● Relations ● (Adjustment Or Changing Yourself?)

जायज एडजस्टमेंट रिश्तों को मजबूत बनाता है,
खुद को बदलना रिश्तों को कब्र तक ले जाता है...

एडजस्टमेंट का मतलब हमारी सोच समझ आदतें सब वही हैं, बस हमने अपनी नापसंद वाली चीजें भी सामने वाले के लिए मैनेज कर ली हैं... जबकि खुद को बदलने का मतलब अब वो चीजें हमें नापसंद नहीं रहीं... इस तरह के बदलाव कभी स्थायी नहीं होते क्योंकि एक समय आता है जब लोग बदलावों से छटपटाकर बाहर निकल आना चाहते हैं... और एक झटके में सब बूम...!!

एडजस्ट अधिकतर एक ज्यादा करता है और दूसरा कम... जितना ज्यादा ये गैप होता है उतना ही रिश्तों में दुःख होता है... दोनों के बराबर मात्रा में किये एडजस्टमेंट तकलीफ नहीं देते क्योंकि हम जानते हैं कि अगर हमने कुछ चला लिया है तो सामने वाला भी उसी कंडीशन में है...

एडजस्टमेंट सबसे ज्यादा खून के रिश्तों में दिखाई देते हैं... जैसे कि माँ-बाप को पता होता है बेटे/बेटी में ये या वो कमी है लेकिन वो उन कमियों के साथ भी बच्चे के लिए उतनी ही ममता रखते हैं... काफी बड़े होने तक भाई-बहनों में भी सेम फीलिंग्स बनी रहती है... और तो और अच्छे दोस्त भी एक दूसरे को उनकी कमियों के साथ ही एक्सेप्ट करते हैं...

इसीलिए शायद प्रेम संबंध और शादी सम्बन्ध सबसे ज्यादा ब्रेकेबल नज़र आते हैं क्योंकि सामने वाले को बदलने की सबसे ज्यादा कोशिशें भी इसी रिश्ते में की जाती हैं... जो लोग बदलता नहीं चाहते , ओवर एक्सपेक्टेशंस के चलते उनके रिश्ते जल्दी ही ख़त्म हो लेते हैं... और जो लोग बदल कर दिखा देते हैं वे असल में बदले नहीं होते, बल्कि बदलने की कोशिश में आर्टिफिशियल नेचर ओढ़ लेते हैं... यूँ जब तक चल सकता है चलाया जाता है और बाद के सालों में अचानक होने वाले विस्फोटों में नकली लबादों संग रिश्ते भी ब्लास्ट हो जाते हैं....

पीछे रह जाते हैं टीस देते, मवाद बहते, सड़ते हुए रिश्ते...!!

जोगेंद्र सिंह (jogi ~ jc) ● (11/01/2017)
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दो बूँद का सागर

दो बूँद का सागर ● (01-01-2015)

बेबसी अब हद से गुजरने लगी है
शब्द अब तुम तक पहुँच न पाते हैं,

आँखें बेशक काबिल हैं समझाने में,
उफ़ पर्दा आँखों पर चढ़ाये बैठी हो,

दो बूँद लिखते में अच्छी लगती है,
क्या करूँ मोटू मगर.
अब आँखों में दरिया उमड़ आता है... jogi (jc)

Jogendra Singh - जोगेन्द्र सिंह

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टूटा नान (कटाक्ष कहानी)

