यूँ न कहते तो


यूँ न कहते तो ©

यूँ तो हर अंदाजे बयाँ है काबिल-ऐ-तारीफ तुम्हारा,

गर यूँ न कहते तो जाने किस तरह कह जाते तुम,

हम तो बैठे थे तैयार बनने को राजदार तुम्हारे लिए,

एक तुम ही थे जो गिला ज़माने का किये जाते थे...

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (29-12-2011)
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शुक्रिया तेरा


शुक्रिया तेरा ● ©

शुक्रिया तेरा,
तेरे होने के अहसास का,

शुक्रिया उन सब बातों का,
जो कभी हुई ही नहीं,

शुक्रिया खुशनुमा उस अहसास का,
जो दिल को कभी मिला ही नहीं,

जिंदगी तेरा भी शुक्रिया,
तुझसे भी अब तक कुछ मिला नहीं..

● जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (29-12-2011)
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सर्द रात ख्वाबों में



सर्द रात ख्वाबों में ● ©

सर्द रात ख्वाबों में
लापतागंज से मिली जिंदगी
ढूँढ लाया फिर से अपनी
कोहरे में गुम होती जिंदगी

थेगडों से अंटी कटी
फटेहाल मरणासन्न
जर्जर बूढ़े की कमर सी झुकी
निस्सहाय सी वह जिंदगी

बेसाख्ता पलक झपकाती
लापता में पता खोजती
असमंजस में भटकती
हैरान परेशान सी जिंदगी

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (22-12-2011)

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वो लाश मेरे सपनों की है



वो लाश मेरे सपनों की है ● ©

पूस की एक सुबह,
गीली अधजली लकडियों से,
निकली कालिख पुता चेहरा लिए,
देखो चली आ रही है,
वो लाश मेरे सपनों की है...

भ्रमों तले दबी ख्वाहिशें,
जाने कितने सपने बुन,
ओस के धुंधलके में,
विलीन हो जाती जिसकी,
वो लाश मेरे सपनों की है...

सिमटे, कुकडे, ठिठुरते,
एक दूजे पर लदे-पदे,
कोने में दुबके कुक्कुर समान,
गर्मी के अहसास को तरसती,
वो लाश मेरे सपनों की है...

भीषण एकाकी अहसास,
वीभत्स अतृप्त कामनाएं,
ह्रदय दहलाती परिस्थिति में,
किसी के होने का भान पाती,
वो लाश मेरे सपनों की है...

अधूरी इच्छा ह्रदय में सहेजे,
अपने अकेलेपन को तज,
मासूम निगाहों से,
तुम्हारी ओर तकती,
वो लाश मेरे सपनों की है...

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (21-12-2011)
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पुरानी बासी बुढिया



पुरानी बासी बुढिया ● ©

अभी तो मैं जवान हूँ, अभी तो मैं जवान हूँ,
मुँह में दाँत नहीं , आहा, पेट में आँत भी नहीं,
हाथ चले कीर्तन में, देखो पाँव की राह कबर में,
पोते से लिए दाँत मंगा, आहा देखनी बुढिया मुझे,

उन पर ब्रश किया है, साल भर बाद किया है,
पीछे से आ गयी हाय, पुरानी बासी बुढिया,
डंडे-झाड़ू से पूजा, हाय लातों-घूसों से मुझे,
काहे आ गयी बुढिया, नयी शर्मीली बुढिया,

न माना दिल ये मेरा, उसी को घूरता रहा,
पिटता गया, देखता गया, नामाकूल दिल ये मेरा,
आ गया बुड्ढा नया, मिरच को साथ ले आया,
उतर गया भूत मेरा, तब, जवानी पिलपिला गयी,

हाय जवानी पिलपिला गयी, किया मायूस मुझे,
आया फिर दिन वो नया, मुस्कुरा के वो गयी,
कबर फाडी, बाहर आया, जवानी वापस आयी,
पीछे से आ गयी हाय, फिर, वही बासी बुढिया...
हाय राम... धम्म धडाम... धम्म धम्म धम्म....

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (08-12-2011)
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जाने कब अभिन्न बन बैठीं तुम



जाने कब अभिन्न बन बैठीं तुम ● ©

ओस से अंटे घने कोहरे को चीरती हुई,
सुबह की पहली गर्माहट को लाती किरण,
तडके कुक्कुट की निकली बांग में बसी,
पंछी की वो पहली चहचाहट में रची बसी,

हाँ, वो नींद के खुमार से निकली अल्हड,
नवयौवना के तन की ऐंठन सा अहसास,
नवेली का पल्लू तले चेहरा ढांपे शरमाना,
वो अल्हड सी चंचला का तड़प सा जाना,

हाँ, उन अहसासों की तपिश / दबिश तले,
कैसे इन जैसी अनुभूति है तुमसे पाई मैंने,
ह्रदय धमनियों में उन्हें महसूस किया मैंने,
कैसे जाने कब मेरी अभिन्न बन बैठीं तुम..

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (1-12-2011)
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ये मेरी उदासी



ये मेरी उदासी ● ©

मन के कोने में जा बसी, खामोश सी उदासी,
ह्रदय की देहलीज पर, टहलती सी उदासी,
बाग के कोने में, पतझड़ के पत्ते सी उदासी,
बगिया की सूनी, अबोली चहक सी उदासी ||

तुम्हारे चहरे पर, बरसते मातम सी उदासी,
जोकर की मुस्कान के पीछे झांकती सी उदासी,
तो कभी खोने के मातम तले दबी सी उदासी,
रूखे चुप बेजुबान चेहरे से झांकती सी उदासी ||

काँच की बनी कंचियों सी, लुढकती सी उदासी,
तो कभी मन के विद्रोह जैसी, होती चली उदासी,
असमंजस से उपजी, पीड़ा सी दिखती उदासी,
तो है कभी हाथ आये, फिसले सपने सी उदासी ||

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (30-11-2011)
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● बुतपरस्त ●

चोट दी थी जिस पत्थर से कभी,
उसी पत्थर से बने बुत की,
कर रहे हैं आज वो बुतपरस्ती,
कि बुत से बनी वो शक्ल हमारी थी...

● जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (जोगी) (23-11-2011)

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सही या गलत


Question Baba

किसी एक पक्ष के कह देने मात्र से कोई चीज़ सही या गलत नहीं बन जाती........... वरन उसके सही या गलत साबित होने के पीछे कई करक एक साथ काम करेंगे......... और ये बात भी है कि जिसे हम सही समझ रहे हैं वाही सही हो ये जरुरी तो नहीं........ व्यावहारिक रूप में एक आदर्श सही स्थिति मानी सकती है और उसके जो जितना करीब होगा उतना ही उसका सोचना भी सही होगा.....

