गाथा ताजमहलों की

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सब कहानी तुमने है कहाई....
जिसपे बीती उसने कहाँ है देखी...
गाथा ताजमहलों की क्या फर्क ला सकेंगीं....?
कुर्बान मुहब्बत पे खुद को कर क्या देख सकेंगे रांझे...? (जोगी)
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यादें कुछ असल सी



यादें कुछ असल सीCopyright © 2009-2011

भीगी पलकों संग मुस्कुराये जाते है,
गम ढोते हुए यादों का, जिए जाते हैं,
काश कि होती यादें कुछ असल सी,
उन असल यादों के सहारे काट लेते,
हम पहाड सी यह जिंदगानी अपनी..

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (17-03-2011)


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क़त्ल का नाम


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क़त्ल का नाम

बहुत खूब तरीका है हमें गुनाहगार बताने का !!
क़त्ल किये जाते हो और नाम हमें दे जाते हो !!

....................... जोगी...... १५-०३-२०११


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तुम्हारी चुप


तुम्हारी चुपCopyright © 2009-2011

ठाले बैठे तुम्हारे विश्लेषण में , खुद को कहीं भूला जाता हूँ मैं ,
कल की बात मैं कह-सुनाऊँ , तुम में खुद ही को भुला बैठा था ,
पहले न था , अब खोया सा हूँ , तुम ही में कुछ समाया सा हूँ ,
कहते हैं वह रुसवाई जिसे , कब रही वो रुसवा हमारे लिए ?
जीवन के छिन गा लेते जिन्हें , वहीं रुसवाई कहलाने लगे हैं ,

ओंठ दबा हौले से मुस्कुरा देना तुम्हारा , दबा जाने क्या उनमें ,
दबी गाथा संघर्षों भरी , गहरे उतार चढावों भरे जीवन की गाथा ,
भिंचे ओंठ मुस्कुराते , खामोश निगाहें , गाल गड्ढे शोभा बढ़ाते ,
लरजते ओंठों मध्य लरजती मद्धम सुरीली तुम्हारी सुर सरगम ,

एक चुप तुम्हारी , देखो कितना कुछ कह जाती है आकर मुझसे ,
रुई के फाहों जैसी आकर अन्तस्तल छूती बिन कहे व्यथा तुम्हारी ,
दूर मुंडेर तक उडती मंडराती आक के फरों जैसी तुम्हारी बातें-यादें ,
निष्कपट बालक समान उनके पीछे खेतों की मुंडेरें नापता जोखता ,
तुम्हारी हर चीज़ को बावरे गाँव में आये ऊँट की तरह उत्सुकता से ,
दीदे फाड़ नयन झपकाता प्रयोगधर्मी अबोध सा बना उन्हें परखता ,

अबूझ पहेली जान , तुम्हें सुलझाने की कोशिश में खुद से उलझता ,
वीतरागी बन जीवन झंझावत के , रहस्यों से तुम्हें झूझता देखकर ,
मृत्यु लोक के खटरागों मध्य , नित प्रतिदिन तुम्हें खटता देखकर ,
बोल पड़ने को तत्पर नहीं बोल सकने को मजबूर एक पुतला पाकर ,
जाने क्यूँ ? जाने क्यूँ तुमसे अजानी नेह की इक डोर सी जुडी पाकर ,
क्यूँ तुमसी धारा में खुद को बहता पाकर एक नयी राह देख पाता हूँ ?
हाँ.. बिन नाते , अब नाते सा , तुम संग मधुर अहसास पा जाता हूँ !!

