रिश्ते (सवाल बहुतेरे : उतरदाता कौन?)




रिश्ते (सवाल बहुतेरे : उतरदाता कौन?)



सुबह का अख़बार यूँ तो देखने की आदत मरहूम हो चुकी थी फिर भी कभी-कभार इस कार्य को भी निबटा लिया करता हूँ | पत्नी को उठना गँवारा न था सो निद्रावती बन लुढकी पड़ी थी | मेरी आँख अख़बार पर मगर जैसे हर्फ़ परवाज किये जाते हों | गड्डमड्ड आपस में उलझे शब्द-वाक्य आँखों को चकराए देते थे | होता है ऐसा भी जब नेत्र किसी एक स्थान पर एकाग्र ना होकर उनका फोकस जैसे वस्तु के पीछे किसी बिंदु पर जाकर बनता हो तो सामने मौजूद चीज कुछ धुँधला जाती है और एक ही चीज को दोनों आँखें अलग-अलग चित्रित कर एक दूसरे पर कुछ इस तरह ओवरलैप करने लग जाती हैं कि दोनों नेत्रों के रेटिना पर बना चित्र डबल सा जान पड़ता है जो यूँ प्रतीत होते हों जैसे उन्हें एक दूसरे पर ठीक से ना रखा गया हो | मेरे साथ भी यही हो रहा था |

ध्यान लगाने की कोशिशें बहुतेरी कीं परन्तु चित्त था कि कुछ दिन पीछे को भागा जाता था | जाने व्यक्तित्व की कमी थी या लयिका की जीवन को कुछ ज्यादा ही बारीकी से छान लेने की आदत परन्तु टेलीफोनिक बात के साथ कंप्यूटर गेम खेलना मुझे भारी गुजर गया | उसे लगा संभवतः मेरी प्रायोरिटी में वह स्वयं न होकर कुछ और ही है मगर उसे कैसे समझाऊँ कि हर चीज ठीक वैसे नहीं होती जैसा हम देखते-समझते हैं | साथ जीते बहुधा ऐसा हो जाया करता है जब हम किसी अजीज से बात करते समय कुछ और भी कर जाते हैं जिससे बेशक उसे इग्नोर्ड लग जाता है जबकि उपरांत इसके भी उस इन्सान की हमारे जीवन में जगह बदली नहीं थी | हाँ इसे कमी या गलती या लापरवाही या सुरक्षा अनुभूति का अतिरेक जरुर कह सकते हैं जिसमें संभवतः उस भाव की अधिकता हो जिसमें एक इन्सान किसी के साथ इतना सुरक्षित महसूसने लग पड़ता है कि अब जो भी है वह हम है, ना कि मैं और तुम | और भूलें, कमियाँ, गलतियाँ इनमें से कोई भी ऐसी नहीं जो हमारे रिश्ते पर हावी हो सके क्योंकि हमारा नाता तो उन सबसे परे, सबसे ऊपर, सबसे बड़ा है | लेकिन भूल जाता है इन्सान कि यही रिश्ते में सुरक्षा की आतंरिक अनुभूति जब तक सामने वाले को ना हो तब तक आप खुद को सुरक्षित कैसे समझ सकते हो? अभी तो डर-डरकर जीना बाकी होता है जाने कब किस बात पर एक ब्रेक मिल जाये?

उसने कहा भी :::
कुछ ज्यादा तो न चाहा हमने...
एक लम्हा माँगा था बस अपने नाम का...
पर वो तंगहाल ...इतना भी न दे सके...

उसे कहा तो नहीं लेकिन मन से निकला :::
तंग बने क्यों एक लम्हा भर मांगते हो,
जबकि नाम तुम्हारे हर लम्हा किये बैठे हैं,
ग़र चुरा भी लिया एक लम्हा अपने नाम पर,
तो क्या इतनी जगह भी दिल से निकाल न पाओगे...?

