फितरत ::: ©


 फितरत ::: ©

आईने पे न शिकन है न किरचें कहीं.. उसे तो बस किसी की फिकर नहीं..
कह देखो शायद सुन ले वो तुम्हें भी.. वर्ना चेहरे बदलना है फितरत उसकी..

__________________जोगी  :((

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क्यूँ आज भी..? ©

क्यूँ आज भी..?  ©
कुछ लफ्ज़ कहें तुमसे या तुम हमसे... गया ज़माना हो गया है यह अब... क्यूँ आज भी..
लिपटाये बैठे हैं उन ज़र्द पत्तों को खुद से... सुना है आज फिर से कुछ नाते हवा हो गए हैं... 
__________________(जोगी..) ..... :((
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बहकाती है क्यूँ जिंदगी...? ©



बहकाती है क्यूँ जिंदगी...? ©

शुरू में गज़ल सी , फिर भटकती लय है क्यूँ जिंदगी......
हर रंग भरा इसमें तुमने , सवाल सी है क्यूँ जिंदगी.......
ज़वाब दिए खुद तुम्हीं ने , फिर अधूरी है क्यूँ जिंदगी.....
माना है डगर कठिन , कदम बहकाती है क्यूँ जिंदगी.....
मंजिल का पता नहीं पर , राह भटकाती है क्यूँ जिंदगी.....

Photography & Creation by :- जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (21 दिसंबर 2010)

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वंदे~मातरम :::

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वंदे~मातरम :::
ये सिर्फ दो शब्द मात्र नहीं हैं जिन्हें जैसे चाहा मुँह खोल कर उगल दिया..... बल्कि इसके मायनों को समझना , उन्हें ह्रदय से अंगीकार करना और फिर इन शब्दों को सार्थक बनाने के लिए मातृभूमि पर हो रही हर गन्दगी से उसे मुक्त करवाने के कार्य पर लग जाना... तब मुँह से वंदे~मातरम निकाला जाना चाहिए..... 

जोगी :)

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वंदे~मातरम :::SocialTwist Tell-a-Friend

!! वायु प्रवाह !! ©


!! वायु प्रवाह !! ©
(१)
वायु प्रवाह पर विचार !
अचानक उठा खयाल !
कितने होते हैं प्रकार ?
(२)
नाना हैं वायु प्रवाह !
कह चुकी संस्कृत भी !
वायु प्रकार के भेद भी !
मुख्य हैं तीन प्रकार !
उच्च निम्न मध्यम !
सप्तम सुप्त औसत स्वर !
(३)
भीषण मार सप्तम सुर !
भूकंप सा अहसास देता !
मध्यम है खदबदाता !
चौंकता और उछलता !
सुप्त स्वर नासा छिद्र में !
जाकर उत्पात मचाता !
(४)
ना देखा आते किसी ने !
घुसपैठ मचाता प्रवाह !
अनायास ही हो अवरुद्ध !
गवाह बनती सांसें स्वयं !
सर्व शक्तिमान फुस्स स्वर !
परिणाम देता उपस्थिति !
कर्ता भी कर्मण्य होकर !
दूजों संग दीदे मटकाता !
हस्त करने जाते अवरुद्ध  !
समूह संग नासा छिद्र को !
(५)
विस्फोटक सा प्रतीत होता !
सुर सप्तम पाद से निकला !
कर्ण प्रान्त में सुन्नता !
बिन गोले हवा में उड़ता !
बेचारा मानुस बस करता !
पहले उससे पकड़ा जाता !
दीदे फाड़ घूरते बहु नैन !
खुद के दीदे धरती पाते !
(६)
कैसा खेला देखो वायु का !
आती पर न कहता कोई !
स्वयं को छोड़कर सब पर !
अंगुली उठता है हर कोई !

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (17 दिसंबर 2010)

► दोस्तों , , , असल में विसर्जन भी अपने आप में एक कला है...... जितने इसके प्रकार हैं उतने ही परिणाम भी नज़र आते हैं....... जैसे किसी प्रकार से एकदम से लोग उड़न~शील हो जाते हैं तो वहीँ दूसरे प्रकार के परिणाम में जनता असमंजस में होती है कि क्या करें क्या ना करें....... उसमें अपना स्थान छोड़ देने वाले लोग फायदे में रहते हैं जबकि भ्रमित मनुष्यों को अपने नासा एवं मस्तिष्क को जज़ब देना होता है.......... वहीँ आखिरी शांत प्याकर में किसी को बचाव का कोई मौका उपलब्ध नहीं होता है....... जो होना होता है होकर ही रहता है....... फिर भी जाने क्यूँ लोग आखिरी वाले पर ही अधिक बड़ी प्रतिक्रिया देते हैं....... आशा है आप सबने इस रचना का आनंद लिया होगा........ धन्यवाद दोस्तों....... :)))
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बहुत खूब ::: ©




बहुत खूब ::: ©

बहुत खूब हमें कहते हैं वो..
बहुत खूब हमें लगते हैं वो..
खूब में खूबी लपेटे हैं वो..
क्या कहें होने पर शहीद भी..
बहुत खूब हमें कहते हैं वो...

जोगेन्द्र  सिंह Jogendra Singh (15 दिसंबर 2010)

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पलायन वेग

आह्ह्ह्ह्ह्ह...
आज मैंने जाना , रॉकेट का प्रक्षेपण कैसे होता है...

पर क्या पलायन वेग कुछ कम नहीं रह गया.......???
कोई बात नहीं अगली बार अच्छी तैय्यारी के साथ प्रक्षेपित होऊंगी..
विश्व को इंधन संकट से बचाने की राह निकाल कर ही रहूंगी...


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यहाँ  हँसना मना है.. मना बोले तो बोलती पे फुल स्टॉप..
हँसने वाले की सजा ►ओठों पे सुई धागा..

चित्र का शाब्दिक हास्य रूपांतरण by जोगेन्द्र सिंह :))
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विराम चिह्न !! मेरे तुम्हारे नाम का ::: ©


विराम चिह्न !! मेरे तुम्हारे नाम का ::: ©

मैं जानती हूँ के साथ मिला..
कह दी मुझसे तुमने हर बात..
यत्र-तत्र-सर्वत्र करा दिया भान..
मुझ ही को मेरे होने का..

नाव पतवार के बहाने..
तो कभी..
तप्त ओस भाप-बादल के बहाने..

सूखे से जीवन में हरियाली सा..
ढाक-पत्तों से बने दोने सा..
अहसास उस प्रेम कुञ्ज सा..
लहलहाता फिर रहा जो..
बन आर्द्र आसक्ति सा जो..
बह रहा उस ओर से इस ओर..
सोता निश्छल तुम्हारे प्रेम का..
कुरेद-खुरच भीतर तक..
स्निग्ध तुम्हारे अहसास को..
जगाता नित प्रति मेरे अन्तस्तल में..

कहाँ से कहूँ..?
जानता हूँ मैं..
कि तुम्हारी हर बात..
पल में तोला माशा तुमने..
बरबस ही अपना कलेवर..
हर बार बदल डाला तुमने..

बिन प्रेम सुधा हरा ना होता..
अकिंचन यह जीवन कोरा..
ना समझोगे यह तुम..
अतिवृष्टि भी अनावृष्टि सी..
होती विनाशक समूची है..

अधीरता चपलता तुम्हारी..
प्रेम सुधा से सिक्त सिंचित..
सुकोमल मृदुल मन के भाव हैं..
पानी सम बस से बाहर फ़ैल रहे हैं..

कर लो बस में इनको नहीं तो..
बस पर भी बस ना रह पायेगा..
धीर-अधीर के मध्य तुम्हारा..
आतुर दृष्टिपथ के मध्य तुम्हारा..
मिल जाना है विराम चिह्न कहीं..
खोया-पाया सकुचाया सा..
विराम चिह्न !! मेरे तुम्हारे नाम का..

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (13 दिसंबर 2010)

Photography by :- Jogendra Singh
In this Picture :- Me.. (Jogendra Singh)
(Photo clicked by the help of mirror)
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जिंदगी..©
जाने कितने रंग दिखावे है यह जिंदगी..
बिखेरने थे उसे जो हमसे चाहे ये जिंदगी..
माया फैला फँसा हमको देती है ये जिंदगी..
इशारों पर अपने है नाचती ये जिंदगी..
ना चाहें पर अपना बोझ लदाती है जिंदगी..
अनचाहे ही हम पर गहराती है ये जिंदगी..
कैसे पायें आज़ादी हम पे हावी है ये जिंदगी..

