tag:blogger.com,1999:blog-31548416159783689092024-02-19T16:15:33.570+05:30Meri Lekhni, Mere Vichar.. मेरी लेखनी, मेरे विचार..Jogendra Singh ~ जोगेंद्र सिंह..Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15060979684457730427noreply@blogger.comBlogger295125tag:blogger.com,1999:blog-3154841615978368909.post-24759725868841124452017-01-11T14:12:00.001+05:302017-01-11T14:21:26.727+05:30● Relations ●
(Adjustment Or Changing Yourself?)<p dir="ltr"><b>जायज</b> एडजस्टमेंट रिश्तों को मजबूत बनाता है,<br>
खुद को बदलना रिश्तों को कब्र तक ले जाता है...</p>
<p dir="ltr"><b>एडजस्टमेंट</b> का मतलब हमारी सोच समझ आदतें सब वही हैं, बस हमने अपनी नापसंद वाली चीजें भी सामने वाले के लिए मैनेज कर ली हैं... जबकि खुद को बदलने का मतलब अब वो चीजें हमें नापसंद नहीं रहीं... इस तरह के बदलाव कभी स्थायी नहीं होते क्योंकि एक समय आता है जब लोग बदलावों से छटपटाकर बाहर निकल आना चाहते हैं... और एक झटके में सब बूम...!!</p>
<p dir="ltr"><b>एडजस्ट</b> अधिकतर एक ज्यादा करता है और दूसरा कम... जितना ज्यादा ये गैप होता है उतना ही रिश्तों में दुःख होता है... दोनों के बराबर मात्रा में किये एडजस्टमेंट तकलीफ नहीं देते क्योंकि हम जानते हैं कि अगर हमने कुछ चला लिया है तो सामने वाला भी उसी कंडीशन में है...</p>
<p dir="ltr"><b>एडजस्टमेंट</b> सबसे ज्यादा खून के रिश्तों में दिखाई देते हैं... जैसे कि माँ-बाप को पता होता है बेटे/बेटी में ये या वो कमी है लेकिन वो उन कमियों के साथ भी बच्चे के लिए उतनी ही ममता रखते हैं... काफी बड़े होने तक भाई-बहनों में भी सेम फीलिंग्स बनी रहती है... और तो और अच्छे दोस्त भी एक दूसरे को उनकी कमियों के साथ ही एक्सेप्ट करते हैं...</p>
<p dir="ltr"><b>इसीलिए</b> शायद प्रेम संबंध और शादी सम्बन्ध सबसे ज्यादा ब्रेकेबल नज़र आते हैं क्योंकि सामने वाले को बदलने की सबसे ज्यादा कोशिशें भी इसी रिश्ते में की जाती हैं... जो लोग बदलता नहीं चाहते , ओवर एक्सपेक्टेशंस के चलते उनके रिश्ते जल्दी ही ख़त्म हो लेते हैं... और जो लोग बदल कर दिखा देते हैं वे असल में बदले नहीं होते, बल्कि बदलने की कोशिश में आर्टिफिशियल नेचर ओढ़ लेते हैं... यूँ जब तक चल सकता है चलाया जाता है और बाद के सालों में अचानक होने वाले विस्फोटों में नकली लबादों संग रिश्ते भी ब्लास्ट हो जाते हैं....</p>
<p dir="ltr"><b>पीछे रह जाते हैं टीस देते, मवाद बहते, सड़ते हुए रिश्ते</b>...!!</p>
<p dir="ltr">● <b>जोगेंद्र सिंह</b> (jogi ~ jc) ● (11/01/2017)<br>
.</p>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15060979684457730427noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-3154841615978368909.post-27378197689919822472015-01-01T22:02:00.001+05:302015-01-01T22:02:47.081+05:30दो बूँद का सागर<p dir="ltr">● <b>दो बूँद का सागर</b> ● (01-01-2015)</p>
<p dir="ltr">बेबसी अब हद से गुजरने लगी है<br>
शब्द अब तुम तक पहुँच न पाते हैं,</p>
<p dir="ltr">आँखें बेशक काबिल हैं समझाने में,<br>
उफ़ पर्दा आँखों पर चढ़ाये बैठी हो,</p>
<p dir="ltr">दो बूँद लिखते में अच्छी लगती है,<br>
क्या करूँ मोटू मगर.<br>
अब आँखों में दरिया उमड़ आता है... <b>jogi</b> (<b>jc</b>)</p>
<p dir="ltr">● <b>Jogendra Singh</b> - <b>जोगेन्द्र सिंह</b></p>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"> <a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgxrLX6WJiH0yuOwkWS0zCpUlYAbG7DIrks4lCmSPEq86h9lXbZzm-qctkNlf0AjOASVk0jwqFw7KGw2xmwqGnGktHhYHZ0ahAewMhmrhDPSUSyiL2RFcMlz4F7jRQoJmk3QrAAcV5vqoc/s1600/IMG_20150101_191437.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"> <img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgxrLX6WJiH0yuOwkWS0zCpUlYAbG7DIrks4lCmSPEq86h9lXbZzm-qctkNlf0AjOASVk0jwqFw7KGw2xmwqGnGktHhYHZ0ahAewMhmrhDPSUSyiL2RFcMlz4F7jRQoJmk3QrAAcV5vqoc/s640/IMG_20150101_191437.jpg"> </a> </div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15060979684457730427noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3154841615978368909.post-45011858082978376692014-12-30T19:51:00.001+05:302014-12-30T19:51:28.424+05:30टूटा नान (कटाक्ष कहानी)<p dir="ltr">● <b>टूटा नान</b> (कटाक्ष कहानी) ●</p>
<p dir="ltr">● <b>काफी</b> देर से टकटकी बाँधे काँच की उस दीवार के पार भीतर शोकेस में रखी छोटी-2 प्लेट्स को वह घूरे जा रहा था... बीच-2 में साँप सा लहराता और भीतर को चला जाता... बदले में पीछे होठों पर छोड़ जाता कुछ सघन तो कुछ छितरे लार-रस के अवशेष... जाने कितनी देर से वो उस शोकेस में रखी प्लेट्स में रखे सैंपल्स और उसके पीछे शानदार इन्टीरियर से सजे हॉल की टेबल्स के पीछे जमे उच्च कुलीन लोगों को अपनी भूख मिटाते देख खुद अपनी बढ़ती भूख को दबाने की कोशिश में उसे और शिद्दत से पनपाये जा रहा था... कल्पनाओं में जाने कितने ही भोग चख चुका जब रुक ना सका तो लगभग चिपक सा गया उस शीशे की दीवार पर... दांये बायें फैले हाथों के ऊपर को मुड़े दोनों पंजे और बीच में काँच पर दबे चिपके होंठ जो दूसरी तरफ भीतर से देखे जाने पर अजीब सा वहशी नज़ारा क्रिएट कर रहे थे...</p>
<p dir="ltr">● <b>समझ</b> नहीं पाया क्यों अचानक उसके सामने वाली दो टेबल्स वाले अपना खाना छोड़ उसकी तरफ इशारा करते उग्र मुद्रा में होटल स्टाफ से जाने क्या कहने में लगे थे... ज्यादा ध्यान न देकर उसने अपनी कल्पना की उड़ान और नजरों की दिशा को बरक़रार रखा.... आखिर क्या कसूर था उसका...?? यही ना कि हर बार की तरह बापू आज भी कम पैसे लाया था... उनसे जो बना उसके हिस्से सबमें बाँटने पर उसके हिस्से पौनी रोटी ही आ सकी जबकि चार रोटी से कम पर उसका काम नहीं चलता था... पेट में गुड़गुड़ संग उठ रही मरोड़ जब काबू से बाहर हो गयी तो वहाँ से हटकर जरा साइड में रखे कचरे के बड़े डब्बे की ओर बढ़ चला क्योंकि बहुत बार वहाँ होटल स्टाफ को बाबू लोग द्वारा शान में छोड़ा गया एक्स्ट्रा खाना फेंकते देखा था...</p>
<p dir="ltr">● <b>कई</b> दिनों की अधूरी खुराक और बर्दाश्त की इन्तेहाँ ने मान सम्मान जैसी अवधारणाओं से परे धकेल दिया उस तेरह साला बालक को... हौले-2 हौले चलता मैली घिसी शर्ट और एक फाटे पायंचे वाली ऊँची पैन्ट पहने करीब साढ़े चार फुटा ये बालक अपनी क्षुधा शांति की कोशिशों में जुट गया...</p>
<p dir="ltr">● <b>ज्यों</b> ही बच्चे ने किनारे पर सब्जी का रंग सा लगे एक नान के बड़े से टुकड़े को पाया खिल उठा... तत्क्षण ही सहम सा गया यह सोचकर कि गरीब हूँ लेकिन भिखारी नहीं... साथ ही साफ सुथरा रहने की आदत ने कचरे से पाये टुकड़े की असलियत भी याद करा दी... लेकिन आवश्यकता जब मज़बूरी बन जाये तो हमारे सही-गलत को धराशायी करते देर नहीं लगाती...</p>
<p dir="ltr">● <b>जैसे</b> तैसे हिम्मत जुटा आखिर उस नान के अगले भाग को दाँतों से काट ही लिया... चबाना शुरू किया ही था कि जैसे कोई पहाड़ टूट पड़ा हो सर पर... रात के सारे सितारे चिड़िया सी बन चारों ओर ढंग से चकरा लिए... दर्द की एक तीखी सी लहर भीतर तक कचोटती चली गयी... भूल गया था उस नज़ारे को जो काँच की दीवार के पीछे बैठे भद्रजनों को नज़र कर आया था... फलस्वरूप भद्दी गालियों संग वर्दीधारी वेटर ने अपने हाथ में पकडे डंडे से उसके लिए सारी आकाशगंगा के सितारे धरती पर ला दिए थे...</p>
<p dir="ltr">● <b>लात</b>-घूँसे-डण्डे जाने क्या क्या न प्रयोग कर लिये गये... पास ही जमीन पर चबा-अनचबा नान पड़ा था जिसे अपनी आत्मा को मारकर उसने हाँसिल किया था... हर तरह सेवा के बाद घसीटकर गली किनारे पटक दिया गया, इस ताकीद के संग कि फिर कभी दिखाई दिया तो इससे भी बुरी दर बना दी जायेगी...</p>
<p dir="ltr">● <b>कराहते</b> हुए लगभग अधलेटी हालात में समझने की कोशिश कर रहा था क्यों आखिर उसे काँच के पीछे से देखने को मजबूर होना पड़ा और क्यों वो अंदर वाले उसे देख इतने उत्तेजित हो लिए...?? क्यों उसकी तड़प गुणात्मक रूप से बढ़ा दी गयी...?? दर्द पहले पेट के भीतर था... अब तन के ऊपर एक परत और मन के भीतर सवालों के दंश की दूसरी परत चढ़ी थी... लेकिन भद्रजन अब खुश थे...!!</p>
<p dir="ltr">● <b>जोगेन्द्र सिंह</b> (<b>जोगी</b>) (29-12-2014)<br>
● <a href="http://www.jogendrasingh.blogspot.in">jogendrasingh.blogspot.in</a><br>
.</p>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"> <a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi5SJ3P1I8eQu6B296PoNoODwTM6PucpxOzYPKxmNhRZ64ypoKn2vMBSuflW3NgwEshj5Q9QHJfaUKs6tu9LNk69svNULQGq8GPlhkFgawjQdg8IMF5jVrH9P-KaiX3_fVjVZ_1ijea2HU/s1600/IMG_20141229_044413.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"> <img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi5SJ3P1I8eQu6B296PoNoODwTM6PucpxOzYPKxmNhRZ64ypoKn2vMBSuflW3NgwEshj5Q9QHJfaUKs6tu9LNk69svNULQGq8GPlhkFgawjQdg8IMF5jVrH9P-KaiX3_fVjVZ_1ijea2HU/s640/IMG_20141229_044413.jpg"> </a> </div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15060979684457730427noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3154841615978368909.post-56082972409076905002014-01-01T13:05:00.001+05:302014-01-01T16:41:19.130+05:30चुड़ैल और शादी<p dir="ltr">● <b>चुड़ैल और शादी</b> ● (गंभीर हास्य)</p>
<p dir="ltr">क्या आप जानते हैं कि हमारे हिंदुस्तान में चुडैलों की एक खास किस्म होती है जिसे किसी मनुष्य के सर पर स्थिर और स्थायी रूप से सवार करवाने के लिए बाकायदा मंत्रोच्चारणों के साथ पवित्र अग्नि को साक्षी रख लगभग हर धार्मिक रीति को उत्सव के माहौल में प्रयोग किया जाता है...?</p>
<p dir="ltr">यदि नहीं तो जानना किंचित भी रहस्यमयी नहीं लगेगा कि उस किस्म की एक चुड़ैल अमूमन हर घर में एक या एक से ज्यादा इंसानों पर सवार पायी जाती है और उसके इस रूप के बारे में मुँह से निकला मात्र एक शब्द इन्सान को सीधे कुम्भीपाक नर्क के दर्शन जीते जी करवा जाता है... अपने लिये अर्धांगिनी नामक बड़ी ही खूबसूरत पदवी कहाना चाहती यह शै पत्नि नाम से भी जानी जाती है...</p>
<p dir="ltr">इसे मेरी उच्चस्तरीय हिम्मत ही जानिये कि आज इस गुप्त रहस्य को अपनी जिव्हा से अभिव्यक्त कर सका... अन्यथा कोई संदेह नहीं कि निकट भविष्य में मेरी निश्चेष्ट देह अपने चलायमान होने के लिये किसी उपचारकर्ता की सहायता लेती दृष्टिगत हो... ;-) :P</p><p dir="ltr"><br></p>
<p dir="ltr">● ये वाकई सबके लिये नहीं है... सिर्फ वे ही इसे दिल पर लें जो ऐसी हैं... बाकियों के लिये ये उसी तरह का मजाक भर है जैसा कि बहुत से जोक्स पतियों के खिलाफ बड़े कमाल के होते हैं और उन्हें पढ़ते हुए कभी कोई बुरा नहीं मानता बल्कि मुस्कुरा भर दिया जाता है...</p><p dir="ltr">● <b>जोगेंद्र सिंह सिवायच</b> (Jogendra Singh Siwayach)<br>
● (<a href="tel:01012014">01-01-2014</a>)<br>
.</p>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"> <a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgUqw60ZeIbkF2w0cddaPvxJrtnHtoyNNAkHEXnYEYjue_3BWSPlQq8S3fGSL26naq34nk158JbqnpFuSqSpZ9I3aVg8XcVVGWV3ASOWdR9d_-yVPdgCrlGfzTQJcg1OMAuRtnlg9xF0Fw/s1600/indian_marriage.gif" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"> <img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgUqw60ZeIbkF2w0cddaPvxJrtnHtoyNNAkHEXnYEYjue_3BWSPlQq8S3fGSL26naq34nk158JbqnpFuSqSpZ9I3aVg8XcVVGWV3ASOWdR9d_-yVPdgCrlGfzTQJcg1OMAuRtnlg9xF0Fw/s640/indian_marriage.gif"> </a> </div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15060979684457730427noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-3154841615978368909.post-69119841567343180922013-12-19T02:48:00.001+05:302013-12-19T12:16:53.045+05:30गिलहरी (Squiral)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<h2 style="text-align: center;">
● गिलहरी ●</h2>
<div style="text-align: center;">
(कहानी)</div>
<h4 style="text-align: center;">
(1)</h4>
<div style="text-align: justify;">