बहरहाल हर बार की तरह इस बार भी मानसिक अलगाव हो गया लेकिन इस बार अलगाव पूरा न होकर आंशिक था जिसका मतलब यह कि हम बात तो करेंगे लेकिन वैसे जैसे किसी जानने वाले के साथ किया करते हैं और कहा कि मुझसे खेलना बंद करो | इधर अपनी जगह सुन्न, साकत, अविचल, अपलक, अकिंचन मैं सामने की ओर बस निहारा गया | कहने को कुछ सूझा नहीं क्या कहता? इतने ब्रेकअप्स देख चुके कि अब कहना समझ ही नहीं आया | मन के भाव चुगली खा रहे थे, जार-जार चीख-चीख कह रहे थे ये नहीं होना है, नहीं होना था, क्यों हो गया? परन्तु कह नहीं पाया | जितना भी कहा उसने सब सुना | चुपचाप, विचार शून्य मस्तिष्क लिए मैं समझ नहीं पाया कैसे उस रिश्ते को पहचान के भाव से देखूँ जिसे कायनात के सबसे खुबसूरत स्थान पर रख देखा था | कह नहीं सका कितनी गहरी और कोमल अनुभूति मन में बसाये बैठा हूँ कि मुँह से निकली हर बात पर डायलॉग का तमगा चिटका दिया जा रहा था | सो कुछ न कहते हुए चुप रह जाना बेहतर समझा | वैसे भी कोई हर बात में जब वफ़ा तलाशने लगे तो कैसे मिले उसे कि हर साँस अपनी जगह है, हर घटना अपनी जगह है, हर वक्त जैसे आप जागे हुए नहीं रह सकते ठीक वैसे ही किसी एक बात को सोचते हुए यह करना चाहिए और यह नहीं, कैसे जी सकता है कोई? और जब तक निश्चिन्तता का अहसास ना हो तब तक किसी रिश्ते को शांत मन कैसे जिए कोई? हर पल मन में समाया भय कि जाने अब कौनसी बात हो जाये जिसे पिन पॉइंट कर नयी गलती या मेरी तरफ से नाता ही झूठा और क्रियेटेड बता दिया जाना है |

क्यों कोई इस डर से मुक्त हो व्यवहृत नहीं हो सकता कि मन मिलने के बाद अब जो भी कमी-बेसी होगी वह मन के नातों के आगे नगण्य हो जाने वाली है सो चिंता न कर बालक तू जी ईमानदारी से अपनी जिंदगी, अपनी जिंदगी (लयिका) के साथ | वह समझेगी और जैसे तूने उसे उसकी हर अच्छाई-बुराई के साथ अपने साथ अंगीकार किया वह भी ऐसे ही तुझसे जुड़ेगी कि तू जैसा है ठीक है, आज पसंद है तो कल नयी सोच क्यों? इसमें यह ठीक नहीं, वह बदलना चाहिए या यह तो सिरे से ही गलत है और यह सोचकर कोई सम्बन्ध छोड़ चल दे कहते हुए कि जो था सब झूठ था, बनावटी था और यह कि जो फिलिंग है ही नहीं जो है ही नहीं उसे माना ही कैसे जाये? यह तो ठीक नहीं ना? हम कोई स्कूल एग्ज़ाम तो नहीं दे रहे जहाँ हर बात नंबरों की कसौटी पर जोखी जाये?

बड़ी देर से कोशिश में था चीजों को समझने की समझ नहीं पाया कि क्यों आखिर इन्सान उन्मुक्त बन जी नहीं सकता? मानता हूँ जब हम जुड़ते हैं तो बहुत सी अनकही बातें, शर्तें भी जुड़ जाती हैं, कई जिम्मेदारियां, कई नये अहसास जुड़ जाते हैं | तो उसमें उथले रूप से हुई बात को देखते हुए अंतर्मन को मिथ्या समझना कहाँ तक ठीक था? सवाल यह भी गलत नहीं कि जब कुछ महसूस होता ही नहीं तो लयिका कैसे उसे माने? इसका तो एक ही जवाब है कि वह देखे टटोलकर अपने मन को और खंगाले इस बात को कि वाकई क्या वह खुद जुडी थी? या बहाव संग साथ भर हो ली थी? क्योंकि हर हाल में यह एक निर्विवाद इंसानी सत्य है, यदि हम वाकई किसी से इतना जुड़ जाएँ जैसे दो जिस्म एक जान तो इस तरह तीखी खंगालती नजर का किसी तरह कोई अस्तित्व हो ही नहीं सकता क्योंकि तीक्ष्ण नजर सिर्फ कमियाँ निकलकर परफेक्शन ढूँढने के लिए हुआ करती हैं ना  कि रिश्ते बनाने / निभाने के लिए | जहाँ मन जुड़े हों वहाँ तो आँखें इस हद तक बंद हो जाने लगती हैं जिसमें असल इंसानी कमियाँ तक ओझल हो जाया करती हैं | और ऐसा ना हो तो इन्सान या तो भगवान है या कोई असम्बद्ध जो तराजू संग लिए घूमता है |