_____जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (07 दिसंबर 2010)

Photography for both pictures :- Jogendra Singh

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बचपन की संवेदना ::: ©




बचपन की संवेदना ::: ©

मेरे मित्र अशोक जी ने अपनी वॉल पर संवेदना को साझा किया.......
जिसके अनुसार उन्होंने लिखा "**** आज सवेरे घर से बाहर निकला तो एक जगह देखा कि कुतिया के छोटे-छोटे पिल्लै,कडकडाती ठण्ड से बचने के लिए एक दुसरे में गुत्थमगुत्था हो रहे हैं....मुझे  बचपन के दिन याद आगये....कैसे कुतिया की 'डिलेवरी' पर मोहल्ले वाले,बच्चों की अगुवाई में  उसे गुड का हलवा बना कर खिलाते थे....उसके बच्चों के लिए टाट का घर बनाते थे.... उसके बच्चों और उसके लिए समय-समय पर खाने का प्रबंध करते थे....!!!! मुझे  मालुम  है  मेरे  कुछ'नयी पीढ़ी' के  शहरी  नौज़वान  दोस्तों को मेरी ये बातें अटपटी,नितांत 'गवारुं' और आश्चर्यजनक लगेगी लेकिन क्या करूँ....उस समय का सत्य तो यही था....!! आज देखता   हूँ ...इंसान  को  इंसानों  के लिए ही  फुर्सत  कहाँ  है ..!!! भीड़ में इंसान,गिरे हुए इंसान को कुचलते हुए निकल जाता है....,फुटपाथ  पे पड़े किसी असहाय इंसान को नज़रंदाज़ कर जाता है.... किसी भूखे की लाचारी समझे बिना उसे 'उपदेश' झाड जाता है......!! कुत्तों की  तो कौन कहे....!!! इंसान,इंसान के बारे में ही लगभग संवेदना -शुन्य सा जान पड़ता है....!! सोचता  हूँ उस समय 'सहज मानवता' के साथ जी रहे इंसान ने आखिर क्या खोया..... ????? और आज आपा-धापी में लगे,इंसानियत को दोयम दर्जे का मानने वाले  इंसान(???....) ने आखिर क्या पा लिया है...... ????***

उक्त वर्णित घटनाक्रम को एक सजग संवेदनशील इंसान होने के नाते लिख कर उन्होंने अपना दुःख साझा तो कर लिया ......और........ टिप्पणियों के रूप में उपस्थित देवियों-सज्ज़नों ने उस पर बड़े-बड़े व्याख्यान भी लिख मारे......... परन्तु क्या कोई मुझे बता सकेगा जब अशोक जी उस दृश्य को निहारते हुए द्रवित हो रहे थे और बचपन में अन्य लोगो द्वरा स्थापित इंसानियत को याद कर रहे थे तब अशोक जी के मन में यह बात नहीं क्यूँ नहीं आयी कि इन पिल्लों को आज भी टाट के घर की आवश्यकता है.....? क्यूँ नहीं सोचा उस कुतिया को घी-गुड-सौंठ-गौंड का हलवा अब भी चाहिए हो सकता है...........? माफ़ करना मैंने इसलिए यह सब लिखा क्यूंकि उन्होंने यह सब किया जाना वर्णित नहीं किया है........... हमारे अन्य प्रबुद्ध वर्ग के दोस्तों ने भी अपने-अपने हिस्से आयी एक-एक भारी-भरकम संवेदनशील टिपण्णी देकर अपने-अपने दायित्वों की इति समझ ली........? क्या हमारी संवेदना लिखने भर तक ही रह गयी है..........? या हम उन बड़ी अट्टालिकाओं वाले रईसों के ही प्रकार के हुए जा रहे हैं जिसमें रक्त का एक कतरा देख कर या किसी भूखे को भूखा देख आँसू टपका देना फैशन बन गया है.....?
:( :( :( :( :(
आशा है अशोक जी मेरे इस आर्टिकल को सकारात्मक रूप में लेंगे...... :)

_____जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (29-Nov-2010)

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अशोक जी के लेख का लिंक है......
http://www.facebook.com/notes/ashok-punamia/manavata/131792756879513
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दर पे मेरे ::: ©





दर पे मेरे ::: ©

सारी जिंदगी अकेला बैठा हुआ हूँ,
पलकें बिछाए हुए तेरे इंतज़ार में,
न जाने कब इस रात की सुबह हो,
और दर पे नाचीज़ के तू आ जाये..

_____जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (28 Nov 2010)



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गली का कुत्ता या इंसान ::: ©



गली का कुत्ता या इंसान ::: ©

गली के आवारा कुत्ते को रात में डर-डर कर पीछे को हटते देख कभी ख्याल आता है कि इन्हें कहीं ज़रा भी प्यार से पुचकार दिया जाये तो इनकी प्रतिक्रिया ही बदल जाती है... आँखों में उभरे जहाँ भर की प्रेम में लिथड़ी मासूमियत , कान कुछ पीछे को दबे हुए , लगातार दाँये-बाँये को डोलती पूँछ , गर्दन से लेकर पूँछ तक का शरीर सर्प मुद्रा में अनवरत लहराता हुआ और चारों पाँव जैसे असमंजस में आये हों कि उन्हें करना क्या है सो परिणामस्वरूप एक ही जगह यहाँ-वहाँ बेतरतीब से उठते-गिरते पैर...

तदक्षण यह खयाल व्यथित भी कर देता है कि आज के दौर की भागती-दौडती जिंदगी में मेरी खुद अपनी स्थिति भी इन निरीह प्राणियों से कितनी विलग है...? इतने सारे दिखते अपनों के मध्य भी कितना अकेला पड़ गया हूँ... इन्हें कदाचित कोई पुचकार भी जाता हो परन्तु एक प्यार भरी पुचकार तक के लिए तरस रहा हूँ... सभी अपनी आप में व्यस्त-मस्त हैं... जो किसी को फुर्सत हो तब भी इतना समय है ही किसके पास जो आकर किसी की पीड़ा को समझने यत्न करे...?

कठिन नहीं है इसे समझना... आज मनुष्य जीवन संभवतः कुक्कुर योनी से भी बदतर हो गया है... मुझे याद है भरतपुर में जब गली के कुत्ते को कोई पीट जाता था तब उसके दर्द और उस उठती आवाज़ मात्र से मेरे पालतू को होने वाली बैचेनी देखने लायक होती थी... परन्तु आज इंसान दूसरे को पीड़ा देकर खुद आगे निकल जाने की होड में इतना आगे चला गया है कि फुर्सत ही नहीं किसी का दर्द समझने की या यूँ कहें आज हम कुछ अधिक ही बहरे हो गए हैं...

कभी-कभी लगता है कोई आकर मुझे भी दो प्यार भरी पुचकार लगा जाये... लेकिन हाय री किस्मत अपने समझते नहीं परायों को मतलब नहीं... सूने नयन बेफिजूल कुछ बूंदों को जाया कर जाते हैं... जानते जो नहीं हैं इनका मोल...

कभी लगने लगता है क्या हमें गली के आवारा कुत्तों के स्तर तक आने के लिए भी मेहनत की दरकार है...? सवाल गंभीर अवश्य है लेकिन मुश्किल जरा भी नहीं...

_____जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 26 नवंबर 2010 )

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मूँछों के झोंटे ::: ©



झबरीली मूंछों वाले लोगों को देख कर मेरा भी कटीली मूँछ रखने का मन हो आया.... अब आप देखें तो मेरी बेटी झलक की ओर से किसी मूंछों वाले के लिए कही गयी नयी बात क्या होगी...

मूँछों के झोंटे ::: ©

ताऊ जी ताऊ जी.....
मेले प्याले-प्याले ताऊ जी..
मेले छुई-मुई छे बचपन को..
लटका कल अपनी मूंछों में..
त्लिप्ती दिया कलो झोंटे देकल..
अनुपम छुन्दल हवादाल झूला..
सदृश्य अनुराग मेली खिखिलाहट..
देगी आनंद तुमको मेरे ताऊ जी..
कुम्हला ना जाये मेला बचपन..
बाँध छको तो बाँध लो मूंछों में..
अपने प्याल भले झूले का बंधन.. हा हा आहा.. ©

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh
( 18 November 2010 )
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मूँछों के झोंटे ::: ©SocialTwist Tell-a-Friend

रिश्ते..



वक्त बदले उनका मन बदले, चाहे बदले सारा जमाना..
नहीं बदलते सब यहाँ, कुछ हम जैसे भी होते हैं रिश्ते...

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 15 नवंबर 2010 )


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रिश्ते..SocialTwist Tell-a-Friend

मिलना-बिछडना ::: ©



स्वप्न लोक से तू निकल आ ऐ रूपसी...
माना है जिंदगी चाहत का एक सिलसिला..
मिलना-बिछडना भी है लगा रहता यहाँ...
क्यूँ मांगती है आ सीख ले तू छीन लेना..
बिन मांगे न मिला है न तुझे मिलेगा कभी.. ©

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 11-11-2010 )


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तुम्हारे ये दो आँसू ::: ©



तुम्हारे ये दो आँसू ::: ©

कुछ घाव हरे कर गए है..
तुम्हारे ये दो आँसू मेरी..
संवेदना को गहरा कर गए हैं..
किसी पुराने जख्म का रिसना..
और भर-भर कर उसका..
रिसते चले जाना..
नियति बन गया है अब..

तुम्हारे मन की पीड़ा..
आँसू की पहली बूँद से..
उजागर हो रही है..
एक ह्रदय से दूसरे तक..
क्यों इस पीड़ा का गमन..
हो रहा है निरंतर..

सतत अविरल बहते आँसू..
मेरे अंतर्मन को इन्होने..
जाने कहाँ जाकर छुआ है..?

शुक्रिया तुम्हारा..
तुम्हारे द्वारा मुझे..
कुछ आँसू उधार देने का..
जो अपेक्षित थे कभी से..
उन बूंदों से मेरा..
साक्षात्कार कराने का..

याद है मुझे तब..जब..
अनकहे ही तुम्हारा..
अमानत बन जाना..
किसी और का..और..
चुपचाप गुमसुम निगाहों से..
तुमको मेरा निहारना..
तुम्हें पता भी न था..

और यहाँ.. उफ्फ्फ्फ्फ़..
सारा जहाँ रिस रहा था..
आज फिर तुम्हें सामने पाना..
अतीत के मुर्दों को जगाना..
हर कंकाल नाच रहा है..
यादों का नंगा नाच..

तुमने तो चले जाना है..
फिर आने का स्वांग क्यों..
तुम्हारा आना और..और..
तुम्हारे ये दो आँसू मेरे..
कुछ घाव हरे कर गए है..
संवेदना को गहरा कर गए हैं..

किसी पुराने जख्म का रिसना..
और भर-भर कर उसका..
रिसते चले जाना..
रिसन सडन न बन जाये कहीं..
आह.. न आना चाहिए था तुम्हें..
चले जाओ-चले जाओ-चले जाओ..