● ज्यों ही उसने डाल से लम्बी छलांग लगायी हवा में परवाज करती सी अगले दरख़्त की आगे को झुकी लचीली टहनी की ओर तेजी से उड़ सी चली | पहुँची ही थी की धप्प से करीब पच्चीस फुट नीचे जमीन पर औंधे मुँह आ गिरी | वो जो ऐसी छलांगे यूँही खेल-खेल में लगा लिया करती थी अब काफी समय से जैसे कुछ उसके बस में ही न रहा | आये दिन छोटे से शारीर की कोई न कोई मुलायम हड्डी और ज्यादा मुलायम हो जाती | क्या करें उम्र ही ऐसी थी, यही कोई नौ वर्ष | देखने में भले ही नौ वर्ष कोई ज्यादा नहीं होते हैं लेकिन एक "गिलहरी" की औसत उम्र लगभग 9 से 10 वर्ष ही होती है सो कहा जा सकता था कि नन्ही गुदगुदी सी वह गिलहरी अपनी उम्र के अंतिम पड़ाव को जी रही थी | वह एक नर गिलहरी थी जिसके जिंदगी को लेकर भ्रम अभी तक टूटे नहीं थे वर्ना यूँ जवान गिलहरी के सामान कुलाँचें नहीं भरती | </div>
<h4 style="text-align: center;">
(2)</h4>
<div style="text-align: justify;">
● कुछ तीन-एक साल पहले उसका अपनी मादा से बिछोह हुआ था | ना-ना-ना.. भगवान को प्यारी नहीं हुई थी वरन अपने लिए एक नया बांका "गिलहरा" पसंद कर लिया था उसने | क्या देखा उसमें नहीं जानता था वह मगर इतना जरुर जानता था कि उस नये गिलहरे की कुलाँचें/उछालें कहीं अधिक तेज थीं | उसका रिझाने का अंदाज़ कुछ जुदा सा लगता था | वो रुक-रुक मुँह तिरछा कर ताकना, लौट-लौट दौड़कर आना, हर वक़्त उसके गिर्द मंडराते रहना सभी कुछ तो था जिसने उसकी जिंदगी, वो जिसके साथ आधी उम्र ख़त्म हो जाने तक बितायी, उसी ज़िन्दगी को लूट ले गया | [नोट: आगे से नर गिलहरी की जगह "मैं" शब्द लिखूंगा ताकि लिखने में आसानी रहे |]</div>
<h4 style="text-align: center;">
(3)</h4>
<div style="text-align: justify;">
● टुकुर-टुकुर निहारते रहने के सिवा मैं कर ही क्या पाया | मेरे साथ रहते उसने एक छोटी सी गिलहरी को भी जन्म दिया मगर जाते-जाते उस नन्ही सी जान को भी अपने संग ले गयी | ले क्या गयी बल्कि नन्ही खुद ही फुदकते हुए उसके पीछे चल दी, माँ जो थी उसकी | बड़े पेड़ के खाली पड़े कोटर को आरामदायक बनाने में मैंने कोई कसर नहीं छोड़ी थी | क्या-क्या नहीं जुटाया था मैंने | जूट की बोरियों के रेशे, मुलायम घास के तिनके, घरों से निकले धागों के रेशे, कपड़ों की कतरनें, और भी जाने क्या क्या | सब कुछ तो किया था उसके लिए | खाने के जितने दाने मिलते कभी अकेले नहीं खाये | छोटे से मेरे उस कोटर के कोने में जाने कितने ही खाये-अधखाये और साबुत रसद का भंडार पड़ा था जो मेरे अपनों के संग बिताये एक-एक पल को जीता नजर आ रहा था |</div>
<h4 style="text-align: center;">
(4)</h4>
<div style="text-align: justify;">
● जाने संसार की बाकी गिलहरियाँ रोती भी हैं या नहीं मगर जमीन पर पड़ा मैं मात्र बूँद जितनी बड़ी अपनी मासूम आँखों में पृथक एक नन्ही सी बूँद लिए कराह रहा था | शायद बूढी गिलहरी का जीवन इसी तरह का लिखा हो | मैं कोई इन्सान तो नहीं जिसे हर सुविधा सुलभ हो फिर आज तो इन्सान भी अपनों के काम नहीं आता हम तो फिर भी निरीह जानवर हैं | जो मेरे पास कोई होता भी तो बगल में बैठा सिवा बेबसी के आलम के और दे भी क्या पाता |</div>
<h4 style="text-align: center;">
(5)</h4>
<div style="text-align: justify;">
● नीचे पड़े-पड़े सामने वाले ऊँचे दरख़्त की शानदार डालियों को देख मन भर आया | इसी दरख़्त पर कितने बरस राजी-ख़ुशी बिताये थे उस छलना संग और इसी दरख़्त पर बने ज़रा से कोटर में प्यारी सी मेरी उस नन्ही मासूम गिलहरी ने जन्म लिया था जिसके साथ उछलकूद करके जीवन के कुछ महीने उल्लास में बीते थे | मेरे देखते ही देखते मेरे ही एक साथी गिलहरे संग हो ली थी मेरी अपनी संगिनी और मैं कुछ न कर सका |</div>
<h4 style="text-align: center;">
(6)</h4>
<div style="text-align: justify;">
● उसी दौरान जब मोहभंग हो रहा था तो हवा के झौंके समान आयी एक नयी गिलहरी का जीवन में पदार्पण हुआ | उसकी ऑंखें जैसे बोलती प्रतीत होती थीं | मेरे लिए जैसे पीत-वस्त्र धारिणी महिला की स्थिर तस्वीर की तरह वो घंटों मुझ ही को निहारा करती | कुछ न कहती, कुछ न करती, बस मेरे सामने रहती हरदम | शांत, निश्छल, निष्कपट, उछल-कूद रहित, बेहरकत, साकत, मेरी तरफ, बस मेरे लिए | सारी उद्वेलना उसके संग झाग की तरह बैठ जाती ज्यों समुद्र किनारे उबल रहे सफ़ेद फेन को किसी ने जादू के जोर से नीचे बैठा दिया हो |</div>
<h4 style="text-align: center;">
(7)</h4>
<div style="text-align: justify;">
● परन्तु उसका स्वाभाव कभी समझ नहीं आया, जितना पास जाओ उछल कर उतना ही पीछे, और जाओ और पीछे | इसी तरह दो वर्ष बीत गए और एक दिन जब जंगल में वो कहीं गयी तो कभी लौटी ही नहीं | बिलकुल इसी तरह मेरे बाबा भी गायब हो गए थे और बाद में एक दिन माँ भी, कभी लौट कर ही नहीं आया कोई |</div>
<h4 style="text-align: center;">
(8)</h4>
<div style="text-align: justify;">
● बड़ी देर इसी सब में निकल गयी और इतना सब होने में दो बातें एक साथ हुईं | शाम का धुंधलका बढ़ने लगा और दूसरे रगड़ता-घिसटता किसी तरह मैं अपने वाले ऊँचे दरख़्त की जड़ तक आ पहुंचा था | अब एक ही काम शेष था, किसी तरह उस ऊँचे दरख़्त की मध्य ऊँचाई पर मौजूद अपनी पनाहगाह, अपने आखिरी संगी कोटर तक पहुँचा जाये |</div>
<h4 style="text-align: center;">
(9)</h4>
<div style="text-align: justify;">
● कांपते-कराहते घंटों की ज़द्दोज़हद के पश्चात् किसी तरह अपने कोटर तक पहुँचा | भीतर घुसने से पहले अनायास ही उठ आयी दर्द की तीव्र लहर ने बदन को अकड़ा दिया और तने पर से पकड़ ढीली हो गयी | ठक, ठक, धाड़, फटाक, सर्रर्र, ठक, और अचानक सबसे निचले तने से जुडी टूटी डाली की ऊपर को उठी बची हुई किर्चियों पर रुकते हुए आखिरी खच्च की आवाज़ | चिऊ-चिऊ की मर्मश्पर्शी दम तोडती आवाज़ कहाँ किसी ने सुनी होगी | अब और उठ पाने की शक्ति नहीं बची थी |</div>
<h4 style="text-align: center;">
(10)</h4>
<div style="text-align: justify;">
● मुन्दायमान गोल भोली सी आँखों से सामने वाले दरख़्त से गुजरते एक गिलहरी परिवार पर नजरें पड़ी | कोई और नहीं ये मुझे छोड़ दूजे गिलहरे संग नये बनाये परिवार की आखिरी नुमाइश थी जो ऊपर वाले ने मेरे सामने कुछ इस तरह नुमायाँ कर दी थी | सामने की तरफ से आती किलकारियाँ और दूसरी तरफ निकलते प्राण | जैसे किसी अघोषित जश्न का आयोजन हो सामने की ओर | इधर उल्टा पड़ा छोटा सा शरीर, आधा डाली के इस तरफ लटका और बाकी का आधा डाली के दूसरी तरफ | यह सब देखते-ताकते कब ऑंखें खुली रह गयीं पता ही न चला | मैं भी संभवतः अपने माँ-बाबा और अपनी उस नयी गिलहरी की तरह कभी न लौटने वाले जंगल गमन के लिये निकल लिया था | दूर कहीं अँधेरे से बड़ी, गोल, चमकदार आँखों वाले एक उल्लू ने अपनी तेज़ उड़ान भरी और इस डाली पर आ बैठा | आखिर सामने से गुजर रहे जश्न की दावत भी तो बाकी थी..!!! </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<h4 style="text-align: left;">
● जोगेंद्र सिंह सिवायच (Jogi-jc)</h4>
● (19-12-2013)<br />● Instant: +91 78 78 193320 ● +91 90 33 733202<br />● jogendrasingh.blogspot.in<br />.<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgTNK6ghf-KuabTigoYXTkYi3Rx58rT9SOXng-V2HFBvAUOMUk2mPensnvIn0AtB9AecldejmctnHdDqpKDoNe5v2QEtHkI8cIxgLnENo3zb1l9k3xT8qZJCJOflZOvHrT5pwSWxc1Jo0g/s1600/1512532_691114204262108_813326535_n.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"> <img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgTNK6ghf-KuabTigoYXTkYi3Rx58rT9SOXng-V2HFBvAUOMUk2mPensnvIn0AtB9AecldejmctnHdDqpKDoNe5v2QEtHkI8cIxgLnENo3zb1l9k3xT8qZJCJOflZOvHrT5pwSWxc1Jo0g/s640/1512532_691114204262108_813326535_n.jpg" /> </a> </div>
</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15060979684457730427noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-3154841615978368909.post-61526353698007899522013-09-05T01:04:00.000+05:302013-09-05T01:04:04.072+05:30सूत का गट्ठर<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhlilXH5a58XqcVB_03oi9CD5u1nqgv2_RWI1CXetuhmrvdz-IOBBJ2duVn7KjH_FH_fs2AgzwPvnoMnWXzd1lA29SuNCckhBI3tzXMf7NLJW51cu-rq6uM5shGTy1h9ALQ8sLWajp2XRc/s1600/2013-09-04+Soot+Ka+Gatthar.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhlilXH5a58XqcVB_03oi9CD5u1nqgv2_RWI1CXetuhmrvdz-IOBBJ2duVn7KjH_FH_fs2AgzwPvnoMnWXzd1lA29SuNCckhBI3tzXMf7NLJW51cu-rq6uM5shGTy1h9ALQ8sLWajp2XRc/s1600/2013-09-04+Soot+Ka+Gatthar.jpg" height="300" width="400" /></a></div>
<br />
<h2 style="text-align: left;">
सूत का गट्ठर (04-09-2013)</h2>
<div class="gmail_default" style="color: #222222; font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: small;">
<br /></div>
<div class="gmail_default" style="color: #222222; font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: small;">
सूत पर सूत या तांत पर तांत,</div>
<div class="gmail_default" style="color: #222222; font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: small;">
यूँ उलझन भरा ज्यों समूचा मकडजाल,</div>
<div class="gmail_default" style="color: #222222; font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: small;">
हर तांत पर उकेरा हुआ एक नाता मेरा,</div>
<div class="gmail_default" style="color: #222222; font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: small;">
समीप से दूर तलक जाती हर लकीर पर,</div>
<div class="gmail_default" style="color: #222222; font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: small;">
उकेरा गया आज एक धोखा कोई,</div>
<div class="gmail_default" style="color: #222222; font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: small;">
आँसुओं से धो-धो बंद पलकों तले,</div>
<div class="gmail_default" style="color: #222222; font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: small;">
लिखी जा रही एक कहानी नयी,</div>
<div class="gmail_default" style="color: #222222; font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: small;">
भस्म-ऐ-चिता मेरे भरोसे की,</div>
<div class="gmail_default" style="color: #222222; font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: small;">
ले माथे अपने रगड़े जा रहे सभी,</div>
<div class="gmail_default" style="color: #222222; font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: small;">
ह्रदय धमनियों में प्रवाहित मासूम,</div>
<div class="gmail_default" style="color: #222222; font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: small;">
कोमल भावों को दिमागी क़दमों तले,</div>
<div class="gmail_default" style="color: #222222; font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: small;">
पल-पल कुचले चले जाते हैं सभी,</div>
<div class="gmail_default" style="color: #222222; font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: small;">
पतले सुएनुमा पांवों का जंज़ाल लिए,</div>
<div class="gmail_default" style="color: #222222; font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: small;">
आज तथाकथित वे सारे मेरे अपने, </div>
<div class="gmail_default" style="color: #222222; font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: small;">
घेरकर क्यों गट्ठर बना जाते हैं मुझे?</div>
<div class="gmail_default" style="color: #222222; font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: small;">
<br /></div>
<h4 style="text-align: left;">
जोगेंद्र सिंह सिवायच</h4>
<h4 style="text-align: left;">
(Jogendra Singh Siwayach) <span style="color: #222222; font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">+91 78 78 193320</span></h4>
</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15060979684457730427noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3154841615978368909.post-77575952527838078362013-01-22T02:35:00.000+05:302013-01-22T02:56:29.015+05:30ओस से भीगी एक रात<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg3kdOHi5fpDILIfHaXie5-RVEqzri2k0tSXbaUWBz2P3X4uF5-iPRKOPl7wgfX6v2bO45Bfv8nBoqKuun8T2v2YQinyd8toTcMz3IMw6n11eKd_JSyeFAciZ1YbB2h2goEN43OGsyGqvs/s1600/2013-01-22+Os+Se+Bheegi+Ek+Raat.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg3kdOHi5fpDILIfHaXie5-RVEqzri2k0tSXbaUWBz2P3X4uF5-iPRKOPl7wgfX6v2bO45Bfv8nBoqKuun8T2v2YQinyd8toTcMz3IMw6n11eKd_JSyeFAciZ1YbB2h2goEN43OGsyGqvs/s1600/2013-01-22+Os+Se+Bheegi+Ek+Raat.jpg" height="300" width="400" /></a></div>