टूटा नान (कटाक्ष कहानी) ●

काफी देर से टकटकी बाँधे काँच की उस दीवार के पार भीतर शोकेस में रखी छोटी-2 प्लेट्स को वह घूरे जा रहा था... बीच-2 में साँप सा लहराता और भीतर को चला जाता... बदले में पीछे होठों पर छोड़ जाता कुछ सघन तो कुछ छितरे लार-रस के अवशेष... जाने कितनी देर से वो उस शोकेस में रखी प्लेट्स में रखे सैंपल्स और उसके पीछे शानदार इन्टीरियर से सजे हॉल की टेबल्स के पीछे जमे उच्च कुलीन लोगों को अपनी भूख मिटाते देख खुद अपनी बढ़ती भूख को दबाने की कोशिश में उसे और शिद्दत से पनपाये जा रहा था... कल्पनाओं में जाने कितने ही भोग चख चुका जब रुक ना सका तो लगभग चिपक सा गया उस शीशे की दीवार पर... दांये बायें फैले हाथों के ऊपर को मुड़े दोनों पंजे और बीच में काँच पर दबे चिपके होंठ जो दूसरी तरफ भीतर से देखे जाने पर अजीब सा वहशी नज़ारा क्रिएट कर रहे थे...

समझ नहीं पाया क्यों अचानक उसके सामने वाली दो टेबल्स वाले अपना खाना छोड़ उसकी तरफ इशारा करते उग्र मुद्रा में होटल स्टाफ से जाने क्या कहने में लगे थे... ज्यादा ध्यान न देकर उसने अपनी कल्पना की उड़ान और नजरों की दिशा को बरक़रार रखा.... आखिर क्या कसूर था उसका...?? यही ना कि हर बार की तरह बापू आज भी कम पैसे लाया था... उनसे जो बना उसके हिस्से सबमें बाँटने पर उसके हिस्से पौनी रोटी ही आ सकी जबकि चार रोटी से कम पर उसका काम नहीं चलता था... पेट में गुड़गुड़ संग उठ रही मरोड़ जब काबू से बाहर हो गयी तो वहाँ से हटकर जरा साइड में रखे कचरे के बड़े डब्बे की ओर बढ़ चला क्योंकि बहुत बार वहाँ होटल स्टाफ को बाबू लोग द्वारा शान में छोड़ा गया एक्स्ट्रा खाना फेंकते देखा था...

कई दिनों की अधूरी खुराक और बर्दाश्त की इन्तेहाँ ने मान सम्मान जैसी अवधारणाओं से परे धकेल दिया उस तेरह साला बालक को... हौले-2 हौले चलता मैली घिसी शर्ट और एक फाटे पायंचे वाली ऊँची पैन्ट पहने करीब साढ़े चार फुटा ये बालक अपनी क्षुधा शांति की कोशिशों में जुट गया...

ज्यों ही बच्चे ने किनारे पर सब्जी का रंग सा लगे एक नान के बड़े से टुकड़े को पाया खिल उठा... तत्क्षण ही सहम सा गया यह सोचकर कि गरीब हूँ लेकिन भिखारी नहीं... साथ ही साफ सुथरा रहने की आदत ने कचरे से पाये टुकड़े की असलियत भी याद करा दी... लेकिन आवश्यकता जब मज़बूरी बन जाये तो हमारे सही-गलत को धराशायी करते देर नहीं लगाती...

जैसे तैसे हिम्मत जुटा आखिर उस नान के अगले भाग को दाँतों से काट ही लिया... चबाना शुरू किया ही था कि जैसे कोई पहाड़ टूट पड़ा हो सर पर... रात के सारे सितारे चिड़िया सी बन चारों ओर ढंग से चकरा लिए... दर्द की एक तीखी सी लहर भीतर तक कचोटती चली गयी... भूल गया था उस नज़ारे को जो काँच की दीवार के पीछे बैठे भद्रजनों को नज़र कर आया था... फलस्वरूप भद्दी गालियों संग वर्दीधारी वेटर ने अपने हाथ में पकडे डंडे से उसके लिए सारी आकाशगंगा के सितारे धरती पर ला दिए थे...

लात-घूँसे-डण्डे जाने क्या क्या न प्रयोग कर लिये गये... पास ही जमीन पर चबा-अनचबा नान पड़ा था जिसे अपनी आत्मा को मारकर उसने हाँसिल किया था... हर तरह सेवा के बाद घसीटकर गली किनारे पटक दिया गया, इस ताकीद के संग कि फिर कभी दिखाई दिया तो इससे भी बुरी दर बना दी जायेगी...

