गोगी (कचोट-कथा)


गोगी ● © (कचोट-कथा)
(मुख्य पात्र : गोगी, बुआ, जस्सी)

पैदा हुए अभी कुछ ही दिन हुए थे कि माँ के साये से छीन उसे किसी शौक़ीन परिवार को सौंप दिया गया | एक गोद से दूसरी तक कुछ हजार रुपयों के बदले यूँ स्थानांतरित हुआ जैसे वह भी घर के राशन जैसा कोई सौदा हो | परन्तु वह तो वही था निराला दुनिया से | माँ ने आदम जात के यहाँ आधा दर्जन जन दिए थे और चूँकि माँ को मनुष्य के साथ अपना सरपरस्त सा समझते व्यवहार करते देखा तो उन्हें भी आदम को पेरेंट्स की तरह समझने की आदत गुलामी के अनबंधे पट्टे पर खुदी मिली | नये परिवार के हाथों स्थानांतरित होना खेल सा ही था उसके लिए |

हर कोई गोद में लिए गोगी (उसका नाम) की आँखों में झांक नयी पहचान बनाने की कोशिश में था | सभी के अपने स्वार्थ थे उसके के होने से मगर गोगी? उसने तो बस गोल छोटी मासूम सी निष्कपट अपनी आँखों पर के पटपटे झपका देने थे | उन भोली आँखों पर जितनी बार नये घर के सदस्य कुर्बान हुए, उतनी ही बार उसकी थूथनी, सर और शारीर पर प्यार भरे सहलाव मिलते चले गए | कुछ समर्पित प्रेमपूरित वाक्यांश नये मिले बाळ-कुक्कुर को नसीब हुए जा रहे थे |

घर आने पर जगह बेशक नयी थी लेकिन मिल रहे दुलार के आगे माँ के स्तन भी भुला बैठा | बच्चों के लिए जैसे एक नया खिलौना आ गया था सो लदे पड़े थे उसपर और ये भाई भी कहाँ कम थे पिल पड़े उन संग | भागता हुआ दादाजी के पाँवों तक जा पहुँचा और आदतानुसार पायजामे पर झूल गया | कुछ समझ ही न आया कि वहाँ ये अचानक दूर यहाँ कुर्सी के पाए तक कैसे आ गिरा? पता चला दादाजी को नफरत थी इस प्राणी से और अपनी नफरत अथवा घृणा दिखाने का इससे कारगर उपाय उन्हें कुछ और न लगा कि फुटबॉल खेलने का अपना शौक पूरा कर लें | उधर कुछ हवा में और कुछ जमीन पर रगड़ता घिसटता निरीह प्राणी कुर्सी के पाए से बड़े जोरों से पसलियों के बल टकराया | मुँह से मिमियाई सी मद्धिम आवाज में चिल्लाया | कूँ कूँ करता उठने की कोशिश भी की लेकिन उठना एकदम से संभव नहीं हुआ | बड़ी तेज दर्द को लहर सी उठ गयी पसलियों और माँस-पेशियों के मध्य | कुछ पल को स्तब्ध सा बैठा फिर लंगड़ाता हुआ जैसे तैसे उठकर जस्सी के पास जा पहुँचा जिसने अब तक सबसे ज्यादा प्यार उंडेला था उसपर | दौडना भूल सहमा सा अब जस्सी की गोद में पनाह ढूँढने की कोशिश में वहाँ से भी गिर पड़ा | आखिर जस्सी खुद भी तो पाँच साल का बच्चा ही तो था |

कुछ देर पहले के शहंशाहे आलम अब वजह तलाश रहे थे कि ऐसा क्या कर दिया मैंने? दादाजी के पाँवों से जरा खेलना ही तो चाहा था | और तो कुछ आता नहीं था उसे | इसके सिवा करता भी क्या? बोल नहीं सकता था वरना जस्सी होता तो अब तक रो-रोकर घर सर पे उठा लिया होता | रह-रहकर पसलियों में उठने वाला दर्द तकलीफदेह मालूम पड़ता था लेकिन क्या करे अब जस्सी को उससे खेलना जो था सो न उठ पाने और न खेल पाने पर यहाँ भी उसके साथ धक्कम-पेल शुरू हो गई और अंत में वो भी इसे कुछ धौल जमाकर एक ओर को अपनी गुड़ियों के पास चल दिया | पूरी रात कराहों संग गुजरी और सुबह एक कटोरा पतले दूध में चूरी हुई रात की बासी रोटी | बच्चा था, करता भी क्या? मुँह फेर कर नखरे दिखाने में खुद को व्यस्त कर लिया | तभी पीछे से निर्मोही कर्कश आवाज कानों में पड़ी "पड़ा रहने दो ऐसे ही, थोड़ी देर में भूख लगने पर सब खा लेगा"| उसे समझ तो नहीं आयी यह इंसानी भाषा मगर अंदाजे बयाँ से कुछ मतलब पल्ले पड़ गया कि ये जो भी था वो उसके नखरे को लेकर था | उठती टीसों के बीच भूख से बिलबिलाता, उदराग्नि से पीड़ित और नन्हे से दिल वाला मासूम प्राणी कब तक अड़ता, खा लिया मन मारकर |

अब तक उसे समझ आ गया था कि इस घर में अच्छे से रहना है तो हर आवाज पर प्रतिक्रिया देनी होगी अन्यथा मार, डाँट, ठुकाई कुछ भी मिल सकता है | साथ ही बाळमन का क्या करे हसरतें जस्सी से कहीं कम नहीं थीं ऊपर से कॉम्पिटिशन का भाव भी कि मम्मी ने जस्सी को गोद में लिया तो मुझे क्यों नहीं लेती | बदले में होने वाली धक्का मुक्की में मुकाबला कभी बराबरी का रहता तो कभी हड्डियाँ चरमरा जाती थीं | क्यों न चरमराएँ? आखिर एक कुत्ते और उनके घर के इकलौते चश्मो-चिराग का क्या मुकाबला?

इसी बीच कुछेक बार दादाजी से परसादी मिलने के बाद दूर-2 ही रहना श्रेयस्कर जान अपनी जान का दुश्मन बनने से बचा हुआ था | उधर घर में एक विधवा बुआ भी थीं जो हमेशा किसी भी अप्रत्याशित विपदा से उसे बचा लिया करती थीं | जो हर गलती के बाद किसी के कुछ कहने या करने के समय बच्चा है कहकर ढाल बन जाया करती थी | जाने अनजाने इसने भी उन्हें अपनी माँ का दर्जा हाँसिल करा दिया | दोनों माँ-बेटे घंटों बतियाते, बतियाते तो क्या वो कहतीं और ये पूँछ हिलाकर प्रत्युत्तर देता | थोडा ऊधम भी किया करते | लेकिन जस्सी के आने पर बुआ का बस भी ज्यादा नहीं चलता था आखिर असली मालिक तो वही थे और ऊपर से वो भी एक बच्चा ही तो था | बड़ी बात यह कि बुआ खुद भी एक आश्रिता ही तो थीं |

एक दिन छत से बड़े जोरों से कूँकूँ की आवाजें आने लगीं जाकर देखने पर पता चला जस्सी जी ने इन्हें पतली सी मुंडेल से उस पर तक जाने की आज्ञा दी थी और नहीं जाने पर ऊपर से एक मंजिल नीचे फेंक दिया था |  गोगी जी नीचे पड़े घिसटते एक तरफ को छाया में जाकर दीवार के जोड़ के पास पड़े तडफडा रहे थे | शायद एक पाँव लाचार हो गया था और गले से निकल रही घुंटी सी चीखें किसी भी भावुक इंसान का ह्रदय दहलाने के लिए काफी थीं | सबसे पहले दादाजी आये और मामले को जाने बिना घबराकर जस्सी को गले लगाया फिर लगे हाल चाल पूछने | डर के मारे जस्सी बाबू ने भी  कुछ न कहा और ये साहब तो मुँह में जुबान रखते ही कहाँ थे जो कुछ कह पाते |