<br /></div>
<h2>
<span style="color: red;">: <u>ओस से भीगी एक रात</u> :</span></h2>
<br />
<span style="font-size: large;">अभी</span> उसने बोरी के नीचे से सर निकाला ही था कि कोहरे भरी अँधेरी घनेरी रात में चल रही हवाओं की सरसराहट ने फिर दुबकने पर मजबूर कर दिया | इस साल पड़ी ठण्ड ने सारे पुराने रिकॉर्ड्स तोड़ डाले हैं | हाल ही दो दिन पहले तडके उसके बगल वाले फुटपाथ से अकड़ी हुई एक लाश म्युनिसिपैलिटी वाले उठाकर ले गए थे और इसी के साथ बरसों पुराना उसका देखा-भाला चेहरा हमेशा के लिए जाने कहाँ गारत हो गया | बड़ा पुराना नाता था हरिया से ओमी का | कितने ही साल लड़ते-झगड़ते, मेल करते गुज़ार दिए उसके संग पता ही न चला |<br />
<br />
<br />
<span style="font-size: large;">बोरी</span> के नीचे जैसे कल्पलोकी चित्रपट चल रहा हो | हर दृश्य यूँ जीवंत मानो अब भी ओमी उन पलों को जी रहा हो | इंतकाल से पहले की रात का वो रोटी का झगडा तो जैसे भुलाया ही न जाता था | किस तरह नए साल की शाम किसी पार्टी से फेंके गए बटर नान, कुलचे, मिस्सी रोटियों के छोड़े गए टुकड़े और उन्ही में लिपटी सतरंगी सब्जियाँ और ढेरों प्रकार के चावल के व्यंजनों की झूठन जो रईसजादों के थाली में छोड़ने के चलन के चलते हरिया और ओमी जैसों का भी न्यू इयर करवा जाती थी पर ये दोनों टूट कर पड़े थे और इन्ही के साथ ऐसे ही कई और जिनको इस धुँध भरी रात में भीख तक मयस्सर नहीं थी | उस रात हरिया के हाथ रोटियों के टुकड़े कुछ ज्यादा ही लग गए थे जबकि ओमी के हाथ नानाप्रकार के पुलावों की मिक्सचर | ठोस खाने के लालच में उन दोनों में हाथापाई भी हो गयी जिसमें हरिया भारी पड़ा और ओमी के हिस्से वही आया जो कुछ देर पहले उसने पहले समेटा था | गालियों की बौछार के बीच उन दोनों ने साथ बैठकर अपना भी जश्न मनाया लेकिन एक का पेट भरा तो दूजे के में चूहों का आतंक मचा पड़ा था |<br />
<br />
<br />
<span style="font-size: large;">एक</span> इन्सान का होना क्या होता है या देश और नागरिक या सही-गलत और इसी तरह की ढेर सारी चीजों से दोनों का दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं था | दोनों ने हर तरह के काम एक साथ कर रखे थे | छोटी-मोटी राहज़नी, हल्की-फुल्की छेड़-छाड़, कुछ पैसे हो जाने पर निचले स्तर का वेश्यागमन, बहुत सी तरह के नशे और भी जाने क्या क्या और भिखारी तो ये पैदाइशी थे | उस शाम भी किसी कार के खुले शीशे से 8PM व्हिस्की की बोतल पार कर लाये थे और नशे की झौंक में अपनी ही जगह पड़े सोते रह गए | कपडे तो कुछ खास पहले भी न थे लेकिन ओमी के पास एक हजार छेद वाला पुराना स्वेटर था |<br />
<br />
<br />
<span style="font-size: large;">अगली</span> ही सुबह ठण्ड से अकड़े पड़े ओमी ने जब अपनी ऑंखें मिचमिचाकर देखा तो जरा ही पास वाले फुटपाथ से हरिया के मुड़े-तुड़े पड़े शरीर को जैसे तैसे उठाकर गाडी में ठूँसा जा रहा था और वह देखे जाने के सिवा कुछ नहीं कर पाया कि उसके अपने हाथ पाँव सही से इस्तेमाल के लायक तकरीबन दो घंटे बाद जाकर हुए थे | एकटक निहारते हुए अपने दोस्त-दुश्मन को जाते देखता रहा लेकिन मजाल है आँखों से किसी कतरे का प्रादुर्भाव तक हुआ हो | शायद यह रिश्ता था ही ऐसा |<br />
<br />
<br />
<span style="font-size: large;">आज</span> जाने क्यों दसेक दिन बाद जाकर उसे हरिया की कमी महसूस हो रही थी और उसी सब का चलचित्र अपनी उस बोरी के नीचे दुबका देख रहा था जिसे कुछ घंटे पहले बगल की गली के मोडपर सोने वाले कलुआ के ऊपर से खींच लाया था | यहाँ इस तरह की चोरियाँ भी बहुत हुआ करती थीं जिनको सामान्य जीवन जीने वाले लोग शायद ही कभी समझ सकेंगे | सर्वाइवल की जंग के कितने प्रकार हो सकते हैं यह कोई एक इन्सान जानना चाहे भी तो शायद जान न पायेगा | जिस दुकान के शटर के बाहर पड़े रहकर उसने पूरा नवम्बर, दिसंबर और जनवरी के इतने दिन गुज़ार लिए उसी के आगे से हर रोज़ सुबह नौं बजे तक दुत्कार कर हड़का दिया जाता रहा था |<br />
<br />
<br />
<span style="font-size: large;">बहुतेरी</span> कोशिश करी समझने की कि कौन है जो यह तय करता है कि कौन बंद खिड़की के बाहर रहेगा और कौन उन झरोखों और अट्टालिकाओं से झांक कर बाहर पड़े उन बेबसों को निहारकर एक उसांस सी भरकर पट बंद कर लेगा और थोड़ी देर में अपने उन मखमली इंडियन-कोरियन कम्बलों में दुबका चैन से सो रहा होगा पर हर बार समझ धोखा दे गयी | क्यों न देती धोखा, होती तब न | आज खाने की कोई जुगाड़ न पाकर यूँही मन बहलाते खुद को नींद के आगोश में बहा ले जाने की कोशिश में था | हरिया की ज्यादा याद आने की असल वजह भी रोटी के ज्यादा पाए वे टुकड़े थे जो उसे नहीं वरन हरिया को मिले थे | अब भी बोरी में दुबका सोच रहा था "कितना बुरा आदमी था, जब सोते ही मर जाना था तो क्यों नहीं रोटी के वे सारे स्वादिष्ट टुकड़े मुझे खिला गया"| जैसे तैसे रात गुजरी और सवेरे काफी देर बाद ना के बराबर आयी धूप के सहारे चैन नसीब हुआ |<br />
<br />
<br />
<span style="font-size: large;">उस</span> दिन भी खाने की पूरी जुगाड़ नहीं जुटा पाया क्योंकि सारी दिल्ली किसी दामिनी के नाम का शोक मना रही थी और बहुत सा मार्केट बंद रहा | न किसी ने आना न किसी ने जाना फिर क्यों कोई उस फटेहाल भिखमंगे का हाल पूछता | जाने कितने लोग देख लिए उसने जो आते-जाते कुछ खाते बतियाये जा रहे थे | उन्हें देख लपलपाती जिव्हा से निकली सारी धारायें प्यास बुझा-बुझाकर ग्रीवा-ग्रसित हुई जाती थीं | बड़ी मुश्किल से शाम को जाकर एक कुत्ते से लड़-झगड़कर अपनी उदारक्षुधा शांत करी जिसके लिए कोई श्वानप्रेमी कुछ खाने को डाल गया था | अपना हक़ छिनते देख कुत्ते ने भी बाकायदा पूरी जंग लड़ी और कई पत्थर खाकर ओमी के शारीर पर एक दो जगह काटे के निशान छोड़ मुंह में जो आया उसे भर दुमदबाकर भाग गया |<br />
<br />
<br />
<span style="font-size: large;">इस</span> रात ओढने को कुछ नहीं था क्योंकि कुकड़ाती आंतों के मारे बोरी अपने खास स्थान पर छुपाना भूल गया था | खुले में पेढ़ी पर सोने की हिम्मत नहीं कर पाया और बगल वाली बिल्डिंग की आखिरी मंजिल से होकर छत पर निकल आया | वह जानता था यहाँ छत पर एक पानी की टंकी है जिसके पीछे तीन साइड की आड़ और जरा छपरा भी निकला हुआ था | शायद यहाँ सोने पर चलने वाली बर्फ सामान हवाओं से कुछ बचाव हो जाये यही सोचकर लेट गया मगर ठण्ड ने कब किसी से नाता निभाया है जो अब निभाती |<br />
<br />
<br />
<span style="font-size: large;">सीधा</span> लेटने के बाद थोड़ी देर में फैले पाँव सिकुड़ गए | कुछ और देर बाद पींठ गोल धनुषाकार हो गयी | जाने कहाँ से वही शाम वाला कुत्ता वहां आया और इसे देख गुर्राने लगा जैसे यह जगह उसकी बपौती रही हो मगर कुछ देर तक गुर्राने के बाद वह भी इसी जगह एक कोने में खुद को सेट कर गया | जाने कब सरकते हुए दोनों के शरीर एकाकार हुए पता ही न चला | अब दोनों एक दूसरे से चिपके पड़े अपनी एक और रात बिता लेने के चक्कर में थे |<br />
<br />
<br />
<span style="font-size: large;">टपरे</span> से बाहर नजर आने वाले अँधेरे भरे असमान की ओर आस भरी नजरों से टकटकी बाँध यूँ देखने लगा जैसे इस तरह ये रात सूरज के अल-गरम प्रकाश से आलोकित हो जाने वाली हो | इसी पोज़ में भोर ने चमककर अपना आगाज़ कर दिया परन्तु ओमी की खुली आँखों की टकटकी अब भी उसी दिशा में थी जडवत और रात जिस दशा में में शारीर था अब भी उसी दशा में बेहरकत पड़ा था | उधर बगल में सोये पड़े कुत्ते ने एक शानदार अंगड़ाई ली और खड़े होकर शरीर को विभिन्न दशाओं में मोड़-तोड़कर सामान्य करने लगा | कुछ सेकंड्स बाद कुत्ता अपनी नाक के अग्रभाग को हिलाता-डुलाता ओमी के अविचल पड़े बदन को सूँघने लगा फिर चल दिया सीढियों की ओर | इतने सर्द मौसम में वॉचमैन या बिल्डिंग वालों में से किसी ने ऊपर नहीं आना था | यहाँ तक कि पानी की भराई भी नीचे ग्राउंड फ्लोर पर रखी मोटर से हो जानी थी सो जल्दी किसी को पता चलने के असार भी न थे |<br />
<br />
<br />
<span style="font-size: large;">एक</span> कुत्ता ही था जो जनता था इस सब के बारे में | इस नयी शाम कुत्ते के लिए नया अनुभव था भूख मिटाने का | जितनी भी खुराक कम मिली ओमी से वसूल ली | और दो दिन बाद उसका अधखाया बदन मुंह चिढ़ा रहा था हमारे उस समाज और व्यवस्था को जिसने उस रूप में भी सिवा नाक-भों सिकोड़ने के कुछ नया न किया | बिल्डिंग वालों को इस बात से फर्क पड़ा था कि कोई उस अवस्था में मिला लेकिन किसी ने यह सोचने की जहमत न उठायी कि क्या किया जाये तो अगला कोई शरीर इस हालत में न मिले | हुआ तो बस इतना कि अब ओमी भी उठाया जा रहा था ले जाये जाने के लिए | इस सब के मध्य वह इकलौता था जिसे उसके जाने से फर्क पड़ा और जो लगातार इस सारे क्रिया-कलाप को अपनी हल्की सी गुर्राहट के साथ देखे जा रहा था | उसके लिए यह सब एक बार फिर उसके मुंह से निवाला छीने जाने जैसा था |<br />
<br />
<br />
<h3>
जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh (22-01-2013)</h3>
.</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15060979684457730427noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-3154841615978368909.post-44493401425715696712012-12-03T01:35:00.000+05:302012-12-03T10:50:21.696+05:30बैसाखी.. :| (एक निस्वार्थ प्यार)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhrTNJa5zB7RqdnTw5tDGyftVtyQCruug0_DG29uVp4ChowouBLrYt77aI8kjpI8HE4hyphenhyphen_hApEcoBn2imwIRZaKKRia2B7YGtVfY_MSUD0n1ervDsLtbMvI8dBx056VX1mdCimmAX2AVwo/s1600/2012-12-03+Baisakhi+(Ek+Niswarth+Pyar).jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhrTNJa5zB7RqdnTw5tDGyftVtyQCruug0_DG29uVp4ChowouBLrYt77aI8kjpI8HE4hyphenhyphen_hApEcoBn2imwIRZaKKRia2B7YGtVfY_MSUD0n1ervDsLtbMvI8dBx056VX1mdCimmAX2AVwo/s400/2012-12-03+Baisakhi+(Ek+Niswarth+Pyar).jpg" width="400" /></a></div>
<div>
<br /></div>
● बैसाखी.. :| (एक निस्वार्थ प्यार) ●<br />
<br />
गर है तू साथ,<br />
हर कदम बन जाऊँ तेरा,<br />
गर है तू साथ,<br />
बन जाऊँ बैसाखी तेरी,<br />
गर है तू साथ,<br />
रहती साँस साथ निभाऊँ तेरा,<br />
गर है तू साथ,<br />
हमकदम बनूँ मैं तेरा,<br />
गर है तू साथ,<br />
हमखयाल बन जियूँ संग तेरे,<br />
गर है तू साथ,<br />
बहते मोती पी जाऊँ तेरे,<br />
गर है तू साथ,<br />
वजह ख़ुशी की तेरी मैं बन जाऊँ,<br />
गर है तू साथ,<br />
दर्द तेरा महसूस मैं कर जाऊँ,<br />
गर है तू साथ,<br />
तुझसे पहले घर खुदा का खुद देख आऊँ..<br />
<div>
<br /></div>
<div>
पर साथ कौन किसी के होता है..<br />
यहाँ मुझे आना अकेले, फिर अकेले चले जाना होता है..<br />
<br />
Jogendra Singh जोगेंद्र सिंह (2012-12-03)</div>
</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15060979684457730427noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3154841615978368909.post-37996959667766302182012-11-26T02:34:00.000+05:302012-11-26T03:30:33.229+05:30चुहिया<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgxD7o9k1O_qOdFDhtUEt-Nly7eciPE6CvErhkQsYGZZnKiTrlkQ-g9H7tQ0wHiTKBS4S4G4LTr2eKU5DCmu1gfS9f4Rlpx3KswDIvr1O7I0NNzPoLRiixb3Gkieddxem7WX3kjokyJGsc/s1600/2012-11-26+Chuhiya.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgxD7o9k1O_qOdFDhtUEt-Nly7eciPE6CvErhkQsYGZZnKiTrlkQ-g9H7tQ0wHiTKBS4S4G4LTr2eKU5DCmu1gfS9f4Rlpx3KswDIvr1O7I0NNzPoLRiixb3Gkieddxem7WX3kjokyJGsc/s400/2012-11-26+Chuhiya.jpg" width="400" /></a></div>
<br />
<br />
<h2>
● चुहिया ●</h2>
<div>
<br />
<span style="font-size: large;">सामने</span> वाली दीवार की जड़ में बने छोटे उबड़-खाबड़ से गोल छेद को निहारे जाना जैसे मेरी रोज़ाना की आदत बन गयी थी | जब भी दिल उदास या खिन्न होता यहीं आ बैठता था मैं | वीरान पड़े इस छेद में अभी कुछ समय से हलचल सी नजर आने लगी थी मगर क्या है असल में यह नहीं समझ पा रहा था | एक दिन शाम के धुंधलके संग बत्तियाँ जलने से पहले उसमें से छोटी नुकीली सी कोई चीज़ बाहर को निकली नज़र आयी | कुछ ऐसी जैसे वह आगे से भोंथरी और उसके बाद लगातार मोती होती चली जा रही किसी डिज़ाइन को अभिव्यक्त कर रही हो | ठीक वैसे ही जैसे कोई 'कोन' | जाकर सबसे पहले लाईट जलाई कि जाने क्या हो? छोटी सी बच्ची है घर में आखिर ध्यान रखना भी आवश्यक हो जाता है | ज्यों ही बत्ती का झपाका हुआ वो उभरी चीज़ भी अपने उद्गम स्थल पर विलुप्त हो गयी |<br />
