अपनापन (लघुकथा)


अपनापन (लघुकथा) ●

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● आज शाम यूँही उदास मन मूक बना स्तंभित अपने नये किराये के मकान की बालकॉनी से अस्पष्ट सी दिशा की ओर एकटक निहारे जा रहा था कि कहीं से भागता छोटा सा एक बालक वातावरण की निस्तब्धता को भंग कर गया | अचकचाकर सम्हलकर चारों तरफ घुमा नज़रें एक बार फिर उसी दिशा में टिका दीं परन्तु इस बार बनने वाले दृश्य रेटिना पर भी सुस्पष्ट थे | सामने दिखाई देने वाली मारुतीधाम सोसाइटी के बीच से निकली गली के आखिरी सिरे पर दीवालीपुरा गार्डन की दीवार पार से झूलते बच्चे साफ नजर आ रहे थे | नीचे हरियाली से आच्छादित सड़क से गुजरती किसी अम्माजी की बगल में कमर पर लटका बिलखता दूधमुँहा साफ दृष्टिगोचर हो रहा था | लेकिन मेरे ह्रदयपटल पर किसी बात का कोई प्रभाव पड़ता प्रतीत नहीं होता था | होता भी कैसे ? हाल ही तो अपने सोचने के तरीके पर अनकहा आक्षेप पाकर आ रहा था | वह भी उसके हाथों जिसके होने न होने से जीवन में गंभीर बदलाव आ जाया करते थे | कितना समझाया मगर जैसे कोई समझने को तैयार ही नहीं | सभी के सोचने का अपना एक तरीका हुआ करता है तो उसका भी अपना था कुछ मैं किसी को अपने अनुसार सोचने पर बाध्य तो नहीं कर सकता ना | परन्तु जब कोई मन को समझाने के स्थान पर तर्कों से बातों को परखना चाहे तो क्योंकर समझ दिशा बदलेगी ?

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● यही सब सोचते साँझ हो चली कि सामने क्या देखता हूँ दो स्वान आपस में भावों का आदान-प्रदान करते नजर आये, जैसे मूक अंदाज में एक दूसरे को अपने मन की कही-अनकही समझाने में लगे हों | जाने क्यों मुझे ऐसा लगा जैसे उनमें भी किसी तरह का मतभेद चल रहा हो | नर स्वान बार-2 अपनी मादा के पास आने का यत्न करता और कुछ ही क्षणों में मादा द्वारा खदेड़ दिया जाता, कभी भौंके जाने द्वारा तो कभी सीधे आक्रामक मुद्रा अख्तियार करने की वजह से | हर बार स्वान पास आकर धीरे से निकटता पाने की कोशिश करता | हौले से बैठकर उसकी ओर मासूम निगाहों से बेबसी के साथ कुछ यूँ ताकता जैसे कह रहा हो 'तुम्हें समझ लेना चाहिए, कि अभी मुझे तुम्हारे साथ की जरुरत ताउम्र लगने वाली है, या शायद तुम भी साथ की जरुरत महसूस करती हो' | मगर उसने तो जैसे सुनना ही न था | हर बार, बार-बार धकियाया हुआ बेचारा कुक्कुर वहीं आस-पास मंडराता रहा, शायद कोई आस रही होगी कि तब न सही अब नाराजगी कुछ कम हो चुकी हो |

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● उनकी इस बातचीत को अपनी कल्पना के माध्यम से बुनते हुए खुद को उन्हीं में से एक परिकल्पित करने लगा था और उस अबोली भाषा को तर्कसंगत बनाते तकते नयन मुझे अपने ही लगने लगे जैसे मैं स्वयं अगले दो पंजों के बल खुद को ऊपर की ओर उठा थूथनी सामने किये नये सिरे से मेल की उम्मीद में टकटकी लगाये बैठ हूँ | कुछ अपनी कुछ उनकी अनुभूति के बीच नुक्कड़ वाले उस खम्भे के पास से जिसके निकट यह सारी कवायद हो रही थी के पास से जाने कितने दुपहिये-चौपहिये निकल गये और जाने कितने पैदल असंबद्ध से निकल गये |

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● सारी कवायद में खोया स्वप्निल दुनिया से तब निकला जब उस मादा ने एक और बार गुर्राकर नर को सामने की ओर खदेड़ दिया | उचटकर भागते कुक्कुर ने सीधी उछल ली और सड़क के बीच से होता किनारे की ओर भागा, लेकिन अभागा उस एक्टिवा स्कूटर से नहीं बच पाया जो उसे बचने की कोशिश में खुद एक किनारे से जा भिड़ा था | जाने किस तरह की कैसी भिडंत थी कि कुछ पल पहले तक जो कुक्कुर अपने चार पाँवों पर दौड़ता भागा फिर रहा था वही अब अपनी तीन टांगों के सहारे उठने की कोशिश में था | चौथी टांग एकदम सीधी हुई पड़ी थी जैसे उसे मोड पाना या उसके बल अपना शरीर उठा पाना उसके बस की बात ही ना रही हो | सीधी भी कहाँ बल्कि आखिरी टांग अपने असली आकार से कुछ पीछे को ऐंठी हुई सी लग रही थी जैसे किसी ने मूल आकार में आमूलचूल परिवर्तन कर दिए हों और उसका प्रयोग असफल हो गया हो |

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● पीड़ा से कराहता कुत्ता बेरहम टायर जिसने उसे कुचला था से परे जाने की कोशिश में वहीं अपनी जगह घिसटकर रह गया | उधर स्कूटर सवार एक कम उम्र लड़की थी, रही होगी कुछ बीस के आस-पास | उक्त घटनाक्रम से उसकी बोलती भी बंद और वहाँ से गुजरते किसी राहगीर ने सांत्वना देते हुए उसे वहाँ से निकल जाने के लिए कहा और अगले ही पल लड़की यह जा और वह जा | सब इतने कम समय में हुआ कि इससे उबरने में मुझे कुछ पल लग गये | फुर्ती से सीढियाँ उतरकर सीधा कुक्कुर के पास पहुँचा | सबसे पहले उसे सड़क से हटा दीवार के सहारे किया और जस्ट-डायल से नंबर लेकर म्युन्सिपैलिटी में फोन किया | पानी पिलाकर कुछ बिस्किट्स रखे और देखा मादा अपनी जगह अब भी विराजमान है | अंतर सिर्फ इतना था कि अब उसकी आँखों में कुछ नमी सी नजर आ रही थी | जाने कैसा जज़्बा था कि सारी कवायद करके भी जिस अपनेपन को न पा सका वह अपनापन एक पाँव गंवाते ही पके फल समान झोली में आ गिरा | 
और अपनी जगह खड़ा मैं सोच रहा था 'क्या मुझे भी अब अपना एक पाँव गंवाना होगा' ?

● जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (19-07-2012)

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Comments

One response to “अपनापन (लघुकथा)”

30 July 2012 at 7:27 am

अच्छी कथा...
सुन्दर लेखन
अनु

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