लेकिन इसे तय कैसे करें , समस्या यही है........... ● जोगी 
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"इन्सान" आज इन्सान सा नहीं रह गया है

"इन्सान" आज इन्सान सा नहीं रह गया है |

● कितने हैं जो इस बात में यकीन कर सकते हैं कि उनकी मानसिक बनावट उस पुराने वाले असली इन्सान की सी रह गयी है ? देखा जाये तो वर्तमान में हमारी प्राथमिकतायें समाज और जातिवादी सोच से कहीं आगे निकलकर दुनियावी संबंधों और जरूरतों तक सिमटकर रह गयी हैं | बहुत हद तक हम व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठते नहीं दिखाई देते | इतने मतलब-परस्त कब से होने लग पड़े हम ? वो उज्जड एवं उग्र सोच वाला इन्सान जिसे उसके बदले स्वरुप को देख दर्शक भयंकर की संज्ञा दे दिया करते थे और जिसे हरसंभव मददगार के तौर पर भी देखा जाता था, कहाँ है वह इन्सान ?

● हाँ , मानसिक और बौद्धिक रूप में भी कहीं न कहीं हम अजीब सी कशमकश में घिरे नजर आते हैं | क्यूँ है ऐसा कि अब हमें अपने होने का भान कराने की आवश्यकता भी प्रतीत होने लगी है ?

● क्या किसी के पास इसका जवाब है...?

_____ जोगेंद्र सिंह (21-10--2011)

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सूरत और सीरत



● सूरत और सीरत

काहे पड़े तुम सूरत सीरत की माया में ?
न फरक मिले , मिले फरक तो क्या ?
अरे कहते हम तुम खाते नाहक ही धोखा,
क्यूँ हो खाते तुम धोखा जब दीदे पायें तुमने चार ?
चेहरे पे दो , दो दिल में बसाये बैठे हो,
क्या न होगा बेहतर खोल के मन की आँख,
कर लेते अंतर दूर , बीच से सीरत और सूरत के...

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (14-10-2011)

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Su-j Helth, Acupressure-Health

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नक्श-ऐ-दिल


● नक्श-ऐ-दिल ● ©

जन्मों की क्या बात कह दी तुमने , नक्श हुए तुम इस कदर दिल पर ||
हम क़यामत तक छिपा कर रखेंगे , रूह पर खुदे इन नाजुक हर्फों को ||

● जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh (19-09-2011)
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बावरी

● तुझे अपनी बावरी कहलवाना तो बस एक बहाना था..........
● यूँ तेरे मान के सदके, है कुर्बान मेरा सारा जहाँ..........

जोगेंद्र सिंह ... (16-09-2011)
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उम्र के पड़ाव



उम्र के पड़ाव ●

दिन बीते बेपरवाह वक्त के बेरहम रंगों से,
और इसी तरह पार होते चले गए, उम्र के मेरे पड़ाव सारे...

● _____ जोगी
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खोया चाँद



खोया चाँद


उम्र निकल चली खोये चाँद को खोजने में...
नामुराद कमबख्त मिलकर ही नहीं देता...


जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 04-09-2011 )
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एक जहाँ पनीला सा




एक जहाँ पनीला सा ● ©


क़दमों तले एक जहाँ पनीला सा, मेरे सैलाब आँसूओं बह निकला है,
क्या खूब है आलम बेबसी का , हर आँसू अब खुद पर मुस्कुराता है...


जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 03-09-2011 )
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केवल लोकपाल..?


● केवल लोकपाल..?

● जब तक लोकपाल की पालना हमेशा तक के लिए निश्चित नहीं कर दी जाती तब तक मेरे लिए लोकपाल भी पुराने कानूनों की तरह से रद्दी कागज हैं जिन्हें रखने से कोई फायदा नहीं जबकि उसे बेच देने से किसी को एक दो वक्त का खाना जरुर मयस्सर हो जाना है.....

● सो काहे का जश्न.....?

● सही बात कभी भी कही जा सकती है....... इन लोगों ने गाडी तो चला ली है मगर पेट्रोल और मैप साथ लेना भूल गए हैं....... केवल लोकपाल क्या तीर मार लेगा जब तक कि जनता और शासन तंत्र दोनों में मन से जागरूकता ना आ जाये.......? इन्हें आन्दोलन कागज पास करवाने से आगे तक के लिए छेड़ना चाहिए था....... 

● जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh
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केवल लोकपाल..?SocialTwist Tell-a-Friend

बहते आँसू



बहते आँसू

उन्होंने कहा क्यूँ जाते वक्त हैं पलकें भीगी ,
हम तो बस कह गए बात मुस्कुराते हुए ,
देखते हैं बहाकर हम यादों को तुम्हारी ,
क्या जाने इसी बहाने फिर आ जाओ ,
तुम बहते हमारे आँसुओं की खातिर..

_____●_____ जोगी ( २८-०८-२०११ )
बहते आँसूSocialTwist Tell-a-Friend

कठपुतली

कठपुतली... ? ©


कैसी है रे तू कठपुतली...... ?

तेरे नाच पे सारा जीवन नाचे है,

समझ से हमने समझा अपना जिसे,

वह जीवन तुझ सा अब लगता क्यूँ है...?



जोगेन्द्र सिंह Jogendra singh ? ● ? ● ? ● ? ● ?

● ( 25-08-2011 )
कठपुतलीSocialTwist Tell-a-Friend

आजाद कहाँ हैं हम...?

आजाद कहाँ हैं हम...?

गुलामी जो घर से शुरू होती है वो दरवाजा पार करने पर भी नहीं रूकती..... घर वाली गुलामी तो सांकेतिक है जो जताती है कि बेटा अब सारे संसार में तुझे जी हुजूर ही कहते जाना है..... चाहे दफ्तर हो , पुलिस , राजनीती , और जाने कैसा कैसा गुलामी का दलदल भरा है सब जगह..... और हम कहते हैं कि देश आजाद हो गया.....

● __________ जोगी     :(
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मानसिकता परिवर्तन

मानसिकता परिवर्तन (दर्शन) :

एक बड़ा सच यह भी है कि दुनिया का सबसे कठिन काम जमी हुई मानसिकताओं को बदलने का है....... जिसे असंभव की हद तक कठिन कहा जा सकता है...... क्यूँ आम तौर पर जब खुद हम ही नहीं बदलना चाहते तो कोई दूसरा ही कैसे बदल जाना है..... वह भी तो उसी कोशिश में लगा है..... 

● जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 09-08-2011 )

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हर शख्स तनहा


हर शख्स तनहा होता है , हर लफ्ज़ तनहा होता है,
वह तो लेकर किसी का साथ मिट जाती है तनहाई,
वरना हर लफ्ज़ तरसता है यहाँ अपने अंजाम को...

__________ जोगी     ( 07-08-2011 )
हर शख्स तनहाSocialTwist Tell-a-Friend

खामोश हिरनी

: खामोश हिरनी :

दूर खामोश हिरनी सी कुलाचें भरने में व्यस्त हो तुम,

क्या जानो कैसे बनी मेरे ह्रदय चैनो आराम हो तुम,

ख्वाब देखे जब तो घटा बन हवासों में छाई हो तुम..

__________ जोगी  :))
खामोश हिरनीSocialTwist Tell-a-Friend

तुम्हारा अहसास


तुम्हारा अहसास Copyright ©

क़दमों के साथ मेरे, चले थे कदम मिलकर,
कुछ दूर जाकर देखा तो पाया,
अब भी कुछ दूरी पर थे वे कदम,

मेरे शब्दों के साथ, वाक्य बने थे शब्द मिलकर,
कुछ वक्त गुजरने पर देखा तो पाया,
खुद में सिमटकर सिकुड़ता मैंने उन शब्दों को,

साथ हैं हम, कुछ भ्रम सा लेकिन बना है,
कुछ आगे जाकर देखा तो पाया,
काल्पनिक महल सा हमारे इस नाते को,

कहने को कह लेता सब, तुमसे मिलकर,
कुछ सोच नयी सी आयी तो पाया,
श्रेयस्कर है कुछ न कहना अब तुमसे,

जड़ता तुम्हारी संज्ञाशून्यता से भरी,
रंग उसमें भरने गया तो पाया,
पड़ चुकी इक आदत सी है तुम्हें इसकी,

बेबस, पलकों के नीचे से तुम्हें तकता रहा,
जानने की कोशिश में तुम्हें, मैंने पाया,
जिन्दा आँखों के पीछे बनी मूरत इक पत्थर की,

ओंठ सिल लिए, मूँद ली मैंने पलकें अपनी,
जो खोल कर पलकों को देखा तो पाया,
मेरी ओर तकता हुआ बेबस निगाहों से तुम्हें..!!

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 03-08-2011 )

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तुम्हारा अहसासSocialTwist Tell-a-Friend

भीड़ में अकेला....

 
 ● भीड़ में अकेला....
 
 ● कैसा लगता है जब आपके चारों ओर जमघट लगा हो और तब भी आप अपने आप को पूर्णतया अकेला पाते हैं.....? जिन्हें अपना समझ रहे हों उन्हें अजनबी पाना , सच बड़ा पीड़ादायक होता है..... आसान नहीं है इस अहसास या इस नकली भीड़ के साथ जीना.....
● हाँ आज थोडा सा अपसेट हूँ..... या शायद थोडा सा और.....

जोगी    :(     ( 02-07-2011 )
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तुम्हारा भ्रम..



तुम्हारा भ्रम..Copyright ©

ना सही,
तुम पास मगर,
तुम्हारा भ्रम सही,
सूखे फूलों से,
हम तुम्हारी,
खुशबू पा लेते हैं,

तुम ना सही,
तुम्हारा अहसास पाकर,
जिन्दा रह लेते हैं,

तनहा सही,
महफ़िल में हम,
तुम्हारे तसव्वुर से,
जश्न-ऐ-ज़दा हो लेते हैं...

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 01-07-2011 )
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वीराने..



वीराने..Copyright ©

नहीं चल रहा कुछ,
दिल के इन वीरानों में,
कि भला खंडहर भी,
कब से कहीं बसने लगे ?

वो तो हो लेती है,
कुछ गुफ्तगू तुमसे,

वरना,
चमगादड भी है कहाँ,
नसीब में,
इन वीरानों को..

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 30-06-2011 )
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मिन्नतें..



मिन्नतें..Copyright ©

गुजर गया जीवन सारा,
मिन्नतें करते,
न मिलना था,
न मिल सका कुछ कभी हमें,

वो तो तुम थे,
जो आये इस जीवन में,
बन बहार का अहसास,

वरना गुजर लिया था,
ठोकरें खाते,
मेरा यह जीवन सारा..

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (27-06-2011)

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बिन तेरे..


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बात जाती है तो जाने दो उसे दूर तलक,

इसी बहाने हो जायेगी कुछ गुफ्तगू हमारी,

क्या जाने इन्ही के सहारे कट जाये ये जिंदगी,

कि बिन इसके भी है अब गुजर चुकी सी जिंदगी...


जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (26-06-2011)

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कविता बकना आसान नहीं



कविता बकना आसान नहींCopyright ©

उनकी "छवि" ने आकर कहा हमसे,
बक डालो फिर एक कविता नयी,
हम बोले कविता बकना आसान नहीं,
ये कोई पीकदान नहीं कि खाया हर बार,
और उगलकर तुम्हारे नाम कर दिया........ जोगी......... :)


Jogendra Singh जोगेंद्र सिंह ( 21 May at 01:34 )


यहाँ एक झोल है दोस्तों......
ना तो पीकदान खाया जा सकता है और ना ही पानदान..........
खाते केवल पान ही हैं..... असल में पूरा मतलब यूँ है कि ये कोई पीकदान नहीं है , कि हर बार खाकर , उसमें उगलकर , उगला हुआ तुम्हारे नाम कर दिया जाये.........
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● अभी कल (21 May at 01:31am) किसी दोस्त ने मुझसे पूछा कि रात के इस वक्त कविता लिखते हो क्या...?
● मैंने ज़वाब दिया "नहीं दोस्त..... कविता मैंने कभी लिखने के लिए नहीं लिखी..... वो तो अपने आप निकल आती है....... समय नहीं देखती...... "
● तो मुझसे कहा गया कि एक कविता बोलूं..... साथ ही सोचने तक का समय दिए बगैर यही बात रिपिटेशन मोड में डाल दी कि कविता तो अपने आप निकल आती है ना.....
● इस पर मैंने 21 May at 01:34am पर ये ऊपर वाली कविता लिख दी और उसके बाद जवाब में कहा "तुमने बोला लिखो तो मैंने लिख दी........ और ऊपर से तुमने समय देने की इच्छा नहीं थीं......... क्या करता यही लिख मारी तुम्हारी ओर........... "
● मजे की बात यह कि इसे लिखने में कुल तीन मिनट लगे थे जिसमें भी कुछ समय तो ध्यान भटका हुआ था.....
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चित्रलेखा



चित्रलेखाCopyright ©

छूने चली सितारों को देखो आसमान तक,
चित्रलेखा बन सजायी लकीर मन्दाकिनी से,
वक्ती चिंता है यह जिसे आँखों में सजाये हो,
गम न करो जल्द इससे पार पा जाओगी,
दूर नहीं है कोई आसमान अब तुम्हारे लिए..!!


जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (17-05-2011)
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मुस्कुराने की कोशिश



: मुस्कुराने की कोशिश :

मुस्कुराने की कोशिश में कुछ बिखरे न बिखरे मेरे दो ओंठ बिफरेंगे जरुर,
हाथ बढ़ाने की कोशिश में कुछ हाथ आये न आये पर हम बिखरेंगे जरुर...

_____ जोगी     :)     16-05-2011

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चाक दिल



::::: चाक दिल ● Copyright ©

न सुनाना तनहाइयों को तुम यादों का संगीत...
न दिल में होगा सकून न लब पर हँसी होगी...
न होगा आना तुम्हारा खंडहरों के वीरानों में...
न इस चाक दिल से फूटेगी अब कोंपल नयी...


जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (16-05-2011)
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आदत सी हो गयी है..


::::: आदत सी हो गयी हैCopyright ©

आदत सी हो गयी है,
बरसों से,
चुप रहने की,
अब आदत सी हो गयी है,

सड़क किनारे चलती बुढिया का,
चलते राहगीर की ठोकर से,
गिर पड़ने पर चुप रह जाने सी,
हो चली है ये आदत,

पढ़ने के बहाने,
बच्चा छीन कहीं भेज देने पर,
चुप रह जाती माँ सी है ये आदत,

घर में अबोला जीवन,
गुजार देने को बेबस,
मजबूर पत्नी सी,
हो चली हैं ये आदत,

कभी मन में,
सवालों का घेरा लिए,
अपूर्ण विद्रोहों के भंवर सी,
तूफान लिए,
फिर हौले से उन संग,
ढलती जाती पत्नी सी,
हो चली हैं ये आदत,

कभी दोनों हाथों की अंजुल में,
फंसी फिसलती रेत सी,
हो चली हैं ये आदत,

कितना कहा,
समझाया मन को,
कहता है,
न शिकवा न शिकायत है कोई,
न दर्द का अहसास है बाकी,

घाव पर मिले घाव से,
गुम होते, कम होते दर्द के,
अहसास सी हो चली हैं ये आदत...!!

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 14 मई 2011 )

Note :- मैंने यह कविता असल जीवन में किसी अपने से प्रेरित होकर लिखी है ...
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स्वप्न ~ अधकचरे


स्वप्न ~ अधकचरेCopyright © 2009-2011

संग नयन अधर का जोड़ा,
दबे ओंठ हैं गालों गड्ढे,
सरगम सी तोहरी पायजेब,
करत तरंगित ह्रदय हिंडोला ,
स्वप्न लोक में विचरती सोच,

कोमला निर्मला कुमुदिनी सी,
निश्छल बालक सी मुस्कान,
सकुचाई शरमाई बतियाती,
आह कैसा विहंगम सृष्टा का,
हो परिणिति अधूरे स्वप्न की,
संग बगल बैठ बतियाते,
निद्रा मोरी हो गयी चंचला,
स्वप्न आते तुम न आती,

दबा खुला कहकहा तुम्हारा,
संगीत सा बतरस बाँटती,
हौले से छू जाना अवचेतन को,
खिलखिला कर हँस पड़ना,
फिर अनायास चुप कर जाना,
जाने कोई देख पाया शायद नहीं,
कितनी उत्कंठा लिए विचरता है,
चंचल हो चुका यह मेरा मन,

क्यों न संभव हो जाता,
समय का पहिया फिर से,
हो लेता विपरीत एक बार को,
वक्त बदलता काल बदलता,
संग बदल रचता रेखा नयी,
बनता ईश्वर एक दिन का और,
करता सृज़न नवजीवन का,

बावला ये मन समझे कैसे,
खुल चुके फिर चक्षु मेरे,
स्वप्न आते तुम न आती,
स्वप्न लोक में विचरती सोच,
दिवास्वप्न स्वर्गलोक सा,
बालमन सा ह्रदय मोरा,
कर रहा देखो किस प्रकार,
सृज़न फिर एक नए स्वप्न का ll

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (06-05-2011)
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निपट अकेला मैं



निपट अकेला मैं Copyright © 2009-2011

दूर कहीं
उदास खड़ा
वीराने को बसाता
जर्द पत्ते सा
रीते हाथ
पूरित ख्वाब
रिक्त परिणिति
अधूरी आशाएँ
ह्रदय वेध
एक पीड़ा
एक कशमकश
बिन तेरे साथ दिए
पार करता
झंझावत
जीवन के
और उन सबमें
डूबता ऊबता
निपट अकेला मैं

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (12-04-2011)
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तब भी वह माँ थी


तब भी वह माँ थी :-

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तब भी वह माँ थी जब उसने तुम्हें जन्मा था...!!
अब भी वह माँ है जब वह तुम्हारे द्वार पड़ी है...!!

_______________________ Jogendra Singh ( 08-04-2011 )

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अश्कों के सितारे



अश्कों के सितारे बहाकर या उन्हें पीकर मुहब्बत कब होने लगी...?
बिन पाए दामन-ऐ-महबूब , तेरी मुहब्बत पूरी कब होने लगी...?

(जोगी) ०७-०४-२०११

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निगाहों की तपिश



निगाहों की तपिश : Copyright © 2009-2011

उसने देखा मुझे, कुछ इस कदर,
कि रहमत पे तेरी मुझे ऐ खुदा,
छूट जाने लगा यकीन पल-पल,
शोलों भरी आँखों में नूर का अंश,
फडक-भड़क राख में बदलने लगा..


जोगेन्द्र सिंह : जोगी ( ०४-०४-२०११ )
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हौंसले




हौंसलों की क्या बात करदी तुमने,
हौंसलों की हमें कभी कमी न रही,
ये तो नसीब है जो चलता है हौंसले से आगे,
वरना परवाह हमने भी न की, कभी ज़माने की..