<br />
<span style="font-size: large;">कुछ</span> देर पश्चात् फिर वही सब लेकिन शफ्फाक चमकती रौशनी मध्य नज़र आया | इस बार आकार कुछ और ज्यादा बाहर को निकला हुआ था | देखते ही चमक उठा ओह ये तो घर में नए मेहमान की पहली दस्तक है | काले नहीं परन्तु काले सामन धूसर रंग वाली छोटी मगर साफ सुथरी एक चुहिया अपनी थूथ आगे को निकाले उसपर उगे कुछ लम्बे कड़क बालों के नीचे वाली अपनी नाक से कुछ सूंघती नज़र आ रही थी जैसे उसके नासछिद्र मेरे कमरे की सारी वस्तुस्थिति उसके सामने स्पष्ट कर देने वाले थे | मूँगदाल जितना छोटा सा नासाग्र सूंघने के साथ ही लयबद्ध अंदाज़ में ऊपर-नीचे होता बड़ा भला सा लग रहा था | शारीर पर नये-नये मुलायम से धूसर रोम ऐसे लग रहे थे कि उनपर हाथ फिराकर देखने का मन हो आया | ज्यादा बड़ी नहीं थी इसीलिए शायद साफ सुथरी नज़र आ रही थी | वर्ना चूहे इतने प्यारे कब-कब लगने लगे..!!<br />
<br />
<span style="font-size: large;">मेरी</span> निगाहें उसी पर टिकी थीं और वह घूमती ग्रीवा संग जाने क्या तलाशना चाह रही थी | देखते ही देखते सरपट उस बिल से निकलकर उस दीवान के नीचे जा घुसी जिसपर लेटा मैं उसे निहार रहा था | अगले ही पल टीवी के नीचे रखी छः फुटी आड़ी हाफ वार्डरॉब के नीचे | तुरंत ही रसोई की ओर यह जा और वह जा मुझे सोचने का मौका तक न मिला | कुछ देर की खटर-पटर के पश्चात् रोटी के उस टुकड़े संग लौटी जो स्लैब पर रह गया था | फिर सीधे अपने बिल में गायब |<br />
<br />
<span style="font-size: large;">हालाँकि</span> घर में चुहिया होने से चिंता का उद्भव होना चाहिए कि अब जाने क्या-क्या न कुतरा जाये परन्तु ऐसा ना सोचकर मन में उसके आकार-प्रकार और रूप-रंग को ले कुछ और ही विचार उत्पन्न हो चले | कम से कम जिन्हें नकारात्मक तो बिलकुल भी नहीं कहा जा सकता था | काफी देर इंतज़ार किया लेकिन फिर उस दिन दोबारा नहीं दिखाई दी |<br />
<br />
<span style="font-size: large;">अगले</span> दिन सुबह दस बजे के बाद नज़र आयी जिसका स्वागत बिल के बाहर पहले से रखा रोटी का टुकड़ा कर रहा था | हाँ, मैंने ही रखा था उसे वहाँ ताकि यहीं उसके साथ कुछ समय बिताने मिल सके | 'मानसिक अर्धांगी' से बोलचाल बंद है | वजह उसके लिए बड़ी ही होगी वरना यूँ नाते ख़तम तो नहीं किये जाते? मेरे लिए वो कारण वैसा नहीं था कि मेरी अपनी वजहें थी और जब वजहें हों तो उनके लिए भी जीवन में स्पेस होना चाहिए | आधे-पौने घंटे में बात करता हूँ कहकर दो घंटे में बात की और इन्फॉर्म नहीं किया और समय लगा तो उसने रिश्ता हमेशा के लिए ख़तम समझ लिया कि जब दिल में जगह नहीं तो साथ का क्या फायदा? लेकिन हर नहीं के पीछे छिपी वजहें होती हैं कि क्यों नहीं कह पाया लेकिन कोई समझे तब न और जो कुछ कहो तो हमारी बातें बड़ी-बड़ी | बहरहाल बात हमारी चुहिया की हो रही थी | हर रोज उसका आना-जाना लगा ही रहता | उसके आस-पास रहते मैं अपने होने का अहसास भी उसे कराता रहा | पहले दूर-दूर फिर एक दिन दीवान से उतर बिल के पास बैठ उसे रोटी खिलाई | धीरे-धीरे उसे भी मेरे होने की आदत पड़ने लगी | अब सीधे मेरे हाथ से कुतर-कुतर अपना भोजन लेने लगी थी |<br />
<br />
<span style="font-size: large;">जाने</span> कैसा अंजाना रिश्ता था जो अनचाहे ही पनपे जा रहा था | रोज शाम चुहिया का मटक-मटककर आना जैसे वॉक के लिए निकली हो और दूर से मैं उसका हमराही बना उसके साथ अपने खोये पल जीता रहा | बचपन से अब तक अपना कोई रिश्ता बचा नहीं पाया | खुद किसी से विलग नहीं हुआ पर अकेला फिर भी जीता रहा | लेकिन इस नन्हे से बेजुबान जीव का कोई मकसद नज़र नहीं आता सिवा इसके कि कुछ समय उसका मेरे और मेरा उसके साथ गुज़र जाता | मेरी आँखों से गिरती बूंदों पर उसका चेहरा हिलाते हुए एकटक मेरी ओर निहारना यूँ जैसे मेरी कोमल भावनाओं को समझकर अपने मन के हाथों सहला रही हो | और तो और जाने कैसे उस सहलाये जाने की अनुभूति मैं भी पा जाता | हर बार लगता जैसे एक अबोला संवाद था जो उसके साथ हर रोज़ हुआ करता था | जो बातें कभी किसी को न कह पाया वे सारी उस नन्हे भोले से जीव से बाँट बैठा | पहले उसके साथ से सकून पाता फिर अनचाहे ही उसके साथ वार्तालाप शुरू कर दिया | जाने समझती थी भी कि नहीं मगर मेरा संवाद दर-दिन उसके साथ हुआ करता |<br />
<br />
<span style="font-size: large;">एक</span> दिन जब आयी तो मैंने महसूस किया कि उसके पाँवों में वो पहले की सी जान नहीं है | कुछ लंगड़ायी कुछ दुखियाई सी मेरे पास आकर बैठ गयी | रोटी के टुकड़े की तरफ देखा तक नहीं | चुपचाप जमीन पर मुँह धरे अपनी नन्ही सी काली गोल आँखों से मेरे चेहरे को तकने लगी | मानो कह रही हो ''क्या तुम नहीं समझोगे अपनी चुहिया का दर्द? देखो न अब मेरा चलना भी मुश्किल होने लगा है | कैसे अपने नन्हे पाँवों पर यहाँ-वहाँ चौकड़ी भरा करुँगी?'' सच ही तो था उसके चौकड़ी भरने पर कभी मुझे रश्क हुआ करता था ''काश मैं भी इसी तरह दौड़-भाग सकता मगर थोडा भारी शरीर लेकर उतना सब कहाँ संभव हो पाता?'' साथ ही मैंने देखा उसके चेहरे की थूथ पर दाहिनी तरफ आँख से ज़रा नीचे बहुत छोटा सा घाव भी था जो बाद में दिखाई पड़ा | उस जरा से शारीर के लिए तो यह भी एक बड़ा घाव रहा होगा | हाथ में लेकर सोफरोमाईसिन लगाकर उसके पाँवों पर वॉलिनी लगा दी | बहुत देर तक दोनों गुमसुम एक दुसरे के साथ बैठे रहे फिर अचानक मेरे हाथ से उतरकर वह अपने बिल में खो गयी |<br />
<br />
<span style="font-size: large;">अगले</span> कई दिन बीत जाने पर भी जब वो नहीं आयी तो मुझे समझ नहीं आया कहाँ जाकर ढूँढूं अपने आखिरी रिश्ते को? क्या मेरा ये रिश्ता भी खो गया? आँख से एक बूँद पानी नहीं ढलका जैसे उसने कसम दे रखी हो अब कभी नहीं रोओगे तुम | मगर बेआवाज़ होता अंतर्मन का रुदन भला रोक पाया है कोई? पत्नी को समझ ही नहीं आया क्या हुआ है | ना ही उसने जानने की कोशिश की | उसे पड़ी भी कहाँ थी श्रीमानजी की मनोदशा की | हालाँकि मुझे कई बार लगा कि उसने भी महसूस कर लिया है मेरा बदला एकाकीपन परन्तु जैसा कि होता आया है तो आज ही कौनसा नया तीर मारा जाना था | छोड़ दिया अकेला मुझे मेरे ही संग |<br />
<br />
<span style="font-size: large;">जाने</span> कितने दिन अपने में भीतर सिमटे बिता दिए | अभी हाल ही दो रिश्ते खोये हैं, टूटकर बिखर सा गया हूँ | किसी से कोई बोलचाल नहीं कहीं कोई संपर्क नहीं सब रीता सब सूना | ऐसा खोखलापन पहले अनुभूत नहीं किया कभी | कहीं कुछ नहीं मस्तिष्क में एक चौंधा सा और एक अनवरत सी टींsss की आवाज ठीक वैसी ही जैसी टीवी की शुरुआत के दिनों में दूरदर्शन पर सारे प्रोग्राम्स ख़तम होने पर खड़ी धारियों वाले सतरंगी परदे के साथ सुनाई देती थी | स्पष्ट अभिप्राय था कि अब कुछ नहीं बाकी | क्यों इंतजार है तुम्हें? किसी ने वापस नहीं आना | क्या तुम अपना नसीब नहीं जानते? कब-कब तुम्हारा कोई टिकाऊ अपना हुआ? बच्चा..!! तुमको अपने मरने तक अकेले ही जीना होगा इस चौंधे और उस अनवरत दिमाग में बजने वाली टींsss की आवाज संग | और जब मर जाओगे कोई तुम्हारे लिए एक आँसू भी बहा जाये तो कहना |<br />
<br />
<span style="font-size: large;">कोई ना.....</span> इसे नियति जान सूखी आँख सूखा दिल लिए बढ़ लिया जीवनपथ पर कि सहसा लम्बे सूखे के बाद पड़ी पहली बारिश का सा आनंद देती जाने कहाँ से मेरी चुहिया आ धमकी | उसके बिल के पास ही बैठा था तभी अचानक हौले से मेरी गोद में चढ़ने का प्रयास सा करती मिली | सन्न बैठा उसे देखता रह गया और जब समझ आया तो बड़े दिनों बाद लगा मानो रात बीत जाने पर सुबह सात बजने पर दूरदर्शन पर लगा सतरंगी पर्दा हट गया और सुबह के पहले प्रोग्राम की तरह सुमधुर 'वन्दे-मातरम्' का गान शुरू होकर मन-मस्तिष्क से सारे बोझों को हटाने पर लग पड़ा हो | उधर मैं अपनी हथेली पर अपनी चुहिया को बिठाये शब्दों का साथ पकडे बिना बीते दिनों की कुछ उसकी और कुछ अपनी बातें साझा करने में व्यस्त था |<br />
<br />
<h3>
● जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh (26-11-2012)</h3>
</div>
</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15060979684457730427noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-3154841615978368909.post-30821565580508674362012-11-21T14:00:00.000+05:302012-11-21T14:00:08.887+05:30Mr & Mrs Title<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgP-Y8cWeDkx2WvKo_xtepNo0ZDSZIT-tmQq0ZquP1cXqz_1sIR0pkDqayEMvCRXwWRPe5u5lNBrx_KIuyGY7mH8hR51Ld6r9QGgDoIh25RFbfiWVuEGTLh-i8JrqqqmqjRCv5vN43uHnU/s1600/2012-11-21+Mr+&+Mrs+Title.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgP-Y8cWeDkx2WvKo_xtepNo0ZDSZIT-tmQq0ZquP1cXqz_1sIR0pkDqayEMvCRXwWRPe5u5lNBrx_KIuyGY7mH8hR51Ld6r9QGgDoIh25RFbfiWVuEGTLh-i8JrqqqmqjRCv5vN43uHnU/s400/2012-11-21+Mr+&+Mrs+Title.jpg" width="400" /></a></div>
<div style="text-align: left;">
<br /></div>
<h2 style="text-align: left;">
<span style="color: red;"><u>● Mr. & Mrs. Title. ●</u></span></h2>
<h3 style="text-align: left;">
Dear Mrs. Title,</h3>
<span style="font-size: large;">सुबह</span> ही से धड़का सा
लगा हुआ था | एक अंजाना सा डर, एक सिहरन जिसने लगातार रीढ़ में सनसनी सी
बनाये रखी थी | हर आहट पर दिल उछाले लिए बाहर आने को तत्पर | लग रहा था रहा
था जाने अब क्या हो | क्या सच ही मैंने तुम्हें खो दिया? अभी कल रात ही तो
जरा सी<span class="sewv4d1eja1vc2o"></span><span class="sewv4d1eja1vc2o"></span>
बात हुई | वो भी पूरे चार दिन के अबोले पश्चात् | कैसे न करता? तुमने कह
कैसे दिया 'देखना एक दिन तुम्हारी पहुँच से इतना दूर चली जाऊँगी कि न कभी
आवाज सुन पाओगे न अपनी सुना पाओगे |' अरे!! तुम्हारी हिम्मत कैसे हो गयी
ऐसा कहने की | :(<br /><br /><span style="font-size: large;">ठीक</span> है तुम अलग होना चाहती हो कि तुमको ऐसा लगा कि
मेरी जिंदगी में तुम्हारी कोई जगह नहीं तो क्या हुआ तुम मेरा दिल नहीं समझ
सकीं | क्या तुम जानती नहीं कि तुम्हारे बगैर अब भी मुझे केयरलैस रह जाना
अधिक पसंद है? तो बात यूँ है 'मिसेज तितले' उधर तुम तुजो (दुखी होवो) इधर
हम गलते रहें, कहते हुए कि बाकी ही क्या रह गया इस जीवन में कितना सही है?<br /><br /><span style="font-size: large;">कितना</span>
समय गुजरा दीन-दुनिया से बेखबर जीवन जीते कुछ खबर भी है तुम्हें? कल रात
तुम्हारी आवाज में लिपटा क्रंदन क्या मैंने सुना न होगा? या मेरी भीगी आवाज
से तुम्हारा अंतस पसीजा न होगा? एक दूसरे से दूर रहते ह्रदय में एक दूसरे
को बसाये कैसे रह पाएंगे हम? जो दूरी में भी साथ ही रहना है तो दूरी
किसलिए? ऐ हिप्पो आ जाओ ना वापस !!! कोई बात कोई सफाई नहीं देनी मुझे कि हर
बात अब तुम्हें जुबानी जमा खर्च लगने लगी है | तुम्ही क्यों न बता जाती
मुझे कैसे करूँ डिफ़्रेन्शिएट दिल और जुबान से निकली बातों को? बालपन से यही
जाना है जो मन में है उगल दो, सामने वाला अपना है तो हर हाल में समझेगा |
परन्तु ये टेढ़े-मेढ़े अंतर? कैसे इन्हें इससे या उससे अलग करके बताऊँ कि ये
ऐसा नहीं, ये वैसा नहीं, ये तो बस वो है जो गर तुम भीतर झाँक सको तब भी
यूँही नजर आयेगा | जाने कैसे कर पाए थे बजरंगी किसी ने कहा झट अपनी छाती
चीरकर दिखला दी कहते हुए "देखो किसी मणिमाला में नहीं मेरे प्रभु, वे तो
बसे सीधे मेरे ह्रदय कपाट मध्य" | शायद मेरे न चीर पाने से तुमको वह सब नजर
न आता हो जो है कहीं दबा-ढंका |<br /><br /><span style="font-size: large;">हःह्ह्ह...</span>आज फिर रुक गयी कलम | और
आगे लिख पाना जाने बस में ही न रहा ! शायद गरीब बच्चे के हाथों की पेन्सिल
है जिसे एक हद तक छील पाना, साँचागत कर पाना तो संभव है परन्तु उपरांत
उसके आगे लिखने के लिए पेन्सिल को भी बजरंग बली की छाती की तरह बीच से
चीरकर दो फाँक बना उसमें से निकली काली लैड को पकड़ नया लिखने लायक बनाना
पड़े | और जो यह आखिरी लैड भी चुक चुकी हो तब? मेरी तो हर नयी कलम तुम ही से
है 'Mrs.तितले', तुम्हारे जाते ही बे-कलम रह गया मैं |<br />तुम्हारा (जाने हूँ भी कि नहीं),<br /><h4 style="text-align: left;">
