ओस से भीगी एक रात


: ओस से भीगी एक रात :


अभी उसने बोरी के नीचे से सर निकाला ही था कि कोहरे भरी अँधेरी घनेरी रात में चल रही हवाओं की सरसराहट ने फिर दुबकने पर मजबूर कर दिया | इस साल पड़ी ठण्ड ने सारे पुराने रिकॉर्ड्स तोड़ डाले हैं | हाल ही दो दिन पहले तडके उसके बगल वाले फुटपाथ से अकड़ी हुई एक लाश म्युनिसिपैलिटी वाले उठाकर ले गए थे और इसी के साथ बरसों पुराना उसका देखा-भाला चेहरा हमेशा के लिए जाने कहाँ गारत हो गया | बड़ा पुराना नाता था हरिया से ओमी का | कितने ही साल लड़ते-झगड़ते, मेल करते गुज़ार दिए उसके संग पता ही न चला |


बोरी के नीचे जैसे कल्पलोकी चित्रपट चल रहा हो | हर दृश्य यूँ जीवंत मानो अब भी ओमी उन पलों को जी रहा हो | इंतकाल से पहले की रात का वो रोटी का झगडा तो जैसे भुलाया ही न जाता था | किस तरह नए साल की शाम किसी पार्टी से फेंके गए बटर नान, कुलचे, मिस्सी रोटियों के छोड़े गए टुकड़े और उन्ही में लिपटी सतरंगी सब्जियाँ और ढेरों प्रकार के चावल के व्यंजनों की झूठन जो रईसजादों के थाली में छोड़ने के चलन के चलते हरिया और ओमी जैसों का भी न्यू इयर करवा जाती थी पर ये दोनों टूट कर पड़े थे और इन्ही के साथ ऐसे ही कई और जिनको इस धुँध भरी रात में भीख तक मयस्सर नहीं थी | उस रात हरिया के हाथ रोटियों के टुकड़े कुछ ज्यादा ही लग गए थे जबकि ओमी के हाथ नानाप्रकार के पुलावों की मिक्सचर | ठोस खाने के लालच में उन दोनों में हाथापाई भी हो गयी जिसमें हरिया भारी पड़ा और ओमी के हिस्से वही आया जो कुछ देर पहले उसने पहले समेटा था | गालियों की बौछार के बीच उन दोनों ने साथ बैठकर अपना भी जश्न मनाया लेकिन एक का पेट भरा तो दूजे के में चूहों का आतंक मचा पड़ा था |


एक इन्सान का होना क्या होता है या देश और नागरिक या सही-गलत और इसी तरह की ढेर सारी चीजों से दोनों का दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं था | दोनों ने हर तरह के काम एक साथ कर रखे थे | छोटी-मोटी राहज़नी, हल्की-फुल्की छेड़-छाड़, कुछ पैसे हो जाने पर निचले स्तर का वेश्यागमन, बहुत सी तरह के नशे और भी जाने क्या क्या और भिखारी तो ये पैदाइशी थे | उस शाम भी किसी कार के खुले शीशे से 8PM व्हिस्की की बोतल पार कर लाये थे और नशे की झौंक में अपनी ही जगह पड़े सोते रह गए | कपडे तो कुछ खास पहले भी न थे लेकिन ओमी के पास एक हजार छेद वाला पुराना स्वेटर था |


अगली ही सुबह ठण्ड से अकड़े पड़े ओमी ने जब अपनी ऑंखें मिचमिचाकर देखा तो जरा ही पास वाले फुटपाथ से हरिया के मुड़े-तुड़े पड़े शरीर को जैसे तैसे उठाकर गाडी में ठूँसा जा रहा था और वह देखे जाने के सिवा कुछ नहीं कर पाया कि उसके अपने हाथ पाँव सही से इस्तेमाल के लायक तकरीबन दो घंटे बाद जाकर हुए थे | एकटक निहारते हुए अपने दोस्त-दुश्मन को जाते देखता रहा लेकिन मजाल है आँखों से किसी कतरे का प्रादुर्भाव तक हुआ हो | शायद यह रिश्ता था ही ऐसा |