_____ जोगी ) ०४-०४-२०११

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गाथा ताजमहलों की

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सब कहानी तुमने है कहाई....
जिसपे बीती उसने कहाँ है देखी...
गाथा ताजमहलों की क्या फर्क ला सकेंगीं....?
कुर्बान मुहब्बत पे खुद को कर क्या देख सकेंगे रांझे...? (जोगी)
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यादें कुछ असल सी



यादें कुछ असल सीCopyright © 2009-2011

भीगी पलकों संग मुस्कुराये जाते है,
गम ढोते हुए यादों का, जिए जाते हैं,
काश कि होती यादें कुछ असल सी,
उन असल यादों के सहारे काट लेते,
हम पहाड सी यह जिंदगानी अपनी..

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (17-03-2011)


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क़त्ल का नाम


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क़त्ल का नाम

बहुत खूब तरीका है हमें गुनाहगार बताने का !!
क़त्ल किये जाते हो और नाम हमें दे जाते हो !!

....................... जोगी...... १५-०३-२०११


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तुम्हारी चुप


तुम्हारी चुपCopyright © 2009-2011

ठाले बैठे तुम्हारे विश्लेषण में , खुद को कहीं भूला जाता हूँ मैं ,
कल की बात मैं कह-सुनाऊँ , तुम में खुद ही को भुला बैठा था ,
पहले न था , अब खोया सा हूँ , तुम ही में कुछ समाया सा हूँ ,
कहते हैं वह रुसवाई जिसे , कब रही वो रुसवा हमारे लिए ?
जीवन के छिन गा लेते जिन्हें , वहीं रुसवाई कहलाने लगे हैं ,

ओंठ दबा हौले से मुस्कुरा देना तुम्हारा , दबा जाने क्या उनमें ,
दबी गाथा संघर्षों भरी , गहरे उतार चढावों भरे जीवन की गाथा ,
भिंचे ओंठ मुस्कुराते , खामोश निगाहें , गाल गड्ढे शोभा बढ़ाते ,
लरजते ओंठों मध्य लरजती मद्धम सुरीली तुम्हारी सुर सरगम ,

एक चुप तुम्हारी , देखो कितना कुछ कह जाती है आकर मुझसे ,
रुई के फाहों जैसी आकर अन्तस्तल छूती बिन कहे व्यथा तुम्हारी ,
दूर मुंडेर तक उडती मंडराती आक के फरों जैसी तुम्हारी बातें-यादें ,
निष्कपट बालक समान उनके पीछे खेतों की मुंडेरें नापता जोखता ,
तुम्हारी हर चीज़ को बावरे गाँव में आये ऊँट की तरह उत्सुकता से ,
दीदे फाड़ नयन झपकाता प्रयोगधर्मी अबोध सा बना उन्हें परखता ,

अबूझ पहेली जान , तुम्हें सुलझाने की कोशिश में खुद से उलझता ,
वीतरागी बन जीवन झंझावत के , रहस्यों से तुम्हें झूझता देखकर ,
मृत्यु लोक के खटरागों मध्य , नित प्रतिदिन तुम्हें खटता देखकर ,
बोल पड़ने को तत्पर नहीं बोल सकने को मजबूर एक पुतला पाकर ,
जाने क्यूँ ? जाने क्यूँ तुमसे अजानी नेह की इक डोर सी जुडी पाकर ,
क्यूँ तुमसी धारा में खुद को बहता पाकर एक नयी राह देख पाता हूँ ?
हाँ.. बिन नाते , अब नाते सा , तुम संग मधुर अहसास पा जाता हूँ !!

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (13-03-2011)
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नारंगी की शहादत


नारंगी की शहादत (व्यंग्य कविता)
Copyright © 2009-2011

खुद से शहीद होने का देखो जज्बा ,
आया है कितने जोरों से ,
जो सर में भरा वह रस अर्पण करने का ,
देखो जज्बा आया है कितने जोरों से ,
आदम के नाम अब लिखी जायेगी शहादत ,
क़ुरबानी यह मेरी व्यर्थ ना जायेगी ,
दिल किसी का चाहे सुन्दर न बना सकूँ मगर ,
तन उसका सुन्दर बना के रहूँगा ,

आदम न रहा अब पुराना सा ,
ह्रदय परिवर्तन अब कोई ना चाहे ,
सब चाहें तन हट्टा-कट्टा सा ,
दो डोले यहाँ, दो डोले वहाँ पे चाहें ,

माँ-बाप पड़े कुठरिया में ,
अनब्याही बहिन बैठी घर में ,
करें चाकरी ये लुगाई देवी की ,
बालपन से बडेपन तक ,
सेवा में पिदाया जिस माँ को ,
तरसे वह माँ दो बूँद पानी को ,
काँधों पे लाद घुमाया जिस बाप ने ,
कन्धों का जिसने उसे सहारा ना दिया ,
उस बदबख्त के नाम पर मेरी शहादत ,

क्या हुआ जो वह बिगड चुका अब ,
कसम मुझे तन से निकले आखिरी कतरे की ,
अब भी निभाऊंगी उत्तरदायित्व अपना ,
नित देख मेरे स्वधर्मार्थ प्राण त्याग ,
कभी तो बदलेगा नराधम..?
जाने कब बनेगा मानुष, मानुष का बच्चा...!!

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (12-03-2011)
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अपना...

  
अपना...
 
● अपना समंझने पर सारी दुनिया पर आप का हक है ...
● और न समझने पर एक टुकड़ा भी अपना नहीं ...

▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬ जोगी ..... (०९-०३-२०११ )

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हम कहाँ हैं ? : ( संस्मरण )


हम कहाँ हैं ? : ( संस्मरण )Copyright © 2009-2011

नोट : नीचे मौजूद वक्तव्य मेरी अपनी आँखों देखी सच्ची घटना है जो कुछ साल पहले घटित हुई थी...
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●          रात के अँधेरों में बरसात का जोर चरम पर था ! बारह बजकर पन्द्रह मिनट पर दादर कबूतरखाने के पर बने बस स्टॉप की शेड तले अपने को छिपाने के उद्देश्य से भाग कर मैंने अपनी जगह पक्की की ! पूछने पर पता चला सेंचुरी बाज़ार, वर्ली के लिए आखिरी बस एक बजकर पैंतालीस मिनट के आस-पास मिलेगी ! कुछ मिनट बीत जाने पर बारिश का जोर धीमा पड़ा और चारों तरफ से आ रही फुहारों से कुछ रहत मिली ! पीछे राम-हनुमान मंदिर से जुड़े नुक्कड़ पर पान के केबिन से देवानंद का एक गीत "ये रात ये चाँदनी फिर कहाँ, सुन जा दिल की दास्ताँ.." अपने मद्धिम स्वर में आयद हो रहा था ! मुंबई में बारिश का मौसम सबसे कठिन है कि यहाँ एक बार ठीक से जो बारिस शुरू हुई तो कम से कम चार माह तक अपने होने का अहसास करवाती रहती है ! उस पर भी यहाँ के लोगों का जीवट देखिये इस झंझावात के भी आदी हो चुकते हैं ! कहते हैं खरबूजे को देख खरबूजा रंग बदलता है तो हम ही कौनसे छूट जाने वाले थे, परिणामस्वरूप इतनी रात गए औरों संग मैं भी वहीं उस छोटी सी दबती सिमटती भीड़ का हिस्सा बना खड़ा था !