Mr. Title.............</h4>
<h3 style="text-align: left;">
[Written By: Jogendra Singh जोगेंद्र सिंह] (2012-11-21)</h3>
</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15060979684457730427noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3154841615978368909.post-90948966793945403642012-11-16T23:48:00.000+05:302012-11-17T00:42:47.374+05:30दरिया और बूँद<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgaiDsgORDXhIgfJpAVAGCqO8AA5FRvqDXlO4OxnE1AF9-AhFMAOBAVvlyTLwdIYzInTiCf4YgS3zsKWxBqxExxLSlHPV2eo072OrzmWnlCwfNoFm3YOFDfB4nedheBiFCGMgWDzlo5RFM/s1600/2012-11-16+Dariya+Aur+Boond.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgaiDsgORDXhIgfJpAVAGCqO8AA5FRvqDXlO4OxnE1AF9-AhFMAOBAVvlyTLwdIYzInTiCf4YgS3zsKWxBqxExxLSlHPV2eo072OrzmWnlCwfNoFm3YOFDfB4nedheBiFCGMgWDzlo5RFM/s400/2012-11-16+Dariya+Aur+Boond.jpg" width="400" /></a></div>
<br />
<br />
<h2>
<span style="color: red;">
● दरिया और बूँद ●</span></h2>
<br />
हो परेशां तुम उस तरफ,<br />
परेशां हम भी इधर कम नहीं,<br />
फरक फ़क्त इतना है,<br />
दो आंसू उधर तुम्हारे हैं,<br />
तो दरिया यहाँ भी कम नहीं...<br />
<br />
<h3>
● जोगेंद्र सिंह (Jogendra Singh) 16-11-2012</h3>
</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15060979684457730427noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3154841615978368909.post-3477846932300609222012-10-14T01:59:00.003+05:302012-10-14T01:59:46.127+05:30Khamoshi Kab Tak?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg60yTfgRHeWjpIKNtM0afOGDfVsAM_of4fcfAjENmDeHwh4pM89tCd7Me0wHT2v0zfa7bd-UgSvnIBLJ4NYcEzoJdf9JzXY16uNtkgzcJh4fFAuoylfPHxcSVPruUWTJUSS2fFSZSxoy8/s1600/2012-10-13+Khamoshi+Kab+Tak.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg60yTfgRHeWjpIKNtM0afOGDfVsAM_of4fcfAjENmDeHwh4pM89tCd7Me0wHT2v0zfa7bd-UgSvnIBLJ4NYcEzoJdf9JzXY16uNtkgzcJh4fFAuoylfPHxcSVPruUWTJUSS2fFSZSxoy8/s400/2012-10-13+Khamoshi+Kab+Tak.jpg" width="400" /></a></div>
<br />
<br />
<br />
<h2 style="text-align: left;">
<span style="color: red;">खामोश कब तक?</span></h2>
खामोश निगाहों से तकता रहूँ मैं कब तक ?<br />आकर कब वे जुबान देंगे मेरी ख़ामोशी को ?<br />साकत कब तक घूरता रहूँ उस दगरे को ?<br />जिस दगरे पर जाने के तेरे निशान बने हैं..... :-(<br /><h3 style="text-align: left;">
जोगेंद्र सिंह सिवायच Jogendra Singh...</h3>
(2012-10-13)<br /><br />
.</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15060979684457730427noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3154841615978368909.post-68017054470728257322012-09-28T03:54:00.004+05:302012-09-28T16:28:59.662+05:30रिश्ते (सवाल बहुतेरे : उतरदाता कौन?)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEibJyTuaIIklLB7hhgkcRS1jn8JWoAVCj7xCBxw209C_S72q-aYP4vjIcgu12Jzvv6IR6U7GDu8VcYhGo8-B_ucoqMkVUy6tH1j4NsWHKgP-0DgDMAE9mZo_XZs4r2UOYLi59aJQPdO0aM/s1600/2012-09-27+Rishte.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEibJyTuaIIklLB7hhgkcRS1jn8JWoAVCj7xCBxw209C_S72q-aYP4vjIcgu12Jzvv6IR6U7GDu8VcYhGo8-B_ucoqMkVUy6tH1j4NsWHKgP-0DgDMAE9mZo_XZs4r2UOYLi59aJQPdO0aM/s400/2012-09-27+Rishte.jpg" width="400" /></a></div>
<br />
<br />
<br />
<h2 style="text-align: center;">
<span style="color: red;">
रिश्ते</span> (सवाल बहुतेरे : उतरदाता कौन?)</h2>
<br />
<br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">सुबह</span> का अख़बार यूँ तो देखने की आदत मरहूम हो चुकी थी फिर भी कभी-कभार इस कार्य को भी निबटा लिया करता हूँ | पत्नी को उठना गँवारा न था सो निद्रावती बन लुढकी पड़ी थी | मेरी आँख अख़बार पर मगर जैसे हर्फ़ परवाज किये जाते हों | गड्डमड्ड आपस में उलझे शब्द-वाक्य आँखों को चकराए देते थे | होता है ऐसा भी जब नेत्र किसी एक स्थान पर एकाग्र ना होकर उनका फोकस जैसे वस्तु के पीछे किसी बिंदु पर जाकर बनता हो तो सामने मौजूद चीज कुछ धुँधला जाती है और एक ही चीज को दोनों आँखें अलग-अलग चित्रित कर एक दूसरे पर कुछ इस तरह ओवरलैप करने लग जाती हैं कि दोनों नेत्रों के रेटिना पर बना चित्र डबल सा जान पड़ता है जो यूँ प्रतीत होते हों जैसे उन्हें एक दूसरे पर ठीक से ना रखा गया हो | मेरे साथ भी यही हो रहा था |</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">ध्यान</span> लगाने की कोशिशें बहुतेरी कीं परन्तु चित्त था कि कुछ दिन पीछे को भागा जाता था | जाने व्यक्तित्व की कमी थी या लयिका की जीवन को कुछ ज्यादा ही बारीकी से छान लेने की आदत परन्तु टेलीफोनिक बात के साथ कंप्यूटर गेम खेलना मुझे भारी गुजर गया | उसे लगा संभवतः मेरी प्रायोरिटी में वह स्वयं न होकर कुछ और ही है मगर उसे कैसे समझाऊँ कि हर चीज ठीक वैसे नहीं होती जैसा हम देखते-समझते हैं | साथ जीते बहुधा ऐसा हो जाया करता है जब हम किसी अजीज से बात करते समय कुछ और भी कर जाते हैं जिससे बेशक उसे इग्नोर्ड लग जाता है जबकि उपरांत इसके भी उस इन्सान की हमारे जीवन में जगह बदली नहीं थी | हाँ इसे कमी या गलती या लापरवाही या सुरक्षा अनुभूति का अतिरेक जरुर कह सकते हैं जिसमें संभवतः उस भाव की अधिकता हो जिसमें एक इन्सान किसी के साथ इतना सुरक्षित महसूसने लग पड़ता है कि अब जो भी है वह हम है, ना कि मैं और तुम | और भूलें, कमियाँ, गलतियाँ इनमें से कोई भी ऐसी नहीं जो हमारे रिश्ते पर हावी हो सके क्योंकि हमारा नाता तो उन सबसे परे, सबसे ऊपर, सबसे बड़ा है | लेकिन भूल जाता है इन्सान कि यही रिश्ते में सुरक्षा की आतंरिक अनुभूति जब तक सामने वाले को ना हो तब तक आप खुद को सुरक्षित कैसे समझ सकते हो? अभी तो डर-डरकर जीना बाकी होता है जाने कब किस बात पर एक ब्रेक मिल जाये?</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>उसने कहा भी :::</b></div>
<div style="text-align: justify;">
कुछ ज्यादा तो न चाहा हमने...</div>
<div style="text-align: justify;">
एक लम्हा माँगा था बस अपने नाम का...</div>
<div style="text-align: justify;">
पर वो तंगहाल ...इतना भी न दे सके...</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>उसे कहा तो नहीं लेकिन मन से निकला :::</b></div>
<div style="text-align: justify;">
तंग बने क्यों एक लम्हा भर मांगते हो,</div>
<div style="text-align: justify;">
जबकि नाम तुम्हारे हर लम्हा किये बैठे हैं,</div>
<div style="text-align: justify;">
ग़र चुरा भी लिया एक लम्हा अपने नाम पर,</div>
<div style="text-align: justify;">
तो क्या इतनी जगह भी दिल से निकाल न पाओगे...?</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">बहरहाल</span> हर बार की तरह इस बार भी मानसिक अलगाव हो गया लेकिन इस बार अलगाव पूरा न होकर आंशिक था जिसका मतलब यह कि हम बात तो करेंगे लेकिन वैसे जैसे किसी जानने वाले के साथ किया करते हैं और कहा कि मुझसे खेलना बंद करो | इधर अपनी जगह सुन्न, साकत, अविचल, अपलक, अकिंचन मैं सामने की ओर बस निहारा गया | कहने को कुछ सूझा नहीं क्या कहता? इतने ब्रेकअप्स देख चुके कि अब कहना समझ ही नहीं आया | मन के भाव चुगली खा रहे थे, जार-जार चीख-चीख कह रहे थे ये नहीं होना है, नहीं होना था, क्यों हो गया? परन्तु कह नहीं पाया | जितना भी कहा उसने सब सुना | चुपचाप, विचार शून्य मस्तिष्क लिए मैं समझ नहीं पाया कैसे उस रिश्ते को पहचान के भाव से देखूँ जिसे कायनात के सबसे खुबसूरत स्थान पर रख देखा था | कह नहीं सका कितनी गहरी और कोमल अनुभूति मन में बसाये बैठा हूँ कि मुँह से निकली हर बात पर डायलॉग का तमगा चिटका दिया जा रहा था | सो कुछ न कहते हुए चुप रह जाना बेहतर समझा | वैसे भी कोई हर बात में जब वफ़ा तलाशने लगे तो कैसे मिले उसे कि हर साँस अपनी जगह है, हर घटना अपनी जगह है, हर वक्त जैसे आप जागे हुए नहीं रह सकते ठीक वैसे ही किसी एक बात को सोचते हुए यह करना चाहिए और यह नहीं, कैसे जी सकता है कोई? और जब तक निश्चिन्तता का अहसास ना हो तब तक किसी रिश्ते को शांत मन कैसे जिए कोई? हर पल मन में समाया भय कि जाने अब कौनसी बात हो जाये जिसे पिन पॉइंट कर नयी गलती या मेरी तरफ से नाता ही झूठा और क्रियेटेड बता दिया जाना है |</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">क्यों</span> कोई इस डर से मुक्त हो व्यवहृत नहीं हो सकता कि मन मिलने के बाद अब जो भी कमी-बेसी होगी वह मन के नातों के आगे नगण्य हो जाने वाली है सो चिंता न कर बालक तू जी ईमानदारी से अपनी जिंदगी, अपनी जिंदगी (लयिका) के साथ | वह समझेगी और जैसे तूने उसे उसकी हर अच्छाई-बुराई के साथ अपने साथ अंगीकार किया वह भी ऐसे ही तुझसे जुड़ेगी कि तू जैसा है ठीक है, आज पसंद है तो कल नयी सोच क्यों? इसमें यह ठीक नहीं, वह बदलना चाहिए या यह तो सिरे से ही गलत है और यह सोचकर कोई सम्बन्ध छोड़ चल दे कहते हुए कि जो था सब झूठ था, बनावटी था और यह कि जो फिलिंग है ही नहीं जो है ही नहीं उसे माना ही कैसे जाये? यह तो ठीक नहीं ना? हम कोई स्कूल एग्ज़ाम तो नहीं दे रहे जहाँ हर बात नंबरों की कसौटी पर जोखी जाये?</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">बड़ी</span> देर से कोशिश में था चीजों को समझने की समझ नहीं पाया कि क्यों आखिर इन्सान उन्मुक्त बन जी नहीं सकता? मानता हूँ जब हम जुड़ते हैं तो बहुत सी अनकही बातें, शर्तें भी जुड़ जाती हैं, कई जिम्मेदारियां, कई नये अहसास जुड़ जाते हैं | तो उसमें उथले रूप से हुई बात को देखते हुए अंतर्मन को मिथ्या समझना कहाँ तक ठीक था? सवाल यह भी गलत नहीं कि जब कुछ महसूस होता ही नहीं तो लयिका कैसे उसे माने? इसका तो एक ही जवाब है कि वह देखे टटोलकर अपने मन को और खंगाले इस बात को कि वाकई क्या वह खुद जुडी थी? या बहाव संग साथ भर हो ली थी? क्योंकि हर हाल में यह एक निर्विवाद इंसानी सत्य है, यदि हम वाकई किसी से इतना जुड़ जाएँ जैसे दो जिस्म एक जान तो इस तरह तीखी खंगालती नजर का किसी तरह कोई अस्तित्व हो ही नहीं सकता क्योंकि तीक्ष्ण नजर सिर्फ कमियाँ निकलकर परफेक्शन ढूँढने के लिए हुआ करती हैं ना कि रिश्ते बनाने / निभाने के लिए | जहाँ मन जुड़े हों वहाँ तो आँखें इस हद तक बंद हो जाने लगती हैं जिसमें असल इंसानी कमियाँ तक ओझल हो जाया करती हैं | और ऐसा ना हो तो इन्सान या तो भगवान है या कोई असम्बद्ध जो तराजू संग लिए घूमता है |</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">नमी</span> की कुछ बूँदें कब ढलक आयी पता ही न चला | इसी के साथ याद आया कुछ समय पहले बड़े भईया के साथ किसी वजह से बात का बंद होना | सोचे बैठा था कि अब कभी बात न करूँगा परन्तु तत्क्षण ही मस्तिष्क में आया जिस चीज से स्वयं तकलीफ पा रहा हूँ उसी चीज से अपने भाई को भी तो तकलीफ दे रहा हूँ | जिस बात को तीक्ष्ण नजर और तराजू के पलड़ों संग जीना कह रहा हूँ, खुद भी तो वही किये जाता हूँ अपने ही भाई के साथ | तो कैसे उम्मीद कर सकता हूँ कि जिस काम को सही नहीं समझा वही करते हुए उसके अपने लिए सही होने की उम्मीद पालूं? समझाई गयी सभी बातें याद आयीं और बिना देर किये फोन घनघना दिया | ठीक से बात तो नहीं कर पाया लेकिन बात करना मात्र ही काफी था यह जताने के लिए कि भईया मैं गलत था और यूँ नाते अलग नहीं किये जाते | बात करते भावावेग से आवाज में बदलाव आने लगा | कुछ देर और बात करता तो शायद आवाज बदल जानी थी सो तत्काल विदा ले ली | बगल में श्रीमतीजी अब भी लुढकी पड़ी थीं जिन्हें सोते में क्या जागते में भी कभी किसी अहसास से बावस्ता होना गँवारा न था | और इसीलिए एक घर में रहते भी शायद दो अजनबी आपस में हमसे अधिक भले से रह लेते |</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">हौले</span> से उठकर हॉल में लगे दीवान पर जा लेटा कि उसे भीगी पलकें दिखाने की कोई तमन्ना दिल में न थी | अख़बार संग ही चला आया था जिसे पढना गब्बर (अम्बाजी के मंदिर के पास पहाड़ पर बने देवी माँ के पदचिन्ह) की चढ़ाई महसूस हुआ | आज कई दिन हुए मनाने के अल्फाज अब भी अकाल की भेंट हो रखे हैं | इतना मनाया पहले कि अब कहने को नया कुछ बाकी ही नहीं | जो बाकी है वह एक हसरत है | काश बिन कहे वो समझ लेते कि अनकहा मनाना भी तो कोई मायने रखता होगा?</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">रोज</span> सुबह नित्यकर्मों से चर्या शुरू करते जाने कब शाम हो जाती है पता ही नहीं चलता | बहुत सा खाली समय होता है लेकिन तब दिमाग भी खालीपन से शर्त लगा रहा होता है | अजीब सा सूनापन, सब चुप, अबोली सी जिंदगी | और ना ना करते भी अब लयिका के आने से पहले की सी जिंदगी शुरू होती लग रही है | वही अतिरेक हास्य भरा जीवन जाने क्या छुपाता या हँसी के खोखलेपन में समायी अजीब सी एक ख़ामोशी | उग्र, आक्रोश से भरा स्वाभाव कि कोई कुछ बोलकर देखे ऐसा हाल उसका कि ढंग से हत्थे चढ़ा इन्सान महीनों तक किसी और से न अड़े | बे-जरुरी बकवास और भी जाने क्या क्या? कई बार तो जिसने कभी मतलब नहीं रखा वह बीवी भी पूछ गयी, क्या हुआ तुम्हें? अचानक हुआ इतना बदलाव उसे भी हजम नहीं हो पा रहा था | इसीलिए विलग में भी सवाल का लोभ नहीं छोड़ पायी | इधर मेरे मन में बसा सवाल घडी का पेंडुलम बन बारह के सुर निकाल रहा था |</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">क्या</span> इन्सान अकेला रह पाने का भ्रम पाने के बावजूद सच में अकेला रह पाने योग्य हुआ है? यदि हाँ तो ये भारी-भरकम बदलाव क्यों? क्या कभी इन्सान बिना पलड़ों और बिना सही गलत की सोच, इन सबसे ऊपर उठकर केवल निर्मल संबंधों को जी पायेगा?</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">जानता</span> हूँ कई सवाल अनुत्तरित रह जाने के लिए होते हैं लेकिन क्या इस तरह कम करते-करते किसी दिन इन्सान बिना संबंधों के जी पायेगा? क्या होगा तब जब खुद ही से कभी कोई गलती हो जाये? तब खुद को पलड़ों पे बिठा तौल पाने का साहस क्या इन्सान कर पायेगा? जो यह साहस जूता भी लिया तो क्या खुद ही से वह नाता कभी तोड़ पायेगा? सवाल बहुतेरे : उतरदाता कौन?</div>
