विराम चिह्न !! मेरे तुम्हारे नाम का ::: ©


विराम चिह्न !! मेरे तुम्हारे नाम का ::: ©

मैं जानती हूँ के साथ मिला..
कह दी मुझसे तुमने हर बात..
यत्र-तत्र-सर्वत्र करा दिया भान..
मुझ ही को मेरे होने का..

नाव पतवार के बहाने..
तो कभी..
तप्त ओस भाप-बादल के बहाने..

सूखे से जीवन में हरियाली सा..
ढाक-पत्तों से बने दोने सा..
अहसास उस प्रेम कुञ्ज सा..
लहलहाता फिर रहा जो..
बन आर्द्र आसक्ति सा जो..
बह रहा उस ओर से इस ओर..
सोता निश्छल तुम्हारे प्रेम का..
कुरेद-खुरच भीतर तक..
स्निग्ध तुम्हारे अहसास को..
जगाता नित प्रति मेरे अन्तस्तल में..

कहाँ से कहूँ..?
जानता हूँ मैं..
कि तुम्हारी हर बात..
पल में तोला माशा तुमने..
बरबस ही अपना कलेवर..
हर बार बदल डाला तुमने..

बिन प्रेम सुधा हरा ना होता..
अकिंचन यह जीवन कोरा..
ना समझोगे यह तुम..
अतिवृष्टि भी अनावृष्टि सी..
होती विनाशक समूची है..

अधीरता चपलता तुम्हारी..
प्रेम सुधा से सिक्त सिंचित..
सुकोमल मृदुल मन के भाव हैं..
पानी सम बस से बाहर फ़ैल रहे हैं..

कर लो बस में इनको नहीं तो..
बस पर भी बस ना रह पायेगा..
धीर-अधीर के मध्य तुम्हारा..
आतुर दृष्टिपथ के मध्य तुम्हारा..
मिल जाना है विराम चिह्न कहीं..
खोया-पाया सकुचाया सा..
विराम चिह्न !! मेरे तुम्हारे नाम का..

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (13 दिसंबर 2010)

Photography by :- Jogendra Singh
In this Picture :- Me.. (Jogendra Singh)
(Photo clicked by the help of mirror)
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Comments

4 Responses to “विराम चिह्न !! मेरे तुम्हारे नाम का ::: ©”

Barthwal said...
14 December 2010 at 7:47 am

जोगी भाई प्रेम के कई रुप है - बहुत खूब

14 December 2010 at 2:09 pm

कविता हमने पढ़ी . नदी एक तरल स्निग्ध प्रवाह है , जो ओर-छोर दोनों को समेटे है . ओर गतिशीलता है तथा छोर विराम. ये विराम प्रवाह से अधिक मज़बूत और दृढ़ होता है . जब नदी खोने लगती है तो ये विराम इसे थामता है .
जोगी, हमने पाया कि पति वह विराम है . एक... पूर्ण पुरुष .नदी की विकलता इस विराम से टकराती है - इसे काटती है , बिखेरती है किन्तु इस "ओर "को अंततः यहीं विराम पर विश्राम है. सागर एक विलय है - जहाँ नदी गर्भस्थ हो जाती है . जीवन का विलय ... या मृत्यु .
आपने बस का बस से जो विरोधाभास दिखाया है .. वह जीवन का विरोधाभास है . पर लाख विरोधाभास हो , ये " बस" आपकी तय सीमा है ; जिसे आप स्वीकारते हो और पूरा मान देते हो. ये "बस" वही विराम है , जो सिमटा हुआ मज़बूत छोर है. जीवन की सुन्दरतम कविता की इति.

Poonam Matia said...
14 December 2010 at 10:07 pm

जोगेन्द्र जी ......आप की कृति अत्यंत सुन्दर और भावपूर्ण है ...जीवन के उतार-चढ़ाव ,हर पल बदलाव ,आदि से अंत ......उद्गम से सागर में विलय तक ........प्रेम का सर्वत्र व्याप्त स्वरुप .......सब कुछ बहुत खूब ..........शक्रिया आप ने आमंत्रित किया ............

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