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (13-03-2011)
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नारंगी की शहादत


नारंगी की शहादत (व्यंग्य कविता)
Copyright © 2009-2011

खुद से शहीद होने का देखो जज्बा ,
आया है कितने जोरों से ,
जो सर में भरा वह रस अर्पण करने का ,
देखो जज्बा आया है कितने जोरों से ,
आदम के नाम अब लिखी जायेगी शहादत ,
क़ुरबानी यह मेरी व्यर्थ ना जायेगी ,
दिल किसी का चाहे सुन्दर न बना सकूँ मगर ,
तन उसका सुन्दर बना के रहूँगा ,

आदम न रहा अब पुराना सा ,
ह्रदय परिवर्तन अब कोई ना चाहे ,
सब चाहें तन हट्टा-कट्टा सा ,
दो डोले यहाँ, दो डोले वहाँ पे चाहें ,

माँ-बाप पड़े कुठरिया में ,
अनब्याही बहिन बैठी घर में ,
करें चाकरी ये लुगाई देवी की ,
बालपन से बडेपन तक ,
सेवा में पिदाया जिस माँ को ,
तरसे वह माँ दो बूँद पानी को ,
काँधों पे लाद घुमाया जिस बाप ने ,
कन्धों का जिसने उसे सहारा ना दिया ,
उस बदबख्त के नाम पर मेरी शहादत ,

क्या हुआ जो वह बिगड चुका अब ,
कसम मुझे तन से निकले आखिरी कतरे की ,
अब भी निभाऊंगी उत्तरदायित्व अपना ,
नित देख मेरे स्वधर्मार्थ प्राण त्याग ,
कभी तो बदलेगा नराधम..?
जाने कब बनेगा मानुष, मानुष का बच्चा...!!

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (12-03-2011)
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अपना...

  
अपना...
 
● अपना समंझने पर सारी दुनिया पर आप का हक है ...
● और न समझने पर एक टुकड़ा भी अपना नहीं ...

▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬ जोगी ..... (०९-०३-२०११ )

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हम कहाँ हैं ? : ( संस्मरण )


हम कहाँ हैं ? : ( संस्मरण )Copyright © 2009-2011

नोट : नीचे मौजूद वक्तव्य मेरी अपनी आँखों देखी सच्ची घटना है जो कुछ साल पहले घटित हुई थी...
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●          रात के अँधेरों में बरसात का जोर चरम पर था ! बारह बजकर पन्द्रह मिनट पर दादर कबूतरखाने के पर बने बस स्टॉप की शेड तले अपने को छिपाने के उद्देश्य से भाग कर मैंने अपनी जगह पक्की की ! पूछने पर पता चला सेंचुरी बाज़ार, वर्ली के लिए आखिरी बस एक बजकर पैंतालीस मिनट के आस-पास मिलेगी ! कुछ मिनट बीत जाने पर बारिश का जोर धीमा पड़ा और चारों तरफ से आ रही फुहारों से कुछ रहत मिली ! पीछे राम-हनुमान मंदिर से जुड़े नुक्कड़ पर पान के केबिन से देवानंद का एक गीत "ये रात ये चाँदनी फिर कहाँ, सुन जा दिल की दास्ताँ.." अपने मद्धिम स्वर में आयद हो रहा था ! मुंबई में बारिश का मौसम सबसे कठिन है कि यहाँ एक बार ठीक से जो बारिस शुरू हुई तो कम से कम चार माह तक अपने होने का अहसास करवाती रहती है ! उस पर भी यहाँ के लोगों का जीवट देखिये इस झंझावात के भी आदी हो चुकते हैं ! कहते हैं खरबूजे को देख खरबूजा रंग बदलता है तो हम ही कौनसे छूट जाने वाले थे, परिणामस्वरूप इतनी रात गए औरों संग मैं भी वहीं उस छोटी सी दबती सिमटती भीड़ का हिस्सा बना खड़ा था !

●          रात में सड़क को खाली जान सामने से अचानक एक नयी उमर के लड़के ने तेज़ी से सड़क पार करने की कोशिश में दौड लगा दी ! परन्तु नसीब का मारा यह नहीं देख पाया कि अन्य दिशा से उसी खालीपन का फायदा उठाती एक टैक्सी भी अपने वेग से चली आ रही थी ! समय की मार कहिये या दुखद संयोग परन्तु इन दोनों के मिलन का होना तय हो गया था ! धडाsssक.....!! जोर की आवाज़ ने कानों पर प्रहार किया ! लेकिन यह क्या, एक साथ तीन-२ आवाजें...? दरअसल टकराते ही उछलकर लड़का कार के बोनट पर जा गिरा और फिर उसी झौंक में दरककर नीचे जमीन पर ! एक ही समय तीन चोट और चौथी चोट ने बेचारे का तिया पाँचा ही कर डाला ! जब वह नीचे सड़क पर पहुंचा तो कार का अगला पहिया उसके बांये पाँव की हड्डी से खेल चुका था ! गीली फिसलन भरी सड़क पर रक्त के गहरे रंग की एक धार बह निकली जिसने कुछ ही समय में पहले से मौजूद गीलेपन से गठजोड़ कर नया फैलाव ले किया और यह दायरा फ़ैलकर अब काफी बड़ा रूप धारण कर चुका था !