<br />
<h3 style="text-align: left;">
जोगेंद्र सिंह सिवायच Jogendra Singh</h3>
(2012-09-27)<br />
<div>
.</div>
</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15060979684457730427noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3154841615978368909.post-11233269202551056112012-09-27T02:42:00.000+05:302012-09-27T02:59:41.034+05:30चुड़ैलन काकी (कटाक्ष)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEglorduk2a3mV6Pk-kGxlVblZ6cWiZ5TPECQJnu4QVaOKcrHuEVs09q19avp-2TLQ0C8O4LLWmc_9un4XG6A2ThfINm50Xz5rO-TJM4y-CUbToECJaeUz9Aq1SpMhNA6SHIvJLMhSk61eI/s1600/2012-09-26+Chudailan+Kaaki+(Kataksh).jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEglorduk2a3mV6Pk-kGxlVblZ6cWiZ5TPECQJnu4QVaOKcrHuEVs09q19avp-2TLQ0C8O4LLWmc_9un4XG6A2ThfINm50Xz5rO-TJM4y-CUbToECJaeUz9Aq1SpMhNA6SHIvJLMhSk61eI/s400/2012-09-26+Chudailan+Kaaki+(Kataksh).jpg" width="400" /></a></div>
<br />
<h2 style="text-align: left;">
चुड़ैलन काकी (कटाक्ष)</h2>
<br />
आज हमारी चुड़ैल गजब ढा गयी | जाने कब किस तरह एक दिन बगल वाले मैदान से सटे उससे परे वाले कब्रिस्तान से होकर गुजरी और थकन से बावस्ता हो सुस्ताने के लिए वहीँ बनी एक पुरानी कब्र को अपने पृष्ठ भाग से अलंकृत कर बैठीं | दरअसल ये उनके घर आने जाने का शॉर्टकट था वरना घूमकर जरा लम्बा रास्ता भी था जिसे इस्तेमाल किया जा सकता था | पता नहीं कब लेकिन अब कबर तो घर जैसा लगने लगा है उसे | आना जाना तो लगा ही रहता था लेकिन अजीब तो हम जैसों के लिए था कि आखिर ये कैसे ?<br />
<br />
लेकिन असल किस्सा कुछ यूँ हुआ कि आरामपरस्ती कुछ इस कदर हावी हुई कि एक दिन अचानक घर से लायी चादर का किसी खाली कबर में बिस्तर लगाकर लेट गयी और बड़ा सकून मिला | बाद में कबर के मालिक सुक्खा भूत ने बहुतेरी कोशिश कर ली लेकिन है मजाल जो मैडम ने कब्ज़ा छोड़ने के बारे में सोचा भर भी हो !! आज तक बेचारा इंसानी अदालत में इससे केस लड़े जा रहा है और आप तो जानते ही हैं हमारी हिन्दुस्तानी अदालतों को | तारीख पे तारीख बस और क्या | अब तो बेचारा सुक्खा भूत बूढ़ा होकर मरने भी वाला है | और देखना जल्दी ही इन्सान बनकर आयेगा अपने सारे बदले चुका लेने के लिए इस इंसानी चुड़ैल से |<br />
<br />
परन्तु अभी मारा नहीं था सुक्खा भूत सो भोगना अब भी बाकी था | एक दिन जा चिपटा एक नेता से कहा निज़ात दिला मुझे इस चुड़ैल से नहीं मैं तेरी ही मत फिर देने वाला हूँ | पहली बार मूर्त रूप भूत देख हुई नेता की सिट्टी-पिट्टी गुम और आनन-फानन में जाने कितने डिपार्टमेंट मय मजमा सारा जमा कब्रिस्तान में नजर आये | चुड़ैल बोली कम नहीं हमारी बिरादरी भी और सीधे अन्ना तक है पहुँच हमारी | सबकी नहीं एक की बैंड बजने लायक स्टिक तो होंगी ही बाबा अन्ना के पास | और सुना है हर दूजे दिन बाबा दाढ़ी भी संग हो सुर मिला लेता है | जाने कैसी जड़ी-बूटी है खाता कि बेसुरा भी सुर उगलने है लग जाता | कहा नेता से कि बेटा क्या समझता है तू कि ये लोग काला धन लाकर लोकपाल लायेंगे ? ना बेटा ना , आज नहीं तो कल तेरी ही लोकसभा में तेरे ही बगल में लोकपाल ही के दम पर बैठे नजर आएंगे |<br />
<br />
पापी नराधम तू चिंता ना कर तेरी "चिंता ता चिता-चिता, चिंता ता ता" तो मैं अक्षय ही से करवाने वाली हूँ | सुना है आजकल भगवान बना घूम रहा है | सुना तो ये भी है आज खुद भगवान पे केस इंसानी अदालतों में चलने लगे हैं और सम्मन जाने कैसे स्वर्गलोक तक डिलीवर किये जाते होंगे ? इतना सुनते ही सुक्खा भूत सूखते-सूखते सींक बन किसी झाड़ू का भाग बन खुद को सौभाग्यशाली समझने लगा और नेताजी ने जब नजर पिछड़ी डाली तो सिवा खुद की पिछड़ी और कुछ नजर तक न आया बेचारे को | सर पर पैर रख जो तीतर बने पूरे एक महीने किसी को दर्शन लाभ न दिए महामुनि ने |<br />
<br />
इतना देख अगल-बगल की कुछ कब्रें दहशत ही से वीरान हो गयीं कि ये लंका-मईया तो हमें भी न छोड़ेगी | होना जाना क्या था कब्रिस्तान में वन रूम खोली ने विस्तार पाया और अब फाईव बी.एच.के. के ठाठ मुहैया पूरे खानदान को कराया | <br />
<br />
उधर कबर में लटकी चुड़ैलन सोच रही थी कैसा है जमाना आया, क्या नेता क्या भूत सब को हमने है रुलाया | नाम लिया बस गंदाये सिस्टम का और दहशत से खुद पूरा सिस्टम ही झोली में सिमट आया |<br />
<br />
<h3 style="text-align: left;">
जोगेंद्र सिंह सिवायच Jogendra Singh</h3>
(26-09-2012)<br />
<br />
.</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15060979684457730427noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3154841615978368909.post-61473928663394109362012-09-16T16:57:00.000+05:302012-09-16T16:57:08.980+05:30ख्वाहिशें : (प्यारी सी जुगलबंदी)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEigq4suuOxPm9ShgJnjNvlMUtGWTZajbi6ZuKrp5weg4xvWolGKJfl7ZuAMhcOeQHM1n7blHDQ0C7vsD4Iyduqb2NgSW9QAVqDqRFyd_BX6DL7Q53qO_SU9mcZRkQBeRNEUlGItQ7cUGL8/s1600/2012-09-15+Khwahishe+(Pyari+Si+Jugalbandi).jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEigq4suuOxPm9ShgJnjNvlMUtGWTZajbi6ZuKrp5weg4xvWolGKJfl7ZuAMhcOeQHM1n7blHDQ0C7vsD4Iyduqb2NgSW9QAVqDqRFyd_BX6DL7Q53qO_SU9mcZRkQBeRNEUlGItQ7cUGL8/s400/2012-09-15+Khwahishe+(Pyari+Si+Jugalbandi).jpg" width="400" /></a></div>
<br /><h2>
ख्वाहिशें : (प्यारी सी जुगलबंदी)</h2>
<br /><b>एक SMS:</b> ख्वाबों खयालों की रातें हैं, कहनी सुननी उनसे कई बातें हैं...<div>
<br /><b>Nayika:</b> आज की मुलाकात बस इतनी...कर लेना बातें चाहे का जितनी...</div>
<div>
<br /><b>Nayika:</b> अच्छी नहीं होती है जिद इतनी...देखो हमें है तुमसे प्रीत कितनी...:)(note * dil par naa len)...:D</div>
<div>
<br /><b>Jogi:</b> जो ये नोट हटे...और बात सच्ची गर निकले दिल से...तो शायद बात तुम्हारी हम मान लें...</div>
<div>
<br /><b>Nayika:</b> बात हमारी क्यों नहीं मान लेते...और जब है इतना ही गुरुर...तो खुद ही क्यों नहीं जान लेते...?</div>
<div>
<br /><b>Jogi:</b> हैं तैयार मान जाने को बात तुम्हारी...बाकी रहा कहाँ अब गुरुर भी खुद पर...हो गयी मुद्दतें...बह गया गुरुर भी अब तुमको जानते-समझते...</div>
<div>
<br /><b>Nayika:</b> हम भी तो वो कहाँ रहे...जब से हैं तुमसे मिले...</div>
<div>
<br /><b>Jogi: </b>जाने क्या थे तुम और क्या थे हम जाने...बस दो जिस्म और दी ही अलग सी जान थे हम...गुजर गयीं मुद्दतें तब जाकर जाना...क्या होता है अहसास दो से एक हो जाने का...</div>
<div>
<br /><b>Nayika:</b> अब मौत भी आ जाए तो गम नहीं...कि किसी धडकन बन...रहना आ गया है हमें...</div>
<div>
<br /><b>Jogi:</b> वाकई होता है जुडा सा वो अहसास जिसमें जीना हमें बन धडकन किसी और की रहना होता है...हमसे ज्यादा हमारे लिए खुश कोई और ही हो रहने लगता है...</div>
<div>
<br /><b>Nayika:</b> हर साँस में वो है...हर अहसास अब उसके दम से है...उसकी उदासी सबब मेरे अश्कों का है...और हर खुशी भी है अब उसी के दम से...</div>
<div>
<br /><b>Jogi:</b> जो होने लगे तरंगित ह्रदय के तार किसी के नाम पर...होने लगी झंकृत श्वासें उसी के नाम पर...समझो हुआ हक अपने जीवन से हटकर आधा अब उसी के नाम पर...</div>
<div>
<br /><b>Nayika:</b> वही तो फकर है...मुझे अपनी चाहत पर...और मेरी बंदगी भी है...उसी के नाम पर...</div>
<div>
<br /><b>Jogi:</b> न जाना मैंने कभी हर्फ़ चाहत के...और न जाना हर्फ़ कोई बंदगी सा...जो जाना है तो बस इतना कि हर अहसास मेरा है गिरवी किसी और के नाम पर...खेल ले फिर चाहे बेक दे (बेच दे)...सारे हक अब हैं ये उसी के नाम पर...</div>
<div>
<br /><b>Nayika:</b> उसी चाहत ने...कुछ इस तरह हक अदा किया...बड़े मामूली से इंसान थे...हमें खुदा ही बना दिया...</div>
<div>
<br /><b>Jogi:</b> खुदा-खुदा करते देख न सके जाने कब जिगर के वो मालिक बन बैठे...थे पते दो अलग जगहों के...किस कदर देखो आज हम लापता बन बैठे...</div>
<div>
<br /><b>Nayika:</b> नजदीकियाँ इस कदर न बढाइये कि...हम खुद को खो दें...भुला कर अपना नाम पता...संग आप ही के हों लें...</div>
<div>
<br /><b>Jogi:</b> न देखो तुम न हम देखें...किस दिल में जाने कौन बसा किस शिद्दत से...कुछ न कहकर चलो बन जायें अजनबी एक दूजे के अरमानों से...</div>
<div>
<br /><b>Nayika:</b> ना वो देख पाएंगे...ना हम जता पाएंगे...चलो इसी बहाने...चाहत उनकी...इस जहान से छुपा ले जायेंगे...<br /><br /><h3>
<b>जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh</b></h3>
2012-09-15 (सितम्बर)</div>
<div>
.</div>
</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15060979684457730427noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3154841615978368909.post-59354158828487721762012-08-30T02:04:00.000+05:302012-08-30T02:04:29.929+05:30बड़ी हवेली<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiU6TlBdfHjgT9BFY4ag4QIufjL5gz76137oA6u86wsoFbsH9v8yucWIAic8fAlcOksArb56VwAZCoCbNG3FhupxQHXFP_QEgGt3clfohChUZMWKt7KGB0vlr0hDUUDmwS5oyOHX1VTNRk/s1600/2012-08-30+Badi+Haweli+(Kahani).jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiU6TlBdfHjgT9BFY4ag4QIufjL5gz76137oA6u86wsoFbsH9v8yucWIAic8fAlcOksArb56VwAZCoCbNG3FhupxQHXFP_QEgGt3clfohChUZMWKt7KGB0vlr0hDUUDmwS5oyOHX1VTNRk/s400/2012-08-30+Badi+Haweli+(Kahani).jpg" width="400" /></a></div>
<br />
<br />
<h2 style="text-align: center;">
● <span style="color: red; font-size: x-large;"><u>बड़ी हवेली</u></span> ●</h2>
<div style="text-align: center;">
<b>(1)</b></div>
<div style="text-align: justify;">
अपने पुराने स्टडी रूम की खिडकी तले लगी टेबल से मैंने सर उठाकर सामने वाली दीवार पर टंगी बत्तीस साल पुरानी घंटा-घडी को देखा | कुछ ग्यारह बजकर पच्चीस मिनट का समय दिखा रही थी | सैकंड का पतला कांटा नदारद था घंटे का छोटा सलामत और मिनट वाला अपनी उम्र के साथ उम्रदराज हुए बुजुर्ग की हाँईं कुछ टेढ़ा सा प्रतीत होता था | चीजें सभी थीं चाहे जीर्णावस्था में सही मगर चलकर दिखाए इन्हें जमाना हो गया था | अभी कुछ डेढ़ एक साल ही गुजर होगा जब टनटनाकर इसने अपनी आखिरी हुंकार भरी थी | बड़ा साथ दिया इसने मेरा, मुझे याद है आज से तेईस साल पहले तृप्ति के पिताजी इसे हमारी शादी की पंद्रहवीं सालगिरह पर बतौर गिफ्ट लाये थे | सहर्ष ही जिसे हम दोनों ने इस दीवार का हिस्सा बना दिया था | उस समय के हिसाब से शायद घड़ियों के नाम पर जरुर सबसे महँगा तोहफा रहा होगा | होता भी क्यों नहीं तीन गाँव के चौधरी जो थे ससुरजी | और हमारा ही रुतबा कौनसा कम था, साहेब बहादुर का ख़िताब हाँसिल था पिताजी को अंग्रेजी हुकूमत से | दिन-रात का हुक्का पानी चला करता था कभी गोरों का हमारे यहाँ | अपने इलाके के सबसे बड़े धनकुबेर थे पिताजी | आह.. कहाँ गये दिन वो सारे कि अब तक उन उमंगों भरे माहौल को जीने की हसरतें बाकी हैं |</div>