●          रात में सड़क को खाली जान सामने से अचानक एक नयी उमर के लड़के ने तेज़ी से सड़क पार करने की कोशिश में दौड लगा दी ! परन्तु नसीब का मारा यह नहीं देख पाया कि अन्य दिशा से उसी खालीपन का फायदा उठाती एक टैक्सी भी अपने वेग से चली आ रही थी ! समय की मार कहिये या दुखद संयोग परन्तु इन दोनों के मिलन का होना तय हो गया था ! धडाsssक.....!! जोर की आवाज़ ने कानों पर प्रहार किया ! लेकिन यह क्या, एक साथ तीन-२ आवाजें...? दरअसल टकराते ही उछलकर लड़का कार के बोनट पर जा गिरा और फिर उसी झौंक में दरककर नीचे जमीन पर ! एक ही समय तीन चोट और चौथी चोट ने बेचारे का तिया पाँचा ही कर डाला ! जब वह नीचे सड़क पर पहुंचा तो कार का अगला पहिया उसके बांये पाँव की हड्डी से खेल चुका था ! गीली फिसलन भरी सड़क पर रक्त के गहरे रंग की एक धार बह निकली जिसने कुछ ही समय में पहले से मौजूद गीलेपन से गठजोड़ कर नया फैलाव ले किया और यह दायरा फ़ैलकर अब काफी बड़ा रूप धारण कर चुका था !

●          रात के सन्नाटे को भंग करती बूंदों के अविरल टप-टप गिरने की की ध्वनियाँ जिन्हें बंद दुकानं के छज्जों पर मौजूद तिरपाल के संगम ने बेहद भयानक सा रूप दे दिया था ! इधर हम सब अवाक्...! सब इतना जल्दी हुआ कि क्या कहूँ ! मैंने कार के निकल भागने से पहले ही उसका नंबर नोट कर लिया और लगभग भागते हुए उस युवा के जमीन पर पड़े शरीर के पास जा पहुंचा जो अब झटके खाने लगा था ! एक पल को लगा कि उसका काम हो लिया, परन्तु फिर आस छोडना भी बेहूदगी होती ! इसी बीच पुलिस की बड़ी वैन वहाँ आ निकली ! जहाँ एक ओर बाकी लोग गलबतियों में व्यस्त थे वहीं मैंने अपना हाथ दे वैन को रुकने का इशारा दिया ! ज्यादा नहीं केवल एक ड्राईवर ही था उसमें, और नालायक इतना कि रुकने के बजाय सीधे ही पतली गली को हो लिया ! थोड़ी सी देर में दूसरी बार मेरे अवाक् रह जाने की बारी थी, जिस स्थिति में था उसी में मुँह फाड़े खड़ा रह गया ! कैसे एक सरकारी आदमी वह भी पुलिस डिपार्टमेंट का आदमी अपनी पूरी खाली वैन लेकर कल्टी हो लिया ! जिनके कन्धों पर देश की आतंरिक व्यवस्था टिकी हुई हो उससे ऐसी उम्मीद नहीं कर पाया था सो अचंभित होना स्वाभाविक ही था ! कुछ ही मिनटों में यह सब भी निबट गया ! अब फिर सुनी सड़क मुझे मुँह चिढाती अपने नहाने-ढोने के काम में व्यस्त हो गयी ! आस-पास नज़रें एवं दिमाग दौडाने पर समझ आया कि अब तक मैं जिन्हें अपने साथ समझ रहा था उनकी हैसियत असल में किन्हीं तमाशबीनों से अधिक नहीं थी !

● उन्हीं तमाशबीनों में एक से पुलिस कंट्रोल रूम का नंबर मिल गया ! फोन घुमाने पर जो हुआ वह पहले से भी अधिक परेशानीबख्श रहा ! फोन पर उपलब्ध लोगों ने लड़के के बारे में जानना ना चाहकर मेरी ही जन्मकुंडली निकलवाना शुरू कर दिया ! जिस अंदाज़ में वे मुझसे सवाल पूछ रहे थे उससे तो यही जाहिर हो रहा था कि अब मुझे ही बंद किया जाने वाला हो ! बड़ी मुश्किल से लोकेशन समझकर जान छुड़ाई ! यहाँ बताने लायक बात यह भी बनती है कि टक्कर मरने वाली टैक्सी का नंबर नोट करने में काला-चौकी पुलिस ने कोई खास रूचि नहीं दिखाई जबकि मैं बार-बार इस बात को दोहराए जा रहा था ! साथ ही पुलिस वैन का नंबर बोलने लायक माहौल मुझे मुहैय्या ही नहीं हुआ ! शरीफ एवं सीधा आदमी होने के कारण इस सब से दूर भागना ही उचित जन पड़ा, सो दूर रहकर लड़के के पुलिस द्वारा उठाये जाने का कार्य अन्जामित होते देख वर्ली तक चुपचाप से पैदल ही खिसक आया !

● यहाँ मेरा सवाल बनता है कि क्या एक जिम्मेदार नागरिक होने की सजा खुद को फंसवाकर ही मिलती है ? या वह टैक्सीवाला अधिक अच्छी स्थिति में है जिसने रुकना तक गंवारा नहीं किया जबकि वह दुर्घटना का अहम किरदार था ? या वह पुलिस वैन का ड्राईवर अधिक समझदार निकला जो सरपट खरगोश बन बैठा ? या वे लोग उचित थे जिन्होंने अपनी जुबानों का इस्तेमाल करने जितनी बड़ी महान जहमत उठाई ? या मैं ठीक रहा जिसने अपनी जिम्मेदारियों को निभाने की आधी-अधूरी ही कोशिश की ? या फिर कुछ और ही है जो होना चाहिए पर नहीं होता ? क्या सच में हमारे मन से इंसानियत का इतना अधिक नाश हो चुका है कि हम अपने होने का ही फायदा नहीं उठा पाते हैं और ना ही किसी और के लिए अपना इस्तेमाल कर पाते हैं ? क्या वाकई इंसानियत शब्द को शब्दकोष से निकाले जाने का सही समय आ चुका है.....?

