माँ मुझे भूख लगी है



माँ मुझे भूख लगी है ● © (एक त्रासद कहानी)
मुख्य चरित्र : रतन / सुलोचना

"माँ मुझे भूख लगी है" कहते हुए छुटकी का बिलखना शुरू हो गया |रात साढ़े ग्यारह बजे का समय और घर में किराने का कोई सौदा नहीं | एक थप्पड़ संग उसके हाथों में पानी का गिलास थमा सुलोचना भी रोने लगी | और करती भी क्या? करने को था ही क्या? अभी दो दिन पहले ही तो गोलू की दवाई पर सवा चार सौ फुंक गए थे | रोते-बिलखते सात साला छुटकी तो जैसे-तैसे सो गयी मगर सुलोचना की नींद कार्फुर हुई पड़ी थी | मासूम को मारे झापड की गूंज उसके कानों में अब तक गूंज रही थी | उसे करवटें बदलते देख दूसरे कोने में बिछे बिस्तर पर ली जाने वाली करवटों की संख्या में भी बढ़ोतरी हो गयी, मगर बेआवाज प्रतिक्रिया के रूप में |

अभी हाल ही तो नौकरी गयी थी रतन की | बढती महँगाई के इस दौर में चार हजार की पगार पहले ही चबेने के कुछ दाने बनी थी और उस कोढ़ पर ससुरी ये खाज भी आयद हो मरी | उसे अच्छे से याद है जब सुरेश यादव से बढ़ी उसकी बहस का परिणाम हाथापाई की नौबत तक आकर किस तरह असल मारपीट में बदल गयी थी | कल ही की तो बात है जब रतन को सुरेश का सुलोचना के बारे में गलत लहजे से बात करना एक बार फिर नागवार गुजर था लेकिन चूँकि यादव मालिक का मुँहलगा था सो रतन अपने घर की राह चलता कर दिया गया |

अधिक खूबसूरत होना गरीबी के लिए अभिशाप कैसे बनती है इसे अब जाकर उसने समझा | किस तरह मौहल्ले के बदमाशों के डर से पहले भी अच्छी भली बारह हजार की नौकरी और अपना शहर छोड़कर यहाँ मुंबई में भटकने के लिए आना पड़ा | उसे याद है कॉलेज की पढाई में सामान्य होने के बावजूद अच्छे व्यक्तित्व और शानदार वाकपटुता के कारण सुलोचना से संपर्क हुआ | जाने कब इसका नाम प्यार बना और कब जाने शादी के रूप में इसका परिणाम निकल आया | होश आया तो अपना परिवार होने की अनुभूति ने जोर पकड़ा और कम पैसे होने की वजह से हनीमून के नाम पर वह उसे दो चौराहे दूर लगने वाले लालू के गोलगप्पे खिलाकर, एक पिक्चर दिखाकर फिर अपने ही कमरे में लौटकर उसके साथ कुछ गलबतियाँ कर शांति से अगली सुबह के इंतजार में सो गया |

सुबह माँ की चिकचिक वाले अंदाज में आती आवाज ने समझा दिया कि यहाँ कोई फ़िल्मी ड्रामा नहीं होना कि बहू अभी नयी है तो माहौल में खपने के लिये उसे थोडा सहज हो जाने दिया जाये | अतिसाधारण परिवार की होने के कारण सुलोचना भी इन सब खटरागों से दूर सर पर पल्लू लिए चुपचाप बुहारनी हाथ में लिए बाहर को चल दी | रोज वही चौका-बरतन-चूल्हा करते पता ही न चला कब उसके हाथों की मेहँदी मिट गयी |

इधर पापा की कम कमाई और एक बहन की जिम्मेदारी सर पर देख प्यार का भूत सर से उतरते देर नहीं लगी और मित्तल सरिया कंपनी में सुपरवाइजर के कम पर लग गया | तनख्वाह शुरू में दस हजार थी जो बाद में बारह की ड्योढ़ी तक चढ आयी थी | यहाँ पिता की पहचान और रतन का बी.ऐ.पास होना बड़ा ही काम आया | जिस साल पगार की अंतिम उछाल देखी उसी साल माँ-पापा का जाना भी देखना नसीब हो गया | पहले बीमारी से पापा चल बसे फिर उनके गम में दुबली होती माँ कुछ ही महीनों में अचानक कब और कैसे चल दीं किसी को पता नहीं चला | उधर बहन की शादी के नाम पर ढेरों कर्जे चुकाते हुए पीछे घर तक अपना न बचा जो पुश्तों से अपने कब्जे में चला आ रहा था | साथ ही मौहल्ले में कल्लन नामक गलियाई गुंडे ने सुलोचना और रतन का जीना हरम कर रखा था | नीयत जो खराब थी कमीने की |