<div style="text-align: center;">
<b>(2)</b></div>
<div style="text-align: justify;">
अनायास ही सामने का द्वार खुलने से आये चौंधे ने ह्रदय को भी चौन्धियाकर जताया कि बुलावा यथार्थ का भिजवाया हुआ है | आ गये जी कल्पलोक छोड़ क्षणभंगुर हकीकी संसार में जहाँ स्वयं मैं भंगुर हो जाने की उम्र में बैठा सोच रहा था अब कौन आया मुझसे मिलने ? देखा तो क्या पाता हूँ मेरा बरसों पुराना यार खुराना जिसके साथ जाने कितने बरस स्याह-सफ़ेद करते गुजार दिए थे | दौलत बहुत देखी मगर अब वही दौलत औरों के पास जब नजर आती है तो दाँत पीसकर रह जाता हूँ कि क्यों कभी मेरे घर में बरसों पुरानी चीजों के बदलाव की उमर आयी ही नहीं | क्यों मेरी उस पुरानी इम्पाला में सिर्फ हॉर्न ही बजकर रह जाता है ? क्यों मेरे दोनों बच्चे अब मेरे नहीं वरन अपनी जोरुओं के संग रहा करते हैं ?</div>
<div style="text-align: center;">
<b>(3)</b></div>
<div style="text-align: justify;">
उठा भुनभुनाता हुआ मगर सामने ना पहुंचकर तिरछे लहराता हुआ झौंका खा गया और बायीं दीवार के सहारे रुक पाया | खुराना ने कहा भी था "आ जाऊँगा काके तू ना उठ, अब तेरे बस का नहीं ज्यादा चलना लेकिन तू सुनता ही कहाँ है?" खैर सहारा दे मुझे भी ले आया और चिल्लाकर कहने लगा "ओ, भाभी जी एक चाय कड़क वाली" | अरे काहे की चाय, कल से एक ही थैली दूध घर में आया था उसी की चाय पिए जा रहे हैं पानी मिला-मिलकर, कब समझेगा ये फोकटिया | बिजनेस में एक साथ घटा हुआ था तभी से दोनों फाकों पर जी रहे हैं | काम के नाम पर कुछ बचा नहीं, जमा पूँजी कुछ बना नहीं पाए, ऊपर से ये पनौती, बड़े बाप की बेटी "तृप्ति" | राज गये पर ठाठ न गये | बाप दारू पीते-पीते यमलोक सिधार गया और बेटों के लक्खन बाप से कुछ कम न थे हो गये धंधे लंबे | इधर महारानी की किटी पार्टीज कम न होंगी | उधार लेकर भी शौक पूरी करेंगी फिर चाहे कुछ भी गिरौ रखना पड़ जाए | नासपीटी अब जाकर समझी है जब एक थैली दूध के सहारे कई दिन गुजारने पड़ते हैं और खाने के लिए बहाने से लोगों के घर मिलने जाना पड़ने लगा है | कभी दो पैसे प्रॉपर्टी कमीशन से मिल गये तो ठीक वरना भिखारी हमसे बेहतर नजर आते हैं |</div>
<div style="text-align: center;">
<b>(4)</b></div>
<div style="text-align: justify;">
किसी को कह भी नहीं सकते किस दशा में हैं | बड़ी हवेली के मालिक जो हैं | सत्तर की उमर हो चली अब स्वास्थ्य भी कुछ साथ नहीं देता | तृप्ति भी अपने गंठिया और कमर को लेकर हाय-हाय करती नजर आती है | रोजाना किसी न किसी की ठुकुर-सुहाती (मनुहार) करके जीवन की जरूरतें पूरी कर रहे हैं | एक दिन बड़ा बेटा पुरुषोत्तम सिंह दनदनाता आया और बिरादरी में फ़ैल रही बदनामी को लेकर चार बात सुना गया | उसके चले जाने के बाद धीरे से मेरे मुँह से बोल फूटे "इतनी ही चिंता थी अपने मान की तो लोगों से भीख लेने के पहले खुद ही क्यों नहीं दे जाता?" पर सुने कौन? जाने वाला तो फुर्र |</div>
<div style="text-align: center;">
<b>(5)</b></div>
<div style="text-align: justify;">
दीमक लगी किताबों के कई चट हो चुके कई पन्नों को अज्यूम करके पढ़ना होता था फिर भी पढ़ने की आदत छोड़ नहीं पाया, वो अलग बात है कि सही अज्यूम इसलिए हो पता था कि सारे पन्ने बीते बरसों में जाने कितनी ही बार लगभग कंठस्थ हो रखे थे | बुढिया से ठीक से बन नहीं पायी | शादी के कुछ साल बाद ही से अलग रह रहे हैं जो आज तक चल रहा है | पत्नी सुख क्या होता है ये बात सिर्फ नये शादीशुदा ही बता सकते हैं, पुराना होने पर तो वे भी हसरतों भरी नजर से औरों को बस ताकते भर रह जाते हैं | ऐसा ही कुछ कहना हमारी अर्धांगिनी का भी था फिर जाने कौन सही कौन गलत | बहुधा कहा करता किसी दिन बाहर जाऊँगा तो लौटकर मुँह देखने भी नहीं मिलेगा क्यों करती है इतनी हत्या? हर बार कहती बुढऊ तुम एक बार शहीद होकर तो दिखाओ, एक कतरा भी बहा दिया ना तो मेरा नाम नहीं |</div>
<div style="text-align: center;">
<b>(6)</b></div>
<div style="text-align: justify;">
आज सुबह से ही मन कुछ विचलित सा हो रहा था | खुराना चला गया लेकिन अपने पीछे कई सारे अबूझ सवाल छोड़ गया | बोला कौन है जो तेरे साथ रहेगा? मान ले भगवान न करे तू अकेला रह गया या तृप्ति भाभी ही अकेली रह गयीं तो कौन होगा जो साथ होगा या काम आयेगा? और जिन्दा रहे तब भी कब तक दूसरों के यहाँ बहाने से पाए चाय-नाश्ते के सहारे पलते रहेंगे? कभी तो लोग दुत्कारेंगे या खुद हम ही नहीं जा पाएंगे कहीं | अशक्त हो जाने के बाद भी कभी माँ-पिताजी की परवाह नहीं की और अब जब अपना समय आया तो वे सारे दिन चलचित्र बन सामने गर्दिश कर गये | बेशक ज्यादा ध्यान नहीं दिया लेकिन घर के कोने में जरुर रखा था लेकिन ये पुरु और रिपु ने तो खाने तक की सुध नहीं ली | इज्जत के नाम सैंकडों दुहाई दे जाते हैं लेकिन कभी ये न सोचा कैसे पलेंगे दो अशक्त प्राणी |</div>
<div style="text-align: center;">
<b>(7)</b></div>
<div style="text-align: justify;">
बड़ी देर से पेट में कुलबुल सी हो रही थी | उधर तृप्ति भी इसी अवस्था में अपने कमरे में करवटें बदल रही थी जो उसके चरमराते पुराने पलंग की आ रही आवाजों से समझ आ रहा था | जाने कितने अरसे बाद फिर से प्रेम और दयाभाव का प्रादुर्भाव हुआ अपनी अर्धांगिनी के लिए | बड़ा तरस आया बेचारी पर और पहली बार सीधे असल वजह बता किसी से माँगकर भरपेट भोजन की व्यवस्था करने हिलते शरीर के साथ बाहर को चल दिया | हवेली से निकलते ही किसी उद्दंड बालक की साईकिल से टकराते-टकराते बचा | मुझे लगा ही था कि अभी दर अधिक बुरी नहीं हुई है लेकिन जब कई दरों से बैरंग लौटना पड़ा तब जाकर समझ आया कि क्यों आये दिन बेटे अपनी इज्जत का हवाला लेकर दो बात सुना जाते थे |</div>
<div style="text-align: center;">
<b>(8)</b></div>
<div style="text-align: justify;">
यूँ ही भटकते बड़े चौक तक जा निकला जहाँ सबसे ज्यादा ट्रैफ़िक और चहल-पहल रहा करती है | किनारे से चल ही रहा था कि किसी जल्दबाज के टकरा जाने से मिले धक्के ने पीछे से आ रही किसी गाड़ी से टक्कर का आयोजन करवा दिया | धडाक की आवाज ब्रेक्स की चरमराहट अचानक उठाई चीखें दर्द की गहरी लकीर दिमाग से कमर तक और एकदम से सब घुप्प | निहायत ही बुरी किस्म का सन्नाटा | अपनी जगह खड़े होकर देखता क्या हूँ कि हर कोई मुझसे कुछ दूर देखे जा रहा है और किसी को मेरी पड़ी नहीं जबकि अभी हाल ही ठुका था | फिर जैसे ही उस ओर देखा जहाँ लोग आकर्षित थे एकदम से साकत अपनी जगह सुन्न खड़ा रह गया | नीचे फैलते लहू के छोटे तालाब के ऊपर कोई और नहीं मैं ही पड़ा था निश्छल, साकत, पूरी तरह शांत | चेहरा सड़क से खाक चाटता नजर आ रहा था और अजीब तरीके से ऐंठा शरीर सामने ही तो पड़ा था | बमुश्किल यकीन आया कि वो अब मैं नहीं रहा और ये मैं जाने क्या बन गया हूँ | लोगों से बात करने की कोशिश की परन्तु जैसे किसी ने न देखा न सुना | बाद का घटनाक्रम शांत होकर अपनी आँखों से देखा |</div>
<div style="text-align: center;">
<b>(9)</b></div>
<div style="text-align: justify;">
गाड़ी बुलाई गयी, छोटा शहर होने से लोगों को पता था सो शहादत गुमनाम नहीं रही और पार्थिव सीधे हवेली पहुँचा दिया गया | बुढिया जो अपने कमरे से कम ही निकलती थी लोगों का सहारा लिए चुपचाप बाहर आयी और एकटक नीचे पड़े मुझपर नजरें टिकाकर वहीं पास बैठ गयी | सीधा करके मुझे चित्त लिटाया गया था और आने वालों की संख्या बढती जा रही थी | पास की दीवार की टेक लगाये एकटक देखती तृप्ति से किसी ने कुछ कहा और प्रतिसाद न पाकर हिलाया तो लद्द से बेजान अपनी जगह पर लुढक गयी | सैंतालीस साला वैवाहिक जीवन खत्म हो जाने के बाद पता चला कि मेरे जाने का गम उसे इतना विकट होगा कि देखते ही देखते परिंदा बाद वह भी मुक्त हो लेगी | वहीं दूसरी तरफ धीमी आवाज में पुरुषोत्तम और रिपुदमन में सह-पत्नी हवेली के बंटवारे को लेकर बहस हो रही थी कि किस तरह बहन को हिस्सा ना देना पड़े और खुद भी आधे से अधिक कैसे पा जायें | सामने ही खुराना खड़ा था मेरा यार | एक उसी के ओठों पर मंद-मृदुल सी मुस्कराहट थी जैसे कह रहा हो "जाओ दोस्त तुमने मेरी बात को सुनकर ऐसा हल निकाल लिया जिसके बाद आने वाली कोई परेशानी तुम दोनों को छू भी न पायेगी"| फिर चुपचाप से आँखों के कोरों पर आयी दो बूंदों को रुमाल में समेटते वहाँ से निकल लिया |</div>
<br />
● <b>जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh</b> (30-08-2012)<br />
● Instant: +91-787-819-3320<br />
.<br />
</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15060979684457730427noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3154841615978368909.post-29481920892700679652012-08-29T13:25:00.001+05:302012-08-29T13:25:49.102+05:30ढेर हूँ मैं मिटटी से बना<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiPdUjd5xtyla7WvrCHbdrGcT_XhVTczhjwsE59S3mduwVE3IG3YSyVBruU9Pzdjxhj7zMphZIGedZ-U96o11zRxbFmSlJsljHCItOZJSfwZ4TVRhG1M8Q4gFmIzS-I9VyE3b8-bgw22KA/s1600/2012-08-29+Dher+Hoon+Main+Mitti+Se+Bana.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiPdUjd5xtyla7WvrCHbdrGcT_XhVTczhjwsE59S3mduwVE3IG3YSyVBruU9Pzdjxhj7zMphZIGedZ-U96o11zRxbFmSlJsljHCItOZJSfwZ4TVRhG1M8Q4gFmIzS-I9VyE3b8-bgw22KA/s400/2012-08-29+Dher+Hoon+Main+Mitti+Se+Bana.jpg" width="400" /></a></div>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">● <span style="color: red;"><u>ढेर हूँ मैं मिटटी से बना</u></span> ●</span><br />
<b>(1)</b><br />
ढेर हूँ मैं मिटटी से बना,<br />
भूल मुझे, मेरी भूल को वजह बना,<br />
छोड़ बिखरता, परवाज यहाँ-वहाँ,<br />
चल दिए उठकर तुम जाने किस राह?<br />
<b>(2)</b><br />
है मोह तुम्हें अब भी इसे जानता हूँ,<br />
खयाल अपना रखने को कहकर,<br />
चल देने का खयाल क्यों निकाल न पाते हो,<br />
ऐ हमसफ़र मेरे, चल देने का खयाल ही फिर,<br />
क्यों मन में तुम ले आते हो ?<br />
<b>(3)</b><br />
अपना न समझ पाए जिन्हें,<br />
मरा उन्हें क्यों न जान पाए,<br />
भूल जाना था मरने वालों को,<br />
खास उन्हें जिन्हें अपना ही न समझ पाये,<br />
<b>(4)</b><br />
समझो उसे कि ढेर था रेत का एक,<br />
जिस पर कि फूँक तुमने थी दे मारी,<br />
गया कहाँ उड़कर क्यों करते हो परवाह,<br />
ढेर साथ है पूरा, या कि बिखर गया तुम्हें क्या,<br />
<b>(5)</b><br />
छोड़ दीना जब टीला मिटटी का,<br />
बिन बैठे भी उसके अंजाम का अब मोह कैसा?<br />
क्यों कहते हो मिटटी से कि अपना ध्यान रखना?<br />
मुर्दों संग जिया नहीं करते, जानते हो ना?<br />
<b>(6)</b><br />
समझ लिया कम जिसे जीवन से,<br />
मरे-जीये चाहे उसकी चिंता क्यों,<br />
और तुम देखोगे, हर बार उड़कर,<br />
हवा के झोंकों संग मैं ढेर बना,<br />
जा जमने लगूंगा फिर तुम्हारे ही नीचे,<br />
बैठ जाना उठकर फिर चाहे किसी और जगह...<br />
<br />
● <b>जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh</b> (29-08-2012)<br />
● Instant: +91-787-819-3320<br />
.<br />
</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15060979684457730427noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-3154841615978368909.post-86878911455517854782012-08-26T00:33:00.004+05:302012-08-26T00:33:39.843+05:30दोष किसे दें?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="color: red; font-size: large;"><b>दोष किसे दें?</b></span><br /><br />दोष किसे दें ऐ मेरे हमसफ़र,<br />जब साया ही साथ छोड़ने लगे,<br />तो अंधेरों को दोष कोई कैसे दे.....? :'(<br /><br />● <b>जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh</b><br />.<br /></div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15060979684457730427noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3154841615978368909.post-53162548612631274232012-08-26T00:32:00.004+05:302012-08-26T00:32:50.129+05:30बहरे लोग<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="color: red; font-size: large;"><b>बहरे लोग</b></span><br /><br />कहते तो सब बातें हैं ये अश्क,<br />मगर सुना है आज,<br />बहरे कुछ ज्यादा ही होने लगे हैं संसार में........ :'(<br /><br />● <b>जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh</b><br />.<br /></div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15060979684457730427noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3154841615978368909.post-49579808397846621142012-08-26T00:31:00.001+05:302012-08-26T00:31:34.233+05:30अश्कों की जुबान<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="background-color: white; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; line-height: 18px;"><span style="color: red; font-size: large;"><b>अश्कों की जुबान</b></span></span>