ज़माने भर का दर्द समेटे मासूम निगाहें दादाजी का चेहरा तक रही थीं कि कोई तो समझो मेरे टूटेपन को लेकिन बिना कुछ जाने समझे चरमराई कमर पर एक और लात रसीद हो गयी यह कहते हुए कि तू ही है सब समस्याओं की जड़, जबसे आया है मुसीबत ही मुसीबत | आज तेरी वजह से हमारा छोरा गिर गया होता | उधर टूटे शरीर पर जान निकालती एक और चोट बर्दाश्त न कर पाने से अधमुंदी पलकों संग जाने कब-2 गोगी बेहोशी में डूब गया | आँख खुली तो गीली पलकें लिए बुआ उसके जख्मों पर दवा लगा रही थीं | मचल-मचलकर सारी कहानी अपनी माँ को सुनाने की कोशिश में कुछ अधिक ही दर्द पा गया | अंत में छोटी-2 आँखों के पोरों से निकली अश्रु धाराओं ने बेबसी की सारी कहानी बयान कर दी | माँ बेटे दोनों गीली आँखों संग एक दूसरे में समा जाने में लगे थे |

कुछ दिनों में चलने लायक तो हो गया लेकिन लंगडाहट जीवन से अभिन्नता बना चुकी थी | जस्सी का अटैचमेंट भी कुछ कम हो गया था | कल ही तो पापाजी रिमोट वाला नया हैलीकॉप्टर लेकर आये थे | कभी मना भी न किया उसने, जहाँ चाहा जस्सी के इशारों की तामील में उड़कर दिखा दिया | लंगड़ा पिल्ला और लंगड़ा घोडा संभवतः एक बराबर होते होंगे सो अब रात बिछौने वाली गद्दी घर के बाहर रखी बोरी में बदल गयी थी | वो बुआ ही थी जिनकी मेहरबानी से अब तक दरवाजा पूरी तरह नहीं छिना था लेकिन गले में चेन वाला उनका मालिकाना हक अब भी बरक़रार था, नसल विदेशी जो थी | सुबह शाम बुआ खाने का बराबर ध्यान रखती थीं |

किसी दिन सभी को कहीं जाना पड़ा तो द्वार पर इसे बाँधकर पडौसी को ताकीद कर गए कि कुछ घूमना और खाने का ध्यान रख ले | सुबह से शाम और शाम से सुबह इसी इंतजार में बीत जाती कि कब कोई आये और दो दाने डाल जाए | कभी मिलता कभी नहीं, प्यास के मारे गला सूख जाता लेकिन दोबारा पानी देने की जहमत किसी ने न उठाई | अक्सर मुँह से लटकती जिव्हा से टपकती बूंदें तक समाप्त हो जाती थीं प्यास के चलते | तीन ही दिनों में गली के कुत्ते से बदतर हालत में पहुँच गया | उन्हें भी कम से कम खाने-पीने को कुछ तो मिल ही जाया करता था | वहीं दूसरी तरफ छत से गिरने का घाव अब बड़ा होता जा रहा था | थोड़ी बहुत दवा लगाने से ज्यादा कभी कोई कोशिश नहीं हुई उसे ठीक करने के लिए |

परिवार के वापस आने पर उसे उतनी खुशी नहीं हुई जितनी कि बुआ को देखकर | टप टप टपकते कोटरों ने सारी बातों का आदान प्रदान कर लिया | कुछ दिन बाद बुआ का सारा सपोर्ट धरा का धरा रह गया और इसे गली का कुत्ता बन जाने के लिए आजादी दे दी गयी | लंबे समय तक अपना दर-बार न भूल पाने के कारण अक्सर उसके दिन रात उसी द्वार पर बीतने लगे लेकिन अब उसकी खोजबीन का दायरा बड़ा होता चला जा रहा था |

नया-2 गली का कुत्ता बना था सो गलियों के दरबारी अदब नहीं जानता था नतीजन हर जगह से काट-काटकर भगाया जाता | एक बार कोई नामाकूल आवारा कुत्ता उसके बाएं कान का परा का पूरा उपरी हिस्सा ही ले उड़ा | सड़ते घावों में गिजगिजाते कीड़ों के साथ गोगी जैसे-तैसे जीने की आदत बना रहा था | जहाँ भी कीड़े काटने लगते वहीं दाँतों से खुजा-खुजाकर खुद से नये बड़े घाव बनाता जाता | बड़ा याद आता उसे अपने घर में बुआ की गोद में बिताया जीवन | एक दिन तो हाथों में सब्जी की थैली लटकाए रास्ते में बुआ नजर भी आ गयी मगर सड़ते बदन का खौफ उन्हें भी दूर रखे हुए था | एक साथ उनकी आँखों में ममता, प्रेम, दया, तरस, घिन और जाने कितने सारे भाव नजर आ गए थे | अपने पास आने की गोगी की कोशिशों को देख जल्दी-2 बढते क़दमों से बुआ ने सीधे घर की राह ली |

एक दिन सड़क पार करते समय सामने से आते साईकिल सवार ने टक्कर मार दी और सम्हल न पाने के कारण सवार अपनी साईकिल समेत पूरे वजन के साथ बायीं करवट से उसपर गिर पड़ा | बायाँ पैडल लगा हुआ नहीं था और पैडल को टिकाने वाली पैडल रॉड ने उसके पेट के किनारे की धज्जियाँ उड़ा दीं | गालियाँ देता अपनी साईकिल उठाकर साईकिल सवार अपने पीछे तड़पन की सारी हदों को पार करते मचलते एक शरीर को छोड़कर चल दिया | पीछे बेसहारा पड़ा पिल्ला जो किसी दिन शहंशाहों की तरह जिया था आज अपने सूखे छितरे हुए घाव-रंजित बदन को सड़क किनारे करने की कोशिश में अपनी ही जगह हिलकर रह जा रहा था | कुछ लोग घेरा डाले खड़े थे जिनकी ओर आस भरी भीगी पलकों से वो बेजुबान तके चले जा रहा था | किसी ने पास आने की जहमत नहीं उठाई सबको उसके शरीर के पुराने और नये मिले घाव दिखाई दे रहा था  | आज इंसान की मदद के लिए कोई नहीं आता तो यह तो महज कुत्ते का एक बच्चा ही तो था |

कुछ कमजोर दिल वाले लोग देख नहीं पाने के कारण कतराकर निकल रहे थे और कुछ भावुक लोग शाब्दिक भावनाओं को अभिव्यक्त करने में लगे थे | "हाय रे कैसे तड़प रहा है" मिसेज मिश्रा ने कहा | "मैं इसके लिए क्या करूँ, इसका दर्द मुझसे नहीं देखा जा रहा है, देखो तो किस कदर बदन ऐंठ रहा है इसका? हाय! कहीं मर न जाए बेचारा |"-आरती जी बोलीं जो अपने आपको समाज सेविका के रूप में देखती थीं | मौहल्ले के किसी बच्चे ने घर पर खबर कर दी | मचलकर बुआ सीधे बाहर को भागी और पीछे से दादाजी ने कहा "अरी! कहाँ भागी जाती है? मैं फोन किये देता हूँ म्युनिसिपैलिटी में|" उधर पहले ही किसी ने फोन कर दिया था | जब तक बुआ पहुँची जीव से निर्जीव में बदले शरीर को प्लायवुड के एक टूटे टुकड़े पर सरका कर गोगी का पार्थिव शरीर गाड़ी में चढ़ाया जा रहा था | बुआ खड़ी सोच रही थीं "क्यों शरीर-शरीर में इतना फर्क होता है? जान सभी में है लेकिन इसको सहायता पहले क्यों न मिली?" फिर अपनी ही मज़बूरी याद करके सिहर उठी जब खुद उन्हें इसके साथ चिपके रहने पर घर से चले जाने की धौंस दी गयी थी | आखिर थीं तो एक आश्रित विधवा ही ना | उनके सामने से हॉर्न देती गाड़ी चली गयी और ये नजर भरकर अपने बेटे को देखना चाहकर भी नहीं देख पायीं | कुछ बाकी न रहा, झुके नयन, भीगी पलकें, कुछ भारी कदम, घर की राह और वही दिनचर्या | कुछ यादें दिल में लिए बुआ चल दीं घर की ओर |

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (29-02-2012)
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न पुतला माटी का यूँ फ़ना होता



न पुतला माटी का यूँ फ़ना होता ● ©

न अरमान तुम्हें लिख भेजे होते,
न तुम कहते वो आखिरी खत हो,
न मेरा वो खत आखिरी होता,
न जरुरत पहले की होती,
न वो फलसफे बयान होते,
न हम तुम आज साथ होते,
न लिफाफा तकिये में रखा होता,
न होता गीला तकिया मेरा,
न हर्फ़-ऐ-लिफाफा धुंधले होते,
न डाकिया घर आया होता,
न यूँ हम आज रुसवा होते,
न तुम हमसे यूँ खफा होते,
न पुतला माटी का यूँ फ़ना होता...