आज जाने क्यों दसेक दिन बाद जाकर उसे हरिया की कमी महसूस हो रही थी और उसी सब का चलचित्र अपनी उस बोरी के नीचे दुबका देख रहा था जिसे कुछ घंटे पहले बगल की गली के मोडपर सोने वाले कलुआ के ऊपर से खींच लाया था | यहाँ इस तरह की चोरियाँ भी बहुत हुआ करती थीं जिनको सामान्य जीवन जीने वाले लोग शायद ही कभी समझ सकेंगे | सर्वाइवल की जंग के कितने प्रकार हो सकते हैं यह कोई एक इन्सान जानना चाहे भी तो शायद जान न पायेगा | जिस दुकान के शटर के बाहर पड़े रहकर उसने पूरा नवम्बर, दिसंबर और जनवरी के इतने दिन गुज़ार लिए उसी के आगे से हर रोज़ सुबह नौं बजे तक दुत्कार कर हड़का दिया जाता रहा था |


बहुतेरी कोशिश करी समझने की कि कौन है जो यह तय करता है कि कौन बंद खिड़की के बाहर रहेगा और कौन उन झरोखों और अट्टालिकाओं से झांक कर बाहर पड़े उन बेबसों को निहारकर एक उसांस सी भरकर पट बंद कर लेगा और थोड़ी देर में अपने उन मखमली इंडियन-कोरियन कम्बलों में दुबका चैन से सो रहा होगा पर हर बार समझ धोखा दे गयी | क्यों न देती धोखा, होती तब न | आज खाने की कोई जुगाड़ न पाकर यूँही मन बहलाते खुद को नींद के आगोश में बहा ले जाने की कोशिश में था | हरिया की ज्यादा याद आने की असल वजह भी रोटी के ज्यादा पाए वे टुकड़े थे जो उसे नहीं वरन हरिया को मिले थे | अब भी बोरी में दुबका सोच रहा था "कितना बुरा आदमी था, जब सोते ही मर जाना था तो क्यों नहीं रोटी के वे सारे स्वादिष्ट टुकड़े मुझे खिला गया"| जैसे तैसे रात गुजरी और सवेरे काफी देर बाद ना के बराबर आयी धूप के सहारे चैन नसीब हुआ |


उस दिन भी खाने की पूरी जुगाड़ नहीं जुटा पाया क्योंकि सारी दिल्ली किसी दामिनी के नाम का शोक मना रही थी और बहुत सा मार्केट बंद रहा | न किसी ने आना न किसी ने जाना फिर क्यों कोई उस फटेहाल भिखमंगे का हाल पूछता | जाने कितने लोग देख लिए उसने जो आते-जाते कुछ खाते बतियाये जा रहे थे | उन्हें देख लपलपाती जिव्हा से निकली सारी धारायें प्यास बुझा-बुझाकर ग्रीवा-ग्रसित हुई जाती थीं | बड़ी मुश्किल से शाम को जाकर एक कुत्ते से लड़-झगड़कर अपनी उदारक्षुधा शांत करी जिसके लिए कोई श्वानप्रेमी कुछ खाने को डाल गया था | अपना हक़ छिनते देख कुत्ते ने भी बाकायदा पूरी जंग लड़ी और कई पत्थर खाकर ओमी के शारीर पर एक दो जगह काटे के निशान छोड़ मुंह में जो आया उसे भर दुमदबाकर भाग गया |


इस रात ओढने को कुछ नहीं था क्योंकि कुकड़ाती आंतों के मारे बोरी अपने खास स्थान पर छुपाना भूल गया था | खुले में पेढ़ी पर सोने की हिम्मत नहीं कर पाया और बगल वाली बिल्डिंग की आखिरी मंजिल से होकर छत पर निकल आया | वह जानता था यहाँ छत पर एक पानी की टंकी है जिसके पीछे तीन साइड की आड़ और जरा छपरा भी निकला हुआ था | शायद यहाँ सोने पर चलने वाली बर्फ सामान हवाओं से कुछ बचाव हो जाये यही सोचकर लेट गया मगर ठण्ड ने कब किसी से नाता निभाया है जो अब निभाती |


