तुम्हारा अहसास


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क़दमों के साथ मेरे, चले थे कदम मिलकर,
कुछ दूर जाकर देखा तो पाया,
अब भी कुछ दूरी पर थे वे कदम,

मेरे शब्दों के साथ, वाक्य बने थे शब्द मिलकर,
कुछ वक्त गुजरने पर देखा तो पाया,
खुद में सिमटकर सिकुड़ता मैंने उन शब्दों को,

साथ हैं हम, कुछ भ्रम सा लेकिन बना है,
कुछ आगे जाकर देखा तो पाया,
काल्पनिक महल सा हमारे इस नाते को,

कहने को कह लेता सब, तुमसे मिलकर,
कुछ सोच नयी सी आयी तो पाया,
श्रेयस्कर है कुछ न कहना अब तुमसे,

जड़ता तुम्हारी संज्ञाशून्यता से भरी,
रंग उसमें भरने गया तो पाया,
पड़ चुकी इक आदत सी है तुम्हें इसकी,

बेबस, पलकों के नीचे से तुम्हें तकता रहा,
जानने की कोशिश में तुम्हें, मैंने पाया,
जिन्दा आँखों के पीछे बनी मूरत इक पत्थर की,

ओंठ सिल लिए, मूँद ली मैंने पलकें अपनी,
जो खोल कर पलकों को देखा तो पाया,
मेरी ओर तकता हुआ बेबस निगाहों से तुम्हें..!!

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 03-08-2011 )

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Comments

5 Responses to “तुम्हारा अहसास”

4 August 2011 at 6:01 pm

marmik kavita hai .. bahut dino baad aapne kuchh likha.

Unknown said...
4 August 2011 at 6:41 pm

@ अपर्णा जी , बहुत दिनों बाद मैंने लिखा ये तो कह दिया , कैसा लिखा इसे कौन बताएगा...........?? एक मार्मिक शब्द से मुझे समझ नहीं आता........

5 August 2011 at 9:56 pm

achchhi hai kavita . bhav pravan hai , par samkaleen kavita par bhi gaur karna zaroori hai mitr.
aap aaram se kar sakte hain. kavita ka aapka muhavra meetha hai par aaj ki kavita ka shilp kuchh badal gaya hai. us par work kariye, kundan ho jaayega.

Unknown said...
5 August 2011 at 10:53 pm

अपर्णा जी , इतनी खूबसूरत राय मिली है तो इस पर अमल करने की कोशिश करूँगा........ पर मैंने कभी लिखने के लिए सोचकर लिखा नहीं........ जो मन में आता है वही लिख देता हूँ........ सो समकालीन या कुछ और समझने की कभी जरुरत ही नहीं पड़ी........

6 August 2011 at 10:39 am

haan, ye theek hai , par vakt ke saath shilp, kala , moolyon par bhi prabhav padta hai. aapki kavitaon mein geyata hai, pravaah hai .. ek alag muhavara hai .. aur hame bharosa hai ki aap us nutan ko jald hi apni kavita mein sthan denge..
badhai ! mitr..

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