●          रात के सन्नाटे को भंग करती बूंदों के अविरल टप-टप गिरने की की ध्वनियाँ जिन्हें बंद दुकानं के छज्जों पर मौजूद तिरपाल के संगम ने बेहद भयानक सा रूप दे दिया था ! इधर हम सब अवाक्...! सब इतना जल्दी हुआ कि क्या कहूँ ! मैंने कार के निकल भागने से पहले ही उसका नंबर नोट कर लिया और लगभग भागते हुए उस युवा के जमीन पर पड़े शरीर के पास जा पहुंचा जो अब झटके खाने लगा था ! एक पल को लगा कि उसका काम हो लिया, परन्तु फिर आस छोडना भी बेहूदगी होती ! इसी बीच पुलिस की बड़ी वैन वहाँ आ निकली ! जहाँ एक ओर बाकी लोग गलबतियों में व्यस्त थे वहीं मैंने अपना हाथ दे वैन को रुकने का इशारा दिया ! ज्यादा नहीं केवल एक ड्राईवर ही था उसमें, और नालायक इतना कि रुकने के बजाय सीधे ही पतली गली को हो लिया ! थोड़ी सी देर में दूसरी बार मेरे अवाक् रह जाने की बारी थी, जिस स्थिति में था उसी में मुँह फाड़े खड़ा रह गया ! कैसे एक सरकारी आदमी वह भी पुलिस डिपार्टमेंट का आदमी अपनी पूरी खाली वैन लेकर कल्टी हो लिया ! जिनके कन्धों पर देश की आतंरिक व्यवस्था टिकी हुई हो उससे ऐसी उम्मीद नहीं कर पाया था सो अचंभित होना स्वाभाविक ही था ! कुछ ही मिनटों में यह सब भी निबट गया ! अब फिर सुनी सड़क मुझे मुँह चिढाती अपने नहाने-ढोने के काम में व्यस्त हो गयी ! आस-पास नज़रें एवं दिमाग दौडाने पर समझ आया कि अब तक मैं जिन्हें अपने साथ समझ रहा था उनकी हैसियत असल में किन्हीं तमाशबीनों से अधिक नहीं थी !

● उन्हीं तमाशबीनों में एक से पुलिस कंट्रोल रूम का नंबर मिल गया ! फोन घुमाने पर जो हुआ वह पहले से भी अधिक परेशानीबख्श रहा ! फोन पर उपलब्ध लोगों ने लड़के के बारे में जानना ना चाहकर मेरी ही जन्मकुंडली निकलवाना शुरू कर दिया ! जिस अंदाज़ में वे मुझसे सवाल पूछ रहे थे उससे तो यही जाहिर हो रहा था कि अब मुझे ही बंद किया जाने वाला हो ! बड़ी मुश्किल से लोकेशन समझकर जान छुड़ाई ! यहाँ बताने लायक बात यह भी बनती है कि टक्कर मरने वाली टैक्सी का नंबर नोट करने में काला-चौकी पुलिस ने कोई खास रूचि नहीं दिखाई जबकि मैं बार-बार इस बात को दोहराए जा रहा था ! साथ ही पुलिस वैन का नंबर बोलने लायक माहौल मुझे मुहैय्या ही नहीं हुआ ! शरीफ एवं सीधा आदमी होने के कारण इस सब से दूर भागना ही उचित जन पड़ा, सो दूर रहकर लड़के के पुलिस द्वारा उठाये जाने का कार्य अन्जामित होते देख वर्ली तक चुपचाप से पैदल ही खिसक आया !