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (06-03-2011)
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टिटहरी : ( कहानी )


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         ● शाम सात बजे अपने अडतालीस वर्ग फुटे ऑफिस में बैठा सोच रहा था "आगे क्या होगा जाने...?" कई महीनों से बल्कि कुछ सालों से व्यापार निरंतर अधोगति को प्राप्त किये जा रहा है ! आज जब इकलौता वर्कर भी किसी शादी के नाम पर छुट्टी चला गया तब उसके बदले नौकर बन जाना दिल के किसी कौने में खला भी था, पर मरता क्या ना करता वाला हाल था ! बैंक में बस दस हज़ार रुपये हैं और होली की छुट्टियाँ सामने पड़ी हैं ! जिनसे ऑर्डर्स मिला करते थे वे तो चल दिये रंग-बिरंगे होने को, अब क्या करूँ ? पुराने बिलों को खंगालते एकाध फोन करना समझ आया लेकिन इससे कितना फर्क आ जाना था ?  मेरे संपन्न होने का सभी को यकीन था ! कोई सोच भी नहीं सकता कि आगामी माह से पहले अगर कुछ जरिया नहीं मिला तो शायद भूखों मरने तक की नौबत आ जाने वाली है ! सीधे गरीब होना कितना आसान और सुखद है ना कि जब भी खाने के लाले पड़ने लगें तो सड़क किनारे खड़े होकर पेट भरने लायक इंतजाम कर लो ! यहाँ तो सम्पन्नता का ढोंग करते खुद उस ढोंगी बाबा सा जीवन होने लगा है, जिसे अपने होने से कहीं अधिक अपने बाबा होने का स्वांग रचाते रहना है !

         ● अभी कल ही टीवी में बांद्रा स्टेशन के करीब की झौंपडपट्टी में लगी आग का नज़ारा देखा ! हजारों बेबस-लाचार मासूम लोग एक ही झटके में बिल्डर्स की घटिया स्वार्थी-महत्वाकांक्षाओं की भेंट चढ बेघरबार हो गए ! उनके जलते घरों में जैसे मुझे अपना आज दिखाई देने लगा ! देखा जाये तो ये लोग तो अब मेरे समकक्ष आये हैं वरना बेघरबार मैं हमेशा से किराये के घर में ही तो रहता आया हूँ, जिसका किराया भी कुछ महीनों से सिर चढा हुआ है और जाने किस माह दे सकने लायक होऊँगा ? यदि अपना सारा लेन-देन निबटा कर देखूँ तो उन ताजा बेकसों से कहीं अधिक बेकस खुद को पाउँगा ! वे लोग अब भी शून्य पर टिके हैं परन्तु मैं जाने कब से ऋणात्मक जीवन संग खेल रहा हूँ ! कितना खोखला चोला ओढा रखा है स्वयं को, जैसे असलियत को ह्रदय मानना ही न चाहता हो ! जो जीवन स्तर बना हुआ है उसे बनाये रखना तो दिवास्वप्न सा हो ही गया है, बल्कि हालात तो यहाँ तक बदतर हो चले हैं कि जाने अब आगे कुछ हो पायेगा भी या लौट कर तानों भरी पितृ-शरण लेनी होगी ? एक नज़र से देखा जाये तो कुछ न कुछ काम वहाँ भी करना ही होगा, बैठे ठाले कब तक कोई सहन कर पायेगा ?

         ● शरीर से गहरी निश्वास अनायास ही निष्कासित हो बैठी और सिर छोटी पुस्त वाली किर्सी से टिक गया ! यूँ ही अपने काम के ग्यारह वर्ष बंद पलकों के पीछे से घूम गए ! कितना श्रम किया विगत बरसों में यह मैं ही जनता हूँ ! अपना घर छोड़ मुंबई जैसी महानगरी में आना कोई हँसी खेल नहीं था ! किसी रिश्तेदार द्वारा मुहैया उसके डूबते व्यापार को बढ़ाने में रात दिन जान लगा दी ! नतीजा भी मनवांछित रहा परन्तु हाय री किस्मत, यहाँ से हटाये गए उनके पुराने नातेदारों ने दुश्मनी की हद तक इसे गाँठ से बाँध लिया ! वो दिन और आज का दिन बस रेट की लड़ाई लड़ रहा हूँ ! कभी ऊपर उठने मिला ही नहीं ! सारा मार्जिन और मेहनत प्रतिस्पर्धा की भेंट चढ़ने लगे और अपने को ज़माने की कोशिशों में सिर में सफेदी आ गयी परन्तु जमने के लिए सीमेंट को एक बूंद पानी तक नसीब नहीं हुआ !

         ● इसी बीच परिणय नाम की बीमारी से भेंट हो गयी ! बड़ी खूबसूरत बीमारी घर आ गयी ! मज़े की बात, उसे और कोई नहीं खुद मैं ही ले आया, वह भी खुशी-खुशी गाजे-बाज़ों संग ! कितना खुश था उस दिन जब पहली बार खुशहाल जीवन के स्वप्न संजोने शुरू किये थे ! लेकिन उपरवाले के खेल भी निराले हुआ करते हैं ! घर आयी वस्तु सच में वस्तु ही बन कर रह गयी ! संवेदना विहीन मोम की गुडिया जिसे देखकर खुश तो हुआ जा सकता है परन्तु यह सब देखने तक ही ठीक था, अन्यथा उसके मायने बदल जाने थे ! रिश्तों में भावनाओं की गर्माहट क्या होती है इसे आज तक महसूस नहीं कर पाया ! विगत कई वर्षों से परिणय सूत्र में बंधा हूँ पर आज तक एक दिन भी ऐसा नहीं गुजरा जब लगा हो कि हाँ आज मैं अकेला नहीं हूँ ! कितना सालता है जब आपके साथ कोई हो मगर साथ और अपनेपन के लिए आप रगड-घिसट रहे हों !