_____ जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 07 नवंबर 2010 ) ©


Photography By :- Jogendra Singh (for both d pic's)

>>> Night view of above picture is at Worli see face ( Mumbai )
>>> These lags are my own lags at Vasai Beach ( Mumbai )
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तुम्हारे ये दो आँसू ::: ©SocialTwist Tell-a-Friend

खयाल जिंदा रहे तेरा ©



खयाल जिंदा रहे तेरा..
जिंदगी के पिघलने तक..
और मैं रहूँ आगोश में तेरे..
बन महकती साँसें तेरी..

तुझे पिघलाते हुए अब..
पिघल जाना मुकद्दर है..
बह गया देखो तरल बनकर..
अनजान अनदेखे नये..
ख्वाहिशों के सफर पर..

तुझे छोड़कर तुझे ढूँढने..
खामोश पथ का राही बन..
बेसाख्ता ही दूर तक..
निकल आया हूँ मैं..

सुनसान वीराने में तुझे पाना..
तेरी वीणा के तारों को..
नए सिरे से झंकृत..
कर पाना मुमकिन नहीं..
तुझसे दूर, तेरे पास भी..
रह पाना मुमकिन नहीं..

तुझे पिघलाते हुए अब..
पिघल जाना मुकद्दर है..
बह गया देखो तरल बनकर..
खयाल जिंदा रहे तेरा..
जिंदगी के पिघलने तक..
और मैं रहूँ आगोश में तेरे..
बन महकती साँसें तेरी..

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 06 नवंबर 2010 ) ©
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कानून के रखवाले

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06 अगस्त 2010 के दिन मैं आगरा में था...
अचानक एक शानदार वाकया सामने आ गया जिसमें कानून के दो रखवाले किसी तीसरे के साथ ट्रिपल सवारी का आनंद ले रहे थे...
जिस मोटर-साईकल पर ये तीनों सवार थे उसका नंबर है - UP80-BJ - 0639

अब मेरा सवाल है कि जिन्हें कानून का प्रहरी बनाकर जनता से कानून पालित करवाने हेतु रखा गया है वे स्वयं जब नियम-कायदे तोड़ते नज़र आ जाएँ तो उसके लिए हमारे कानून में क्या प्रावधान है... और अगर उनके खिलाफ सख्त कार्यवाही हो सकती है तो क्यूँ अधिकतर पुलिस वाले ही कानून तोड़ने में संलिप्त नज़र आते हैं.....?

व्यवस्था के रक्षक ही जब भक्षक बन जाएँ तो आम-जन पार कैसे पाए.....?

_____ जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 28-October-2010 )



Photography by :- Jogendra Singh
Place :- Agra ( near police lines ) ( 06-अगस्त-2010 )

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मुस्कान

 
मुस्कान ► 
 
इस सृष्टि की सबसे कठिन विधा बन गयी है यह काल्पनिक आती-जाती मुस्कान ... हाँ प्याली भर नेह उसे फिर संचित कर सकता है मगर यह प्याली और उसमें भरा नेह भी अब दुर्लभ वस्तु बन पड़े हैं ... देखना चाहो तो हर किसी की सूखी प्याली देखना सबसे अधिक सुलभ कार्य प्रतीत होगा ... 
 
जोगी ... :)


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अकेला रावण ही क्यूँ जलाया जाये ? ::: ©



अकेला रावण ही क्यूँ जलाया जाये ? ::: © (गंभीर सवालिया लेख)

► हिंदू धर्म में राम-रावण को अच्छाई एवं बुराई के प्रतीक के रूप में देखा जाता है ...मेरा सवाल है कि क्या सिर्फ इसीलिए रावण को बुरे रूप में देखा जाये कि उसने सीता हरण किया था ... ?

► मेरी समझ में उस स्थिति में राम और रावण दोनों ही का कोई महत्त्व नहीं है जब एक को केवल संहारक और दूसरे को दानव के रूप में देखा जाये ... गौर से देखा जाये तो रावण किसी रूप में राम से कम नहीं था ... ज्ञान, बुद्धि, बल, शौर्य, नाम, महत्त्व, और जाने किस किस बात में राम से कहीं आगे था ... उस समय के ग्रन्थ देखे जाएँ तो साबित होता है कि रावण से बड़ा वैज्ञानिक उस काल में कोई था ही नहीं ... जिस काल में लोगों को एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए पैदल अथवा घोड़े जैसे माध्यमों की आवश्यकता होती थी तथा-समय रावण बड़ी सहन से अपने उड़न-खटोले में उड़ा करता था ... अभी कुछ समय पहले टीवी में देखा कि श्रीलंका में रामायण काल के साक्ष्य प्राप्त हो रहे हैं ... इस तरह की बनावटें भी मिलीं जिनसे अंदेशा होता है कि कभी इन्हें आज की हवाई पट्टियों की तरह इस्तेमाल किया जाता होगा और उस जगह किसी भीषण अग्नि-कांड के भी साक्ष्य मिल रहे हैं जैसे हनुमान द्वारा लंका-दहन वाली बात यहाँ सच प्रतीत होती हो ... श्रीलंका में आज भी जमीन में जगह-जगह जमीन में बिखरे रूप में गोलियाँ मिलती हैं जिन्हें रावण ने हवाई सफर के दौरान मितली से बचने के लिए दिया था ... वैज्ञानिक विश्लेषणों से साबित होता है कि उन गोलियों में उच्चतम किस्म के औशधीय गुण मौजूद हैं ... इस तरह के साक्ष्य उस समय के भारत में या लेखों में ढूंढें नहीं मिलते ... श्रीलंका सरकार इन्हीं मिलते जा रहे साक्ष्यों की सहायता से अपने देश के ट्यूरिज्म को बढ़ावा देने की कोशिशों में भी लगी है ... हर हाल में उस दौर में रावण से श्रेष्ठ कोई और नज़र नहीं आता है ...

► यदि और भी ध्यान से देखा जाये तो सीता कांड को छोड़ कर उसके साथ कोई भी दुष्कर्म नहीं जुड़ा दिखाई पड़ता है ... खुद रामायण में ही लिखा है कि सीता ने उस समझ के स्थापित मानदंडों के अनुसार लक्ष्मण की बात नहीं मान कर रेखा लांघ कर अनजाने ही रावण का साथ ही दिया था तो रावण के साथ-साथ सीता भी क्या दोषी नहीं हो जाती है ... आज की स्थितियाँ पृथक हैं मगर तब की परिस्थितियों अथवा मानकों के अनुसार जो सही माना जाता था सीता ने वैसा नहीं किया ... रावण का कार्य असामाजिक था पर सीता के नारीत्व को आहत न करके उसने संयम का उद्धरण दिया ... तब रावण तो दोषी है पर क्या सीता को क्लीन चिट दी जा सकती है ... ? उसकी आसुरी शक्ति या कर्म की बात करें तो आर्यों में ही कौनसा ऐसा राजा था जो अपने राज्य-विस्तार के लिए दूसरे राजा और उसकी सेना-प्रजा को मारना नहीं चाहता था ... ? या उसके राज्य को हड़प करने पर आमादा नहीं था ... ?

► मेरी समझ कहती है आप अपने भीतर से दुष्कर्मों, दुह्सोचों को निकाल फेंको तो आपके भीतर का कथित रावण तो वैसे ही अधमरा हो जायेगा ... और जो बाकी रहेगा वह आपको राम से भी ऊंचे स्थान पर ले जाने वाला है ... क्योंकि राम के नाम पर भी कलंक है सीता से अग्नि-परीक्षा लेकर अपनाने का और उसके बाद भी एक बेवकूफ धोबी के आरोप भर लगाने मात्र से सीता को फिर से वनवास भोगने पर मजबूर कर दिया ... क्या राम को यहाँ रावण से कम दर्जा दिया नाना चाहिए जिसने अपनी पत्नी को जिसे वह सात फेरों के और साथ जन्मों के बंधन की कसमों के साथ अपने महल लाए थे , को अनजान जिंदगी गुजारने के लिए मजबूर कर दिया ... ? बाद में यह भी सोचने की आवश्यकता महसूस नहीं की कि एक कमजोर स्त्री जंगलों में किस तरह सुरक्षित रह पायेगी जबकि जंगली जानवर एवं असुरों सभी का खतरा बराबर मौजूद रहता था ... कैसे राम ने इतना बड़ा कर्म कर डाला जबकि रावण उसे उठाकर अपने घर ले जा रहा था और राम ने खुद ही सीता को दुनिया के थपेड़े खाने के लिए दुनिया के ही हवाले कर दिया ... ?

► किसके भरोसे राम ने सीता को अकेले निकाल दिया था और जब बेटे बड़े हुए तो उनका सर्टिफिकेट भी नहीं माँगा , सीधा अपना लिया ... क्यूँ ... ? इतने ही उच्च थे तो अंतर्ज्ञान कहाँ गया था जब पत्नी को निकाला था ... और अगर यह सही था तो नया ऐसा क्या हो गया जो सीता को बच्चों समेत फिर से अपना लिया ... ?

► अब मेरा सवाल है कि अगर जलना ही है तो क्यों सिर्फ रावण का पुतला जलाया जाता है ... ? राम जिसने अपनी पत्नी को अपने झूठे मर्यादा निर्वाण के लिए एक रावण नहीं वरन पूरे संसार के हवाले कर दिया था उस पर सवाल कब उठेगा ... ? सोचने का विषय है कि ग्रंथों के अनुसार ही हर बात को क्या केवल इसीलिए वैसा मान लिया जाये जैसा कि उनके रचयिता दिखाना चाहते थे अथवा हमें अपनी स्वयं की तार्किक विश्लेषण क्षमता का उपयोग भी कर लेना चाहिए ... ? सोचो ... क्या पता कुछ नया समझ आ जाये ... ?

