"इन्सान" आज इन्सान सा नहीं रह गया है

"इन्सान" आज इन्सान सा नहीं रह गया है |

● कितने हैं जो इस बात में यकीन कर सकते हैं कि उनकी मानसिक बनावट उस पुराने वाले असली इन्सान की सी रह गयी है ? देखा जाये तो वर्तमान में हमारी प्राथमिकतायें समाज और जातिवादी सोच से कहीं आगे निकलकर दुनियावी संबंधों और जरूरतों तक सिमटकर रह गयी हैं | बहुत हद तक हम व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठते नहीं दिखाई देते | इतने मतलब-परस्त कब से होने लग पड़े हम ? वो उज्जड एवं उग्र सोच वाला इन्सान जिसे उसके बदले स्वरुप को देख दर्शक भयंकर की संज्ञा दे दिया करते थे और जिसे हरसंभव मददगार के तौर पर भी देखा जाता था, कहाँ है वह इन्सान ?

● हाँ , मानसिक और बौद्धिक रूप में भी कहीं न कहीं हम अजीब सी कशमकश में घिरे नजर आते हैं | क्यूँ है ऐसा कि अब हमें अपने होने का भान कराने की आवश्यकता भी प्रतीत होने लगी है ?

● क्या किसी के पास इसका जवाब है...?

_____ जोगेंद्र सिंह (21-10--2011)

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