कराहते हुए लगभग अधलेटी हालात में समझने की कोशिश कर रहा था क्यों आखिर उसे काँच के पीछे से देखने को मजबूर होना पड़ा और क्यों वो अंदर वाले उसे देख इतने उत्तेजित हो लिए...?? क्यों उसकी तड़प गुणात्मक रूप से बढ़ा दी गयी...?? दर्द पहले पेट के भीतर था... अब तन के ऊपर एक परत और मन के भीतर सवालों के दंश की दूसरी परत चढ़ी थी... लेकिन भद्रजन अब खुश थे...!!

जोगेन्द्र सिंह (जोगी) (29-12-2014)
jogendrasingh.blogspot.in
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चुड़ैल और शादी

चुड़ैल और शादी ● (गंभीर हास्य)

क्या आप जानते हैं कि हमारे हिंदुस्तान में चुडैलों की एक खास किस्म होती है जिसे किसी मनुष्य के सर पर स्थिर और स्थायी रूप से सवार करवाने के लिए बाकायदा मंत्रोच्चारणों के साथ पवित्र अग्नि को साक्षी रख लगभग हर धार्मिक रीति को उत्सव के माहौल में प्रयोग किया जाता है...?

यदि नहीं तो जानना किंचित भी रहस्यमयी नहीं लगेगा कि उस किस्म की एक चुड़ैल अमूमन हर घर में एक या एक से ज्यादा इंसानों पर सवार पायी जाती है और उसके इस रूप के बारे में मुँह से निकला मात्र एक शब्द इन्सान को सीधे कुम्भीपाक नर्क के दर्शन जीते जी करवा जाता है... अपने लिये अर्धांगिनी नामक बड़ी ही खूबसूरत पदवी कहाना चाहती यह शै पत्नि नाम से भी जानी जाती है...

इसे मेरी उच्चस्तरीय हिम्मत ही जानिये कि आज इस गुप्त रहस्य को अपनी जिव्हा से अभिव्यक्त कर सका... अन्यथा कोई संदेह नहीं कि निकट भविष्य में मेरी निश्चेष्ट देह अपने चलायमान होने के लिये किसी उपचारकर्ता की सहायता लेती दृष्टिगत हो... ;-) :P


● ये वाकई सबके लिये नहीं है... सिर्फ वे ही इसे दिल पर लें जो ऐसी हैं... बाकियों के लिये ये उसी तरह का मजाक भर है जैसा कि बहुत से जोक्स पतियों के खिलाफ बड़े कमाल के होते हैं और उन्हें पढ़ते हुए कभी कोई बुरा नहीं मानता बल्कि मुस्कुरा भर दिया जाता है...

जोगेंद्र सिंह सिवायच (Jogendra Singh Siwayach)
● (01-01-2014)
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गिलहरी (Squiral)


● गिलहरी ●

(कहानी)

(1)

● ज्यों ही उसने डाल से लम्बी छलांग लगायी हवा में परवाज करती सी अगले दरख़्त की आगे को झुकी लचीली टहनी की ओर तेजी से उड़ सी चली | पहुँची ही थी की धप्प से करीब पच्चीस फुट नीचे जमीन पर औंधे मुँह आ गिरी | वो जो ऐसी छलांगे यूँही खेल-खेल में लगा लिया करती थी अब काफी समय से जैसे कुछ उसके बस में ही न रहा | आये दिन छोटे से शारीर की कोई न कोई मुलायम हड्डी और ज्यादा मुलायम हो जाती | क्या करें उम्र ही ऐसी थी, यही कोई नौ वर्ष | देखने में भले ही नौ वर्ष कोई ज्यादा नहीं होते हैं लेकिन एक "गिलहरी" की औसत उम्र लगभग 9 से 10 वर्ष ही होती है सो कहा जा सकता था कि नन्ही गुदगुदी सी वह गिलहरी अपनी उम्र के अंतिम पड़ाव को जी रही थी | वह एक नर गिलहरी थी जिसके जिंदगी को लेकर भ्रम अभी तक टूटे नहीं थे वर्ना यूँ जवान गिलहरी के सामान कुलाँचें नहीं भरती | 