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 14 अक्टूबर 2010 )

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नोट :- मेरे लेख में मैंने कहीं भी रावण को क्लीन चैट नहीं दी है बल्कि उसके साथ साथ राम की गलतियों को भी कठघरे में लाने का प्रयास किया है ...
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निर्झरण से झरण की ओर ::: ©


► निर्झरण से झरण की ओर ::: ©

समय का बहाव, पवन का प्रवाह,
सख्त भौंथरी चट्टान,
अब तीखे नक्श पाने लगी है,

न चाहते हुए भी,
मन का खुद को बरगलाना,
जैसे पानी का बर्फ बन,
चट्टान के भ्रम संग,
खुद को बरगलाना,

वक्ती थपेड़े पड़े हैं मगर,
आज नहीं कल ही सही,
बदलेगा प्रारब्ध मेरा भी,

क्षण-भंगुर हो,
भटक-चटक रही है,
चंचलता-कोमलता, मेरे मन की,
पिघल-बहाल हो रही है,
जैसे बर्फ की मानिंद,

अब और भी करनी है,
मेहनत करारी,
नयी भावुकता है,
नयी दुनियावी सोच है,
खा गए सोच पुरानी को,
मिल सारे दानव कलयुगी,

परन्तु अंत संग उदय भी है,
आँखें मूंदे नहीं दिखेगा,
मिंचमिंचाते ही सही,
खोल पपोटे देखा मैंने,
सामने है तैयार खड़ा,
मेरे स्वागत को आतुर,
सप्त-रंगी इन्द्रधनुष,
नयी आभा है प्रकाश नया,
गमन है मेरा,
निर्झरण की बर्फ से झरण की ओर..!!

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 13 अक्टूबर 2010 )


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निर्झरण से झरण की ओर ::: ©SocialTwist Tell-a-Friend

बेचारा सतयुग

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एक विचार ► 
कलयुग में सात्विक शक्तियां क्षीण हो रही हैं , यहाँ चलते रहो निरंतर जैसी बात में हर क़दम पर एक अच्छी चीज़ कम होती चली जाती है.. आसुरी प्रभाव उत्पादक दौर से गुजर रहा है.. सद्गुणों को बचाए रखना उतना ही कठिन जतन हो गया है जितना कि सूखी रेत को ढीली मुट्ठी में सम्हाले रखना.. सतयुग का समानता का अनुपात अब डगमगा गया है.. एक के अनुपात में सौ हैं..

एक के साथ एक-दो हैं , तो वहीं सौ के साथ हजारों हैं.. तामसी से बचने के लिए उसी की छात्र-छाया दिखाई देने लगी है.. बेचारा सतयुग जाये तो जाये कहाँ ? 
► ...जोगी... :(

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बेचारा सतयुगSocialTwist Tell-a-Friend

भाषाई मर्यादा

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► एक  विचार
► "सत्यम् वदम् - प्रियं वदम् , न वदम् - सत्यम् अप्रियम्" संस्कृत में कही इस बात से अच्छी बात और कोई नहीं ,,, क्योंकि भाषाई गन्दगी कितनी दूर तक असर डाल सकती है इसका कभी कभी अंदाज़ा तक नहीं लग पाता ... अक्सर बाद में उसे फ़ैलाने वाले भी उसके लपेटे में आ जाते हैं ... बेहतर है कि भाषाई सभ्यता और मर्यादा का भान और मान भी रखा जाये...
 
► जोगी... :)


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भाषाई मर्यादाSocialTwist Tell-a-Friend

काँटा और गुहार :: ©


Photography by : Jogendra Singh

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काँटा और गुहार :: © ( क्षणिका )


आसान नहीं है ...
पाँव से काँटा निकाल देना ...
हाथ बंधे हैं पीछे और ...
उसी ने बिखेरे थे यह कांटे ...
निकालने की जिससे ...
हमने करी गुहार है ...


जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 02 अक्टूबर 2010 )

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काँटा और गुहार :: ©SocialTwist Tell-a-Friend

कल रात सागर से :: ©


कल रात सागर से उठती-गिरती लहरें...
प्रबलतम वेग से अपनी तीव्रता का अहसास करा रही थीं...
उसी तीव्रता से तुम भी मेरे ख्यालों में थीं...
सोच रहा हूँ काश, खयाल ही जीने का जरिया हुआ करते...

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 01 अक्टूबर 2010 )

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कल रात सागर से :: ©SocialTwist Tell-a-Friend

घरौंदा कहूँ या सराय :: ©


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::: घरौंदा कहूँ या सराय :: ©

प्रेम सागर से झील की ओर जाता हुआ ...
जैसे छोटी सी दुनिया बसाना चाहता हो ...
छोटे सपनों सा घरौंदा बसाना चाहता हो ...

कोई आये कह दे मुझे रह लूँ बन पथिक ...
कुछ समय के लिए , तेरे इस आसरे में ...
सोच रहा हूँ अब इसे घरौंदा कहूँ या सराय ...
आना है तुम्हें फिर से चले जाने के लिए ...

तुम न आते तो मैं राह तकता तुम्हारी ...
सालता मुझे यह गम मगर ज्यादा नहीं ...
आकर चले जाना न बर्दाश्त होगा मुझे ...
बेहतर है तुम न आओ इस घरौंदे में ..
घर ही रह जाने दो मेरे इस घरौंदा को ...
क्या फर्क हो जाना है ? पहले भी तो ...
तुम बिन अकेला था , सूनी दीवारों में ..

प्रेम सागर से झील की ओर जाता हुआ ...
जैसे छोटी सी दुनिया बसाना चाहता हो ...
छोटे सपनों सा घरौंदा बसाना चाहता हो ...
पर अब राह पोखर की ओर जाती हुई ...

एक अकेली तलैया बन रही वीरानों में ...
ठहरे पानी में अब अक्स दिखना बंद हैं ...
ठहरेपन में यादों की झाडियाँ उग पड़ी हैं ...
क्या करूँ बूंदों से नज़र जो धुंधली हो रही है ...
कोई चेहरा जोगी पानी में नज़र नहीं आता ...

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 29 सितम्बर 2010 )

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घरौंदा कहूँ या सराय :: ©SocialTwist Tell-a-Friend

आश्रित इंसानियत

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एक सोच :

इंसानियत आज मज़हब/ राजनीति/ झूठ/ फरेब आदि के तले दब कर मरणासन्न है ...
किसे पुकारते हो तुम ... ?
जो आज खुद आश्रित है चंद भले लोगों पर वो ख़ाक जमाना बदलेगी ...

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh


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आश्रित इंसानियतSocialTwist Tell-a-Friend

फेसबुक में भक्तों की आँधी :: ©



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::: फेसबुक में भक्तों की आँधी :: © (मेरा व्यंग्य लेख)

► दोस्तों ... फेसबुक में मेरे जानने वालों के बीच दो तरह की सोचें घूम रही हैं ... एक तरफ मेरे सभी मित्रगण और अपने लोग कहते हैं कि मुझे फेसबुक नहीं छोडनी चाहिए और वे गलत भी नहीं हैं ... मेरा कोई भी अपना गलत सलाह दे भी कैसे सकता है ... मुझे पता है , जो मुझे थोडा भी ठीक से जानते हैं वे कभी मेरा या मैं उनका साथ नहीं छोड़ने वाला हूँ , न ही वो मुझे पलायन की सलाह देंगे ... वहीँ दूसरी तरफ कुछ महान आत्माएं हैं जो मुझे यहाँ से तड़ी ही कर देना चाहती हैं ... मगर वो सभी जो मुझे गायब कर देना चाहते हैं वे भूल में हैं ... मैं किसी से डर कर भाग नहीं रहा हूँ बल्कि यूँ समझिए यह मेरे आराम फरमाने का समय है ...

► खालिस "जाट" हूँ , हाथी ही समझो ... ऐसे कुत्ते-बिल्लियों के पीछे भोंकने या खिसियाने से मुझे कितना फर्क आ जाना है जो ... ऐसे लोग तो मुझे आराम देने का जरिया ही बनते हैं , अब इतनी सेवा तो इनको करनी भी चाहिए ... कैसे मैं इनको ना कर सकता हूँ ... कि ना पडो मेरे पाँव और ना ही दिन रात मेरे नाम की माला ही ज़पो ... साथ ही बिना ज्यादा मेहनत किये इन भक्तों की भक्ति स्वरुप फेसबुक में अब मुझे पहले से अधिक लोग जानने लगे हैं , समझो यह भी इन्हीं बे-दाम के नौकरों की वजह से ही है ... इन्होने अपने भगवान और माँ-बाप का नाम भी उतना नहीं जपा होगा जितना आजकल ये लोग मेरा नाम जपते हैं ... दोस्तों अब आप ही बताएं , इससे अच्छे बेगार करने वाले फोकटिये सेवक मुझे और कहाँ मिलेंगे ... ? लोग अपना नाम कमाने में पूरा जीवन गुजार देते हैं जोकि इन मरदूदों की सहायता से मुझे घर बैठे मुफ्त ही में हांसिल हो रहा है ... हा.हा.आहा...

► ► ►
इन्हीं भक्तों के कारण सभी को पता चलने लगा है कि मैं पेड आर्टिकल्स भी लिखता हूँ और मेरे खींचे फोटोज बिकते हैं ... सो क्या पता इनकी दी हुई प्रसिद्धि से , मुझे कोई अच्छी डील ही मिल जाये ........ :)

► मैंने तो ठीक से अभी आशीर्वाद देना तक नहीं सीखा ... क्या करूँ , कैसे करूँ , कोई तो मुझे बताये , और नहीं तो किसी कोचिंग का ही पता बता दे जहाँ यह विधा भी सिखा दी जाती हो ... अपने इन अनमोल भक्तों को मैं निराश नहीं करना चाहता ... इन्हीं की बदौलत ही तो आने वाले समय में मेरे जानने वालों की संख्या में तगड़ी संख्या का तडका लगने वाला है ... हे.हे.एहे... आज मैं समझ सकता हूँ कि भगवान को कितनी सुहाती होगी यह भक्ति और नराजगी में दी हुई गालियाँ ...