● यहाँ मेरा सवाल बनता है कि क्या एक जिम्मेदार नागरिक होने की सजा खुद को फंसवाकर ही मिलती है ? या वह टैक्सीवाला अधिक अच्छी स्थिति में है जिसने रुकना तक गंवारा नहीं किया जबकि वह दुर्घटना का अहम किरदार था ? या वह पुलिस वैन का ड्राईवर अधिक समझदार निकला जो सरपट खरगोश बन बैठा ? या वे लोग उचित थे जिन्होंने अपनी जुबानों का इस्तेमाल करने जितनी बड़ी महान जहमत उठाई ? या मैं ठीक रहा जिसने अपनी जिम्मेदारियों को निभाने की आधी-अधूरी ही कोशिश की ? या फिर कुछ और ही है जो होना चाहिए पर नहीं होता ? क्या सच में हमारे मन से इंसानियत का इतना अधिक नाश हो चुका है कि हम अपने होने का ही फायदा नहीं उठा पाते हैं और ना ही किसी और के लिए अपना इस्तेमाल कर पाते हैं ? क्या वाकई इंसानियत शब्द को शब्दकोष से निकाले जाने का सही समय आ चुका है.....?

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (06-03-2011)
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टिटहरी : ( कहानी )


टिटहरी : ( कहानी )Copyright © 2009-2011
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         ● शाम सात बजे अपने अडतालीस वर्ग फुटे ऑफिस में बैठा सोच रहा था "आगे क्या होगा जाने...?" कई महीनों से बल्कि कुछ सालों से व्यापार निरंतर अधोगति को प्राप्त किये जा रहा है ! आज जब इकलौता वर्कर भी किसी शादी के नाम पर छुट्टी चला गया तब उसके बदले नौकर बन जाना दिल के किसी कौने में खला भी था, पर मरता क्या ना करता वाला हाल था ! बैंक में बस दस हज़ार रुपये हैं और होली की छुट्टियाँ सामने पड़ी हैं ! जिनसे ऑर्डर्स मिला करते थे वे तो चल दिये रंग-बिरंगे होने को, अब क्या करूँ ? पुराने बिलों को खंगालते एकाध फोन करना समझ आया लेकिन इससे कितना फर्क आ जाना था ?  मेरे संपन्न होने का सभी को यकीन था ! कोई सोच भी नहीं सकता कि आगामी माह से पहले अगर कुछ जरिया नहीं मिला तो शायद भूखों मरने तक की नौबत आ जाने वाली है ! सीधे गरीब होना कितना आसान और सुखद है ना कि जब भी खाने के लाले पड़ने लगें तो सड़क किनारे खड़े होकर पेट भरने लायक इंतजाम कर लो ! यहाँ तो सम्पन्नता का ढोंग करते खुद उस ढोंगी बाबा सा जीवन होने लगा है, जिसे अपने होने से कहीं अधिक अपने बाबा होने का स्वांग रचाते रहना है !

         ● अभी कल ही टीवी में बांद्रा स्टेशन के करीब की झौंपडपट्टी में लगी आग का नज़ारा देखा ! हजारों बेबस-लाचार मासूम लोग एक ही झटके में बिल्डर्स की घटिया स्वार्थी-महत्वाकांक्षाओं की भेंट चढ बेघरबार हो गए ! उनके जलते घरों में जैसे मुझे अपना आज दिखाई देने लगा ! देखा जाये तो ये लोग तो अब मेरे समकक्ष आये हैं वरना बेघरबार मैं हमेशा से किराये के घर में ही तो रहता आया हूँ, जिसका किराया भी कुछ महीनों से सिर चढा हुआ है और जाने किस माह दे सकने लायक होऊँगा ? यदि अपना सारा लेन-देन निबटा कर देखूँ तो उन ताजा बेकसों से कहीं अधिक बेकस खुद को पाउँगा ! वे लोग अब भी शून्य पर टिके हैं परन्तु मैं जाने कब से ऋणात्मक जीवन संग खेल रहा हूँ ! कितना खोखला चोला ओढा रखा है स्वयं को, जैसे असलियत को ह्रदय मानना ही न चाहता हो ! जो जीवन स्तर बना हुआ है उसे बनाये रखना तो दिवास्वप्न सा हो ही गया है, बल्कि हालात तो यहाँ तक बदतर हो चले हैं कि जाने अब आगे कुछ हो पायेगा भी या लौट कर तानों भरी पितृ-शरण लेनी होगी ? एक नज़र से देखा जाये तो कुछ न कुछ काम वहाँ भी करना ही होगा, बैठे ठाले कब तक कोई सहन कर पायेगा ?

