बलात्कार : (चाहिए स्वयं की सोच का परिष्करण और परिवर्धन)
Copyright © 2009-2011
व्यक्ति मानसिक रूप से जब स्वयं को परिष्कृत एवं परिवर्धित नहीं कर पाता तब सारा दोष वह सामने वाले पर थोपने की जद्दोजहद में लग जाता है और परिणामस्वरूप स्वयं तथा समाज दोनों को संतुष्ट करने हेतु उसके द्वारा दिये गए बहानों की फेहरिस्त लंबी होती चली जाती है... उदाहरणस्वरुप जैसे किसी लड़की के बलात्कार के लिए उसके कम कपडे जिम्मेदार हैं या कभी गुस्से को बहाना बना लिया अथवा कभी बहाने में बदले की भावना का योगदान मान लिया... जब हम खुद पर ही काबू नहीं पा सकते तो क्या बच्ची और क्या विकसित महिला , सब एक समान ही रहती हैं... ऐंवे ही सामाजिक परिदृश्य में अवांछित दुर्घटनाओं की भरमार नहीं हुई पड़ी है... बलात्कार अथवा जबरन बनाये गए यौन सम्बन्ध सब मनोविकारिक मानसिकता का परिचायक है... किसी बहाने से हम अपनी जिम्मेदारियों से मुख नहीं चुरा सकते...
इल्जाम देने की मानसिकता ही हमें अपने कृत्यों को जस्टिफाई करने में मददगार होती है... अपने किसी भी सही-गलत को सही प्रमाणित करने का एकतरफा मनोविज्ञान ही अंततः किसी छोटे या बड़े विकार को उत्पन्न करवाता है , और यही सोच वास्तविक सकारात्मकता को निगल जाती है साथ ही जो परिणिति मिलती है वह कदाचित अत्यंत वीभत्स अपराध के रूप में रूपांतरित हो हमारे सामने मुँह बाएँ खड़ी अपना मुँह बना सम्पूर्ण मानवता को चिढा रही होती है...
क्योंकर कोई किसी मासूम बच्ची पर जोकि कुछेक माह अथवा बरस ही की है, यह इल्जाम लगा सकता है कि उसके पहने कपड़ों में दोष था जिसके चलते उसकी कुत्सित-कलुषित भावनाओं ने इतना अधिक जोर मारा कि जिसकी परिणिति एक वीभत्स बलात्कार के रूप में हो जाती है... और तब कथित सभ्यता के ठेकेदारों के शब्द कहाँ रहते हैं जब इस तरह की घटना उम्र और वस्त्र स्थिति पर निर्भर ना होकर सिर्फ लैंगिक सोच मात्र पर निर्भर होकर घटित हुआ करती हैं...? कब हम स्वयं को छोड़ दूसरों पर दोषारोपण करते घूमेंगे...? कब तक हम दूसरों को ही कोसते रहेंगे...? कब जाकर परिवर्तन हम दूसरों से नहीं बल्कि खुद ही से चाहेंगे...? कब तक दूसरों की कथित आज़ादी को दबाने के बहाने अपनी कमजोरियों को छुपाते रहेंगे हम...?
इल्जाम देने की मानसिकता ही हमें अपने कृत्यों को जस्टिफाई करने में मददगार होती है... अपने किसी भी सही-गलत को सही प्रमाणित करने का एकतरफा मनोविज्ञान ही अंततः किसी छोटे या बड़े विकार को उत्पन्न करवाता है , और यही सोच वास्तविक सकारात्मकता को निगल जाती है साथ ही जो परिणिति मिलती है वह कदाचित अत्यंत वीभत्स अपराध के रूप में रूपांतरित हो हमारे सामने मुँह बाएँ खड़ी अपना मुँह बना सम्पूर्ण मानवता को चिढा रही होती है...
क्योंकर कोई किसी मासूम बच्ची पर जोकि कुछेक माह अथवा बरस ही की है, यह इल्जाम लगा सकता है कि उसके पहने कपड़ों में दोष था जिसके चलते उसकी कुत्सित-कलुषित भावनाओं ने इतना अधिक जोर मारा कि जिसकी परिणिति एक वीभत्स बलात्कार के रूप में हो जाती है... और तब कथित सभ्यता के ठेकेदारों के शब्द कहाँ रहते हैं जब इस तरह की घटना उम्र और वस्त्र स्थिति पर निर्भर ना होकर सिर्फ लैंगिक सोच मात्र पर निर्भर होकर घटित हुआ करती हैं...? कब हम स्वयं को छोड़ दूसरों पर दोषारोपण करते घूमेंगे...? कब तक हम दूसरों को ही कोसते रहेंगे...? कब जाकर परिवर्तन हम दूसरों से नहीं बल्कि खुद ही से चाहेंगे...? कब तक दूसरों की कथित आज़ादी को दबाने के बहाने अपनी कमजोरियों को छुपाते रहेंगे हम...?
जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (26-02-2011)
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Comments
3 Responses to “बलात्कार : (चाहिए स्वयं की सोच का परिष्करण और परिवर्धन) Copyright © 2009-2011”
बिलकुल सही बात कही है आपने.पूर्णतः सहमत.
धन्यवाद ▬● यशवंत जी......
जोगिन्दर जी बिलकुल सही बात कही है आपने.
आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आया ,आकर अच्छा लगा ,
कभी समय मिले तोhttp://shiva12877.blogspot.com ब्लॉग पर भी आये .
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