासूमों के खून की होली खेलना कब बंद करेंगे समाज के ये कथित ठेकेदार ? हिंदू हो या मुस्लिम या फिर कोई और भी हो, हैं तो सब आखिर मानव के बच्चे ही ना ... तो फिर बचपन से साथ खेलने वाले क्यूँ बड़े होकर एक-दूसरे को ही काट डालना चाहते हैं ?

शर्म करो अब ... बस करो, बहुत हुआ यह नंगा नाच ...
कब तक मासूम जानता के खून से अपनी होली मनोरंज़क बनाते रहोगे ?

सोचो ... !! सोचने की अभी बहुत ज़रूरत है हमें ... !!


जोगेन्द्र सिंह Jogedra singh ( 24 सितम्बर 2010 )

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हाँ यहीं तो हो तुम



हाँ यहीं तो हो तुम, और जा भी कहाँ सकती हो ...
तलाशते रहेंगे एक दूसरे में खुद को मगर ...
साये के साये में, साये को खोज पाएंगे कैसे ... ?
कोशिशें, तलाश, और यही ज़द्दोज़हद ढूंढ पाने की ...
जैसे खुद में दूसरा बाशिंदा बसा रखा हो हमने ...

गर हाथ थाम लेती जो तुम पास आकर मेरा ...
मौजूद साये को साये से अलहदा भी देख पाता ...
मगर ज़रूरत ही क्या तुम्हें अलहदा देखने की ...
तुम में समा कर मैं नज़र आता हूँ मैं से बेहतर ...

_____जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 23 सितम्बर 2010 )

Photography by : Jogendra Singh

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मेरे जिस्म में प्रेतों का डेरा है


::::: मेरे जिस्म में प्रेतों का डेरा है ::::: © (मेरी नयी सवालिया व्यंग्य कविता)

मेरे जिस्म में प्रेतों का डेरा है...
नाना प्रकार के प्रेत...
भरमाते हुए...
विकराल शक्लें...
लोभ-काम-क्रोध-मद-मोह...
नाम हैं उनके...
प्रचंड हो जाता जब कोई...
घट जाता नया काण्ड कोई...
सृष्टि के दारुण दुःख समस्त...
सब दिये इन्हीं पञ्च-तत्व-भूतों ने...

लालसा...
अधिक से भी अधिक पाने की...
नहीं रहा काबू मन पे मेरे...
कोशिश...
कर देखी मैंने बहुतेरी...
मन में दिया रौशन कर लेने की...
रूह में बसा था जो ईश्वर...

कोशिश...
खोज उसे लेने की...
मिल गया बसेरा...
पर ईश्वर का कोई पता नहीं...
देख कर शायद...
लापतागंज का कोई इश्तिहार...
हो समर्थ...
कर काबू मन को...
खोज लाये कोई खोये ईश्वर को...

मगर...
फिर चढ़ेगा एक प्रेत ईश्वर पर...
फिर लगेगा इश्तिहार...
लापतागंज का...
संभवतः दौर नया है...
खुद ईश्वर की भाग-दौड़ का...

शायद...
हो गया था अहसास...
मेरे ईश्वर को...
अब उद्धार चाहिए उसी को...
जो कहलाता उद्धारक था...

हा हन्त...कैसे पार पड़े...
कौने में बैठा ईश्वर...
अपना नाम ना बताऊँ...
सोचता होगा...
भीषण दानवों से...
जिन्हें बचाया जीवन भर...
वे ही अब दानव बने बैठे हैं...
अब उनसे खुद को बचाऊँ कैसे...

मैं कहता..
आ देख मिल कर, मेरे दानव साथी...
कैसे होगा...?
अब उद्धार खुद उद्धारक का...

जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 21 सितम्बर 2010 )
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गुमशुदा की तलाश


एक लड़की लापता है ...
चिंताग्रस्त ...
हड्डियों के ढाँचे सी दुबली ...
सुना है घर से अकेली निकली है ...
कहती है ज़माना बदलेगी ...

दीवारों पर गुमशुदा का ...
"प्रति" जी का इश्तिहार लगा है ...
नाम छपा मानवता ...
कोई कहे यथार्थवादी डाकू ...
कोई कहे भौतिकता का डाकू ...
उठा ले गया उसे ...