(2)

● कुछ तीन-एक साल पहले उसका अपनी मादा से बिछोह हुआ था | ना-ना-ना.. भगवान को प्यारी नहीं हुई थी वरन अपने लिए एक नया बांका "गिलहरा" पसंद कर लिया था उसने | क्या देखा उसमें नहीं जानता था वह मगर इतना जरुर जानता था कि उस नये गिलहरे की कुलाँचें/उछालें कहीं अधिक तेज थीं | उसका रिझाने का अंदाज़ कुछ जुदा सा लगता था | वो रुक-रुक मुँह तिरछा कर ताकना, लौट-लौट दौड़कर आना, हर वक़्त उसके गिर्द मंडराते रहना सभी कुछ तो था जिसने उसकी जिंदगी, वो जिसके साथ आधी उम्र ख़त्म हो जाने तक बितायी, उसी ज़िन्दगी को लूट ले गया | [नोट: आगे से नर गिलहरी की जगह "मैं" शब्द लिखूंगा ताकि लिखने में आसानी रहे |]

(3)

● टुकुर-टुकुर निहारते रहने के सिवा मैं कर ही क्या पाया | मेरे साथ रहते उसने एक छोटी सी गिलहरी को भी जन्म दिया मगर जाते-जाते उस नन्ही सी जान को भी अपने संग ले गयी | ले क्या गयी बल्कि नन्ही खुद ही फुदकते हुए उसके पीछे चल दी, माँ जो थी उसकी | बड़े पेड़ के खाली पड़े कोटर को आरामदायक बनाने में मैंने कोई कसर नहीं छोड़ी थी | क्या-क्या नहीं जुटाया था मैंने | जूट की बोरियों के रेशे, मुलायम घास के तिनके, घरों से निकले धागों के रेशे, कपड़ों की कतरनें, और भी जाने क्या क्या | सब कुछ तो किया था उसके लिए | खाने के जितने दाने मिलते कभी अकेले नहीं खाये | छोटे से मेरे उस कोटर के कोने में जाने कितने ही खाये-अधखाये और साबुत रसद का भंडार पड़ा था जो मेरे अपनों के संग बिताये एक-एक पल को जीता नजर आ रहा था |

(4)

● जाने संसार की बाकी गिलहरियाँ रोती भी हैं या नहीं मगर जमीन पर पड़ा मैं मात्र बूँद जितनी बड़ी अपनी मासूम आँखों में पृथक एक नन्ही सी बूँद लिए कराह रहा था | शायद बूढी गिलहरी का जीवन इसी तरह का लिखा हो | मैं कोई इन्सान तो नहीं जिसे हर सुविधा सुलभ हो फिर आज तो इन्सान भी अपनों के काम नहीं आता हम तो फिर भी निरीह जानवर हैं | जो मेरे पास कोई होता भी तो बगल में बैठा सिवा बेबसी के आलम के और दे भी क्या पाता |

(5)

● नीचे पड़े-पड़े सामने वाले ऊँचे दरख़्त की शानदार डालियों को देख मन भर आया | इसी दरख़्त पर कितने बरस राजी-ख़ुशी बिताये थे उस छलना संग और इसी दरख़्त पर बने ज़रा से कोटर में प्यारी सी मेरी उस नन्ही मासूम गिलहरी ने जन्म लिया था जिसके साथ उछलकूद करके जीवन के कुछ महीने उल्लास में बीते थे | मेरे देखते ही देखते मेरे ही एक साथी गिलहरे संग हो ली थी मेरी अपनी संगिनी और मैं कुछ न कर सका |

(6)