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (29-02-2012)

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प्रेम-प्रतिज्ञा (कटाक्ष कहानी)



प्रेम-प्रतिज्ञा ● © (कटाक्ष कहानी)

बहुत दिन हुए आज की तरह यूँ बैठना नसीब नहीं हुआ था | गहरी गुनगुनी उसांस सी छोड़ते मैंने बालकोनी से नीचे झाँका | कुछ दूर सामने से एक अंकल चले आ रहे थे | कमर पर पतलून तो थी मगर बेल्ट कमर से कहीं ऊपर कदरन पेट के बीच जाकर बाँधे चले आ रहे थे जैसे बुढ़ापे में उनकी कमर ऊपर को सरक आयी हो | इन्हें ही क्यों बल्कि बहुत से बूढों को इस हाल में देख चुका हूँ जिनकी पेंट कमर के बदले पेट पर बंधी दिखाई पड़ती है जैसे कमर पर से पतलून रोक सकने का भरोसा ही उठ गया हो | कितना अजीब होता है यह देखना कि एक समय इंसान नंगा पैदा होकर पहली कच्छू पाँवों से चढाता है, फिर धीरे-2 यह सफर कमर तक आकर रुक जाता है | पूरी जवानी कमर के भरोसे रह अचानक पतलून कुछ और ऊपर को सरक आती है जैसे पहली जगह रहती तो फिर प्राकृतिक वेशभूषा में आना न पड़ जाये कहीं |

इन्ही खन्ना अंकल की बड़ी बेटी सुमन को देख मन ही मन इन्हें ससुरजी का दर्जा देने की इच्छा पनप उठी | लेकिन सुमन थी कि जैसे उसे मतलब ही नहीं था किसी से | गुमसुम नीची नजरों संग आना-जाना उसका जैसे कहीं किसी ने दिमाग के लेवल पर जाकर तालाबंदी कर रखी हो | अपने परिवार संग अभी दो साल पहले ही तो आये थे खन्ना साहब | लेकिन बमुश्किल हफ्ता भर ही गुजरा होगा जब सुमन को पहली बार मेरे होने की अनुभूति करा पाया | हुआ कुछ यूँ था कि मैं बैठा था कॉलोनी की बाउंड्री वॉल पर लोहे के फाटक के किनारे और वहाँ से सुमन का गुजरना हुआ | तभी किसी लफंगे ने कोई जुमला उछाल दिया | जुमला तो न सुन पाया मगर सुमन को जैसे घडों पानी से नहाया पाकर उस मनचले से उलझ पड़ा | वाह ! वो भी क्या धुनाई थी मजा आ गया | दे हाथ, दे लात, धें-धें करते पूरे दस मिनट लगे इस मामले को निबटने में | पता चला तब, जब उस मनचले ने मेरा पुलंदा सुमन ही के सामने बाँध दिया और मुझे अपने कराहते मुँह से स्वरों का विस्फुटन भी पीड़ा का आगमन स्त्रोत जान पड़ने लगा |

मनचला तो चल दिया अपनी राह लेकिन मुझे उठकर जाना कुछ यूँ लगा जैसे दो बार वैष्णो देवी की चढाई लगातार चढने-उतरने के बाद फिर से वही काम करना पड़ जाये | चला था मुरारी हीरो बनने और खुद ही मोहताज बन बैठा | गर सुमन के काँधों का सहारा न मिला होता तो जाने क्या होता मेरा | जैसे तैसे उस कोमला ने घर पहुँचाया लेकिन ये भलमनसाही भी भारी पड़ गयी बेचारी को | मेरी माँ कौनसी कम थी, देखते ही समझ गयी मेरे लच्छनों को | उसके बाद जो म्यूजिक सिस्टम शुरू हुआ तो उसका रुकना किसी के बस में न था | और सुमन? हाय बेचारी! सोच रही होगी वो मनचला दस बार और छेड़ जाये लेकिन ऐसे मददगार कभी ना मिलें | हाय रे! कैसे-2 लांछन सुने और सहन किये होंगे मेरी भोली ने? जाने कब और कैसे निकल भागी ये बात उस बेचारी को समझ तक न आयी होगी | और मैं? बोलने से लाचार अपना सूजा हुआ टेढ़ा मुँह लिए चुपचाप पड़े रहने से ज्यादा कुछ न कर सका |

इतनी कमाल इमेज कभी किसी प्रेमी की न बनी होगी शायद | चंगा हो जाने तक के बाकी सारे दिन अरमानों की लाश लिए करवटें बदलते गुजर गए | उसके बाद भी कुछ दिन सामना करने की हिम्मत ना पड़ी | दसवें दिन पहला काम जिम ज्वाइन करके का था और इक्कीसवें दिन फिर उस लफंगे के सामने खड़ा था | नसीब भी देखो कितना कमाल कि सुमन के देखते हो रहा था ये सब | पर मैं जानता था कि इस बार पहले जैसा कुछ न होना था और इस बार सच में नया करिश्मा हुआ | फिर एक बार ले-दे हुई, धम-धूम-धडाम भी हुई लेकिन एक नये अंदाज में | क्या धाँसू रिजल्ट था | मेरे भगवान मजा आ गया | इस बार कमीने ने मेरी ही पतलून उतार कर मेरे हाथ-पाँव बाँधे और तबियत से तसल्ली से बगल में बैठकर धुनाई की थी | उफ्फ सारा जीवन भी चाहूँ तब भी उस दर्द की याद भुला नहीं पाउँगा | दुष्ट ने हर चोट पर कई-कई चोटें लगायीं | इस बार सुमन ने पास आने की कोई कोशिश नहीं की लेकिन दया के भाव उसके चहरे पर साफ देख पा रहा था | कैसे बताऊँ उसे कि मुझे दया नहीं प्रेम के भाव चाहिए जो गलत रूप बदल उसके चहरे पर अवतरित हो गए थे |

किसी दुकानदार ने मेरी पतलून की गांठे खोलीं तब कहीं जाकर अकड़े-दुखते हाथ-पाँव आजादी को महसूस कर पाए | आज कोई कांधा नहीं था सहारे को | मैं इसकी जड़ में अपनी माँ को साफ देख पा रहा था | हाय.. एक टीस सी उठ गयी कमर में जहाँ कुछ ज्यादा ही लातें पड़ी थीं | हाँ तो मैं कह रहा था कि भगवान ऐसी जल्लाद माँ किसी को न दे | बच्चे के प्रेम पर ग्रहण बन बैठी थी | घर जाने पर वही किचकिच, वही बालकोनी में मेरे हमेशा होने पर कसे जाने वाले तंज लेकिन गुस्से में पड़ा माँ का झापड इन सबमें भारी गुजरा जो अभी-2 ठुककर आने पर ठुकी हुई किसी जगह पर ही रसीद हो गया था | कुछ दिन चाहिए थे चल-फिर के लायक बनने के लिए | इस बार माँ के व्यवहार में दया और ममता भी दिखाई दी | दिल से की गयी सेवा का नतीजा मिला | जल्दी ही मैंने खुद को भला चंगा पाया |