नमी की कुछ बूँदें कब ढलक आयी पता ही न चला | इसी के साथ याद आया कुछ समय पहले बड़े भईया के साथ किसी वजह से बात का बंद होना | सोचे बैठा था कि अब कभी बात न करूँगा परन्तु तत्क्षण ही मस्तिष्क में आया जिस चीज से स्वयं तकलीफ पा रहा हूँ उसी चीज से अपने भाई को भी तो तकलीफ दे रहा हूँ | जिस बात को तीक्ष्ण नजर और तराजू के पलड़ों संग जीना कह रहा हूँ, खुद भी तो वही किये जाता हूँ अपने ही भाई के साथ | तो कैसे उम्मीद कर सकता हूँ कि जिस काम को सही नहीं समझा वही करते हुए उसके अपने लिए सही होने की उम्मीद पालूं? समझाई गयी सभी बातें याद आयीं और बिना देर किये फोन घनघना दिया | ठीक से बात तो नहीं कर पाया लेकिन बात करना मात्र ही काफी था यह जताने के लिए कि भईया मैं गलत था और यूँ नाते अलग नहीं किये जाते | बात करते भावावेग से आवाज में बदलाव आने लगा | कुछ देर और बात करता तो शायद आवाज बदल जानी थी सो तत्काल विदा ले ली | बगल में श्रीमतीजी अब भी लुढकी पड़ी थीं जिन्हें सोते में क्या जागते में भी कभी किसी अहसास से बावस्ता होना गँवारा न था | और इसीलिए एक घर में रहते भी शायद दो अजनबी आपस में हमसे अधिक भले से रह लेते |

हौले से उठकर हॉल में लगे दीवान पर जा लेटा कि उसे भीगी पलकें दिखाने की कोई तमन्ना दिल में न थी | अख़बार संग ही चला आया था जिसे पढना गब्बर (अम्बाजी के मंदिर के पास पहाड़ पर बने देवी माँ के पदचिन्ह) की चढ़ाई महसूस हुआ | आज कई दिन हुए मनाने के अल्फाज अब भी अकाल की भेंट हो रखे हैं | इतना मनाया पहले कि अब कहने को नया कुछ बाकी ही नहीं | जो बाकी है वह एक हसरत है | काश बिन कहे वो समझ लेते कि अनकहा मनाना भी तो कोई मायने रखता होगा?

रोज सुबह नित्यकर्मों से चर्या शुरू करते जाने कब शाम हो जाती है पता ही नहीं चलता | बहुत सा खाली समय होता है लेकिन तब दिमाग भी खालीपन से शर्त लगा रहा होता है | अजीब सा सूनापन, सब चुप, अबोली सी जिंदगी | और ना ना करते भी अब लयिका के आने से पहले की सी जिंदगी शुरू होती लग रही है | वही अतिरेक हास्य भरा जीवन जाने क्या छुपाता या हँसी के खोखलेपन में समायी अजीब सी एक ख़ामोशी | उग्र, आक्रोश से भरा स्वाभाव कि कोई कुछ बोलकर देखे ऐसा हाल उसका कि ढंग से हत्थे चढ़ा इन्सान महीनों तक किसी और से न अड़े | बे-जरुरी बकवास और भी जाने क्या क्या? कई बार तो जिसने कभी मतलब नहीं रखा वह बीवी भी पूछ गयी, क्या हुआ तुम्हें? अचानक हुआ इतना बदलाव उसे भी हजम नहीं हो पा रहा था | इसीलिए विलग में भी सवाल का लोभ नहीं छोड़ पायी | इधर मेरे मन में बसा सवाल घडी का पेंडुलम बन बारह के सुर निकाल रहा था |

क्या इन्सान अकेला रह पाने का भ्रम पाने के बावजूद सच में अकेला रह पाने योग्य हुआ है? यदि हाँ तो ये भारी-भरकम बदलाव क्यों? क्या कभी इन्सान बिना पलड़ों और बिना सही गलत की सोच, इन सबसे ऊपर उठकर केवल निर्मल संबंधों को जी पायेगा?