► राक्षस भी ज़रूरत होने पर तपस्या का सहारा लेते थे ... समझो ये लोग भी मेरे उपासक बने हुए हैं ... अब इन लोगों के पास अपना तो कोई गुण है नहीं तो क्यूँ न किसी दूसरे के नाम से खेलते हुए उसके नाम से पायी दिमागी रोटियों से ही पेट भर लिया जाये ... ? अरे भाई खाली दिमाग शैतान का घर होता है ... वो कहते हैं ना कि जिसमें कोई गुण नहीं होता , उसमें विवाद पैदा कर देने का विलक्षण गुण होता है ... अपने इसी गुण की वजह से ये चमचे या गुंडे-मवाली कहलाते हैं ... और हाँ यही सब बेच कर ही तो ये लोग अपनी रोटी भी जुटाते हैं ... सो मेरे प्रिय भक्तों मेरा स्नेहाशीर्वाद तुम्हारे सर पर हमेशा रहेगा ... जाओ और मेरे नाम को उछालते हुए अपना नाम कमाओ ... मेरी रचनाओं-कविताओं को चुराओ , मेरे फोटोज को इस्तेमाल करो और एक अच्छे और सच्चे गुलाम की तरह मेरा नाम सारे संसार में फैलाओ ...चिंता न करो एक दिन मैं भी तुम्हें आशीर्वाद देना अवश्य ही सीख लूँगा ... हा हा आहा ... :

 ► हाहाहा........ क्या करूँ ऐसा ही हूँ मैं ...
दोस्तों आप सभी बड़े हैं , आपका अनुभव भी मुझसे बड़ा है तो जो कहेंगे गलत नहीं कहेंगे ...वैसे मैंने इस पुराने बेतुके विवाद को अपने ही अंदाज़ में हमेशा के लिए एक हास्य-व्यंग्य की शक्ल में समाप्त कर दिया ...है ... इसके बाद वे लोग जो भी कहेंगे तो मेरा ज़वाब सिर्फ यही होगा कि ये लोग मेरी सेवा कर रहे हैं ...


जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 27 सितम्बर 2010 )

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फेसबुक में भक्तों की आँधी :: ©SocialTwist Tell-a-Friend

बिना मुखौटे



एक सोच : 

आज कितने हैं जो बिना मुखौटे रहते हैं... ? सबकी अपनी माया-खटराग हैं... कोई दाम का भूखा तो कोई नाम का भूखा... ना मिले तो दूजों की इज्ज़त या मनुष्यों की लाशों पर से गुज़रना भी इनके लिए गुरेज़ के लायक नहीं होता है... दूसरों की अस्मिता का हनन करते हुए आगे बढ़ जाना जैसे इनकी आदत में शुमार हो गया है... जिसे ये अपना मान समझते हैं चाहे वह दूसरों की नज़र में इन्हें बेशरम-बेईज्ज़त दर्शाता हो पर वही इन्हें खुद को ऊँचा महसूस करता है ...
जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh    :(


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आँसू ©




::: आँसू ::: ©

मोतियों से अश्क बहे जाते हैं जिसके लिए ,,, कोशिश है गिरने न दूँ इन्हें मगर ...
बिनबुलाए बेवजह नामुराद ये आँसू ,,, अनथक जाने कहाँ से चले ही आते हैं ...

► Jogendra Singh जोगेंद्र सिंह ‎( 26 सितम्बर 2010 )


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आँसू ©SocialTwist Tell-a-Friend

गुलिस्तान





कहने को तो तुम्हें दे देने थे, यह फूल मगर, ज़माने को यह गवारा न था !!
सूख चुके हैं फूल मगर, अब भी तत्पर हूँ देने को यह गुलिस्तान तुम्हें .. !!

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 25 सितम्बर 2010 )



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धर्म या राजनीती ( सोचने की अभी बहुत ज़रूरत है हमें )


धर्म या राजनीती ( सोचने की अभी बहुत ज़रूरत है हमें )

विवाद और मानव ► विवाद और मानव, दोनों का चोली दामन का साथ है ... प्राचीन काल, जब मनुष्य सभ्य नहीं था तभी से संघर्षों, ईर्ष्या, जलन आदि का चलन चला आ रहा है ...मगर उसका जो स्वरुप आज है उससे खुश होने की नहीं वरन शर्मिंदा होने की आवश्यकता है ... बच्चे ने छींक मारी, चुड़ैल पड़ोसन जिम्मेदार है ... घर, दफ्तर, बाज़ार सभी इसकी चपेट में हैं ... मंदिर के बाहर अधखाये माँस के टुकड़े पाए गए यह धार्मिक दंगा फ़ैलाने की साजिश है ... इन दिनों नया एक फैसला आने वाला है ... जो अगर एक समुदाय के पक्ष में आया तो वो लोग लड़ेंगे और यदि विपक्ष में आया तो ये लड़ेंगे , मगर इनका लड़ना तय है ...

मानवीय पहलू ► कुछ टुच्चे किस्म के स्वार्थी नेतागण अपनी-अपनी रोटियों को सेंकने को कोशिश में जाने कितने ही घरों के चूल्हे बुझा जाते हैं यह किसी को दिखाई नहीं देता  ... रोज-रोटी की जुगाड में लगे लोग इन दंगों की भेंट चढ जाते हैं ... रोते बच्चे के लिए कुछ खाने की जुगाड करने को घर से निकला मजलूम बाप शाम को जब घर नहीं लौट पाता तब कोई नेता या संगठन का अधिकारी इन्हें पूछने नहीं आता ... कई बार तो परिवार को यह तक पता नहीं चल पाता कि जो लौट नहीं पाया उसके न आने के पीछे छुपी असल वज़ह क्या है ... दूसरी ओर लोग सोच रहे होते हैं कि यह जो क्षत-विक्षत शरीर पड़ा हुआ है वह आखिर है किसका ... ?

पंचनामे में पुलिस की तरफ से एक लावारिस लाश पाई दिखा दी जाती है ... कुछ का पता चल जाता है तो मीडीया एवं अखबारनवीसों की ऐसी छीना-झपटी जैसे मुर्दे के घर वालों से ही अब उनकी रोटी चलने वाली हो ... थोड़े से रुपये देने की घोषणा जोकि कम ही लोगों को नसीब होती है , कारण कि बेचारी बीवी अपने पति के मरने का सबूत नहीं दिखा पायी ... अब वह बेचारी सड़क पर छितराए माँस के लोथड़ों में से कैसे ढूंढें अपने पति को ... और वह लाश जिसका सर सड़क के दांये फुटपाथ के किनारे , एक आँख सुए द्वरा फोड कर विक्षत बनायीं हुई या  फिर बम के धमाके से फटी-टूटी एक दूसरी लाश जिसके छितराकर फ़ैल चुके चेहरे की पहचान अब शायद उसके अपने घरवाले भी ना कर सकें ... शहर की सड़कों पर ऐसे ही नज़ारे आम होने लगते हैं जिन्हें देखना तो दूर सुनना भी ह्रदय-विदारक होता है ...

किलकारी मार-मार कर रोता बच्चा जिसके करीब उसकी माँ कज़ा (मौत) के हवाले हो चुकी है का करुण क्रंदन सुनने की उस समय जैसे किसी को फुर्सत ही नहीं होती ... उस समय कर्मकांडी अपना काम जो किये जा रहे होते हैं ... जैसे सभी को यमराज के पास हिसाब देना हो कि उसके दरबार में किसने कितने भेजे या किसके आदेश से कितने भेजे गए ...

मरता कौन है ► यह सवाल भी एक सोचने का एक नया मुद्दा हो सकता है ... ठीक से अगर सोचा जाये तो जो जलाये जाते हैं वे कच्चे झोंपड़े या सामान्य लोगों के घर होते हैं , उनमे से घसीटकर हिंदू या मुस्लिम बताकर काट डाले जाने वाले भी मजलूम ही होते हैं ... क्या कभी किसी ने सुना है कि कोई राजनेता या किसी संगठन का पदाधिकारी मारा गया हो ... या इस दौरान ऐसे किसी बंदे को देखा किसी ने जिसकी रोज़ी रोटी छिन कर उसके बच्चों के भूखों मरने की नौबत आई हो ...

आर्थिक पहलू ► दंगों के दुष्प्रभाव स्वरुप सरकारी गैर-सरकारी संपत्ति की तोड़-फोड से कितना नुकसान होता है उसका आकलन कर तो लिया जाता है मगर उसका सत्यापन कौन करे ? असली आंकड़े किये गए आकलन से कहीं आगे की चीज़ होते हैं ... जो तथ्य सरकार पेश करती है वे आधे-अधूरे होते हैं ... इस दौरान जाने कितने घरों का आर्थिक गणित गड़बड़ा जाता है इसका हिसाब कौन रखता है ? इन्हें हर्जाना कौन देगा ? बड़े स्तर के हर दंगे या बंद से देश को हजारों करोड रुपयों की चपत लगती है , सरकार तो इसे झेल जाती है परन्तु व्यक्तिगत स्तर पर चल रहे व्यापारों को मिली क्षति पर कौन जिम्मेदार कहलायेगा ?