         ● शरीर से गहरी निश्वास अनायास ही निष्कासित हो बैठी और सिर छोटी पुस्त वाली किर्सी से टिक गया ! यूँ ही अपने काम के ग्यारह वर्ष बंद पलकों के पीछे से घूम गए ! कितना श्रम किया विगत बरसों में यह मैं ही जनता हूँ ! अपना घर छोड़ मुंबई जैसी महानगरी में आना कोई हँसी खेल नहीं था ! किसी रिश्तेदार द्वारा मुहैया उसके डूबते व्यापार को बढ़ाने में रात दिन जान लगा दी ! नतीजा भी मनवांछित रहा परन्तु हाय री किस्मत, यहाँ से हटाये गए उनके पुराने नातेदारों ने दुश्मनी की हद तक इसे गाँठ से बाँध लिया ! वो दिन और आज का दिन बस रेट की लड़ाई लड़ रहा हूँ ! कभी ऊपर उठने मिला ही नहीं ! सारा मार्जिन और मेहनत प्रतिस्पर्धा की भेंट चढ़ने लगे और अपने को ज़माने की कोशिशों में सिर में सफेदी आ गयी परन्तु जमने के लिए सीमेंट को एक बूंद पानी तक नसीब नहीं हुआ !

         ● इसी बीच परिणय नाम की बीमारी से भेंट हो गयी ! बड़ी खूबसूरत बीमारी घर आ गयी ! मज़े की बात, उसे और कोई नहीं खुद मैं ही ले आया, वह भी खुशी-खुशी गाजे-बाज़ों संग ! कितना खुश था उस दिन जब पहली बार खुशहाल जीवन के स्वप्न संजोने शुरू किये थे ! लेकिन उपरवाले के खेल भी निराले हुआ करते हैं ! घर आयी वस्तु सच में वस्तु ही बन कर रह गयी ! संवेदना विहीन मोम की गुडिया जिसे देखकर खुश तो हुआ जा सकता है परन्तु यह सब देखने तक ही ठीक था, अन्यथा उसके मायने बदल जाने थे ! रिश्तों में भावनाओं की गर्माहट क्या होती है इसे आज तक महसूस नहीं कर पाया ! विगत कई वर्षों से परिणय सूत्र में बंधा हूँ पर आज तक एक दिन भी ऐसा नहीं गुजरा जब लगा हो कि हाँ आज मैं अकेला नहीं हूँ ! कितना सालता है जब आपके साथ कोई हो मगर साथ और अपनेपन के लिए आप रगड-घिसट रहे हों !

         ● पहले बात हो जाया करती थी परन्तु अब हाल उस "टिटहरी" सा हो गया है जिसे सुनते सब हैं पर चूँकि आदत है इसलिए वह आवाज़ अलग से किसी का ध्यानाकर्षित नहीं कर पाती ! यहाँ भी कहाँ कुछ अलग होना था ? सो वही हुआ जिसका डर था, अपने ही आलय में बेसहारा हो बैठे ! हाँ, भूलवश जनसँख्या अवश्य बढ़ गयी ! अब जिम्मेदारियाँ पहले से अधिक थीं और काम उससे भी अधिक रफ़्तार से अधोगति को जा रहा थी ! अक्सर रातों को डरकर उठ बैठना, ह्रदय में रक्त-संचार की बढ़ी गति को एक अजीब सी सिहरन एवं सनसनाहट के साथ यदा-कदा महसूस करते रहना कंपा देता है ! गरदन घुमा कर साथ सोये लोगों को जब देखता हूँ तो लगता है कौन हैं ये ? जिनके लिए आज हृदयगति बढ़कर डराने लगी है, तिस पर भी इन्हें लगता नहीं कि यह सब इन्ही के लिए है ! कुछेक बार मुझमें आये इन परिवर्तनों को भांप भी लिया गया, परन्तु है मजाल जो श्रीमुख से कभी प्रेम के दो मीठे बोल भी विस्फुटित हुए हों अथवा स्नेह से दो उंगलियाँ बालों की सैर ही कर आयी हों, कि शायद मन को कुछ करार आ जाये !!

