● घरौंदा और परछाई ● Copyright © 2009-2011
गर होता सम्भव,
चिन कर खुद को खुद पर ,
किसी निर्जन वीराने में ,
पित्तुल बनाता खुद को ,
न होता भय,
किसी बालक के ठेस लगा जाने का ,
न आता कथित कोई अपना ही ,
दूर बहुत दूर ,
उड़ते किसी खग की ,
पल भर की विश्राम स्थली बन जाता मैं ,
उड़ जाने पर,
रह जाना पीछे अकेला ,
मुझ से बने घरौंदे का ,
जीना है अब मुझे फिर अकेले ,
पीछे छूटे स्मृति चिह्नों संग ,
बीट में फंसे फडफडाते फर ,
गाने लगे उड़ चुकी जीवन गाथा ,
सूखे घाम से सिक्त कठोर पित्तुल की परतें ,
एक रंग रंगे पत्थरों का सूनापन ,
कहीं धूप कहीं छाँव सा उनके जैसा मैं ,
स्वयं की पड़ रही परछाईं ,
देख-देख उसे पुलकित होता मैं ,
शाम ढले आते धुंधलके संग धुंधलाती परछाईं देख ,
छपाके संग कुछ गिर जाने से मिटती परछाई देख ,
फिर यथार्थ में आता मैं ,
नीरस अँधेरों संग अस्तित्व की लड़ाई को लड़ता मैं ,
कब तक..?
कब तक करूँ संघर्ष ?
कब तक सब होने पर भी दिखे एकाकीपन..?
कब तक अपने ही जिंदा होने का भान खुद को कराऊँ मैं..?
● जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 04-03-2011 )
नोट : इस कविता का प्रेरणास्त्रोत यही चित्र है जो इसके पृष्ठ भाग में है...
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Comments
One response to “घरौंदा और परछाई”
kavita bahut-bahut sundar hai .. par ye nirasha ka swar kyon ..
ek alag trah ki kavita hai .. man ko chhuti hai . parchhai ke dukh si .. apne astitv ke liye ladti hai ..
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