आखिरी सवाल ► चाहे मंदिर रहे या मस्जिद रहे उसका फायदा क्या है ? क्या भगवान तुम्हारे अल्लाह/भगवान ने यह कह दिया है कि जब तक मेरे नाम पर हजारों-लाखों मनुष्यों की बलि नहीं चढाई जायेगी तब तक मुझे चैन नहीं आएगा ? या बलि चढ़वाने का काम अब ऊपर वाले ने अपने हाथों में ले लिया है ? और अगर ऐसा है तब भी कौन है वह जिसे खुदा/भगवान ने स्वयं आकार ऐसा करने को कह दिया  है ? सिर्फ मंदिर में शीश नवाने से या मस्जिद की अजान गाने से ही क्या हम इंसान होने का दर्ज़ा पा जाते हैं ? अगर ऐसा है तो क्यूँ नहीं सभी धर्मावलंबी मंदिरों या मस्जिदों के बाहर लाईन लगाकर खड़े नज़र आते ? या इंसानियत अब ईद का चाँद हो गयी है जो साल में सिर्फ कुछ-एक बार ही आती है ? अपने झूठे नाम के लिए औरों की छाती पर पाँव रखना कब छोड़ेंगे हम ? और घर को भरने के लिए मासूमों के खून की होली खेलना कब बंद करेंगे समाज के ये कथित ठेकेदार ? हिंदू हो या मुस्लिम या फिर कोई और भी हो, हैं तो सब आखिर मानव के बच्चे ही ना ... तो फिर बचपन से साथ खेलने वाले क्यूँ बड़े होकर एक-दूसरे को ही काट डालना चाहते हैं ?

शर्म करो अब ... बस करो, बहुत हुआ यह नंगा नाच ...
कब तक मासूम जानता के खून से अपनी होली मनोरंज़क बनाते रहोगे ?

सोचो ... !! सोचने की अभी बहुत ज़रूरत है हमें ... !!


जोगेन्द्र सिंह Jogedra singh ( 24 सितम्बर 2010 )

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धर्म या राजनीती ( सोचने की अभी बहुत ज़रूरत है हमें )SocialTwist Tell-a-Friend

हाँ यहीं तो हो तुम



हाँ यहीं तो हो तुम, और जा भी कहाँ सकती हो ...
तलाशते रहेंगे एक दूसरे में खुद को मगर ...
साये के साये में, साये को खोज पाएंगे कैसे ... ?
कोशिशें, तलाश, और यही ज़द्दोज़हद ढूंढ पाने की ...
जैसे खुद में दूसरा बाशिंदा बसा रखा हो हमने ...

गर हाथ थाम लेती जो तुम पास आकर मेरा ...
मौजूद साये को साये से अलहदा भी देख पाता ...
मगर ज़रूरत ही क्या तुम्हें अलहदा देखने की ...
तुम में समा कर मैं नज़र आता हूँ मैं से बेहतर ...

_____जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 23 सितम्बर 2010 )

Photography by : Jogendra Singh

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हाँ यहीं तो हो तुमSocialTwist Tell-a-Friend

मेरे जिस्म में प्रेतों का डेरा है


::::: मेरे जिस्म में प्रेतों का डेरा है ::::: © (मेरी नयी सवालिया व्यंग्य कविता)

मेरे जिस्म में प्रेतों का डेरा है...
नाना प्रकार के प्रेत...
भरमाते हुए...
विकराल शक्लें...
लोभ-काम-क्रोध-मद-मोह...
नाम हैं उनके...
प्रचंड हो जाता जब कोई...
घट जाता नया काण्ड कोई...
सृष्टि के दारुण दुःख समस्त...
सब दिये इन्हीं पञ्च-तत्व-भूतों ने...

लालसा...
अधिक से भी अधिक पाने की...
नहीं रहा काबू मन पे मेरे...
कोशिश...
कर देखी मैंने बहुतेरी...
मन में दिया रौशन कर लेने की...
रूह में बसा था जो ईश्वर...

कोशिश...
खोज उसे लेने की...
मिल गया बसेरा...
पर ईश्वर का कोई पता नहीं...
देख कर शायद...
लापतागंज का कोई इश्तिहार...
हो समर्थ...
कर काबू मन को...
खोज लाये कोई खोये ईश्वर को...

मगर...
फिर चढ़ेगा एक प्रेत ईश्वर पर...
फिर लगेगा इश्तिहार...
लापतागंज का...
संभवतः दौर नया है...
खुद ईश्वर की भाग-दौड़ का...

शायद...
हो गया था अहसास...
मेरे ईश्वर को...
अब उद्धार चाहिए उसी को...
जो कहलाता उद्धारक था...

हा हन्त...कैसे पार पड़े...
कौने में बैठा ईश्वर...
अपना नाम ना बताऊँ...
सोचता होगा...
भीषण दानवों से...
जिन्हें बचाया जीवन भर...
वे ही अब दानव बने बैठे हैं...
अब उनसे खुद को बचाऊँ कैसे...

मैं कहता..
आ देख मिल कर, मेरे दानव साथी...
कैसे होगा...?
अब उद्धार खुद उद्धारक का...

जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 21 सितम्बर 2010 )
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मेरे जिस्म में प्रेतों का डेरा हैSocialTwist Tell-a-Friend

गुमशुदा की तलाश


एक लड़की लापता है ...
चिंताग्रस्त ...
हड्डियों के ढाँचे सी दुबली ...
सुना है घर से अकेली निकली है ...
कहती है ज़माना बदलेगी ...

दीवारों पर गुमशुदा का ...
"प्रति" जी का इश्तिहार लगा है ...
नाम छपा मानवता ...
कोई कहे यथार्थवादी डाकू ...
कोई कहे भौतिकता का डाकू ...
उठा ले गया उसे ...

लिखा है गुमशुदा के पोस्टर में ...
किसी सज्जन को मिले तो ले आना ...
मैं बोला भईया ...
सज्जन हैं कहाँ अब ...
जो पहले ही गुशुदा है ...
उसी से काहे गुहार लगा बैठे ...
काहे गलत इश्तिहार लगा बैठे ...
या यूँ कहें मीडिया का ...
कारोबार बढ़ा बैठे ...

मानवता नाम की चिरैया ...
या लड़की जो भी कहो ...
इस नए भौतिकतावादी दौर में ...
लुप्तप्राय नहीं वरन ...
दफ़न हो चुकी समझो ...
और अब ...कौन नहीं जनता ?
मुर्दे कभी लौट कर नहीं आते ...

जोगेन्द्र सिंह Jogendra singh ( 18 सितम्बर 2010 )


Photography by : Jogendra Singh ( all pic's are in dist pic are taken by me.)
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(मेरी ऊपर वाली रचना प्रतिबिम्ब भईया की रचना से प्रेरित है...
उनकी रचना नीचे दिए दे रहा हूँ ... आप देख सकते हैं ...)

एक लड़की दुबली पतली
चिन्ताओ से ग्रस्त,
आयु कुछ हज़ार साल
सत्यता का घुंघट निकाल
घर से निकली
नवयुग के इस मेले में
लापता हो गई.
एक सड़क है - आधुनिक सभ्यता
वही से चली है
उसका पता सुना है की
नैतिकता के घोडे पर सवार
भौतिकवाद के डाकू ने
उसे उठाया है
यदि किसी सज्जन को मिले
तो घर पहुँचने का कष्ट करे
लड़की का नाम " मानवता " है
► ( प्रतिबिम्ब बडथ्वाल )
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गुमशुदा की तलाशSocialTwist Tell-a-Friend

शेर या गीदड (एक व्यथा)


आज कौन शेर है ... ?
सब हैं गीदड ...और ...
शेरनियों से शादी रचाए बैठे हैं ...
वो गुर्राया करती हैं ...
हम दुबके पड़े रहते हैं ...

घर से निकल कर कैसे कह दूँ ?
चौका-चूल्हा, बर्तन-भांडे ...
थे कभी जो उनके हिस्से ...
आते हैं अब मेरे हिस्से ...

कोमला, निर्मला, सौंदर्या ...
अबला, पीड़ित, कुचली, प्रताड़ित ...
कितने ही उपमान पाए इन्होने ...
सभी जानते हैं असलियत इनकी ...
कौन चाहता लाँघ द्वार को ...
हो जाये यह चर्चा आम ...

देख-देख सूरत इनकी ...
होते थे पुलकित कभी ...
सूरत वही पर सीरत नयी है ...
मन वही इधर भी है ...
नासपीटी बस दहशत नयी है ...
जो होते थे कम्पायमान कभी ...
कम्पित-भूकम्पित कर डाला उन्होंने ...

कौन जाने अब क्या हो कल ...
बन छिद्रान्वेषक ...
अपनी नज़रों से ...
गुजारेंगी हर पल ...

गुजर गया जो ...
वह रूप बदल फिर आयेगा ...
पीटते-पीटते, पिटने लगे हैं ...
है यह समय का पहिया भईया ...
इसके वार से बचा न कोई ...
बदल रहा यह दौर है ...
छोड़ सजातीय विजातीय संग हैं ...
बोलो भईया शेर-शेरनी कब होवेंगे संग ?

► ...जोगेन्द्र सिंह ... Jogendra Singh ... ( 17 सितम्बर 2010 )
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शेर या गीदड (एक व्यथा)SocialTwist Tell-a-Friend

हिंदी दिवस (क्या इस दिवस का नाम लेने भर की भी हैसियत है हमारी ?) ©


हिंदी हिंदी हिंदी !!!