जानता हूँ कई सवाल अनुत्तरित रह जाने के लिए होते हैं लेकिन क्या इस तरह कम करते-करते किसी दिन इन्सान बिना संबंधों के जी पायेगा? क्या होगा तब जब खुद ही से कभी कोई गलती हो जाये? तब खुद को पलड़ों पे बिठा तौल पाने का साहस क्या इन्सान कर पायेगा? जो यह साहस जूता भी लिया तो क्या खुद ही से वह नाता कभी तोड़ पायेगा? सवाल बहुतेरे : उतरदाता कौन?

जोगेंद्र सिंह सिवायच Jogendra Singh

(2012-09-27)
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चुड़ैलन काकी (कटाक्ष)


चुड़ैलन काकी (कटाक्ष)


आज हमारी चुड़ैल गजब ढा गयी | जाने कब किस तरह एक दिन बगल वाले मैदान से सटे उससे परे वाले कब्रिस्तान से होकर गुजरी और थकन से बावस्ता हो सुस्ताने के लिए वहीँ बनी एक पुरानी कब्र को अपने पृष्ठ भाग से अलंकृत कर बैठीं | दरअसल ये उनके घर आने जाने का शॉर्टकट था वरना घूमकर जरा लम्बा रास्ता भी था जिसे इस्तेमाल किया जा सकता था | पता नहीं कब लेकिन अब कबर तो घर जैसा लगने लगा है उसे | आना जाना तो लगा ही रहता था लेकिन अजीब तो हम जैसों के लिए था कि आखिर ये कैसे ?

लेकिन असल किस्सा कुछ यूँ हुआ कि आरामपरस्ती कुछ इस कदर हावी हुई कि एक दिन अचानक घर से लायी चादर का किसी खाली कबर में बिस्तर लगाकर लेट गयी और बड़ा सकून मिला | बाद में कबर के मालिक सुक्खा भूत ने बहुतेरी कोशिश कर ली लेकिन है मजाल जो मैडम ने कब्ज़ा छोड़ने के बारे में सोचा भर भी हो !! आज तक बेचारा इंसानी अदालत में इससे केस लड़े जा रहा है और आप तो जानते ही हैं हमारी हिन्दुस्तानी अदालतों को | तारीख पे तारीख बस और क्या | अब तो बेचारा सुक्खा भूत बूढ़ा होकर मरने भी वाला है | और देखना जल्दी ही इन्सान बनकर आयेगा अपने सारे बदले चुका लेने के लिए इस इंसानी चुड़ैल से |

परन्तु अभी मारा नहीं था सुक्खा भूत सो भोगना अब भी बाकी था | एक दिन जा चिपटा एक नेता से कहा निज़ात दिला मुझे इस चुड़ैल से नहीं मैं तेरी ही मत फिर देने वाला हूँ | पहली बार मूर्त रूप भूत देख हुई नेता की सिट्टी-पिट्टी गुम और आनन-फानन में जाने कितने डिपार्टमेंट मय मजमा सारा जमा कब्रिस्तान में नजर आये | चुड़ैल बोली कम नहीं हमारी बिरादरी भी और सीधे अन्ना तक है पहुँच हमारी | सबकी नहीं एक की बैंड बजने लायक स्टिक तो होंगी ही बाबा अन्ना के पास | और सुना है हर दूजे दिन बाबा दाढ़ी भी संग हो सुर मिला लेता है | जाने कैसी जड़ी-बूटी है खाता कि बेसुरा भी सुर उगलने है लग जाता | कहा नेता से कि बेटा क्या समझता है तू कि ये लोग काला धन लाकर लोकपाल लायेंगे ? ना बेटा ना , आज नहीं तो कल तेरी ही लोकसभा में तेरे ही बगल में लोकपाल ही के दम पर बैठे नजर आएंगे |

पापी नराधम तू चिंता ना कर तेरी "चिंता ता चिता-चिता, चिंता ता ता" तो मैं अक्षय ही से करवाने वाली हूँ | सुना है आजकल भगवान बना घूम रहा है | सुना तो ये भी है आज खुद भगवान पे केस इंसानी अदालतों में चलने लगे हैं और सम्मन जाने कैसे स्वर्गलोक तक डिलीवर किये जाते होंगे ? इतना सुनते ही सुक्खा भूत सूखते-सूखते सींक बन किसी झाड़ू का भाग बन खुद को सौभाग्यशाली समझने लगा और नेताजी ने जब नजर पिछड़ी डाली तो सिवा खुद की पिछड़ी और कुछ नजर तक न आया बेचारे को | सर पर पैर रख जो तीतर बने पूरे एक महीने किसी को दर्शन लाभ न दिए महामुनि ने |