मरता क्या न करता की तर्ज पर शहर छोड़ महानगरी मुंबई की राह पकड़ ली | वैसे भी अब अपना कहने को वहाँ बचा ही क्या था? एक घर था वो भी चर्या की भेंट चढ चुका था | यहाँ मुंबई में पुराने साथी के एक कमरे के ऐसे घर में पनाह मिली जो शुरू होते ही खत्म हो जाता था | जिसका बाथरूम भी कोने में नाली को कवर करती थोड़ी ऊँची सीमेंटेड मेंड लगाकर बनाया गया था | उन्हें आदत थी ऐसे जीने की मगर सुलोचना? पट्ठी ने पूरे पाँच दिन गुजार दिए बिना नहाये और तीन दिन बिना पखाना किये | यहाँ पर संडास की भी अजब महिमा थी | अब उनको किसी बिल्डिंग का रुख तो मिला नहीं था कि अपने ही फ़्लैट में टॉयलेट भी हांसिल हो जाता | झौंपड-पट्टी के पूरे इलाके में सिर्फ एक जगह इंतजाम था जहाँ तीन लेडीज और चार पुरुष प्रसाधन बने हुए थे | एक बार जाओ तो बाल्टियाँ लाईन में रखी मिलती थीं | हर इंसान अपनी बाल्टी के नंबर से जाया करता था | कई तो तडके ही अपनी बाल्टी रख जाते थे कि समय आये तो फटाफट निपट लें मगर दुष्टों की क्या कहें, बेचारों को अपने नंबर के समय सिर्फ बाल्टी रखी मिलती थी, पानी नहीं |

अब हमारी सुलोचना के दर्द की भी सुनिए | बड़ा ही भीषण दर्द था बेचारी का | तीन में जाने वालियाँ हजार और सफाई-पानी की व्यवस्था कुछ न होने से जो अम्बार लगते थे अंदर कि क्या कहें नाक तो नाक आँखें तक खोलने की हिम्मत नहीं होती तो कैसे जाती बेचारी | लेकिन गयी अंत में, आखिर कैसे न जाती | निकलती जान के आगे उसे ये अम्बार ज्यादा भले लगे | नहाना भी सीख ही लिया, पहले कपडे की अतिरिक्त ओट लगाती लेकिन बाद में यह सब उसकी भी आदत में शुमार होता चला गया |

साथ लाये पैसे जल्दी ही बीत चले | बीतते कैसे नहीं, थे ही कितने | इसी बीच रतन एक दुकान जितनी बड़ी फैक्ट्री में तीन हजार की तनख्वाह पर लेथ-मशीन पर जॉब-वर्क मिल गया जोकि काम के प्रति समर्पण की वजह से जल्दी ही चार हजार तक पहुँच गया | उधर रतन के संकटमोचन को उसके अपने संकटों ने घेर रखा था जिसकी वजह से जल्द ही रतन को भी नौ सौ रुपये माहवार पर एक कमरे का रूम ले लेना पड़ा | पुराने शहर की यादों के रूप में दो बच्चे मिले थे जिन्हें वे अपने साथ अब तक रखे हुए थे कि वे बच्चे थे तो उन्ही के ही ना | बड़ी छुटकी और छोटा गोलू | बड़े भोले से बच्चे थे | छुटकी तो पूरी माँ पर ही गयी थी और गोलू? उसमे तो दोनों के नक्श समाये थे | Rs.3100 में घर कैसे चल सकता है ये कोई सुलोचना से बखूबी जान सकता था | उन इकत्तीस सौ में, जिनमे एक अकेले इंसान की गुजर-बसर भी कठिन होती पूरा परिवार जिंदगी कैसे निकाल रहा होगा यह सोचनीय तथ्य समझा जा सकता था | आज वह चार हजार की जॉब भी हाथ से निकल गयी और वह भी पुरानी वाली समस्या के नये चहरे संग उभर आने की वजह से | लेकिन आज रतन उतना डरपोक नहीं रहा था या शायद नया चेहरा उतना डरावना नहीं था कि रतन अपना विरोध तक दर्ज न करा पाता | लिहाजा घर बैठे अगले दिन की चिंता में डूबा चुपचाप छुटकी को पिटते देख बीवी की करवटों संग अपनी करवटों की कदम-ताल किये जा रहा था | बच्चों की भूख अपनी भूख से बड़ी होती है मगर जरा से जो रुपये थे पास उन्हें अगली चाकरी मिलने तक चलाते जाना था सो कंजूसी के साथ काम में लिए जाते थे कि गोलू की बेमौसम आयी बीमारी ने सब गड़बड़ा दिया |

