काश.. ये बुढिया जवान होती..!!

● काश.. ये बुढिया जवान होती..!! ● 


कोई बुढिया अगर चिलचिलाती धूप में ट्रैफ़िक सिग्नल पर कुछ बेचती नजर आ जाए तो इसे कोई कैसे रोक सकता है जब इसके अपने ही इसे बाहर का रास्ता दिखा चुके हों... रेयर केस में इनकी मज़बूरी परिवार चलाना रहती होगी वरना अक्सर घरेलू मानसिक अवहेलना या प्रताड़ना ही एक कारण हो सकती है जिसके चलते ऐसे लाचारों को पेट की खातिर आराम करने की उम्र में भी काम करना या सामान बेचना पड़ता होगा... जो कारें इनको इग्नोर करके चल देती हैं उनकी अपनी समस्याएं होंगी... किसी के काँच गहरे होंगे तो किसी के गोगल्स गहरे कलर के रहे होंगे... वहीं अपने मतलब की चीजें गहरे काँच के पीछे से देखने की कला सभी सीख जाते हैं... काश...ये बुढिया जवान होती.....

जोगी ..... :'(
( 21-04-2012 )

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हवा का झौंका


हवा का झौंका


हवा का झौंका ,,,
ज्यों आता , त्यों चला जाता है ...
न रूप न रंग , बस तुम ही सा नजर आता है ...


जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (18-04-2012)

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बेघर अरमान


बेघर अरमान


अरमानों का क्या है जी.......
वो तो होते ही हैं बाजारों के खैरख्वाह......
इन्हें हावी न होने दो दिल पर........
उनका बेघर होना फिर वक्ती रस्म रह जाना है.......

Jogendra Singh ( जोगेन्द्र सिंह ) 11-04-2012
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ज़हानत


ज़हानत


कितने ज़हीन हो तुम ,
हर शै को समझते हो तुम,
जज्बातों को भी समझते हो तुम,
फिर खेल उन्हीं संग क्यों जाते हो..?

● जोगी 09-04-2012

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अब यहाँ आने का दिल नहीं करता


अब यहाँ आने का दिल नहीं करता ● 

अब यहाँ आने का दिल नहीं करता,
यहीं कहीं दबी हैं, आस-पास मेरी यादें,
सुमधुर कुछ विलगाव से भारी यादें,
कुछ कुंद-भौंथरी-प्रखर सी यादें हमारी,
बुना था काप्पुस से जहाँ इक नीड हमारा,

कुहुक के स्वरों से सजा एक आशियाना,
यहीं तो रचा बसा था वह उपवन,
जहाँ उदर क्षुधा से क्षुब्ध,
कीट खोजती हुट्टूटी के पंजों के,
चिह्नों सजा था एक सपनीला आंगन,
हाँ वही जो था हमारे सपनों से सजा नीड,
वही जो भ्रमित क़दमों तले यहीं रौंदा गया,

चूने-गारे से बने सदियों टिके मजबूत महल,
किस कदर एक झोंके भर से भरभरा जाते हैं,
फिर राख ही क्या बुरी थी उन्हें बनाने को,
भरभराने के बाद बनना उन्हें राख ही तो था,
नींव का एक पत्थर कम रह गया था शायद,
अन्यथा हमने कोई कसर भी तो न छोड़ी थी,

वाकई अब यहाँ आने का मन नहीं करता,
कि यहाँ मैं और तुम तो हैं लेकिन,
वो आशियाना, वो नयनाभिराम नीड हमारा,
बस एक वही है जो बिखरा नजर आता है,

बिखरे घरौंदे के भग्नावशेषों बीच कहीं,
खुद को खंड-खंड बिखरा पड़ा पाता हूँ,
बैठा हूँ जाने कब से जड़वत यहीं सामने,
इस आस में कि तुम आकर कह जाओ,
अब न रहा वह भ्रम है बाकी और,
न वह खलिश है मन में बाकी रही,

टकटकी लगाये नैन सूख चले मेरे,
इस बार शायद तुम न आओ,
कुंद बातों को प्रखर बना दिल पे लेने की,
आदत जो है तुम्हें,
शायद फिर एक चाँद और चकोर होगा,
निहारेगा चकोर तुम्हें और तुम चल देना,
तिमिर भरे अंतरालिक अपने नित्य पथ पर..

जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh (08-04-2012)
http://web-acu.com/
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सूरत-ऐ-हालात



● सूरत-ऐ-हालात ● ©

जाने कितना समझाया बेबस दिल को,
बेकस दिल पे रहम किसी को न आया ||
सूरत- ऐ -हालात इतने संगीन न होते,
हमारी खताएं जो वो मुआफ कर जाते ||


● Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह (07-04-2012)
http://web-acu.com/
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