लिखा है गुमशुदा के पोस्टर में ...
किसी सज्जन को मिले तो ले आना ...
मैं बोला भईया ...
सज्जन हैं कहाँ अब ...
जो पहले ही गुशुदा है ...
उसी से काहे गुहार लगा बैठे ...
काहे गलत इश्तिहार लगा बैठे ...
या यूँ कहें मीडिया का ...
कारोबार बढ़ा बैठे ...

मानवता नाम की चिरैया ...
या लड़की जो भी कहो ...
इस नए भौतिकतावादी दौर में ...
लुप्तप्राय नहीं वरन ...
दफ़न हो चुकी समझो ...
और अब ...कौन नहीं जनता ?
मुर्दे कभी लौट कर नहीं आते ...

जोगेन्द्र सिंह Jogendra singh ( 18 सितम्बर 2010 )


Photography by : Jogendra Singh ( all pic's are in dist pic are taken by me.)
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(मेरी ऊपर वाली रचना प्रतिबिम्ब भईया की रचना से प्रेरित है...
उनकी रचना नीचे दिए दे रहा हूँ ... आप देख सकते हैं ...)

एक लड़की दुबली पतली
चिन्ताओ से ग्रस्त,
आयु कुछ हज़ार साल
सत्यता का घुंघट निकाल
घर से निकली
नवयुग के इस मेले में
लापता हो गई.
एक सड़क है - आधुनिक सभ्यता
वही से चली है
उसका पता सुना है की
नैतिकता के घोडे पर सवार
भौतिकवाद के डाकू ने
उसे उठाया है
यदि किसी सज्जन को मिले
तो घर पहुँचने का कष्ट करे
लड़की का नाम " मानवता " है
► ( प्रतिबिम्ब बडथ्वाल )
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शेर या गीदड (एक व्यथा)


आज कौन शेर है ... ?
सब हैं गीदड ...और ...
शेरनियों से शादी रचाए बैठे हैं ...
वो गुर्राया करती हैं ...
हम दुबके पड़े रहते हैं ...

घर से निकल कर कैसे कह दूँ ?
चौका-चूल्हा, बर्तन-भांडे ...
थे कभी जो उनके हिस्से ...
आते हैं अब मेरे हिस्से ...

कोमला, निर्मला, सौंदर्या ...
अबला, पीड़ित, कुचली, प्रताड़ित ...
कितने ही उपमान पाए इन्होने ...
सभी जानते हैं असलियत इनकी ...
कौन चाहता लाँघ द्वार को ...
हो जाये यह चर्चा आम ...

देख-देख सूरत इनकी ...
होते थे पुलकित कभी ...
सूरत वही पर सीरत नयी है ...
मन वही इधर भी है ...
नासपीटी बस दहशत नयी है ...
जो होते थे कम्पायमान कभी ...
कम्पित-भूकम्पित कर डाला उन्होंने ...

कौन जाने अब क्या हो कल ...
बन छिद्रान्वेषक ...
अपनी नज़रों से ...
गुजारेंगी हर पल ...

गुजर गया जो ...
वह रूप बदल फिर आयेगा ...
पीटते-पीटते, पिटने लगे हैं ...
है यह समय का पहिया भईया ...
इसके वार से बचा न कोई ...
बदल रहा यह दौर है ...
छोड़ सजातीय विजातीय संग हैं ...
बोलो भईया शेर-शेरनी कब होवेंगे संग ?

► ...जोगेन्द्र सिंह ... Jogendra Singh ... ( 17 सितम्बर 2010 )
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शेर या गीदड (एक व्यथा)SocialTwist Tell-a-Friend

हिंदी दिवस (क्या इस दिवस का नाम लेने भर की भी हैसियत है हमारी ?) ©


हिंदी हिंदी हिंदी !!!