अगले दिन, फिर अगले से अगले और फिर अगले दिन कोशिशें करते जिंदगी से ग्यारह दिन कम हो गए परन्तु नौकरी का कहीं कोई पता नहीं | बचत खुरचन बन चुकी थी और घर की हालत बद से बदतर हुई जा रही थी शायद यह बात बताने तक की कोई जरुरत नहीं | बारहवें दिन जब जेब में अकाल दुर्भिक्ष की सी स्थिति प्राप्त कर चुका था तभी रतन सामने क्या देखता है, एक लड़का, जो अपने सरमायों के साथ चला जा रहा था उसने अपने हाथ से अधखाया वडापाव फेंक दिया | शायद उसे कुछ और पसंद करना हो जिसके लिए इसकी जरुरत जैसे सड़क से ज्यादा किसी को न थी सो अधखाया भोज्य भी वहीं पहुंचा दिया गया |

मरोड़ खाती आंतों को पकड़ अपने होठों पर बार-बार रपटती जिव्हा को कुछ देर तक तो जैसे तैसे काबू में किया मगर भूख का चरम शर्मिंदगी के लिए तेजाब होती होगी शायद सो रतन कब उस फेंके टुकड़े के पास जा पहुंचा इसका उसे भी ध्यान नहीं रहा | ध्यान में आया तो बस करीब पन्द्रह साल का भिखारी सा लगने वाला वह लड़का जो दुगनी गति से उस अधखाये वडापाव की दिशा में गतिमान था | अपने बचपन तक में न दिखाई होगी उतनी फुर्ती से रतन ने उस टुकड़े पर अपने हाथों का अधिकार जमा दिया | हिकारत भरी एक नजर डालकर वह लड़का तो एक ओर को चल दिया मगर अपनी जगह जमा रतन देर तक उस सदमे से अपने आप को उबार नहीं पाया | लेकिन मिले भोजन को अब भी अपने हाथों में रखे खड़ा रहा फिर अगले ही पल उसके कदम अपने कमरे की ओर चल दिए और थोड़ी देर बाद चौथाई-चौथाई वडापाव दोनों बच्चों के हाथों और मुँह के बीच का सफर तय करता नजर आया | सुलोचना के चेहरे की तरफ देखने की हिम्मत नहीं हो रही थी उसकी | ऐसे जैसे अभी वो आकर पकड़ लेगी और ताड़ लेगी उस वाकये को जिसके चलते दोनों बच्चे अपना थोडा सा पेट भर पा रहे थे | लेकिन आज उसे कुछ भी करके कोई तो इंतजाम करना ही था सो निकल पड़ा अपनी नामालूम सी मंजिल की तलाश में |

शाम तक एक सेठ के यहाँ मालपेटियाँ ढोने का दिहाड़ी काम भी मिल गया जिसके चलते कल सुबह तक के खाने का इंतजाम हो गया | पहली बार उसने देखा कि कैसे सिर्फ खाना मिल जाने मात्र से किसी के घर में जश्न का सा माहौल भी हो सकता है मगर उसके अपने घर में यह सच हुआ दिख रहा था | आज फिर दोनों की रात करवटें बदलते गुजर रही थीं लेकिन इस रात बच्चे बिना रोये सोये थे | रतन को अगले दिन की चिंता तो थी मगर एक सकून सा भी था कि बेशक कम सही लेकिन रोज कुछ घर में आने लायक इंतजाम तय हो चुका था |

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (18-02-2012)

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