         ● पहले बात हो जाया करती थी परन्तु अब हाल उस "टिटहरी" सा हो गया है जिसे सुनते सब हैं पर चूँकि आदत है इसलिए वह आवाज़ अलग से किसी का ध्यानाकर्षित नहीं कर पाती ! यहाँ भी कहाँ कुछ अलग होना था ? सो वही हुआ जिसका डर था, अपने ही आलय में बेसहारा हो बैठे ! हाँ, भूलवश जनसँख्या अवश्य बढ़ गयी ! अब जिम्मेदारियाँ पहले से अधिक थीं और काम उससे भी अधिक रफ़्तार से अधोगति को जा रहा थी ! अक्सर रातों को डरकर उठ बैठना, ह्रदय में रक्त-संचार की बढ़ी गति को एक अजीब सी सिहरन एवं सनसनाहट के साथ यदा-कदा महसूस करते रहना कंपा देता है ! गरदन घुमा कर साथ सोये लोगों को जब देखता हूँ तो लगता है कौन हैं ये ? जिनके लिए आज हृदयगति बढ़कर डराने लगी है, तिस पर भी इन्हें लगता नहीं कि यह सब इन्ही के लिए है ! कुछेक बार मुझमें आये इन परिवर्तनों को भांप भी लिया गया, परन्तु है मजाल जो श्रीमुख से कभी प्रेम के दो मीठे बोल भी विस्फुटित हुए हों अथवा स्नेह से दो उंगलियाँ बालों की सैर ही कर आयी हों, कि शायद मन को कुछ करार आ जाये !!

         ● घर मनुष्य के लिए शारीरिक एवं मानसिक विश्रांति स्थल होता है लेकिन यही घर मकान में तब्दील हो जाये तो आदमी उन दीवारों के बीच जाकर धर्मशाला तलाशे अथवा सकून ? अपनेपन के लिए "टिटहरी" की मद्धिम सी आवाज़ यदा-कदा निकलने लगी है पर नतीजा फिर सिफर ! कुछ समय पहले मन को सकून देती एक नयी सोच ने जबरन कब्ज़ा जमा लिया ! जाने क्या था उस सोच में कि मेंढा घूम-फिर बारहा उसी खूंटे के गिर्द चक्कर काट आता ! कितना समझाया मन को, न जाओ देश पराये पर कोई माने तब ना ! अब जाये भी तो क्यों ना जाये ? जहाँ चारा होगा मेंढे ने घूमना भी तो वहीँ है ना ! जिसने टिटहरी को सुना उसके गिर्द ना बैठे तो क्या पतझड़ के मारे बिन पत्तों के नंगे पेड पर बैठे ? यहाँ भी वहीँ हुआ ! फुदकने के लिए टिटहरी को आखिर मनपसंद वृक्ष मिल ही गया !

         ● इधर कुछ नए रंगों ने जीवन-दस्तक देनी शुरू की वहीं दूसरी तरफ काम ने भी अपने नए दरवाजे खोल दिये लगता है ! इन दिनों कुछ नयी राहें बाहर को इंगित हो रही हैं ! इसके लिए भी कुछ अपने ही जिम्मेदार हैं परन्तु इन अपनों ने बाहर से आकर अचानक ही अपनी जगह बना ली है, पहले से मौजूद नाते तो मस्तिष्क पर ताले अधिक महसूस होते हैं ! अब प्रस्थान होना है नयी राहों के लिए और फिर एक बार शुरू होगा नए रंग में रंगे पुराने सपनों को जीने का नया सिलसिला !

         ● देखें...!! भविष्य की परतों में नया जाने क्या छिपा हुआ है ?


जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (06-03-2011)

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नोट : इस कहानी को किसी भी जीवित अथवा मृत पात्र से ना जोड़ा जाये...
इसमें वर्तमान की आगजनी का हवाला सिर्फ यथार्थ की अनुभूति देने के लिए दिया गया है...
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घरौंदा और परछाई


घरौंदा और परछाईCopyright © 2009-2011

गर  होता सम्भव,
चिन कर खुद को खुद पर ,
किसी निर्जन वीराने में ,
पित्तुल बनाता खुद को ,

न होता भय,
किसी बालक के ठेस लगा जाने का ,
न आता कथित कोई अपना ही ,
दूर बहुत दूर ,
उड़ते किसी खग की ,
पल भर की विश्राम स्थली बन जाता मैं ,
उड़ जाने पर,
रह जाना पीछे अकेला ,
मुझ से बने घरौंदे का ,

जीना है अब मुझे फिर अकेले ,
पीछे छूटे स्मृति चिह्नों संग ,
बीट में फंसे फडफडाते फर ,
गाने लगे उड़ चुकी जीवन गाथा ,

सूखे घाम से सिक्त कठोर पित्तुल की परतें ,
एक रंग रंगे पत्थरों का सूनापन ,
कहीं धूप कहीं छाँव सा उनके जैसा मैं ,
स्वयं की पड़ रही परछाईं ,
देख-देख उसे पुलकित होता मैं ,

शाम ढले आते धुंधलके संग धुंधलाती परछाईं देख ,
छपाके संग कुछ गिर जाने से मिटती परछाई देख ,
फिर यथार्थ में आता मैं ,
नीरस अँधेरों संग अस्तित्व की लड़ाई को लड़ता मैं ,

कब तक..?
कब तक करूँ संघर्ष ?
कब तक सब होने पर भी दिखे एकाकीपन..?
कब तक अपने ही जिंदा होने का भान खुद को कराऊँ मैं..?

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 04-03-2011 )

नोट : इस कविता का प्रेरणास्त्रोत यही चित्र है जो इसके पृष्ठ भाग में है...
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● फ़रिश्ते होते हैं बंधुवर ● (एक खोज)


फ़रिश्ते होते हैं बंधुवर (एक खोज)
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फरिश्तों को ढूँढने ,
दूर कहाँ जाते हो मित्रवर ?
वे नहीं मिलेंगे तुम्हें ,
किसी झील-पोखर के किनारे ,
ना घर में ना बाहर ,
ना निकलती श्वासों में ,
ना मिलेंगे किसी मानुष में ,

फ़रिश्ते होते हैं बंधुवर ,
वे मिलेंगे तुम्हें ,
कल्पनालोक की गलियों में ,
मन की चाक कंदराओं में ,
भीतर प्रविष्ट होती श्वासों में ,
मासूम चातक की भोली आँखों में ,
कहाँ जाते हो दूर बंधुवर ,
दफ़न मिलेंगे ह्रदय के गहन अँधेरों में..

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 03-03-2011 )
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मेरी ऊपर वाली कविता जिन दो पंक्तियों से प्रेरित होकर बनी है वे नीचे लिखी हुई हैं :

वो फरिश्ते आप तलाश करिए कहानियो की किताब मे,
जो बुरा कहे न बुरा सुने कोई शख्स उनसे खफ़ा न हो ..... ( ऋतु दुबे )
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