● उसी दौरान जब मोहभंग हो रहा था तो हवा के झौंके समान आयी एक नयी गिलहरी का जीवन में पदार्पण हुआ | उसकी ऑंखें जैसे बोलती प्रतीत होती थीं | मेरे लिए जैसे पीत-वस्त्र धारिणी महिला की स्थिर तस्वीर की तरह वो घंटों मुझ ही को निहारा करती | कुछ न कहती, कुछ न करती, बस मेरे सामने रहती हरदम | शांत, निश्छल, निष्कपट, उछल-कूद रहित, बेहरकत, साकत, मेरी तरफ, बस मेरे लिए | सारी उद्वेलना उसके संग झाग की तरह बैठ जाती ज्यों समुद्र किनारे उबल रहे सफ़ेद फेन को किसी ने जादू के जोर से नीचे बैठा दिया हो |

(7)

● परन्तु उसका स्वाभाव कभी समझ नहीं आया, जितना पास जाओ उछल कर उतना ही पीछे, और जाओ और पीछे | इसी तरह दो वर्ष बीत गए और एक दिन जब जंगल में वो कहीं गयी तो कभी लौटी ही नहीं | बिलकुल इसी तरह मेरे बाबा भी गायब हो गए थे और बाद में एक दिन माँ भी, कभी लौट कर ही नहीं आया कोई |

(8)

● बड़ी देर इसी सब में निकल गयी और इतना सब होने में दो बातें एक साथ हुईं | शाम का धुंधलका बढ़ने लगा और दूसरे रगड़ता-घिसटता किसी तरह मैं अपने वाले ऊँचे दरख़्त की जड़ तक आ पहुंचा था | अब एक ही काम शेष था, किसी तरह उस ऊँचे दरख़्त की मध्य ऊँचाई पर मौजूद अपनी पनाहगाह, अपने आखिरी संगी कोटर तक पहुँचा जाये |

(9)

● कांपते-कराहते घंटों की ज़द्दोज़हद के पश्चात् किसी तरह अपने कोटर तक पहुँचा | भीतर घुसने से पहले अनायास ही उठ आयी दर्द की तीव्र लहर ने बदन को अकड़ा दिया और तने पर से पकड़ ढीली हो गयी | ठक, ठक, धाड़, फटाक, सर्रर्र, ठक, और अचानक सबसे निचले तने से जुडी टूटी डाली की ऊपर को उठी बची हुई किर्चियों पर रुकते हुए आखिरी खच्च की आवाज़ | चिऊ-चिऊ की मर्मश्पर्शी दम तोडती आवाज़ कहाँ किसी ने सुनी होगी | अब और उठ पाने की शक्ति नहीं बची थी |

(10)

● मुन्दायमान गोल भोली सी आँखों से सामने वाले दरख़्त से गुजरते एक गिलहरी परिवार पर नजरें पड़ी | कोई और नहीं ये मुझे छोड़ दूजे गिलहरे संग नये बनाये परिवार की आखिरी नुमाइश थी जो ऊपर वाले ने मेरे सामने कुछ इस तरह नुमायाँ कर दी थी | सामने की तरफ से आती किलकारियाँ और दूसरी तरफ निकलते प्राण | जैसे किसी अघोषित जश्न का आयोजन हो सामने की ओर | इधर उल्टा पड़ा छोटा सा शरीर, आधा डाली के इस तरफ लटका और बाकी का आधा डाली के दूसरी तरफ | यह सब देखते-ताकते कब ऑंखें खुली रह गयीं पता ही न चला | मैं भी संभवतः अपने माँ-बाबा और अपनी उस नयी गिलहरी की तरह कभी न लौटने वाले जंगल गमन के लिये निकल लिया था | दूर कहीं अँधेरे से बड़ी, गोल, चमकदार आँखों वाले एक उल्लू ने अपनी तेज़ उड़ान भरी और इस डाली पर आ बैठा | आखिर सामने से गुजर रहे जश्न की दावत भी तो बाकी थी..!!! 

● जोगेंद्र सिंह सिवायच (Jogi-jc)

● (19-12-2013)
● Instant: +91 78 78 193320 ● +91 90 33 733202
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