नौकरी | हाँ, नौकरी के लिए भी कोशिशें ज़ारी थीं कि कुछ उल्टा सीधा घटित होने पर सुमन के साथ अपना घर बसाने में कोई परेशानी नहीं आये | मिल गयी नौकरी लेकिन छोटी सी | एक कंपनी में सेल्स मैनेजर नाम की पोस्ट थी, सुनकर बड़ा खुश हुआ लेकिन जाकर देखा कि ऐसे मैनेजर भरे पड़े हैं | सेल्समैन का नाम बदलकर मैनेजर रख देने से वैल्यू थोड़े ही बदल जानी थी | एक दिन पहुँच गया सुमन के घर और उसके हाथों में पूरे पाँच हजार रख दिए अपनी पहली तनख्वाह के | तब शांति से बड़ी गर्वीली नजरों से आस पास के माहौल का जायजा लिया | लगता था कुछ मेहमान पहले से मौजूद थे वहाँ | पहली बार किसी ऊँची बंधी पतलून वाले बुड्ढे के हाथों धुनाई करवाने का अनुभव पाया कि मेरे पाँच हजार रुपयों ने सुमन का होता हुआ रिश्ता तुडवा जो दिया था | कुछ ही दिनों के अंतराल में एक साथ इतनी बार और इतने जोरों की धुलाई पहले कभी नसीब नहीं हुई थी मुझे |

बाद में खबर मिली कि सुमन का रिश्ता कहीं तय हो गया है और दो हफ्ते बाद उसकी शादी है | घर पर कार्ड आया लेकिन हिदायत के साथ कि आने की कोशिश नहीं करियेगा | अपनी इन्हीं आँखों के बहती बूंदों संग उसकी विदाई देखी थी मैंने | अरे! कलेजा क्यों ना फट गया मेरा | देवदास बना उसी बालकोनी में जिंदगी के कुछ दिन गुजार गया |

कई दिन बाद आज फिर बालकोनी में बैठकर उत्सुकता से सामने सड़क पर देख रहा हूँ | सामने से एक अंकल चले आ रहे थे | इनकी पतलून कुछ नीचे की ओर थी, शायद बुढ़ापा पूरी तरह हावी नहीं हुआ अभी | ये तिवारी अंकल थे जिनकी कनिष्ठ पुत्री तनया को देखने की कोशिश में इस्तेमाल हो रहा था इस बालकोनी का | लेकिन कसम खाकर कहता हूँ इतना सच्चा प्रेम पहले कभी न हुआ था मुझे | इस बार अपने प्रेम को पाने के लिए जान की बाजी लगनी भी पड़ी तो लगा दूँगा, वैसे भी अब मेरे डोले कुछ ऊपर की ओर बढे दिखाई देने लगे हैं | तनया नजर आयी ही थी कि नीचे से माँ की किचकिच शुरू हो गयी | लेकिन सच कहता हूँ इस बार मेरा प्यार हर बार से भी ज्यादा सच्चा है और इसके लिए मैं उससे बात भी करने की कोशिशों में हूँ | कितना खुशगवार सा लगता है ना अपने ख्यालों संग जीना?

आज बड़ी गहरी नींद आयेगी | दर्दनिवारक दवाइयों का असर जो हो रहा है | तनया भाग गयी थी अपने किसी लफंगे दोस्त के साथ और जाते जाते उसका दोस्त एक बार मुझसे भी मिल गया था | वो क्या बल्कि मैं ही उसे रोकने की गरज से उन दोनों के सामने पहुँच गया था | तीन काम एक साथ हुए, पहला तो तनया के सामने पहली बार मेरा प्रणय निवेदन, दूसरा उसके दोस्त को मेरा ललकारना, और तीसरा उसका मेरे शारीर से यूँ खेलना जैसे मैं कोई बॉक्सिंग किट के साथ खेलता है | लेकिन अब मैं सुधर गया हूँ और मैंने कसम खायी है कि नुक्कड़ वाली सुलेखा के आलावा अब किसी और के बारे में सोचूंगा तक नहीं | चलिए अब शुभरात्रि |

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (27-02-2012)

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माँ मुझे भूख लगी है



माँ मुझे भूख लगी है ● © (एक त्रासद कहानी)
मुख्य चरित्र : रतन / सुलोचना

"माँ मुझे भूख लगी है" कहते हुए छुटकी का बिलखना शुरू हो गया |रात साढ़े ग्यारह बजे का समय और घर में किराने का कोई सौदा नहीं | एक थप्पड़ संग उसके हाथों में पानी का गिलास थमा सुलोचना भी रोने लगी | और करती भी क्या? करने को था ही क्या? अभी दो दिन पहले ही तो गोलू की दवाई पर सवा चार सौ फुंक गए थे | रोते-बिलखते सात साला छुटकी तो जैसे-तैसे सो गयी मगर सुलोचना की नींद कार्फुर हुई पड़ी थी | मासूम को मारे झापड की गूंज उसके कानों में अब तक गूंज रही थी | उसे करवटें बदलते देख दूसरे कोने में बिछे बिस्तर पर ली जाने वाली करवटों की संख्या में भी बढ़ोतरी हो गयी, मगर बेआवाज प्रतिक्रिया के रूप में |

अभी हाल ही तो नौकरी गयी थी रतन की | बढती महँगाई के इस दौर में चार हजार की पगार पहले ही चबेने के कुछ दाने बनी थी और उस कोढ़ पर ससुरी ये खाज भी आयद हो मरी | उसे अच्छे से याद है जब सुरेश यादव से बढ़ी उसकी बहस का परिणाम हाथापाई की नौबत तक आकर किस तरह असल मारपीट में बदल गयी थी | कल ही की तो बात है जब रतन को सुरेश का सुलोचना के बारे में गलत लहजे से बात करना एक बार फिर नागवार गुजर था लेकिन चूँकि यादव मालिक का मुँहलगा था सो रतन अपने घर की राह चलता कर दिया गया |

अधिक खूबसूरत होना गरीबी के लिए अभिशाप कैसे बनती है इसे अब जाकर उसने समझा | किस तरह मौहल्ले के बदमाशों के डर से पहले भी अच्छी भली बारह हजार की नौकरी और अपना शहर छोड़कर यहाँ मुंबई में भटकने के लिए आना पड़ा | उसे याद है कॉलेज की पढाई में सामान्य होने के बावजूद अच्छे व्यक्तित्व और शानदार वाकपटुता के कारण सुलोचना से संपर्क हुआ | जाने कब इसका नाम प्यार बना और कब जाने शादी के रूप में इसका परिणाम निकल आया | होश आया तो अपना परिवार होने की अनुभूति ने जोर पकड़ा और कम पैसे होने की वजह से हनीमून के नाम पर वह उसे दो चौराहे दूर लगने वाले लालू के गोलगप्पे खिलाकर, एक पिक्चर दिखाकर फिर अपने ही कमरे में लौटकर उसके साथ कुछ गलबतियाँ कर शांति से अगली सुबह के इंतजार में सो गया |

सुबह माँ की चिकचिक वाले अंदाज में आती आवाज ने समझा दिया कि यहाँ कोई फ़िल्मी ड्रामा नहीं होना कि बहू अभी नयी है तो माहौल में खपने के लिये उसे थोडा सहज हो जाने दिया जाये | अतिसाधारण परिवार की होने के कारण सुलोचना भी इन सब खटरागों से दूर सर पर पल्लू लिए चुपचाप बुहारनी हाथ में लिए बाहर को चल दी | रोज वही चौका-बरतन-चूल्हा करते पता ही न चला कब उसके हाथों की मेहँदी मिट गयी |

