ह्रदय का खिलौना.. ©
- By Unknown
-
0 comments
Labels:
कविता कोष
ह्रदय का खिलौना.. Copyright © 2009-2011
ह्रदय खिलौने सा है ,
वे कहते इसे इक शब्द मात्र ,
कहा किसी ने भर गया जब दिल ,
वह तोड़ उसे नया ले आया जाकर ,
काँच सा है ,
सच है यह बानगी तेरी ,
आरोपित हुआ मगर ,
ना देखा किसी ने ,
काप्पुस संग शीशे को सहेजा गया ,
काप्पुस में पड़े क्षुद्र जंतु बहुत ,
ज्यों कमल संग होती कीचड़ बहुत ,
त्यों काँच सहेजा गया ,
वह पुष्प सी कोमलता संग ,
काँच सा है , पर काँच नहीं ,
होता अघातिक , विघटित नहीं ,
चातक की प्यास सी अनुभूति ,
नित-प्रति निहारना काँच से चंदा को ,
अनूठा मंजर , एक अनूठी विरह वेदना ,
पर सोचा है किसी ने ?
इस विरह वेदना में भी ,
वह रोज नहाता स्निग्ध चाँदनी में ,
चाहे टूटे काँच की हो ,
या हो अविघटित ह्रदय चाँदनी ,
अकिंचन मन किंचित भयभीत सा ,
दुबक जाता जिस कौने में ,
वह कौना है मिलता उसे काप्पुस में ही...!!
▬● जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (31 जनवरी 2011)
यह कविता उस भावुकता का ज़वाब है जिसमें कुछ खत्म नहीं होता है....
जो है वह अविनाशी है , बाकी सब भ्रमित हो जाने का अहसास है......
_____________________________________________
चिराग मन मेरा.. Copyright © 2011
Saturday 29 January, 2011
- By Unknown
-
2
comments
Labels:
कविता कोष
चिराग मन मेरा.. Copyright © 2011
चिराग मन मेरा ,
मन से रौशन घर तुम्हारा ,
लपलपाती लौ पर बुझते पतंगे ,
अंतिम सांस लेती मेरे दिये की आत्मा ,
मरणासन्न उसका ईंधन ,
तुमसे विलग होने का भय ,
लपलपाहट को और बढ़ा देता है ,
उस भानु की भाँति ,
जो शाम के धुंधलके में ,
अंधकार पर विजित होने को ,
कमजोर से अंतिम प्रयास में ,
जो लिप्त रहता है परन्तु ,
अगला ही पल उसके लिए ,
जलजले सा अहसास ले आता ,
तुमसे विलग होना जैसे ,
प्रारब्ध सा ठोस जान पड़ता ,
क्षणों में फिर मेरा पड़ा होना ,
बुझे दिये सा किसी कूडेदान में ,
गली की बुहारन में ,
सवेरे मेरा बुहार दिया जाना ,
प्रभात के धुंधलके में ,
ओस युक्त नम हवा के बीच ,
तुम्हारे द्वार की झिर्री से ,
फिर छन कर आती नयी लकीर ,
कलेजा चाक था ,
कहने को कुछ ना था ,
सुप्त साँसों संग ,
गली के किसी किनारे में ,
बुहारिन की गाड़ी में पड़ा ,
फिर मिटटी हो जाने को तत्पर ,
जीने का अब वह चाव ना था ,
दर्द की लहर सी उठ रही ,
संभवतः कोई किनारा मेरे दिये का ,
भंगुर बना बैठा है ,
बुहारिन की निर्दयता ने उसे ,
भौंथरा और बेडौल बना दिया है ,
कुछ पल उपरांत शहर किनारे ,
किसी बरखा के इंतज़ार में पड़ा ,
फिर गलने की आस लिए ,
फिर ढलने को उन्मुख मन ,
हौले से हँस पड़े वे टुकड़े ,
जो पहले ही बिखरे थे मेरे गिर्द ,
कि पकी मिटटी से बना मन ,
वह टूटा पका ठोस दीपक ,
नए सांचे तक का सफर कैसे करे ,
स्वप्न अधूरा लिए ,
तुम्हारे द्वार से आ रही ,
उस नयी रौशनी के उदगम का ,
इंतज़ार करने लगा हूँ ,
जाने किस रात की सुबह ,
वह भी निकट पड़ा होगा ,
नेपथ्य से मध्यम सी उठती आवाज़ ,
मौत का गीत जो मेरे लिए था ,
पहले रोया फिर हँसकर गया मैंने भी ,
गीत गाते किया इंतज़ार उस नए दीपक का..!!
जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (29 जनवरी 2011)
●●●▬▬▬▬●●●▬▬▬▬●●●▬▬▬▬●●●▬▬▬▬●●●
★ वंदे ★ .....
Monday 24 January, 2011
- By Unknown
-
2
comments
..... ★ वंदे ★ .....
उनके लिए जो शहीद हो गए मिटटी पर.....
और उनके लिए जो आज भी शहीद होने ,
या किसी दुश्मन को शहीद कर देने का ज़ज्बा रखते हैं.....
जो जज्बा रखते हैं बिन शहीद हुए देश को आगे ले जाने का.....
वंदे उन सभी के लिए जिनके हाथ में देश की बागडोर है.......
उनके लिए नहीं जो बातों के ढेर पर खुद को देशभक्त घोषित किये घूमते हैं.....
.......................★ जोगी ★..... :-))
.
उनके लिए जो शहीद हो गए मिटटी पर.....
और उनके लिए जो आज भी शहीद होने ,
या किसी दुश्मन को शहीद कर देने का ज़ज्बा रखते हैं.....
जो जज्बा रखते हैं बिन शहीद हुए देश को आगे ले जाने का.....
वंदे उन सभी के लिए जिनके हाथ में देश की बागडोर है.......
उनके लिए नहीं जो बातों के ढेर पर खुद को देशभक्त घोषित किये घूमते हैं.....
.......................★ जोगी ★..... :-))
.
निपट अकेला...Copyright © 2011
Sunday 23 January, 2011
- By Unknown
-
2
comments
पत्ता और तूफान.. Copyright © 2011
- By Unknown
-
2
comments
पत्ता और तूफान.. Copyright © 2011
पत्ते को आज किसी ने तूफान कह डाला ,
हाय रे तुमने आज क्या गज़ब ढा डाला ,
उड़ाने की कोशिश में खुद उड़-उड़ जाता ,
हवा का झौंका क्या फूँक से सरक जाता ,
डाल पे लटका तब तूफान सा बना देता ,
अदने से तूफान में देखो खुद उड़ा जाता ,
जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (23 January 2011 1:05 PM)
.
पत्ते को आज किसी ने तूफान कह डाला ,
हाय रे तुमने आज क्या गज़ब ढा डाला ,
उड़ाने की कोशिश में खुद उड़-उड़ जाता ,
हवा का झौंका क्या फूँक से सरक जाता ,
डाल पे लटका तब तूफान सा बना देता ,
अदने से तूफान में देखो खुद उड़ा जाता ,
जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (23 January 2011 1:05 PM)
.
अकिंचन मैं.. © 2011
Thursday 20 January, 2011
- By Unknown
-
3
comments
अकिंचन मैं.. © 2011
▬● .....जोगेन्द्र सिंह २०/०१/२०११
●●●▬▬▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬▬●●●
अन्तस्तल के शीशे को रौंदते पुतले..
अंतहीन अंधकार और अकिंचन मैं.........
कहाँ जाऊँ किससे गाऊँ पीड़ा अपनी..?
●●●▬▬▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬▬●●●
.
अकिंचन मैं.. © 2011
▬● .....जोगेन्द्र सिंह २०/०१/२०११
●●●▬▬▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬▬●●●
अन्तस्तल के शीशे को रौंदते पुतले..
अंतहीन अंधकार और अकिंचन मैं.........
कहाँ जाऊँ किससे गाऊँ पीड़ा अपनी..?
●●●▬▬▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬▬●●●
.
फूल... © 2011
Wednesday 19 January, 2011
- By Unknown
-
0 comments
.
●●●▬▬▬▬▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬▬▬▬●●●
कुछ नहीं बहुत कुछ कहने लगे हैं फूल ,
कमबख्त कोई इन्हें सुनने वाला ना रहा... ......जोगी..... :) १९ जनवरी २०११
●●●▬▬▬▬▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬▬▬▬●●●
.
फूल... © 2011
●●●▬▬▬▬▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬▬▬▬●●●
कुछ नहीं बहुत कुछ कहने लगे हैं फूल ,
कमबख्त कोई इन्हें सुनने वाला ना रहा... ......जोगी..... :) १९ जनवरी २०११
●●●▬▬▬▬▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬▬▬▬●●●
.