इतना देख अगल-बगल की कुछ कब्रें दहशत ही से वीरान हो गयीं कि ये लंका-मईया तो हमें भी न छोड़ेगी | होना जाना क्या था कब्रिस्तान में वन रूम खोली ने विस्तार पाया और अब फाईव बी.एच.के. के ठाठ मुहैया पूरे खानदान को कराया |

उधर कबर में लटकी चुड़ैलन सोच रही थी कैसा है जमाना आया, क्या नेता क्या भूत सब को हमने है रुलाया | नाम लिया बस गंदाये सिस्टम का और दहशत से खुद पूरा सिस्टम ही झोली में सिमट आया |

जोगेंद्र सिंह सिवायच Jogendra Singh

(26-09-2012)

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ख्वाहिशें : (प्यारी सी जुगलबंदी)


ख्वाहिशें : (प्यारी सी जुगलबंदी)


एक SMS: ख्वाबों खयालों की रातें हैं, कहनी सुननी उनसे कई बातें हैं...

Nayika: आज की मुलाकात बस इतनी...कर लेना बातें चाहे का जितनी...

Nayika: अच्छी नहीं होती है जिद इतनी...देखो हमें है तुमसे प्रीत कितनी...:)(note * dil par naa len)...:D

Jogi: जो ये नोट हटे...और बात सच्ची गर निकले दिल से...तो शायद बात तुम्हारी हम मान लें...

Nayika: बात हमारी क्यों नहीं मान लेते...और जब है इतना ही गुरुर...तो खुद ही क्यों नहीं जान लेते...?

Jogi: हैं तैयार मान जाने को बात तुम्हारी...बाकी रहा कहाँ अब गुरुर भी खुद पर...हो गयी मुद्दतें...बह गया गुरुर भी अब तुमको जानते-समझते...

Nayika: हम भी तो वो कहाँ रहे...जब से हैं तुमसे मिले...

Jogi: जाने क्या थे तुम और क्या थे हम जाने...बस दो जिस्म और दी ही अलग सी जान थे हम...गुजर गयीं मुद्दतें तब जाकर जाना...क्या होता है अहसास दो से एक हो जाने का...

Nayika: अब मौत भी आ जाए तो गम नहीं...कि किसी धडकन बन...रहना आ गया है हमें...

Jogi: वाकई होता है जुडा सा वो अहसास जिसमें जीना हमें बन धडकन किसी और की रहना होता है...हमसे ज्यादा हमारे लिए खुश कोई और ही हो रहने लगता है...

Nayika: हर साँस में वो है...हर अहसास अब उसके दम से है...उसकी उदासी सबब मेरे अश्कों का है...और हर खुशी भी है अब उसी के दम से...

Jogi: जो होने लगे तरंगित ह्रदय के तार किसी के नाम पर...होने लगी झंकृत श्वासें उसी के नाम पर...समझो हुआ हक अपने जीवन से हटकर आधा अब उसी के नाम पर...

Nayika: वही तो फकर है...मुझे अपनी चाहत पर...और मेरी बंदगी भी है...उसी के नाम पर...

Jogi: न जाना मैंने कभी हर्फ़ चाहत के...और न जाना हर्फ़ कोई बंदगी सा...जो जाना है तो बस इतना कि हर अहसास मेरा है गिरवी किसी और के नाम पर...खेल ले फिर चाहे बेक दे (बेच दे)...सारे हक अब हैं ये उसी के नाम पर...

Nayika: उसी चाहत ने...कुछ इस तरह हक अदा किया...बड़े मामूली से इंसान थे...हमें खुदा ही बना दिया...

Jogi: खुदा-खुदा करते देख न सके जाने कब जिगर के वो मालिक बन बैठे...थे पते दो अलग जगहों के...किस कदर देखो आज हम लापता बन बैठे...

Nayika: नजदीकियाँ इस कदर न बढाइये कि...हम खुद को खो दें...भुला कर अपना नाम पता...संग आप ही के हों लें...

Jogi: न देखो तुम न हम देखें...किस दिल में जाने कौन बसा किस शिद्दत से...कुछ न कहकर चलो बन जायें अजनबी एक दूजे के अरमानों से...

Nayika: ना वो देख पाएंगे...ना हम जता पाएंगे...चलो इसी बहाने...चाहत उनकी...इस जहान से छुपा ले जायेंगे...

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh

2012-09-15 (सितम्बर)
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