इधर पापा की कम कमाई और एक बहन की जिम्मेदारी सर पर देख प्यार का भूत सर से उतरते देर नहीं लगी और मित्तल सरिया कंपनी में सुपरवाइजर के कम पर लग गया | तनख्वाह शुरू में दस हजार थी जो बाद में बारह की ड्योढ़ी तक चढ आयी थी | यहाँ पिता की पहचान और रतन का बी.ऐ.पास होना बड़ा ही काम आया | जिस साल पगार की अंतिम उछाल देखी उसी साल माँ-पापा का जाना भी देखना नसीब हो गया | पहले बीमारी से पापा चल बसे फिर उनके गम में दुबली होती माँ कुछ ही महीनों में अचानक कब और कैसे चल दीं किसी को पता नहीं चला | उधर बहन की शादी के नाम पर ढेरों कर्जे चुकाते हुए पीछे घर तक अपना न बचा जो पुश्तों से अपने कब्जे में चला आ रहा था | साथ ही मौहल्ले में कल्लन नामक गलियाई गुंडे ने सुलोचना और रतन का जीना हरम कर रखा था | नीयत जो खराब थी कमीने की |

मरता क्या न करता की तर्ज पर शहर छोड़ महानगरी मुंबई की राह पकड़ ली | वैसे भी अब अपना कहने को वहाँ बचा ही क्या था? एक घर था वो भी चर्या की भेंट चढ चुका था | यहाँ मुंबई में पुराने साथी के एक कमरे के ऐसे घर में पनाह मिली जो शुरू होते ही खत्म हो जाता था | जिसका बाथरूम भी कोने में नाली को कवर करती थोड़ी ऊँची सीमेंटेड मेंड लगाकर बनाया गया था | उन्हें आदत थी ऐसे जीने की मगर सुलोचना? पट्ठी ने पूरे पाँच दिन गुजार दिए बिना नहाये और तीन दिन बिना पखाना किये | यहाँ पर संडास की भी अजब महिमा थी | अब उनको किसी बिल्डिंग का रुख तो मिला नहीं था कि अपने ही फ़्लैट में टॉयलेट भी हांसिल हो जाता | झौंपड-पट्टी के पूरे इलाके में सिर्फ एक जगह इंतजाम था जहाँ तीन लेडीज और चार पुरुष प्रसाधन बने हुए थे | एक बार जाओ तो बाल्टियाँ लाईन में रखी मिलती थीं | हर इंसान अपनी बाल्टी के नंबर से जाया करता था | कई तो तडके ही अपनी बाल्टी रख जाते थे कि समय आये तो फटाफट निपट लें मगर दुष्टों की क्या कहें, बेचारों को अपने नंबर के समय सिर्फ बाल्टी रखी मिलती थी, पानी नहीं |

अब हमारी सुलोचना के दर्द की भी सुनिए | बड़ा ही भीषण दर्द था बेचारी का | तीन में जाने वालियाँ हजार और सफाई-पानी की व्यवस्था कुछ न होने से जो अम्बार लगते थे अंदर कि क्या कहें नाक तो नाक आँखें तक खोलने की हिम्मत नहीं होती तो कैसे जाती बेचारी | लेकिन गयी अंत में, आखिर कैसे न जाती | निकलती जान के आगे उसे ये अम्बार ज्यादा भले लगे | नहाना भी सीख ही लिया, पहले कपडे की अतिरिक्त ओट लगाती लेकिन बाद में यह सब उसकी भी आदत में शुमार होता चला गया |

साथ लाये पैसे जल्दी ही बीत चले | बीतते कैसे नहीं, थे ही कितने | इसी बीच रतन एक दुकान जितनी बड़ी फैक्ट्री में तीन हजार की तनख्वाह पर लेथ-मशीन पर जॉब-वर्क मिल गया जोकि काम के प्रति समर्पण की वजह से जल्दी ही चार हजार तक पहुँच गया | उधर रतन के संकटमोचन को उसके अपने संकटों ने घेर रखा था जिसकी वजह से जल्द ही रतन को भी नौ सौ रुपये माहवार पर एक कमरे का रूम ले लेना पड़ा | पुराने शहर की यादों के रूप में दो बच्चे मिले थे जिन्हें वे अपने साथ अब तक रखे हुए थे कि वे बच्चे थे तो उन्ही के ही ना | बड़ी छुटकी और छोटा गोलू | बड़े भोले से बच्चे थे | छुटकी तो पूरी माँ पर ही गयी थी और गोलू? उसमे तो दोनों के नक्श समाये थे | Rs.3100 में घर कैसे चल सकता है ये कोई सुलोचना से बखूबी जान सकता था | उन इकत्तीस सौ में, जिनमे एक अकेले इंसान की गुजर-बसर भी कठिन होती पूरा परिवार जिंदगी कैसे निकाल रहा होगा यह सोचनीय तथ्य समझा जा सकता था | आज वह चार हजार की जॉब भी हाथ से निकल गयी और वह भी पुरानी वाली समस्या के नये चहरे संग उभर आने की वजह से | लेकिन आज रतन उतना डरपोक नहीं रहा था या शायद नया चेहरा उतना डरावना नहीं था कि रतन अपना विरोध तक दर्ज न करा पाता | लिहाजा घर बैठे अगले दिन की चिंता में डूबा चुपचाप छुटकी को पिटते देख बीवी की करवटों संग अपनी करवटों की कदम-ताल किये जा रहा था | बच्चों की भूख अपनी भूख से बड़ी होती है मगर जरा से जो रुपये थे पास उन्हें अगली चाकरी मिलने तक चलाते जाना था सो कंजूसी के साथ काम में लिए जाते थे कि गोलू की बेमौसम आयी बीमारी ने सब गड़बड़ा दिया |

अगले दिन, फिर अगले से अगले और फिर अगले दिन कोशिशें करते जिंदगी से ग्यारह दिन कम हो गए परन्तु नौकरी का कहीं कोई पता नहीं | बचत खुरचन बन चुकी थी और घर की हालत बद से बदतर हुई जा रही थी शायद यह बात बताने तक की कोई जरुरत नहीं | बारहवें दिन जब जेब में अकाल दुर्भिक्ष की सी स्थिति प्राप्त कर चुका था तभी रतन सामने क्या देखता है, एक लड़का, जो अपने सरमायों के साथ चला जा रहा था उसने अपने हाथ से अधखाया वडापाव फेंक दिया | शायद उसे कुछ और पसंद करना हो जिसके लिए इसकी जरुरत जैसे सड़क से ज्यादा किसी को न थी सो अधखाया भोज्य भी वहीं पहुंचा दिया गया |

मरोड़ खाती आंतों को पकड़ अपने होठों पर बार-बार रपटती जिव्हा को कुछ देर तक तो जैसे तैसे काबू में किया मगर भूख का चरम शर्मिंदगी के लिए तेजाब होती होगी शायद सो रतन कब उस फेंके टुकड़े के पास जा पहुंचा इसका उसे भी ध्यान नहीं रहा | ध्यान में आया तो बस करीब पन्द्रह साल का भिखारी सा लगने वाला वह लड़का जो दुगनी गति से उस अधखाये वडापाव की दिशा में गतिमान था | अपने बचपन तक में न दिखाई होगी उतनी फुर्ती से रतन ने उस टुकड़े पर अपने हाथों का अधिकार जमा दिया | हिकारत भरी एक नजर डालकर वह लड़का तो एक ओर को चल दिया मगर अपनी जगह जमा रतन देर तक उस सदमे से अपने आप को उबार नहीं पाया | लेकिन मिले भोजन को अब भी अपने हाथों में रखे खड़ा रहा फिर अगले ही पल उसके कदम अपने कमरे की ओर चल दिए और थोड़ी देर बाद चौथाई-चौथाई वडापाव दोनों बच्चों के हाथों और मुँह के बीच का सफर तय करता नजर आया | सुलोचना के चेहरे की तरफ देखने की हिम्मत नहीं हो रही थी उसकी | ऐसे जैसे अभी वो आकर पकड़ लेगी और ताड़ लेगी उस वाकये को जिसके चलते दोनों बच्चे अपना थोडा सा पेट भर पा रहे थे | लेकिन आज उसे कुछ भी करके कोई तो इंतजाम करना ही था सो निकल पड़ा अपनी नामालूम सी मंजिल की तलाश में |