प्यार में तुम.. Copyright © 2011
- By Unknown
-
9
comments
Labels:
कविता कोष
प्यार में तुम.. Copyright © 2011
Photography by :- Jogendra Singh
प्यार में तुम जीते रहो ,
प्यार में तुम मरते रहो ,
प्यार में धोखा देते रहो ,
प्यार में धोखा खाते रहो ,
प्यार कहाती इबादत है ,
हाँ इस इबादत पर तुम ,
किसी की बली लेते रहो ,
प्यार पर बली देते रहो ,
प्यार खुद एक धोखा है ,
प्यार भरे धोखे से तुम ,
वफ़ा की उम्मीद क्यूँ करो ,
प्यार नमक है गला देगा ,
दरिया की तरह बहा देगा ,
राहू है प्रेम, दशा केतु वाली ,
जंग दिमागी है और शरीरी ,
खुशियों के चन्द्रमा पे नज़र ,
बुद्धि पर लगा कॉर्क है प्रेम ,
हर समंदर नहीं है एक सा ,
कि जाओ गोते लगा आओ ,
प्रेम समंदर में शार्क भी हैं ,
सत्यानाश करा लो प्यार में ,
भट्टा भी बिठा लो प्यार में ,
तब भी कहो बंदगी है प्यार ,
वरना आ जाओ संग हमारे ,
जमाते हैं महफ़िल प्रेम की ,
नर से नारी नहीं, प्रेम हो तो ,
हो इंसान से इंसान के बीच ,
संग गले मिल दोहराएँ इसे ,
प्रेम परिभाषा फिर से गढ़ें...!!
जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (18 जनवरी 2011)
.
मिटटी सा भंगुर तन.. © 2011
Tuesday 18 January, 2011
- By Unknown
-
2
comments
●●●▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬▬▬▬▬●●●
मिटटी सा भंगुर तन, तन सा भंगुर मन,
मन में बसे सब हैं, कैसे पार पड़े.....? - जोगेन्द्र सिंह (18-01-2011)
●●●▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬▬▬▬▬●●●
नज़रों में बसा रखा है तुमने संसार , एक झपाके में लोप हो गया...
क्यूँ ना उठा देती तुम इन आँखों को , कि इनमें मेरा है संसार बसा... - जोगेन्द्र सिंह (18-01-2011)
●●●▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬▬▬▬▬●●●
.
फिर एक किनारा......? Copyright ©
Wednesday 12 January, 2011
- By Unknown
-
11
comments
Labels:
कविता कोष
फिर एक किनारा......? Copyright ©
फिर एक किनारा......?
इस ओर से उस ओर को जाने वाला एक खिवैया..
दो किनारों के बीच आवाजाही ही तो है जो समझ नहीं आती है..
रेत पर मेरे स्वागत को तत्पर..
बलुआ मिटटी और सीपियों से बनी तुम्हारी रंगोली..
मेरे आने से पहले ही बड़ी लहर उसे निगल जाती है..
सखी , रेत पर बिखरे पड़े तुम्हारे स्वागत में भी..
है कुछ भीना सा खुशबू भरा अहसास..
विजित सा कोई भाव समाया है उन सूनी आँखों में..
हाँ , एक बार फिर सजाना तुम उस कनारे को..
अबके रेत नहीं कुछ ठोस ढूंढ कर..
हाँ , फिर आऊंगा मैं नयी सी उमंग को लेकर..
फिर आयेगी एक बड़ी सी लहर..
शायद उफान कभी हो जोर पर..
ठोस भले हो पर रेत वही थी..
हर बार की तरह फिर बहेगी रंगोली..
बेबस ताकते रह जाने के सिवा तुम कर भी क्या सकती हो..
गीली रेत के घरौंदे कच्चे जो होते हैं..
लेकिन आते रहना मेरा काम है..
रंगोली चाहे रहे ना रहे मुझे आना ही है..
हां , मुझे आना ही है हर बार सिर्फ तुम्हारे लिए..
जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (12 January 2011 at 22:35)
.
फिर भी आँख है सूनी.. Copyright ©
Monday 10 January, 2011
- By Unknown
-
2
comments
फिर भी आँख है सूनी.. Copyright ©
फिर भी आँख है सूनी..
उस राह को तकते हुए..
जो जाती है सीधे तेरे दर पे..
तुमने कहा मैं भूल गया आना..
कहा तुमने मैं भूल गया तुमको..
सुना मैंने भी कुछ ऐसा ही था कि मैं..
पर तुम क्या जानो क्या बीती है मुझ पर..
सारा जमाना क्या , हम खुद को ही भूले बैठे हैं..
"आशा" आँखों में , पर तुम बिन आँखों का कोई काम नहीं..
जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 10 जनवरी 2011 )
Photography by :- Jogendra Singh
► Note :- फोटो में कबूतर के चारों ओर बिखरे खत्म हो चुके दानों को मैंने नायिका सी संज्ञा देते हुए उन्हें छिलकों में खोजती कबूतर की सूनी आँखों को अपनी कविता के नायक की आँखों में भूली-बिसरी नायिका के लिए उत्पन्न हुए सूनेपन से तुलनीय माना है......