         ● घर मनुष्य के लिए शारीरिक एवं मानसिक विश्रांति स्थल होता है लेकिन यही घर मकान में तब्दील हो जाये तो आदमी उन दीवारों के बीच जाकर धर्मशाला तलाशे अथवा सकून ? अपनेपन के लिए "टिटहरी" की मद्धिम सी आवाज़ यदा-कदा निकलने लगी है पर नतीजा फिर सिफर ! कुछ समय पहले मन को सकून देती एक नयी सोच ने जबरन कब्ज़ा जमा लिया ! जाने क्या था उस सोच में कि मेंढा घूम-फिर बारहा उसी खूंटे के गिर्द चक्कर काट आता ! कितना समझाया मन को, न जाओ देश पराये पर कोई माने तब ना ! अब जाये भी तो क्यों ना जाये ? जहाँ चारा होगा मेंढे ने घूमना भी तो वहीँ है ना ! जिसने टिटहरी को सुना उसके गिर्द ना बैठे तो क्या पतझड़ के मारे बिन पत्तों के नंगे पेड पर बैठे ? यहाँ भी वहीँ हुआ ! फुदकने के लिए टिटहरी को आखिर मनपसंद वृक्ष मिल ही गया !

         ● इधर कुछ नए रंगों ने जीवन-दस्तक देनी शुरू की वहीं दूसरी तरफ काम ने भी अपने नए दरवाजे खोल दिये लगता है ! इन दिनों कुछ नयी राहें बाहर को इंगित हो रही हैं ! इसके लिए भी कुछ अपने ही जिम्मेदार हैं परन्तु इन अपनों ने बाहर से आकर अचानक ही अपनी जगह बना ली है, पहले से मौजूद नाते तो मस्तिष्क पर ताले अधिक महसूस होते हैं ! अब प्रस्थान होना है नयी राहों के लिए और फिर एक बार शुरू होगा नए रंग में रंगे पुराने सपनों को जीने का नया सिलसिला !

         ● देखें...!! भविष्य की परतों में नया जाने क्या छिपा हुआ है ?


जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (06-03-2011)

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नोट : इस कहानी को किसी भी जीवित अथवा मृत पात्र से ना जोड़ा जाये...
इसमें वर्तमान की आगजनी का हवाला सिर्फ यथार्थ की अनुभूति देने के लिए दिया गया है...
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घरौंदा और परछाई


घरौंदा और परछाईCopyright © 2009-2011

गर  होता सम्भव,
चिन कर खुद को खुद पर ,
किसी निर्जन वीराने में ,
पित्तुल बनाता खुद को ,

न होता भय,
किसी बालक के ठेस लगा जाने का ,
न आता कथित कोई अपना ही ,
दूर बहुत दूर ,
उड़ते किसी खग की ,
पल भर की विश्राम स्थली बन जाता मैं ,
उड़ जाने पर,
रह जाना पीछे अकेला ,
मुझ से बने घरौंदे का ,

जीना है अब मुझे फिर अकेले ,
पीछे छूटे स्मृति चिह्नों संग ,
बीट में फंसे फडफडाते फर ,
गाने लगे उड़ चुकी जीवन गाथा ,

सूखे घाम से सिक्त कठोर पित्तुल की परतें ,
एक रंग रंगे पत्थरों का सूनापन ,
कहीं धूप कहीं छाँव सा उनके जैसा मैं ,
स्वयं की पड़ रही परछाईं ,
देख-देख उसे पुलकित होता मैं ,

शाम ढले आते धुंधलके संग धुंधलाती परछाईं देख ,
छपाके संग कुछ गिर जाने से मिटती परछाई देख ,
फिर यथार्थ में आता मैं ,
नीरस अँधेरों संग अस्तित्व की लड़ाई को लड़ता मैं ,

कब तक..?
कब तक करूँ संघर्ष ?
कब तक सब होने पर भी दिखे एकाकीपन..?
कब तक अपने ही जिंदा होने का भान खुद को कराऊँ मैं..?

