● टूटा नान (कटाक्ष कहानी) ●
● काफी देर से टकटकी बाँधे काँच की उस दीवार के पार भीतर शोकेस में रखी छोटी-2 प्लेट्स को वह घूरे जा रहा था... बीच-2 में साँप सा लहराता और भीतर को चला जाता... बदले में पीछे होठों पर छोड़ जाता कुछ सघन तो कुछ छितरे लार-रस के अवशेष... जाने कितनी देर से वो उस शोकेस में रखी प्लेट्स में रखे सैंपल्स और उसके पीछे शानदार इन्टीरियर से सजे हॉल की टेबल्स के पीछे जमे उच्च कुलीन लोगों को अपनी भूख मिटाते देख खुद अपनी बढ़ती भूख को दबाने की कोशिश में उसे और शिद्दत से पनपाये जा रहा था... कल्पनाओं में जाने कितने ही भोग चख चुका जब रुक ना सका तो लगभग चिपक सा गया उस शीशे की दीवार पर... दांये बायें फैले हाथों के ऊपर को मुड़े दोनों पंजे और बीच में काँच पर दबे चिपके होंठ जो दूसरी तरफ भीतर से देखे जाने पर अजीब सा वहशी नज़ारा क्रिएट कर रहे थे...
● समझ नहीं पाया क्यों अचानक उसके सामने वाली दो टेबल्स वाले अपना खाना छोड़ उसकी तरफ इशारा करते उग्र मुद्रा में होटल स्टाफ से जाने क्या कहने में लगे थे... ज्यादा ध्यान न देकर उसने अपनी कल्पना की उड़ान और नजरों की दिशा को बरक़रार रखा.... आखिर क्या कसूर था उसका...?? यही ना कि हर बार की तरह बापू आज भी कम पैसे लाया था... उनसे जो बना उसके हिस्से सबमें बाँटने पर उसके हिस्से पौनी रोटी ही आ सकी जबकि चार रोटी से कम पर उसका काम नहीं चलता था... पेट में गुड़गुड़ संग उठ रही मरोड़ जब काबू से बाहर हो गयी तो वहाँ से हटकर जरा साइड में रखे कचरे के बड़े डब्बे की ओर बढ़ चला क्योंकि बहुत बार वहाँ होटल स्टाफ को बाबू लोग द्वारा शान में छोड़ा गया एक्स्ट्रा खाना फेंकते देखा था...
● कई दिनों की अधूरी खुराक और बर्दाश्त की इन्तेहाँ ने मान सम्मान जैसी अवधारणाओं से परे धकेल दिया उस तेरह साला बालक को... हौले-2 हौले चलता मैली घिसी शर्ट और एक फाटे पायंचे वाली ऊँची पैन्ट पहने करीब साढ़े चार फुटा ये बालक अपनी क्षुधा शांति की कोशिशों में जुट गया...
● ज्यों ही बच्चे ने किनारे पर सब्जी का रंग सा लगे एक नान के बड़े से टुकड़े को पाया खिल उठा... तत्क्षण ही सहम सा गया यह सोचकर कि गरीब हूँ लेकिन भिखारी नहीं... साथ ही साफ सुथरा रहने की आदत ने कचरे से पाये टुकड़े की असलियत भी याद करा दी... लेकिन आवश्यकता जब मज़बूरी बन जाये तो हमारे सही-गलत को धराशायी करते देर नहीं लगाती...
● जैसे तैसे हिम्मत जुटा आखिर उस नान के अगले भाग को दाँतों से काट ही लिया... चबाना शुरू किया ही था कि जैसे कोई पहाड़ टूट पड़ा हो सर पर... रात के सारे सितारे चिड़िया सी बन चारों ओर ढंग से चकरा लिए... दर्द की एक तीखी सी लहर भीतर तक कचोटती चली गयी... भूल गया था उस नज़ारे को जो काँच की दीवार के पीछे बैठे भद्रजनों को नज़र कर आया था... फलस्वरूप भद्दी गालियों संग वर्दीधारी वेटर ने अपने हाथ में पकडे डंडे से उसके लिए सारी आकाशगंगा के सितारे धरती पर ला दिए थे...
● लात-घूँसे-डण्डे जाने क्या क्या न प्रयोग कर लिये गये... पास ही जमीन पर चबा-अनचबा नान पड़ा था जिसे अपनी आत्मा को मारकर उसने हाँसिल किया था... हर तरह सेवा के बाद घसीटकर गली किनारे पटक दिया गया, इस ताकीद के संग कि फिर कभी दिखाई दिया तो इससे भी बुरी दर बना दी जायेगी...
● कराहते हुए लगभग अधलेटी हालात में समझने की कोशिश कर रहा था क्यों आखिर उसे काँच के पीछे से देखने को मजबूर होना पड़ा और क्यों वो अंदर वाले उसे देख इतने उत्तेजित हो लिए...?? क्यों उसकी तड़प गुणात्मक रूप से बढ़ा दी गयी...?? दर्द पहले पेट के भीतर था... अब तन के ऊपर एक परत और मन के भीतर सवालों के दंश की दूसरी परत चढ़ी थी... लेकिन भद्रजन अब खुश थे...!!
● जोगेन्द्र सिंह (जोगी) (29-12-2014)
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