► . . . आज सभी इस शब्द केपीछे पड़े हैं, जैसे शब्द न हुआ तरक्की पाने अथवा नाम कमाने का वायस हो गया l खुद  के बच्चे अंग्रेजी स्कूल में चाहेंगे और शोर ऐसा कि बिना हिंदी के जान निकल जाने वाली है l अरे मेरे बंधु यह दोगलापन किसलिए ? स्वयं को धोखा किस प्रकार दे लेते हैं हम ? किसी से बात करते समय खुद को अगर ऊँचे दर्जे पर स्थापित दर्शाना हो तो इसी हिंदी का दामन जाने कब छूट जाता है, पता ही नहीं चलता l उस वक्त टूटी-फूटी या साबुत जैसी भी सही परन्तु हिंदी के कथित ये गीतकार महानुभाव बोलेंगे बस अंग्रेजी में ही l कहाँ गुल हो जाता है तब उनका हिंदी प्रेम ? अनायास ही ऐसा क्या हो जाता है कि जो आज प्रेयसी है वह तत्क्षण ही अपना दर्ज़ा खो बैठती है ?

► . . . हम यह भरोसा कब दिला पाएंगे स्वयं को कि भाषा जो चीनी भाषा के बाद दूसरे नंबर पर विश्व में सर्वाधिक रूप से बोली जाती है वह अपने ही उद्गम स्थल पर दोयम दर्जेदार नहीं वरन अपने आप में एक सशक्त अभिव्यक्तिदार भाषा है l

► . . . ज़रूरत यह नहीं कि वर्ष में एक बार कुछ हो-हल्ला मचा कर या नारेबाजी द्वारा हिंदी की आरती बाँच ली जाये और इसे ही इति समझ लिया जाये, वरन आवश्यकता है कुछ यथार्थवादी कदम उठाये जाने की जिन्हें कोई उठाना नहीं चाहता l कौन करे कुछ जब परायी भाषा से रोटी मिल जाती है ? हमें पड़ी ही क्या है, कहकर पल्ला झाड लिया जाता है l कहाँ कुछ फर्क पड़ जाने वाला है ?

► . . . यही सोच लिए, जिए और मरे जाओ l हिंदी उत्थान के नाम पर सारे देश में जाने कितने सरकारी गैर-सरकारी संसथान स्थापित हैं जो अपने कर्मचारियों के घर की रोज़ी-रोटी का जरिया बने हुए हैं l परन्तु क्या कभी किसी ने यह देखने की कोशिश की है कि इस सारे खटराग के बाद भी हिंदी का वास्तविक विकास कितना और किस स्तर तक हो पाया है ? आवश्यकता है स्वयं का आत्मविश्लेषण किये जाने की, यह देखे जाने की, कि असल में हम हैं कहाँ ?

► . . . जिस विस्तृत पैमाने पर हिंदी बोली जाती है, इस सम्भावना को देख-समझ विदेशियों ने अपने यहाँ कोर्स खोल रखे हैं l अभी हाल के कुछ महीनों में अमेरिका ने अपने कॉलेजों में हिंदी विभाग भी शामिल किया था, ताकि वे लोग इस भाषा से लाभ उठा सकें l एक बस हम ही हैं जो वैश्विक स्तर पर अपनी महत्ता को नहीं समझ पा रहे हैं l यदि हम चाहें तो इतनी मजबूत स्थिति में तो हम हैं ही कि किसी भी अन्य देश को अपनी भाषा के बल पर नए सिरे से सोचने पर मजबूर कर दें, परन्तु आज भी शायद मानसिक स्तर पर हम अंग्रेजों के गुलाम ही हैं, जो उनके जाने के बाद भी उनकी सभ्यता-संस्कृति और भाषा तक को एक अच्छे और सच्चे आज्ञाकारी एवं ईमानदार ज़र-खरीद गुलाम की हैसियत से ढोये जा रहे हैं l मैं तो कहता हूँ मिलकर सब बोलो मेरे साथ "लौंग लिव द किंग - लौंग लिव द किंगडम" l

► . . . कुछ होगा ज़रूर मगर शोर मचने भर से नहीं बल्कि अपनी मानसिकता बदलने से होगा  l

► . . . जय हिंद ll और अगर जाग गए तो जय हिंदी तो हम कर ही लेंगे ll




► ► ► ► ► जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 14 सितम्बर 2010 )

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हाँ बूढा हूँ, पर अकेला नहीं



दिन का हौले चुपके से..
ढलते चले जाना..
क्षितिज रेखा से झाँकना सूरज का..
छिटका रहा सूरज..
रक्ताभ बसंती आभा..
रुई के फाहे सम आसमान पर..
तैरना वह बादलों का..
क्षितिज के किसी कौने से..
उड़ आते पंछी बन रेखा से..

अपने ही दायरे में..
दिन भर सिमटते वृक्ष..
अब साँझ के आँचल तले..
सीमाओं के विस्तार में लगे हैं..
चहचहाते कलरव करते खग..
गदर्भ ध्वनि से भयभीत होते शावक सिंह के..
आगोश नहीं पर लगता आगोश सा..
खगी का स्नेह भरा आभास चूजों से..

एक ओर खड़ा सब देख रहा हूँ..
मुझ पर भी चढ़ा था कभी यह रंग..
पृकृति संग..किया था रमण मैंने भी..
अब जान पड़ता सब आघात सा..
ज़रिये..जो थे वायस मेरी खुशियों के..
चुभते हैं ह्रदय में अब..
उन्हीं के होने से तीखे शूल से..

नज़ारे..पहले भी थे मेरे चारों ओर..
कुछ नहीं बदला..
आलम अब भी वही है..
गर कुछ बदला है..
तो हैं वह अहसासात मेरे..
न था कभी..पर अब अकेला हूँ..
निस्सहाय अब मैं मौन खड़ा हूँ..
सूख गयी है काया..
मुक्त-बंधन हो रह गया अकेला..

ज़र्ज़र काया में रमती जान..
हाँ अब बूढा हूँ मैं..
एक कमरे वाले घर की छत..
अब चुचाने लगी है..
बारिश के मौसम में..
हर बूँद के नीचे भांडे पड़े हैं..

उमड़-घुमड़ रही हैं..
अतीत की यादें..
किसी कौने में पड़े..
मुझ से ज़र्ज़र मेरे मन में..
जितने भी कहाते मेरे अपने हैं..
हैं नहीं..थे हो गए हैं अब वो..
माल मिला फिर चलते बने सब..
पड़ा हूँ पीछे मर-खप जाने को..

दृश्य वही हैं..सौंदर्य वही है..
बदल चुका मन अब वह मोह नहीं है..
फिर से..
दिन का हौले चुपके से..
ढलते चले जाना..
क्षितिज रेखा से झाँकना सूरज का..
छिटका रहा सूरज..
रक्ताभ बसंती आभा..
रुई के फाहे सम आसमान पर..
तैरना वह बादलों का..
क्षितिज के किसी कौने से..
उड़ आते पंछी बन रेखा से..

स्वयं को खोकर स्वयं मे खोजता..
निर्मिमेष निहारता बदस्तूर..इन दृश्यों को..
कि अब मैं अकेला हूँ..निपट अकेला..

जुड़ने लगा है नाता टपकती बूंदों से..
खटकते नहीं हैं अब फूटे भांडे..
दीमक लगी लकड़ी की खूँटी..
सम्हालती है जो फटे कुर्ते को..
अपनी सी अब लगने लगी है..

सालती थी जो बात अब तक..
अपनी बन नया नाता गढ़ने लगी है..
शायद कभी अकेला था ही नहीं..
इन्हें जान भर लेने की देरी थी..
निर्जीव नये संसार के साथ..
हाँ बूढा हूँ, पर अकेला नहीं..
हाँ अब मैं अकेला नहीं हूँ..


जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 27 अगस्त 2010 )

Photography by : Jogendra Singh ( all the photographs in this picture are taken by me )
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आजकल खयाल



आजकल खयाल ..
किसी नाव से पानियों पर बहते हैं ..
न रह पाते पानी पर तब भी ..
कुछ देर विचर लहरों पर ..
गुम फिर पानी में हो जाते हैं ..

चैन वहाँ भी अब न पाते हैं ..
लेते थाती गहरे पानी की हैं ..
डूब-ऊब गहरे रहस्यों में ..
खोज लाते हैं नित नए अर्थ जहाँ के ..
न था मालूम होगा गहरे में गहरा ..
यह सोच समंदर ..

आजकल खयाल ..
किसी नाव से पानियों पर बहते हैं ..
कुछ देर विचर लहर पर ..
गुम फिर पानी में हो जाते हैं ..

_____जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 25 अगस्त 2010 )

(इस कविता की प्रथम दो पंक्तियाँ मेरे मित्र सोहन से प्रेरणा स्वरुप ली गयी हैं ... )

Photography by : Jogendra Singh (10 July 2010 )
at keshav Srishti , Bhainder ( Mumbai )

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हम



@► एक सच @

इतने बुरे तो हैं हम ... जब हमारे साथ कुछ बुरा होता है तो इल्जामों की झड़ी लगा देंगे और दूसरे पर बीत रही पर नज़र घुमाने तक की फुर्सत नहीं ... वाह रे हम ... हमारे हम होने पर बधाई ...

... ( जोगेन्द्र सिंह ) ...









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अलगाववादी



@ एक सोच @

क्या लगता है..? अलगाववादी सिर्फ आतंकी ही हो सकते हैं, वे भीतर भी भरे हुए हैं, जो अपनी हर बात पर बवाल खड़ा कर अन्यों को तकलीफदेह स्थितियों में पहुंचा देते हैं, फिर चाहे वह जाति व धर्म के नाम पर हो या व्यक्तिगत कुंठा को निकलने जरिया मात्र.....

: जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh )

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आम आदम



@ एक विचार @

अपने और समाज के बीच पिस जाता है आम आदम.. न अपने लिए ही कुछ कर पाता है और न समाज ही को कुछ दे पाता है.. यही है बहुलता से उपलब्ध इंसान की कड़वी सच्चाई.. जो इसके विपरीत हैं वे संख्या में ज़रा से हैं.. उनके होने न होने से कोई बड़ा फर्क नहीं आ जाता..