.
सभ्य हम कहाँ हैं...?
Thursday 6 January, 2011
- By Unknown
-
4
comments
सभ्य हम कहाँ हैं...?
बारिश में भीगते कुत्ते या इंसान ,
भूख से तडपते गरीब ,
सर्दी में ठिठुरते बेबस पड़े लोग ,
सड़क किनारे मरता बीमार और एक पागल ,
कहाँ दिखते हैं हमें......
सभ्य तो छोडो हम इंसान ही कहाँ हैं......?
.........................................................जोगी :(
.
दायरे.. ©
Monday 3 January, 2011
- By Unknown
-
2
comments
Labels:
कविता कोष
दायरे.. ©
कुछ सवाल कुछ ज़वाबों के घेरे में , उलझा जीवनपथ..
सीमित दायरे , दरकता है जीवन उनमें पल-प्रतिपल..
दहकते दावानल, स्वप्नों का होता दोहन उनमें निरंतर..
पल-प्रतिपल , भसम् उठा ख्वाबों की भेंट चढा रहे हम..
चरणों में अर्पित करने लगे , सीमित दायरों भरा जीवन..
चरण उस पथिक के , जिन्हें सहेजा गया है हमारे लिए..
नाम भर का स्वप्न सा है पथिक , अनुभूत जिसे करना..
जैसे उल्लास से सुवासित जीवन , लेता विराम अचानक..
क्यूँ परवश बंधित है मानव मन , बंधन के नाम पर..?
क्यूँ बादल संग न उड़ता फिरता , बावरा ये मानव मन..?
रची-बसी चाहना , ह्रदय कोटर में वीतरागी पखेरू सम..
भरना चाहता हूँ कुलाँचें , उस हरिन सह जो मुक्तक सा है..
डाकिया आता है मेरे द्वार पर , हर दिन नयी कहानी संग..
क्यूँ नहीं कोई कहानी , है जो मुझसे शुरू या हो खतम..?
हर ख्वाब नातों की दहलीज से टकराकर होता चकनाचूर..
ज़बरन जगह बनाती नयी आदतें , बन जाती यहाँ संगी..
मस्तिष्क को दे स्वप्न-निवाला छोड़ जाये , वो आदत..
सालता है गम आदत का , कि चली ना जाये फिर कहीं..
शूल हैं भ्रम आशा भरे , पूरे होने पर यही देते है सुख..
मोडें मुख कैसे ? किसी भी पहलु से, उम्मीद भरा है जीवन..
जब कोई आस नहीं, दबे ढके क्या सच में कोई आस नहीं..?
सुगबुगाहट मस्तिष्क से , रहती निकलती है निरंतर..
संतुष्ट स्वयं को करने , खींच लेते हम कमजोर से दायरे..
रेशे से बनी वही बंदिशें , टूटने पर फंदे सा भान करातीं..
क्यूँ ना खुला छोड़ दें हम मन को , कि बनाने वाले ने..
बनाया है उसे ऐसा ही , स्वच्छंद खग सा गगन विचरता..
कौन होते हैं हम , बंदिशें के जाल उस पर लादने वाले..?
कर हसरतों को भूमिगत जिन्दा कहलाते हैं हम..
कर निर्मित नवीन गढ़ दायरों वाले चहुँ ओर हमारे..
दायरों ने कर रखा है गोल मकडजाल सा सोचों को भी..
बाँध दीना हमने सारा जीवन , बेफिजूल इन सींखचों में..
क्यूँ ना छोड़ दें उसे , मुक्त गगन में फडफडाता हुआ..?
नहीं छटपटाते रहो इन्हीं दायरों में, बेलगाम घोड़े की तरह..
और लग भी जाये कभी लगाम तो , अपने से परे हटकर..
जिए जाओ ताउम्र , और किसी के जीवन दर्शन पे चलकर...
बूढ़े होने तक सोचते फिरना क्या किया , हमने जीवन भर...
मिलेंगे ताले जड़े , दायरों की परिधि पर हर जगह...
कुछ छोटी बड़ी औलाद की खुशियों के आलावा... देखना...
क्या मेरा , क्या तुम्हारा... हश्र यहाँ , होना तो सबका यही है...
जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 03 जनवरी 2011 )
Photography by :- Jogendra Singh
In this Picture :- Me.. (Jogendra Singh)
(Photo clicked by the help of mirror)
_____________________________________________
.
Subscribe to:
Posts (Atom)