शाम तक एक सेठ के यहाँ मालपेटियाँ ढोने का दिहाड़ी काम भी मिल गया जिसके चलते कल सुबह तक के खाने का इंतजाम हो गया | पहली बार उसने देखा कि कैसे सिर्फ खाना मिल जाने मात्र से किसी के घर में जश्न का सा माहौल भी हो सकता है मगर उसके अपने घर में यह सच हुआ दिख रहा था | आज फिर दोनों की रात करवटें बदलते गुजर रही थीं लेकिन इस रात बच्चे बिना रोये सोये थे | रतन को अगले दिन की चिंता तो थी मगर एक सकून सा भी था कि बेशक कम सही लेकिन रोज कुछ घर में आने लायक इंतजाम तय हो चुका था |

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (18-02-2012)

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कशमकश




कशमकश ● © (एक विचार कहानी)

मुख्य चरित्र : लेखा / प्रवीन / आशीष

सुबह से ही अंदेशों ने घेर रखा था | कितना समझाया आशीष को ओस भरे इस मौसम में नहीं जाओ मगर यहाँ सुनता ही कौन है | बीवी तो जैसे काम करने की मशीन हो | और उसके सिवा कुछ नहीं | कितने चाव से आयी थी मैं इस घर में | आज भी वे दिन याद हैं जब इन्होने मुझे प्रपोज किया और फिर सारे परिवार को मनाते हुए जिंदगी आज यहाँ तक आ पहुँची |कितना फर्क है तब में और आज में | अब जाकर लगता है प्रेम जताना और निभाना दो अलग दिशाओं की विषय-वस्तु है | प्यार की जिस ऊष्मा संग शुरुआत हुई अब कहीं लुकाछिपी के खेल में मशगूल है | एक ऐसा खेल जिसका अंजाम थप्पी तक नहीं पहुँचना | कम से कम मैं तो इतने बरसों के साथ में यही जान पाई हूँ | कोई वजह नहीं लेकिन आपसी वार्तालाप जाने कब-कब खुले वातायन से काफूर हो चुकी खुशबू बन बैठी है |

देखा जाये तो वजहों कि कोई कमी नहीं वह बस मैं ही हूँ जो सब ठीक हो जायेगा कहते हुए अपने मन को समझाने के प्रयास में लगी रहती हूँ | अंजाम में आम पर कोई बौर नहीं आया, और जब आया तो वह था मेरे चुप रह जाने का बसंत | कहीं कुछ नहीं बदला, जो बदला वो मेरे अंतस का मौन था जो पहले से कहीं अधिक गहरा गया था | खाली समय वटवृक्ष की असंख्य अधोगामी मजबूत जटाओं सामान अपने जीवन में भी उग आयी उलझनों की जटाओं के सिरे सुलझाने के प्रयास में खुद उनसे उलझ बैठती हूँ | क्यों? आखिर मेरी ही साथ क्यों? क्यों शुरुआती प्रपोज संग मेरे सपनों को चातक के पर लगाये? क्यों मुझ चातक को मिले परों के बावजूद खुशियों के चन्द्रमा की एक झलक तक को तरसा दिया गया? क्यों मेरे मासूम के लिए लिए जाने वाले फैसलों में मेरी कोई हिस्सेदारी नहीं होती? एक साथ इतने सारे इन क्यों का जवाब तो क्या मिलना था बल्कि कुछ नये क्यों का इंतजाम जरूर करता चला जा रहा था यह जीवन |

महानगर में सुबह वाली नींद से निजात पा सबसे पहले ससुराल की अपनी जिम्मेदारियां निभाना फिर अपने आप को तैयार कर खुद का ऑफिस की ओर धकेला जाना रोजमर्रा की नियति बन चुका था | वही भागम-भाग वही रेलमपेल, घडी की टिकटिक संग आना-जाना और शाम घर आकर फिर वही जिम्मेदारियां अपना मुँह फाड़े नजर आतीं | इस सबसे निबटते खुद की ओर जब पहली नजर जाती तो रात इतनी गहरा चुकी होती कि अपने आप को शैया के हवाले करने के सिवा और कुछ सूझता ही न था | करने को और कुछ था भी कहाँ | आशीष हैं या नहीं हैं इसका अहसास कराये तो उनको मुद्दतें बीत चुकीं | एक बिस्तर, दो प्राणी और दो करवटें जैसे नियति का हिस्सा हों | धीरे-धीरे मुझे भी बायीं करवट की आदत पड़ चुकी और उन्हें मेरी पींठ देखने की | लेकिन कहाँ? पींठ देखने की आदत तो शायद मुझे भी पड़वा दी गयी थी |

पिछले कुछ समय से इंटरनेट पर अपना वक्त गुजारने लगी हूँ | अबोली आदतों के मध्य अबोली उँगलियों की भाषा अब मुझे बाँधने लगी थी | अपने व्यस्त नित्यकर्म में से कुछ समय निकाल अब जरा खुश होने की नकली कोशिशों में अपने को झौंकने लगी थी | इसी बीच आशीष के तबादले की हवा सी चलने लगी | रूटीन में इससे कोई फर्क नहीं जान मैंने भी इसपर मौन साध लिया | कहती भी क्या? कहने की आदत जो छूट गयी है | कुछ कहने नहीं दिया गया और कुछ मैंने ही छोड़ दिया | शायद घर के भीतर की चीजों से कतराकर चलना अधिक सुलभ लगने लगा है मुझे | तबादला तो आशीष ने रुकवा लिया लेकिन मेरे जेहन में एक नयी बात का तबादला आयातित हो गया कि अब मैं किसी के बिना रहने की कल्पना से भी खुद को अकेली नहीं पति हूँ, या यूँ कहा जाये कि पहले ही इतनी अकेली हूँ कि अकेले हो जाने लायक कुछ लगता ही नहीं | क्या कमाल सिचुएशन है ना? यहाँ रफ़ी दा का गीत बड़ी खूबसूरती से अपनी जगह बना लेता है "सबके रहते लगता है जैसे, कोई नहीं है मेरा" | बहरहाल दिनचर्या में कोई बदलाव नहीं आया |

इसी बीच एक नया चेहरा, एक इंसानी चेहरा अनायास ही सामने आ गया | इत्र की बोतल से निकली ताजा खुशबू सा उसका स्वाभाव, बिंदास उसका सोचे बिना कुछ भी बोलते चले जाना, हर स्थिति/ हर बात का हास्यन्तरण तो जैसे उसके बाँए हाथ का काम था | यहाँ तक कि इतने बरसों जो मेरे साथ कभी न हुआ वो अब होने लगा | मुझसे सम्बंधित कोई भी बात जब उसके मुँह से निकलती तो हर बार स्वयं पर हँसने वाली बनने से खुद को कभी नहीं रोक पाई | जाने क्या था कि उसकी कोई भी बात अपने आखिरी सिरे पर जाकर हँसी का फव्वारा छुडा ही देती थी | जाने कितना अरसा गुजर गया एक साथ इतने अधिक समय तक सच्ची हँसी हँसे हुए | यहाँ तो मैं यंत्रचालित उपकरण की तरह से रिएक्शन देने वाली बनती जा रही थी | सामान्य जिंदगी में भी मेरा हँसी पर कोई काबू नहीं है मगर बेवजह इतनी सच्ची और इतनी अधिक मात्रा में? ना, कभी नहीं |