(..जोगेन्द्र सिंह..)

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स्वतंत्र-परतंत्र ( सवाल हैं बहुतेरे, है कोई उत्तरदाता..? )



  • स्वतंत्र-परतंत्र
  • मात्र-भूमि पर कुर्बान हो होकर दी गयी क्रांतिकारियों की शहादत का अंजाम आज कुछ यूँ नज़र आता है कि पहले गोरे अंग्रेज़ हम पर राज किये जाते थे और अब वाले अंग्रेज़ काले रंग के हैं l मात्र शासक बदला है मगर व्यवस्था बद से बदतर होती चली गयी है l
  • आज़ादी से करीब 63-वर्ष बीत चुके हैं मगर तंत्र कहीं ज्यादा बिगड़ा नज़र आता है l आज भी पुराने लोग कहते नज़र आ जाते हैं कि इससे अच्छा राज तो अंग्रेजों का ही था l तब कम से कम यह दुःख तो न था कि अपने ही खाए जाते हैं l पैदा होने से लेकर पढाई, खेल, एडमिशन, नौकरी, दफ्तर तक़रीबन सभी जगह भ्रष्टाचार का बोलबाला है l जैसे बिन पैसे खिलाये तो आदमी चैन से मर तक नहीं सकता, वहां भी सर्टिफिकेट का खेल शुरू हो जाता है l
  • किसी भी मुद्दे पर बात या बहस करना जितना आसन है उतना ही मुश्किल होता है उसके समग्र समुचित हल तक पहुंचना..और यह कोई एक दिन या एक वर्ष का कमाल नहीं हो सकता बल्कि खुद को इसमें झौंकना होता है जो कि आम तौर पर सामान्य इन्सान अपने बस के बाहर समझते हैं.. या यूँ कहें कि एक आम भारतीय मुसीबतों को झेल-झेल कर इतना पक्का हो चुका है कि उसे अपने मूलाधिकारों तक का भान भी नहीं रहा है..सिस्टम में जितनी गन्दगी है उसे बढ़ावा देकर वह भी आगे की ओर अग्रसर हो लेता है यह सोचकर कि यह तो होता ही है.. इसे कौन रोक सकता है.. फिर चाहे वह रिश्वत देना हो या लेना या चाहे कोई चारा ही चर जाए यहाँ किसी को कोई अंतर नहीं आता..
  • आज सेना जैसा सुरक्षा तंत्र भी इसका अपवाद नहीं रहा l सुनी सुनाई बातें ही नहीं कुछ संपर्को द्वारा भी जान पाया कि इस सर्वाधिक सम्माननीय तंत्र में भी भ्रष्टाचार घुसपैठ बना चुका है l हथियारों का सौदा हो या फौजी रसद का कॉन्ट्रेक्ट सभी जगह पैसे का खेल दिखाई पड़ता है l अक्सर यहीं से राष्ट्रीय सुरक्षा से सम्बंधित गोपनीय दस्तावेज़ बेचते अधिकारीगण पकडे जाते हैं l और भी जाने क्या क्या l
  • जिसे देखो राष्ट्र के नाम आज अपनी भावनाओं को बाँटे जा रहा है lजैसे आज सिर्फ एक ही दिन में सारे सुधार आन्दोलन हो लेंगे l किसी और का मत जो इनकी समझ से परे है या जो इनकी सोचों के विपरीत है इनकी नज़र में वह यक़ीनन एक गद्दार का मत है l जैसे आज राष्ट्र-भक्ति साबित करने के लिए इन्होने सर्टिफाई कोर्स खोल राखा है और जिसने इनसे दीक्षा नहीं पायी वह कॉंग्रेसी या पाकिस्तानियों का पिट्ठू है l
  • जिन मुद्दों को ये लोग उठाते हैं वे भी व्यक्तिगत अहमों के चलते गौण हो जाते हैं या मुद्दे उठाये ही इसीलिए जाते हैं कि कोई थोथी प्रसिद्धि मिल सके l कभी टीवी चैनल पर तोड़-फोड़ कि जाती है तो कभी परप्रान्तियों को भागने के नाम पर उनकी रोज़ी-रोटी पर हमला किया जाता है l अपने प्रान्त के लोगों को क्षेत्रीय भाषा के माध्यम से शिक्षा पाने को कहा जाता है और खुद के बच्चे इंग्लिश स्कूल में ऐश करते नज़र आते हैं l परप्रांती इनकी पार्टी में भी जगह पाते हैं और उनकी सहायता से उन्हीं को भी भागते नज़र आते हैं l कोई हिन्दू की बात करते हैं और हिन्दू ही उनसे प्रताड़ित दिखाई देता है l

  • कब बंद होंगी ये दोगली नीतियाँ..? एक ही मुद्दे पर अपने लिए कोई और सोच और अन्यों के लिए कोई और ही मानदंड, आखिर क्यूँ..?
  • सवाल हैं बहुतेरे, है कोई उत्तरदाता..?

( शहीदों की मजारों को रौशन करने से कुछ हांसिल नहीं होगा..
जो होगा कुछ तो बस उनके सौंपे देश को चमन बनाने से होगा.. )



  • जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 14 अगस्त 2010 )

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शहीदों की मज़ार



शहीदों की मजारों को रौशन करने से हांसिल कुछ नहीं होगा..
जो होगा कुछ तो बस उनके सौंपे देश को चमन बनाने से होगा..

(..जोगी..)
11-अगस्त-2010


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तिरंगे की दुर्गति



सबसे पहले ll भारत माता को सादर वन्दे ll

► मैं आज सभी भारतीयों से एक बात बांटना चाहता हूँ.. वह यह कि अचानक फेसबुक पर किसी मोहतरमा के द्वारा डाले गए स्टेटस पर मेरे मित्र सत्यव्रत जी की नज़र पड़ी तो उन्होंने इसकी भाषा पर आपत्ति जतायी कि अगर कुछ गलत किया गया है तो उस गलत को जाताने का भी एक सम्माननीय तरीका होता है.. फिर मेरा मानना भी है कि जब बात राष्ट्र-ध्वज की हो रही हो तो आपकी भाषा में और अधिक शालीनता आ जानी चाहिए..

उक्त महिला ने अपने स्टेटस में जो लिखा था उसे ब्रेकेट्स में यहाँ ज्यों का त्यों दे रहा हूँ >>>
(( आज देश प्रेम की बाते बरसाती मेंढक की टरटराहट की तरह हो गयी है ! सारा फेसबुक देशभक्ति से रंगा हुआ है ! कुछ अपने प्रोफाइल फोटो में तिरंगा लगा रहे हैं तो कुछ पाकिस्तान को कोसने में लगे है और कुछ फेसबुकियो ने ऐसा बवाल मचाया है आजकल कि वे देश कि सारी समस्याओ का सारा निपटारा अभी फेसबुक पर ही कर के दम लेंगे! इसके ठीक एक दिन बाद ही यानि कि १६ अगस्त और २७ जनवरी को ही हमें तिरंगा कूड़े या सडको पर फेंका हुआ हुआ नज़र आएगा ! ))

► आप सभी से एक सवाल है मेरा कि जिस भी महान विभूति ने ने फेसबुक में ऐसा स्टेटस डाला है उसकी अपनी मंशा क्या रही होगी इसके पीछे, यह तो वही बता सकती है, परन्तु क्या आप में से कोई एक, सिर्फ एक भी मुझे इस बात कि गारंटी दे सकेगा कि ऐसा सच में नहीं होने वाला है..?

► किसी और ने देखा हो या नहीं देखा हो लेकिन अपने बचपन से बचपन से अब तक इस तरह के कुकृत्य देखता आ रहा हूँ मैं..ऊपर वाले की है उन पर जिन्हें ऐसा करते मैं कभी देख नहीं पाया अन्यथा उनकी गत अपेक्षाकृत कहीं अधिक बुरी होती..

► इसका हल किसी इंसान मात्र को कोसने से नहीं निकलने वाला, बल्कि सार्थक हल निकलेगा जब हम ऐसी सफलता पायें जो किसी भी ख़ास दिन जो राष्ट्र के लिए समर्पित हो, पर सार्वजानिक रूप से झंडे का वितरण रोक सके..

► क्या लगता है आप लोगों को..? कोई भी हाथ में देश के सम्मान चिन्ह के रूप में एक झंडा लिए चलता आएगा और कहेगा मैं देश भक्त हूँ तो यह मान लेने लायक बात है..? या सिर्फ ध्वजा हाथ में ले लेना ही राष्ट्र-भक्ति का परिचायक है.. अगर सिर्फ झंडे को हाथ में लेना ही सबूत है तो सारे गद्दार इसे ले लेकर इसकी आड़ में अपनी करतूतों को अंजाम दिए जायेंगे.. कौन रोकेगा उन्हें..

► मेरा यह मानना है कि जिस तरह वर्ष के अन्य दिवसों में राष्ट्र-ध्वज केवल जगह विशेषों पर ही फहराया जाता है ठीक वैसे ही ख़ास दिवसों पर भी होना चाहिए ताकि ध्वज के साथ हो रही कथित संभावित अवमानना से बचा जा सके..

► जो लोग मेरे इस विचार विरोध में आना चाहें, पहले वे बिना ध्वज अपनी राष्ट्र-भक्ति साबित करें फिर ध्वज को हाथ लगाने कि जुर्रत करें..


ll वन्दे मातरम ll

जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 11 अगस्त 2010 )


Note :- उपरोक्त लेख पर मेरे फेसबुक प्रोफाईल पर छिड़ी बहस देखना चाहें तो नीचे वाले लिंक पर क्लिक करे >>>
http://www.facebook.com/photo.php?pid=192991&id=100000906045711&ref=fbx_album


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