सीधा लेटने के बाद थोड़ी देर में फैले पाँव सिकुड़ गए | कुछ और देर बाद पींठ गोल धनुषाकार हो गयी | जाने कहाँ से वही शाम वाला कुत्ता वहां आया और इसे देख गुर्राने लगा जैसे यह जगह उसकी बपौती रही हो मगर कुछ देर तक गुर्राने के बाद वह भी इसी जगह एक कोने में खुद को सेट कर गया | जाने कब सरकते हुए दोनों के शरीर एकाकार हुए पता ही न चला | अब दोनों एक दूसरे से चिपके पड़े अपनी एक और रात बिता लेने के चक्कर में थे |


टपरे से बाहर नजर आने वाले अँधेरे भरे असमान की ओर आस भरी नजरों से टकटकी बाँध यूँ देखने लगा जैसे इस तरह ये रात सूरज के अल-गरम प्रकाश से आलोकित हो जाने वाली हो | इसी पोज़ में भोर ने चमककर अपना आगाज़ कर दिया परन्तु ओमी की खुली आँखों की टकटकी अब भी उसी दिशा में थी जडवत और रात जिस दशा में में शारीर था अब भी उसी दशा में बेहरकत पड़ा था | उधर बगल में सोये पड़े कुत्ते ने एक शानदार अंगड़ाई ली और खड़े होकर शरीर को विभिन्न दशाओं में मोड़-तोड़कर सामान्य करने लगा | कुछ सेकंड्स बाद कुत्ता अपनी नाक के अग्रभाग को हिलाता-डुलाता ओमी के अविचल पड़े बदन को सूँघने लगा फिर चल दिया सीढियों की ओर | इतने सर्द मौसम में वॉचमैन या बिल्डिंग वालों में से किसी ने ऊपर नहीं आना था | यहाँ तक कि पानी की भराई भी नीचे ग्राउंड फ्लोर पर रखी मोटर से हो जानी थी सो जल्दी किसी को पता चलने के असार भी न थे |


एक कुत्ता ही था जो जनता था इस सब के बारे में | इस नयी शाम कुत्ते के लिए नया अनुभव था भूख मिटाने का | जितनी भी खुराक कम मिली ओमी से वसूल ली | और दो दिन बाद उसका अधखाया बदन मुंह चिढ़ा रहा था हमारे उस समाज और व्यवस्था को जिसने उस रूप में भी सिवा नाक-भों सिकोड़ने के कुछ नया न किया | बिल्डिंग वालों को इस बात से फर्क पड़ा था कि कोई उस अवस्था में मिला लेकिन किसी ने यह सोचने की जहमत न उठायी कि क्या किया जाये तो अगला कोई शरीर इस हालत में न मिले | हुआ तो बस इतना कि अब ओमी भी उठाया जा रहा था ले जाये जाने के लिए | इस सब के मध्य वह इकलौता था जिसे उसके जाने से फर्क पड़ा और जो लगातार इस सारे क्रिया-कलाप को अपनी हल्की सी गुर्राहट के साथ देखे जा रहा था | उसके लिए यह सब एक बार फिर उसके मुंह से निवाला छीने जाने जैसा था |


जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh (22-01-2013)

.
ओस से भीगी एक रातSocialTwist Tell-a-Friend

Comments

2 Responses to “ओस से भीगी एक रात”

Unknown said...
23 January 2013 at 12:26 pm

शुक्रिया दोस्त...

Post a Comment

Note : अपनी प्रतिक्रिया देते समय कृपया संयमित भाषा का इस्तेमाल करे।

▬● (my business sites..)
[Su-j Health (Acupressure Health)]http://web-acu.com/
[Su-j Health (Acupressure Health)]http://acu5.weebly.com/
.

Related Posts with Thumbnails