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 04-03-2011 )

नोट : इस कविता का प्रेरणास्त्रोत यही चित्र है जो इसके पृष्ठ भाग में है...
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● फ़रिश्ते होते हैं बंधुवर ● (एक खोज)


फ़रिश्ते होते हैं बंधुवर (एक खोज)
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फरिश्तों को ढूँढने ,
दूर कहाँ जाते हो मित्रवर ?
वे नहीं मिलेंगे तुम्हें ,
किसी झील-पोखर के किनारे ,
ना घर में ना बाहर ,
ना निकलती श्वासों में ,
ना मिलेंगे किसी मानुष में ,

फ़रिश्ते होते हैं बंधुवर ,
वे मिलेंगे तुम्हें ,
कल्पनालोक की गलियों में ,
मन की चाक कंदराओं में ,
भीतर प्रविष्ट होती श्वासों में ,
मासूम चातक की भोली आँखों में ,
कहाँ जाते हो दूर बंधुवर ,
दफ़न मिलेंगे ह्रदय के गहन अँधेरों में..

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 03-03-2011 )
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मेरी ऊपर वाली कविता जिन दो पंक्तियों से प्रेरित होकर बनी है वे नीचे लिखी हुई हैं :

वो फरिश्ते आप तलाश करिए कहानियो की किताब मे,
जो बुरा कहे न बुरा सुने कोई शख्स उनसे खफ़ा न हो ..... ( ऋतु दुबे )
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वो उनकी चुहल


लीजिए एक शेर मेरा भी ,
उम्र के ढलते पैमाने और ,
उसे भूल होते उल्लासित ,
हौले से वो उनकी चुहल ,
मुस्कराहट क्यूँ ना निकले...

● जोगी :) ▬● ०३-०३-२०११
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स्वयं से विद्रोह ● (एक कसमसाहट)


स्वयं से विद्रोह(एक कसमसाहट)
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●     क्यूँ होता है कि हमारे चारों तरफ सब कुछ दिखाई देने के बावजूद हम खुद को अकेला पाते हैं...? बालपन से बड़े होने तक का सफर जिन संगी परिजनों संग व्यतीत होता है अनायास ही होश आने के से अंदाज़ में सब पीछे को छूटते नज़र आते हैं... और एक नया साथ जिसे हम जानते तक नहीं थे अचानक हमारे जीवन की धुरी का अभिन्न पहिया बन संग सफर को चलने लग पड़ता है... वही धुरी कभी जब कब्जों से कमजोर हो लहकने लगे तो कौनसा साया हो जो अपना भीना सा अहसास करा दे आकर...? बंधनों की तड़प से मचलता व्यक्तित्व किस कदर बेबसी के आलम को जीता है यह उसे महसूस करने वाले से बेहतर और कौन है जानेगा...? न आगा नज़र पड़ता न ही पीछा जान पड़ता , कैसे बोध मिले सह-अस्तित्व का...?

●     महानगर की पुरानी वृहद बस्ती की तंग गलियों के उलझाव जैसा बंधित ह्रदय , कैसे उस उतरी पतंग की जंजालित डोर सुलझाऊँ...? जाने कब से मेरी पतंग बिजली के खम्भे पर तारों मध्य कटी फंसी है... डोर का निचला सिर भी पहुँच सीमाओं से परे है... मन हर बार मचल-मचल दायरों के बाँध तोड़ने की कोशिश में अपनी ही दरो-दीवारों पर घर्षण चिह्न बनाता जाता है और कुंए की मुंडेर पर पड़े निशानों जैसे निशान हर बार एक नए दर्द का अहसास दे जाते हैं... नया करने की कसमसाहट कब छटपटाहट में बदल जाती है पता ही नहीं चलता...इसी बीच जीवन चक्र अनेकानेक मौके उपलब्ध कराता तो है परन्तु ये मौके अदृश्य कैदखाने में से मिलने आये मुलाकाती जैसे होते हैं...