► . . . आज सभी इस शब्द केपीछे पड़े हैं, जैसे शब्द न हुआ तरक्की पाने अथवा नाम कमाने का वायस हो गया l खुद  के बच्चे अंग्रेजी स्कूल में चाहेंगे और शोर ऐसा कि बिना हिंदी के जान निकल जाने वाली है l अरे मेरे बंधु यह दोगलापन किसलिए ? स्वयं को धोखा किस प्रकार दे लेते हैं हम ? किसी से बात करते समय खुद को अगर ऊँचे दर्जे पर स्थापित दर्शाना हो तो इसी हिंदी का दामन जाने कब छूट जाता है, पता ही नहीं चलता l उस वक्त टूटी-फूटी या साबुत जैसी भी सही परन्तु हिंदी के कथित ये गीतकार महानुभाव बोलेंगे बस अंग्रेजी में ही l कहाँ गुल हो जाता है तब उनका हिंदी प्रेम ? अनायास ही ऐसा क्या हो जाता है कि जो आज प्रेयसी है वह तत्क्षण ही अपना दर्ज़ा खो बैठती है ?

► . . . हम यह भरोसा कब दिला पाएंगे स्वयं को कि भाषा जो चीनी भाषा के बाद दूसरे नंबर पर विश्व में सर्वाधिक रूप से बोली जाती है वह अपने ही उद्गम स्थल पर दोयम दर्जेदार नहीं वरन अपने आप में एक सशक्त अभिव्यक्तिदार भाषा है l

► . . . ज़रूरत यह नहीं कि वर्ष में एक बार कुछ हो-हल्ला मचा कर या नारेबाजी द्वारा हिंदी की आरती बाँच ली जाये और इसे ही इति समझ लिया जाये, वरन आवश्यकता है कुछ यथार्थवादी कदम उठाये जाने की जिन्हें कोई उठाना नहीं चाहता l कौन करे कुछ जब परायी भाषा से रोटी मिल जाती है ? हमें पड़ी ही क्या है, कहकर पल्ला झाड लिया जाता है l कहाँ कुछ फर्क पड़ जाने वाला है ?

► . . . यही सोच लिए, जिए और मरे जाओ l हिंदी उत्थान के नाम पर सारे देश में जाने कितने सरकारी गैर-सरकारी संसथान स्थापित हैं जो अपने कर्मचारियों के घर की रोज़ी-रोटी का जरिया बने हुए हैं l परन्तु क्या कभी किसी ने यह देखने की कोशिश की है कि इस सारे खटराग के बाद भी हिंदी का वास्तविक विकास कितना और किस स्तर तक हो पाया है ? आवश्यकता है स्वयं का आत्मविश्लेषण किये जाने की, यह देखे जाने की, कि असल में हम हैं कहाँ ?

► . . . जिस विस्तृत पैमाने पर हिंदी बोली जाती है, इस सम्भावना को देख-समझ विदेशियों ने अपने यहाँ कोर्स खोल रखे हैं l अभी हाल के कुछ महीनों में अमेरिका ने अपने कॉलेजों में हिंदी विभाग भी शामिल किया था, ताकि वे लोग इस भाषा से लाभ उठा सकें l एक बस हम ही हैं जो वैश्विक स्तर पर अपनी महत्ता को नहीं समझ पा रहे हैं l यदि हम चाहें तो इतनी मजबूत स्थिति में तो हम हैं ही कि किसी भी अन्य देश को अपनी भाषा के बल पर नए सिरे से सोचने पर मजबूर कर दें, परन्तु आज भी शायद मानसिक स्तर पर हम अंग्रेजों के गुलाम ही हैं, जो उनके जाने के बाद भी उनकी सभ्यता-संस्कृति और भाषा तक को एक अच्छे और सच्चे आज्ञाकारी एवं ईमानदार ज़र-खरीद गुलाम की हैसियत से ढोये जा रहे हैं l मैं तो कहता हूँ मिलकर सब बोलो मेरे साथ "लौंग लिव द किंग - लौंग लिव द किंगडम" l

► . . . कुछ होगा ज़रूर मगर शोर मचने भर से नहीं बल्कि अपनी मानसिकता बदलने से होगा  l

► . . . जय हिंद ll और अगर जाग गए तो जय हिंदी तो हम कर ही लेंगे ll




► ► ► ► ► जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 14 सितम्बर 2010 )

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