पता नहीं कब बड़े झटके की तरह मुझे पता चला कि उसकी सोचें मेरे लिए कुछ अलग ही तरह से हैं | लेकिन जितना उसे जाना था उससे यह तो तय था की उन सोचों का कोई गलत रूप सामने नहीं आना है लेकिन फिर भी हमेशा ही मैंने उसे समझाने की कोशिशे बनाये रखीं | इस सब के होने पर भी प्रवीन (उसका नाम) के बेसिक नेचर में कोई बदलाव नहीं आया | मैं कभी सोच भी नहीं सकती कि एक इंसान अपने मन के कोमल भावों को और अपनी मित्रता को पूरी तरह अलग-2 करके कैसे रख सकता है लेकिन इस बारे में उसका अपना ही फंडा था | प्रवीन की सोच थी कि अगर अपनी सोचों को ज्यादा गहराने दिया तो ना ये रहेगा और ना ही वो इसलिए मन चाहे कितना ही उकसाए लेकिन प्रत्यक्षतः संतुलित ही रहो जिससे कि जीवनभर यह साथ बना रहे |

सोचते हुए कब रात हो गयी पता ही न चला | सोचा खिडकी खोलकर देखूं आशीष आये या नहीं | लेकिन हिम्मत जवाब दे गयी | कड़ाके की सर्दी में नमीयुक्त आती हवा की सिहरन ने उँगलियाँ अकडा सी दीं | कुछ ही सेकंड्स के फेर में पल्ले बंद हो गए | फिर सोचा फोन करूँ कहाँ हैं और खाने का क्या करना है खायेंगे भी या नहीं | आशीष के आने जाने के बारे में कभी फिक्स नहीं था, जब जी चाह जैसे चाह जी लिए | वैसे भी आज दोस्तों के साथ थे तो देर तो होनी ही थी | मोबाइल पर बात करके शांति पाई और देखा सोचनगर की एक गली फिर खड़ी है अपना मुहाना लेकर | एक तरफ आशीष और दूसरी तरफ ये नयी सोच | अभी तक मेरे मन में किसी तरह की उद्वेलन नहीं थी प्रवीन की इस सोच को लेकर | मुझे यही लगा कि वह अगर अपनी सोचों को स्वयं-रेखित दायरों में बाँधे सकता है और चूँकि मुझे उस पर विश्वास भी है तो और कुछ नहीं लेकिन मेरी तरफ से दोस्ताना कुछ बुरा नहीं |

दिन बीते, मौसम बदले, साल बदला, नहीं बदला था तो वह था हमारा यह विचित्र सा बहुरंगी सा रिश्ता जिसमें मेरे जीवन के सारे रिक्त भरे से नजर आते थे और फिर भी हमारे बनाये दायरे सकुशल थे | यह नाता अब पहले से अधिक प्रगाढ़ था जिसमें किसी तारक का लालच, कोई स्वार्थ, कोई माँग, कोई भी व्यर्थ बात जो तकलीफ का व्यास बनती नजर नहीं आती थी | इसी सब के बीच प्रवीन अपने व्यक्तिगत जीवन की समस्याओं से जूझता मुस्कुराता रहा |जिस तरह का जीवन ऊपर वाले ने उसे बख्शा था उसके चलते उसके चेहरे पर की मुस्कराहट और वह उसका बिंदास स्वाभाव हमेशा मेरी समझ से परे रहा | उसे हमेशा अपने सिद्धांतों और बातों के साथ ईमानदार पाया | जो मन में वही मुँह पर, कहीं कोई दुराव या छुपाव नहीं | एक छोटा सा बच्चा कैसा हो सकता है बिलकुल वैसा ही था | छोटी-2 बातों से खुश हो जाना, हर समस्या से कुछ ही समय में उबरकर मुस्कुरा देना, दूसरा अगर दुखी हो तो उसके दुःख का हिस्सा बनते-2 उसका ध्यान परशानी से हटा देना उसके व्यक्तित्व के कुछ पहलू थे |

मेरी समस्या है कि मैं कैसे समझूँ इस नये बदलाव को जो जिंदगी के नानारंगों रंग मेरे हृदयपटल पर दस्तक देता खड़ा है? कई बार चुपके से कोशिश भी कर देखी कि इस सब से परे हट जाऊँ तो कैसा रहे लेकिन वो कहते हैं ना कि जो प्रारब्ध में लिखा हो उसे आसानी से बदलना मुमकिन ही नहीं वरना इस संसार में इतने सारे परिवर्तन होते देखे हैं जिनमें से कई तो ऐसे होते हैं जिनके बारे में पहले कभी दावे तक किये गए थे कि यह तो किसी हाल में न होना लेकिन बाद वाले कालक्रम में उन्हीं बातों को होते देखा है | शायद वे सारी नकार तब तक ही प्रभावी थीं जब तक कि वे हमारे अपने अनुरूप चल रहे जीवन का भाग थीं लेकिन जहाँ परिस्थितिओं ने अपना मुख मोड़ा वहीं चीजों पर से हमारा प्रभाव खत्म होते देर नहीं लगती और हम बेबस से नियति के जाल में जकड़े खड़े रह जाते हैं | फ़िलहाल तो मैंने अपने आप को धारा के प्रवाह पर मुक्त विचरण के लिए छोड़ दिया है देखते हैं आगे क्या लिखा हो | कहते हैं सोच और असल जीवन से जुडी कहानियाँ कभी पूरी नहीं हो पाती हैं | मेरी कहानी भी शायद कुछ इसी तरह की है | बाहर गाड़ी का हॉर्न बाज रहा है जाकर देखूँ आ गए हों तो आज के अपने दायित्वों पर इतिश्री का मार्क लगा दूँ ताकि आज की नींद नसीब हो | आखिर सुबह ऑफिस भी तो जाना है |

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (14-02-2012)

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स्वप्न मरीचिका, यथार्थ संग


स्वप्न मरीचिका, यथार्थ संग
(एक विचार कहानी) मुख्य चरित्र : खुशाल / लेखा

(दोस्तों / जीवन के झंझावत से निकली एक ऐसी बानगी लिखने की कोशिश में था जिससे कि हर पढ़ने वाला जुडाव सा महसूस करता...... यूँ समझता जैसे लिखने वाले ने उसके अपने मन को उंडेल दिया हो..... पता नहीं कितना सफल हुआ हूँ...........)
सात मंजिली अच्छी भली ईमारत के दूसरे माले पर के एक किराये वाले फ़्लैट से निकलकर मैं जब बाहर को निकला तब नहीं जानता था कि जिस काम के लिए जा रहा हूँ वह स्वप्नों की कब्रगाह साबित होगा | आर्थिक तंगियों से जूझते कई साल गुजार लेने के बाद आखिरी सहारा भी छिना जा रहा था, और इसका अहसास कैसा हो सकता है अब जाकर इसे जान पाया हूँ | दिल में एक अजनबी सा डर पैठ जमता हुआ जैसे जाने से रोकने की कमजोर सी किसी कोशिश में लिप्त हारता जान पड़ता था | जिस रिश्तेदार के साथ काम में इतने सालों अपने को झौंक दिया आज उसी को बोझा लगने लगा हूँ जबकि एक समय था जब इसी शहर में उसके डूबता व्यापार को मेरे ही हाथों ऊँचाई मिली थी | सामने खुद कॉम्पिटिशन खड़ा कर कह देना कि "खुशाल" यहाँ का काम आपके बस का नहीं, सो आपको नये शहर में भेजकर सेट कर दिया जाये तो कैसा रहे?

