यूँ न कहते तो


यूँ न कहते तो ©

यूँ तो हर अंदाजे बयाँ है काबिल-ऐ-तारीफ तुम्हारा,

गर यूँ न कहते तो जाने किस तरह कह जाते तुम,

हम तो बैठे थे तैयार बनने को राजदार तुम्हारे लिए,

एक तुम ही थे जो गिला ज़माने का किये जाते थे...

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (29-12-2011)
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शुक्रिया तेरा


शुक्रिया तेरा ● ©

शुक्रिया तेरा,
तेरे होने के अहसास का,

शुक्रिया उन सब बातों का,
जो कभी हुई ही नहीं,

शुक्रिया खुशनुमा उस अहसास का,
जो दिल को कभी मिला ही नहीं,

जिंदगी तेरा भी शुक्रिया,
तुझसे भी अब तक कुछ मिला नहीं..

● जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (29-12-2011)
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सर्द रात ख्वाबों में



सर्द रात ख्वाबों में ● ©

सर्द रात ख्वाबों में
लापतागंज से मिली जिंदगी
ढूँढ लाया फिर से अपनी
कोहरे में गुम होती जिंदगी

थेगडों से अंटी कटी
फटेहाल मरणासन्न
जर्जर बूढ़े की कमर सी झुकी
निस्सहाय सी वह जिंदगी

बेसाख्ता पलक झपकाती
लापता में पता खोजती
असमंजस में भटकती
हैरान परेशान सी जिंदगी

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (22-12-2011)

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वो लाश मेरे सपनों की है



वो लाश मेरे सपनों की है ● ©

पूस की एक सुबह,
गीली अधजली लकडियों से,
निकली कालिख पुता चेहरा लिए,
देखो चली आ रही है,
वो लाश मेरे सपनों की है...

भ्रमों तले दबी ख्वाहिशें,
जाने कितने सपने बुन,
ओस के धुंधलके में,
विलीन हो जाती जिसकी,
वो लाश मेरे सपनों की है...

सिमटे, कुकडे, ठिठुरते,
एक दूजे पर लदे-पदे,
कोने में दुबके कुक्कुर समान,
गर्मी के अहसास को तरसती,
वो लाश मेरे सपनों की है...

भीषण एकाकी अहसास,
वीभत्स अतृप्त कामनाएं,
ह्रदय दहलाती परिस्थिति में,
किसी के होने का भान पाती,
वो लाश मेरे सपनों की है...

अधूरी इच्छा ह्रदय में सहेजे,
अपने अकेलेपन को तज,
मासूम निगाहों से,
तुम्हारी ओर तकती,
वो लाश मेरे सपनों की है...

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (21-12-2011)
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पुरानी बासी बुढिया



पुरानी बासी बुढिया ● ©

अभी तो मैं जवान हूँ, अभी तो मैं जवान हूँ,
मुँह में दाँत नहीं , आहा, पेट में आँत भी नहीं,
हाथ चले कीर्तन में, देखो पाँव की राह कबर में,
पोते से लिए दाँत मंगा, आहा देखनी बुढिया मुझे,

उन पर ब्रश किया है, साल भर बाद किया है,
पीछे से आ गयी हाय, पुरानी बासी बुढिया,
डंडे-झाड़ू से पूजा, हाय लातों-घूसों से मुझे,
काहे आ गयी बुढिया, नयी शर्मीली बुढिया,

न माना दिल ये मेरा, उसी को घूरता रहा,
पिटता गया, देखता गया, नामाकूल दिल ये मेरा,
आ गया बुड्ढा नया, मिरच को साथ ले आया,
उतर गया भूत मेरा, तब, जवानी पिलपिला गयी,

हाय जवानी पिलपिला गयी, किया मायूस मुझे,
आया फिर दिन वो नया, मुस्कुरा के वो गयी,
कबर फाडी, बाहर आया, जवानी वापस आयी,
पीछे से आ गयी हाय, फिर, वही बासी बुढिया...
हाय राम... धम्म धडाम... धम्म धम्म धम्म....

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (08-12-2011)
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जाने कब अभिन्न बन बैठीं तुम



जाने कब अभिन्न बन बैठीं तुम ● ©

ओस से अंटे घने कोहरे को चीरती हुई,
सुबह की पहली गर्माहट को लाती किरण,
तडके कुक्कुट की निकली बांग में बसी,
पंछी की वो पहली चहचाहट में रची बसी,

हाँ, वो नींद के खुमार से निकली अल्हड,
नवयौवना के तन की ऐंठन सा अहसास,
नवेली का पल्लू तले चेहरा ढांपे शरमाना,
वो अल्हड सी चंचला का तड़प सा जाना,

हाँ, उन अहसासों की तपिश / दबिश तले,
कैसे इन जैसी अनुभूति है तुमसे पाई मैंने,
ह्रदय धमनियों में उन्हें महसूस किया मैंने,
कैसे जाने कब मेरी अभिन्न बन बैठीं तुम..

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (1-12-2011)
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