जाने कब अभिन्न बन बैठीं तुम



जाने कब अभिन्न बन बैठीं तुम ● ©

ओस से अंटे घने कोहरे को चीरती हुई,
सुबह की पहली गर्माहट को लाती किरण,
तडके कुक्कुट की निकली बांग में बसी,
पंछी की वो पहली चहचाहट में रची बसी,

हाँ, वो नींद के खुमार से निकली अल्हड,
नवयौवना के तन की ऐंठन सा अहसास,
नवेली का पल्लू तले चेहरा ढांपे शरमाना,
वो अल्हड सी चंचला का तड़प सा जाना,

हाँ, उन अहसासों की तपिश / दबिश तले,
कैसे इन जैसी अनुभूति है तुमसे पाई मैंने,
ह्रदय धमनियों में उन्हें महसूस किया मैंने,
कैसे जाने कब मेरी अभिन्न बन बैठीं तुम..

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (1-12-2011)
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