<br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;"><br /></span>
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">अश्कों की जुबान कहाँ होती है दोस्त,</span><br style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;" /><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">ख्वाब टूटें तो टूटें चाहे,</span><br style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;" /><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">बेजुबान उन्हें बह जाना होता है.........</span><br />
<br />● <b>जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh</b><br />
<div>
.</div>
</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15060979684457730427noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3154841615978368909.post-66400800061446233442012-08-26T00:30:00.000+05:302012-08-26T00:30:11.359+05:30जिंदगी और बता, तेरा इरादा क्या है?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="color: red; font-size: large;"><b>जिंदगी और बता, तेरा इरादा क्या है?</b></span><br /><br />जिंदगी और बता, तेरा इरादा क्या है...? ...(A songs line)<br />कुछ नहीं बस क़त्ल इरादों का किये जाना है... (Jogi)<br />Kiske iradon ka katal karna hai janab...? (एक दोस्त)<br />अपने ही इरादों का होगा और किसी का क्या करना है जी... (Jogi)<br />Koi khanjar wanjar hai ya...? (एक दोस्त)<br />क्या जरुरत...? सपने हमेशा बिना खंजर ही क़त्ल किये जाते हैं... :'( Jogi <br /><br />● <b>जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh</b><br />.<br /></div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15060979684457730427noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3154841615978368909.post-81561609245955447402012-08-26T00:28:00.000+05:302012-08-26T00:28:38.030+05:30विध्वंस<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="color: red; font-size: large;"><b><u>विध्वंस</u></b></span><br /><br /><div style="text-align: justify;">
● विध्वंस दूर से हमेशा खूबसूरत ही दिखाई देता है...... फिर चाहे वह परमाणु विस्फोट हो या कोई ज्यलामुखी या फिर और किसी तरह का......... वो जीवन में रिश्तों के नाश-रूप में भी नजर आ सकता है...... जबकि लोग समझते हैं कि जो हमने किया अच्छा ही किया....... शायद देखना भूल जाते हैं कि वे पास नहीं दूर खड़े हैं...........</div>
<br />● <b>जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh</b><div>
<br /></div>
<div>
.</div>
</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15060979684457730427noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3154841615978368909.post-88723846833419905222012-08-24T00:39:00.002+05:302012-08-26T00:34:33.346+05:30तटस्थ आँखें<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="color: red; font-size: large;"><b>तटस्थ आँखें</b></span><br />
<br />
तटस्थ,<br />
कोने में,<br />
विलग दुनिया से,<br />
खड़ी अकेली,<br />
दुनिया को निहारती आँखें.....<br />
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><b><br /></b></span>
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><b>जोगी...</b></span><br />
<div>
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">.</span></div>
</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15060979684457730427noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3154841615978368909.post-36309519303119419322012-08-19T18:10:00.001+05:302012-08-26T00:35:11.675+05:30जज़्बा-ऐ-दिल<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div>
<span style="color: red; font-size: large;"><b>जज़्बा-ऐ-दिल</b></span><br />
<br />
जज़्बा-ऐ-दिल की कुछ ना कहो ऐ दोस्त......<br />
मेरे दिल के जखम हैं कुछ इस कदर कि.......<br />
न सहते होता है और न भरते होता है........ <br />
<br />
............<b>(जोगी)</b><br />
.</div>
</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15060979684457730427noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3154841615978368909.post-24183364870542546302012-07-19T01:10:00.000+05:302012-07-19T02:24:21.113+05:30अपनापन (लघुकथा)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjoMwEEGmo306UcHO2HtldP1-4k6fVeaYxKx1a71fGkI088cV9s9_S1dYvO8KvLKI1uSQMaruSroJkX4_bv1CqNdmhHyn-MX3AU6ub1oaqVNN6dZwJDSSUUZAmtbusC1TmGTHpXaOqvVSY/s1600/2012-07-19+Apnapan+(Laghukatha).jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjoMwEEGmo306UcHO2HtldP1-4k6fVeaYxKx1a71fGkI088cV9s9_S1dYvO8KvLKI1uSQMaruSroJkX4_bv1CqNdmhHyn-MX3AU6ub1oaqVNN6dZwJDSSUUZAmtbusC1TmGTHpXaOqvVSY/s400/2012-07-19+Apnapan+(Laghukatha).jpg" width="400" /></a></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<br /></div>
<h2 style="text-align: center;">
● <span style="color: red;">अपनापन </span>(लघुकथा) ●</h2>
<h4 style="text-align: center;">
[1]</h4>
<div style="text-align: justify;">
● आज शाम यूँही उदास मन मूक बना स्तंभित अपने नये किराये के मकान की बालकॉनी से अस्पष्ट सी दिशा की ओर एकटक निहारे जा रहा था कि कहीं से भागता छोटा सा एक बालक वातावरण की निस्तब्धता को भंग कर गया | अचकचाकर सम्हलकर चारों तरफ घुमा <span style="background-color: white;">नज़रें</span><span style="background-color: white;"> </span><span style="background-color: white;">एक बार फिर उसी दिशा में टिका दीं परन्तु इस बार बनने वाले दृश्य रेटिना पर भी सुस्पष्ट थे | सामने दिखाई देने वाली मारुतीधाम सोसाइटी के बीच से निकली गली के आखिरी सिरे पर दीवालीपुरा गार्डन की दीवार पार से झूलते बच्चे साफ नजर आ रहे थे | नीचे हरियाली से आच्छादित सड़क से गुजरती किसी अम्माजी की बगल में कमर पर लटका बिलखता दूधमुँहा साफ दृष्टिगोचर हो रहा था | लेकिन मेरे ह्रदयपटल पर किसी बात का कोई प्रभाव पड़ता प्रतीत नहीं होता था | होता भी कैसे ? हाल ही तो अपने सोचने के तरीके पर अनकहा आक्षेप पाकर आ रहा था | वह भी उसके हाथों जिसके होने न होने से जीवन में गंभीर बदलाव आ जाया करते थे | कितना समझाया मगर जैसे कोई समझने को तैयार ही नहीं | सभी के सोचने का अपना एक तरीका हुआ करता है तो उसका भी अपना था कुछ मैं किसी को अपने अनुसार सोचने पर बाध्य तो नहीं कर सकता ना | परन्तु जब कोई मन को समझाने के स्थान पर तर्कों से बातों को परखना चाहे तो क्योंकर समझ दिशा बदलेगी ?</span></div>
<h4 style="text-align: center;">
[2]</h4>
<div style="text-align: justify;">
● यही सब सोचते साँझ हो चली कि सामने क्या देखता हूँ दो स्वान आपस में भावों का आदान-प्रदान करते नजर आये, जैसे मूक अंदाज में एक दूसरे को अपने मन की कही-अनकही समझाने में लगे हों | जाने क्यों मुझे ऐसा लगा जैसे उनमें भी किसी तरह का मतभेद चल रहा हो | नर स्वान <span style="background-color: white;">बार-2</span><span style="background-color: white;"> </span><span style="background-color: white;">अपनी मादा के पास आने का यत्न करता और कुछ ही क्षणों में मादा द्वारा खदेड़ दिया जाता, कभी भौंके जाने द्वारा तो कभी सीधे आक्रामक मुद्रा अख्तियार करने की वजह से | हर बार स्वान पास आकर धीरे से निकटता पाने की कोशिश करता | हौले से बैठकर उसकी ओर मासूम निगाहों से बेबसी के साथ कुछ यूँ ताकता जैसे कह रहा हो 'तुम्हें समझ लेना चाहिए, कि अभी मुझे तुम्हारे साथ की जरुरत ताउम्र लगने वाली है, या शायद तुम भी साथ की जरुरत महसूस करती हो' | मगर उसने तो जैसे सुनना ही न था | हर बार, बार-बार धकियाया हुआ बेचारा कुक्कुर वहीं आस-पास मंडराता रहा, शायद कोई आस रही होगी कि तब न सही अब नाराजगी कुछ कम हो चुकी हो |</span></div>
<h4 style="text-align: center;">
[3]</h4>
<div style="text-align: justify;">
● उनकी इस बातचीत को अपनी कल्पना के माध्यम से बुनते हुए खुद को उन्हीं में से एक परिकल्पित करने लगा था और उस अबोली भाषा को तर्कसंगत बनाते तकते नयन मुझे अपने ही लगने लगे जैसे मैं स्वयं अगले दो पंजों के बल खुद को ऊपर की ओर उठा थूथनी सामने किये नये सिरे से मेल की उम्मीद में टकटकी लगाये बैठ हूँ | कुछ अपनी कुछ उनकी अनुभूति के बीच नुक्कड़ वाले उस खम्भे के पास से जिसके निकट यह सारी कवायद हो रही थी के पास से जाने कितने दुपहिये-चौपहिये निकल गये और जाने कितने पैदल असंबद्ध से निकल गये |</div>
<h4 style="text-align: center;">
<span style="background-color: white;">[4]</span></h4>
<div style="text-align: justify;">
● सारी कवायद में खोया स्वप्निल दुनिया से तब निकला जब उस मादा ने एक और बार गुर्राकर नर को सामने की ओर खदेड़ दिया | उचटकर भागते कुक्कुर ने सीधी उछल ली और सड़क के बीच से होता किनारे की ओर भागा, लेकिन अभागा उस एक्टिवा स्कूटर से नहीं बच पाया जो उसे बचने की कोशिश में खुद एक किनारे से जा भिड़ा था | जाने किस तरह की कैसी भिडंत थी कि कुछ पल पहले तक जो कुक्कुर अपने चार पाँवों पर दौड़ता भागा फिर रहा था वही अब अपनी तीन टांगों के सहारे उठने की कोशिश में था | चौथी टांग एकदम सीधी हुई पड़ी थी जैसे उसे मोड पाना या उसके बल अपना शरीर उठा पाना उसके बस की बात ही ना रही हो | सीधी भी कहाँ बल्कि आखिरी टांग अपने असली आकार से कुछ पीछे को ऐंठी हुई सी लग रही थी जैसे किसी ने मूल आकार में आमूलचूल परिवर्तन कर दिए हों और उसका प्रयोग असफल हो गया हो |</div>
<h4 style="text-align: center;">
<span style="background-color: white;">[5]</span></h4>
<div style="text-align: justify;">
● पीड़ा से कराहता कुत्ता बेरहम टायर जिसने उसे कुचला था से परे जाने की कोशिश में वहीं अपनी जगह घिसटकर रह गया | उधर स्कूटर सवार एक कम उम्र लड़की थी, रही होगी कुछ बीस के आस-पास | उक्त घटनाक्रम से उसकी बोलती भी बंद और वहाँ से गुजरते किसी राहगीर ने सांत्वना देते हुए <span style="background-color: white;">उसे</span><span style="background-color: white;"> </span><span style="background-color: white;">वहाँ से निकल जाने के लिए कहा और अगले ही पल लड़की यह जा और वह जा | सब इतने कम समय में हुआ कि इससे उबरने में मुझे कुछ पल लग गये | फुर्ती से सीढियाँ उतरकर सीधा कुक्कुर के पास पहुँचा | सबसे पहले उसे सड़क से हटा दीवार के सहारे किया और जस्ट-डायल से नंबर लेकर म्युन्सिपैलिटी में फोन किया | पानी पिलाकर कुछ बिस्किट्स रखे और देखा मादा अपनी जगह अब भी विराजमान है | अंतर सिर्फ इतना था कि अब उसकी आँखों में कुछ नमी सी नजर आ रही थी | जाने कैसा जज़्बा था कि सारी कवायद करके भी जिस अपनेपन को न पा सका वह अपनापन एक पाँव गंवाते ही पके फल समान झोली में आ गिरा | </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="background-color: white;">और अपनी जगह खड़ा मैं सोच रहा था 'क्या मुझे भी अब अपना एक पाँव गंवाना होगा' ?</span></div>
<br />
<h4 style="text-align: left;">
● जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (19-07-2012)</h4>
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● <a href="http://acu5.weebly.com/">http://acu5.weebly.com/</a>
<br />
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