अब यहाँ आने का दिल नहीं करता


अब यहाँ आने का दिल नहीं करता ● 

अब यहाँ आने का दिल नहीं करता,
यहीं कहीं दबी हैं, आस-पास मेरी यादें,
सुमधुर कुछ विलगाव से भारी यादें,
कुछ कुंद-भौंथरी-प्रखर सी यादें हमारी,
बुना था काप्पुस से जहाँ इक नीड हमारा,

कुहुक के स्वरों से सजा एक आशियाना,
यहीं तो रचा बसा था वह उपवन,
जहाँ उदर क्षुधा से क्षुब्ध,
कीट खोजती हुट्टूटी के पंजों के,
चिह्नों सजा था एक सपनीला आंगन,
हाँ वही जो था हमारे सपनों से सजा नीड,
वही जो भ्रमित क़दमों तले यहीं रौंदा गया,

चूने-गारे से बने सदियों टिके मजबूत महल,
किस कदर एक झोंके भर से भरभरा जाते हैं,
फिर राख ही क्या बुरी थी उन्हें बनाने को,
भरभराने के बाद बनना उन्हें राख ही तो था,
नींव का एक पत्थर कम रह गया था शायद,
अन्यथा हमने कोई कसर भी तो न छोड़ी थी,

वाकई अब यहाँ आने का मन नहीं करता,
कि यहाँ मैं और तुम तो हैं लेकिन,
वो आशियाना, वो नयनाभिराम नीड हमारा,
बस एक वही है जो बिखरा नजर आता है,

बिखरे घरौंदे के भग्नावशेषों बीच कहीं,
खुद को खंड-खंड बिखरा पड़ा पाता हूँ,
बैठा हूँ जाने कब से जड़वत यहीं सामने,
इस आस में कि तुम आकर कह जाओ,
अब न रहा वह भ्रम है बाकी और,
न वह खलिश है मन में बाकी रही,

टकटकी लगाये नैन सूख चले मेरे,
इस बार शायद तुम न आओ,
कुंद बातों को प्रखर बना दिल पे लेने की,
आदत जो है तुम्हें,
शायद फिर एक चाँद और चकोर होगा,
निहारेगा चकोर तुम्हें और तुम चल देना,
तिमिर भरे अंतरालिक अपने नित्य पथ पर..

जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh (08-04-2012)
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