●     क्यूँ नहीं जीवन अथवा कालक्रम कुछेक हजार साल पीछे को चला जाता , जहाँ एक अलग परिदृश्य के बावजूद घुटन से आज़ादी नज़र आती थी...? कितने जद्दोजहद और मानसिक उथलपुथल के उपरांत समझ आता है अगर कुछ बरस ही पीछे लौटा जाये तो जाने कितने ही घटनाक्रम बदले जा सकते हैं... संभव है मानव मन के व्यर्थ प्रलाप हों यह सब , तब भी कुछ प्रलाप अपने अंजाम तक ना पहुँचते हुए भी भ्रमों के साथ एक अजीब सी संतुष्टि प्रदत्त करते हैं... स्वप्न लोक सी अनुभूति जिसमें मुंदी पलकें उन सब खयालों को जीवंत देखना चाहती हैं जिन खयालों को हमसे कभी मिलना तक नसीब नहीं होना था.... खुली पलकें , मुंदी पलकें... सारा खेला इन्हीं परिस्थितियों के मध्य अधरझूल पालने में लटका पड़ा रहता है...

●     आज पुनः जीवन वृत्त अपने चाप पर स्वयं को दोहरा रहा है... वो कहते हैं ना , मानसिक त्रासदी नए मार्गों की जनक होती है... परन्तु सवाल है , मन जिन अधूरे मार्गों को छोड़ नए मार्गों की ओर प्रस्थान होने हो है वे बंद तो होने से रहे और ना हमें कभी उनपर चलना ही नसीब होने वाला , तो क्यूँ ''ना इधर और ना उधर'' वाला राग अपनाया जाये...? क्यूँ नहीं वह किया जाये जो होना मस्तिष्क के लिए सकूनबख्श हो...?

●     अभी हम समूह रूप में इतने भी आजाद नहीं होने पाए हैं कि यह सब किया जा सके , पर क्या उस कथित सभ्यता के सींखचों की दरारों को और बड़ा नहीं किया जा सकता...? वस्तुस्थिति पर प्रवचनकुशल बहुतेरे मिल जायेंगे पर सामाजिकता की नकाब ओढ़े वे सारे ढकोसलेबाज़ भीतरखाने में स्वयं भी उसी कसमसाहट से गुजर रहे होते हैं और समय आने पर चोरी-छिपे अपने सभ्य चोले को उतार फैंकते हैं... तब क्या फर्क रह जाता है स्पष्ट विद्रोही होने और एक चोर डरपोक विद्रोही में...? काम तो दोनों के एक ही से हैं , परन्तु दोषी केवल एक ही क्यूँ...? क्या इन सब के पीछे हमारे समाज की वर्तमान संरचना ही तो जिम्मेदार नहीं...? ऐसा समाज जो बंधन दे तो सके परन्तु उन बंधनों में बंधे जंतुओं को उचित दिग्दर्शन ना दे सके तो किस काम की यह संरचना...? इससे बेहतर स्थिति में तो हम जानवर ही क्या बुरे थे जहाँ हर बात के लिए कोई नियमावली तो नहीं है... हाँ , शायद जानवर कहलाकर मुझे कहीं अधिक खुशी का अनुभव होगा... हाँ शायद इंसान से बेहतर जानवर ही होगा क्यूंकि उनकी बुरी दशा के लिए भी जो जिम्मेदार है वह भी इंसान ही तो है... जाने कब इंसानी चोले से मुक्ति पाकर स्वच्छंद पंछी बन गगन विचरण सम्भव होगा... प्रतीक्षा में हूँ उस घडी की जो संभवतः कभी नहीं आनी है... :(

▬● जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (02-03-2011)

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