बरसों से इस व्यक्ति के जुबानी जमाखार्चों को देखता-परखता आ रहा हूँ सो अब भरोसा करना और अपने ही पाँवों पर कुल्हाड़ी मारना एक सामान जाना | लिहाजा नये शहर का प्रस्ताव स्वीकार कर तो लिया मगर पुराना शहर नहीं छोड़ते हुए | शुकर है इतने बरसों में कुछ अलग से भी शुरू कर पाया जिसके दम पर यह कह पाना संभव हुआ | लेकिन इधर कुछ समय से जाने कैसी लीला रची भोले-शंकर ने कि कुछ समझ आकर ही नहीं देता | जाने कैसे अपने जमे-जमाए नये काम में कारीगरों की किल्लत आन पड़ी | बरसों जिन्होंने काम करके दिया आज उन्हीं का अपना काम जम जाने से मेरा काम बंद की सी स्थिति में आ गया | नये कारीगर गधे के सींग बन बैठे | बहुतेरी कोशिशें कर देखीं मगर नतीजा सिफर |

अपने स्वार्थों में डूब कैसे कोई किसी की जिंदगी / परिवार / उसके सपनों को पाद-गट्टम (फुटबॉल) बनाकर खेल सकता है इसे समझना ही नहीं बल्कि भोगना भी कोई मुझसे सीखे आकर कि किस तरह बेबसी का आलम बरपा होता है और उसमें पिसती जिंदगी का आनंद कैसे उठाया जा सकता है |

सात फेरों की कसमें-वादे कब धुंधला गए पता ही न चला ! अर्धांगिनी कब विलग हो अपने आप में सम्पूर्ण हो बैठी इसे कभी समझ नहीं पाया | मासूम सी बचपन वाली निगाहों को छोड़ कोई रिश्ता ऐसा न था जो हल्का सा भी सकून पहुंचा सकता | इधर दूसरी तरफ महँगाई और घर सुरसा बने मुँह फाड़े खाने को तैयार दिखाई देने लगे हैं | बीते ग्यारह बरसों में अपने नाम एक अदना सा घर तक न कर पाया गाड़ी तो दूर की बात है | घर में मासूम सी माँगों को अनदेखा करते कलेजा मुँह को आता है मगर कर भी क्या सकता हूँ, बेचारगी से मुँह तक लेता हूँ ऊपर वाले का लेकिन वो भी कम नहीं, आज तक मुँह दिखाना तो दूर अपनी ऊँगली का एक नाख़ून तक  दुर्लभ कर रखा है | हर दूसरे-चौथे दिन लगता है अब मिला, अब हुआ लेकिन जिन नसीब की रेखाओं पर कभी ध्यान तक न दिया उन्हीं को आड़े आते देख आत्मविश्वास सा डगमगाने लगता है |

हर दिन लगता है इससे बुरा दिन न देखा होगा अब तक परन्तु अगला दिन फिर नये कमाल संग अपनी छटा बिखेरता नजर आता है | अक्सर रातों को सोने की कोशिशें व्यर्थ जान पड़ती देख अब सोने से ही कतराने लगा हूँ | जब तक नींद खुद आकर जबरदस्ती गिरा न दे, सोने की कल्पना ही भयानक हुई जान पड़ती है | किसी दिन जल्दी बिस्तर पकड़ भी लिया तो मन में अनजानी सी घबराहट सवार होकर जागने पर मजबूर कर देती है | कैसे करवटें बदलते रात बीत जाती है पता ही नहीं चलता | खुद को व्यस्त रखने के जो तारीखे खोज रखे थे वे अब बेमानी लगने लगे हैं, लिहाजा उनसे भी दिल बेजार सा होने लगा है |

इसी बीच उसने आकर अपने होने भर से ही ह्रदय में होते डरावने अहसासातों पर कुछ लगाम का सा काम कर दिखाया | जीवन के लेख में परिवर्तन लिए आयी, "लेखा" उसका नाम था | कोई नया तीर न मारा फिर भी सकून की एक लंबी लेखा बन बिन फेरे हम तेरे बन दिखाया उसने | उस पर वैचित्र्य यह कि ये हम तेरे वाली अनुभूति मानसिक स्तर पर होने के बावजूद सामान्य वैवाहिक जीवन से कहीं सशक्त नाते की नींव साबित हुआ | जब भी कोई नयी मानसिक प्रताडना पाता, शीतल छाँव बनी लेखा की काल्पनिक गोद में मुँह छिपा अपने पीड़ित ह्रदय को शांतमय हुआ पाता | और उसने भी कहीं कोई कसर नहीं आने दी, जहाँ भी जरुरत लगती अपने आँचल को फैला ममतामयी सी बन सब समेट लेती अपने भीतर जबकि उसकी अपनी समस्याओं का पारावार न था कोई | पूछने पर "सब ठीक हो जायेगा" जैसे वाक्य को बीज़ मन्त्र मान उच्चारण करती ऐसी लगती जैसे डाल पर बैठा कबूतर दबे पाँव बिल्ली को आते देख अपनी आँखें मूंदे यह सोचने लगता है कि जब मुझे बिल्ली नहीं दिख रही तो मैं ही उसे कैसे दिख सकता हूँ? काश कि ऐसा ही एक आँचल मेरे पास भी होता उसके सारे अनसुलझों को समेट लेने के लिए |

काल्पनिक और वास्तविक जीवन में शायद यही फर्क है कि जो बंद पलकों से नजर आये तो जरुर लेकिन पपोटे खुलते ही ज़माने भर की कड़वाहट/दुःख/तकलीफें म्युनिसिपैलिटी के खुले गटर के ढक्कन सामान नजर आने लगती है जिसके दाँये-बाँए कोई राह, कोई पगडण्डी नहीं | जाना है भी तो सिर्फ गिरने के लिए | और फिर शुरू भयानक जीवन रूपी गटर से उठ रही सडांध को सहन करने का सिलसिला | अनवरत, अविरल, ज़ार-ज़ार बहते आँसू | बाहर नहीं वरन भीतर को बहते नाले जो दिखते नहीं मगर प्रत्यक्ष बूंदों से अधिक मारक मिलेंगे | कब!! आखिर कब मिलेगी मुक्ति इन जंजालों से?

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (12-02-2012)

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Sujok Elastic Massage Ring Jumbo - (Set of 4)



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Sujok Elastic Massage Ring Jumbo - (Set of 4)
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शादी और बकरे



शादी और बकरे


शादियों में कटते हैं बकरे हर बार फिर भी,
फिर भी जाने क्यों चले आते हैं ये बकरे..


जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (12-02-2011)

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संस्कृत और शऊर



● जितनी समृद्ध भाषा संस्कृत है इतनी पूरी दुनिया में कोई भाषा नहीं.....
इसमें जुबाँ के हर मोड / हर एंगल / हर आकार से निकली ध्वनि को अभिव्यक्त करने के लिए कोई ना कोई शब्द अथवा शब्द संमूह मिल जायेगा...
● जोगी (06-02-2012)


● शऊर कोई खुली नाद का बैल नहीं जो हर कहीं विचरता फिरे.....
उसके लिए तो लंबी साधना चाहिए होती है.........
● जोगी (05-02-2012)

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तुम पतवार



तुम पतवार

कोशिश में हूँ
तुम्हें भूल जाने की
निकाल ना सका
तुम्हें मन से..

जाने कब-कब
मेरे हवासों पर
छा जाती हो
तुम आकर..

द्वंद-पूरित
यह जीवनपथ
जाने कितने ही
काँटों-संघर्षों भरा..

तुम्हारी कल्पना संग
उसका हाथ पकड़
तब निकल पाता हूँ
सारे झंझावातों से..

भूलते-भूलते
जाने कब आकर
बस जाती हो
ह्रदय पटल में..

धुंधली आकृति वाली
डबडबाई आँखों से
हो जाती हो समाहित
बन पतवार मेरे जीवन की..

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (05-02-2012)

http://web-acu.com/
http://sujok-acupressure.in/
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जलन



 जलन 

जो ये जलन तुम्हारे नाम-ऐ-कलम पर लिखी होगी,
इस जलन के सदके, हम अपना जीवन गुजार लेंगे..... जोगी (04-02-2012)

हँसी के आगोश में आँसू छिपा जाते हैं,
हम तो अपना ही शीशा तोड़ जाते हैं,
कहते हैं वो क्यों दिल लगाये जाते हो,
चल दिए हम अपना ही दिया बुझाकर... जोगी (04-02-2012)

ख़ामोशी बन जाये जब दिल की जुबाँ ,
कहते हैं तब अंजाम बड़ा दिलकश होता है..... जोगी (04-02-2012)

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