● तुम पतवार ●
कोशिश में हूँ
तुम्हें भूल जाने की
निकाल ना सका
तुम्हें मन से..
जाने कब-कब
मेरे हवासों पर
छा जाती हो
तुम आकर..
द्वंद-पूरित
यह जीवनपथ
जाने कितने ही
काँटों-संघर्षों भरा..
तुम्हारी कल्पना संग
उसका हाथ पकड़
तब निकल पाता हूँ
सारे झंझावातों से..
भूलते-भूलते
जाने कब आकर
बस जाती हो
ह्रदय पटल में..
धुंधली आकृति वाली
डबडबाई आँखों से
हो जाती हो समाहित
बन पतवार मेरे जीवन की..
● जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (05-02-2012)
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Comments
9 Responses to “तुम पतवार”
bahut khubsurat rachna hai
Prem aisa hi hota hai jisko bhoolna mushkil hota hai ... Jo paar karata hai bhav sagar se ...
इतना आसान नहीं भुलाना
गहन ...मर्मस्पर्शी ...
... बेहद प्रभावशाली अभिव्यक्ति है ।
▬● अवंती जी / थैंक्स दोस्त...
▬● दिगंबर जी / हा हा हा , आपने तो भवसागर से ही...
▬● रश्मि जी / सच में आसान नहीं होता भुलाना...
▬● संजय भास्कर जी / आभार दोस्त...
उम्दा ..
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