गुड्ड वाली नाईट Good Knight

गुड्ड वाली नाईट Good Knight


जे चक्कर क्या हो रिया है बंधु.............?

जिसे देखो वही सोने चल दिया है बंधु........?

जा जाके जाने फिर कैसे आ रिया है बंधु............?

गुड्ड वाली नाईट बोले बगैर कैसे जा रिया है बंधु........? ● जोगी

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क्यूँ आज भी ?


● क्यूँ आज भी ? ●

क्यूँ पाकर भी आज अधूरे हैं हम दोनों...........?
क्यूँ मिलकर भी बिछड़े से हैं हम दोनों..............?
क्यूँ आज भी धुँध से अक्स बनाते हैं हम दोनों...........?
क्यूँ आज भी सर्द हवाओं से डर जाते हैं हम दोनों..............?

...●... जोगी ● 19-03-2012

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ढक्कन बाबा की जय


ढक्कन बाबा की जय ● © (हास्य-व्यंग्य कहानी)


● ढक्कन बाबा की जय ● © (हास्य कहानी)
(मुख्य पात्र : विशाल, हरबंस गुप्ता, अपर्णा, रामेश्वर, संजीव, रश्मि)
Instant talk for commercial writing ●>  +91-900-404-4110
[ १ ]
     एम.ए. पास टेलेंटेड नौजवान विशाल आज अपने जीवन के सबसे अहम इंटरव्यू के लिए कमर कसे बैठा था | आज पास होना उसके लिए उतना ही जरुरी था जितना किसी भूखे के लिए रोटी का टुकड़ा | सामने सोफे पर धँसे फंसे बुजुर्गवार हरबंस गुप्ता ने ज्यों ही पहला प्रश्न उछाला लपक के उससे पहले ही विशाल का जवाब था- "चिंता न करें अंकल अपर्णा मेरे साथ हमेशा सुखी रहेगी | कभी उसे किसी तरह की कमी नहीं होने दूँगा उसके लिए मुझे चाहे कितने ही झंझावातों से गुजरना पड़े"| अंकल ने कुछ यूं घूर के देखा जैसे नजरों ही से कच्चा चबा जायेंगे | क्यों न घूरते सवाल के बिना आया जवाब कौन है जो पसंद कर लेता | हुलिया उनका कुछ यूं रहा- "बिचकी सी आँखें जिनपर रखी कम ऊँचाई की ऐनक जैसे वो आँखों से छोटेपन की शर्त लगा जीतने की फ़िराक में हों, मस्तक पर शंकरी चार आडी लाईनें चेहरे के रुबाब को बढाती ही थीं, ऊपर से नीचे को सपाट आती नासा के अग्र भाग का फैला होना इस प्रकार था जैसे किसी ने धम्म से घूंसा ठांसकर पिचका दी हो, ओंठ सामान्य थे मगर बड़े लम्बुतरे चेहरे में कुछ पतले प्रतीत होते थे और उनका मटमैला गहरा वर्ण उनके लगातार सिगरेट पीने की आदत को दिखाता था जिसे बीते आधे घंटे में पूरी तीन बार सुलगाकर उन्होंने साबित भी किया, नैनों से टपकती धूर्तता पुराने महाजनी के व्यापार को छुपाने में नाकाम रही, मोटे गले से नीचे को आते वक्त कहने को बहुत कुछ था लेकिन ज्यादा नहीं देखकर पेट ही पर अटक जाते हैं जिसकी अचानक आयी ऊँचाई ने ऊपर से आती नजरों की तेज रफ़्तार फिसलन को भी ब्रेक थमा दिए और उस नाशपाती समान धँसके-लटके गोल पेट तक जाकर हुलिए की बयानी को फुल स्टॉप लगा दिया"| अपनी बड़ी बेटी अपर्णा के लिए विशाल को पसंद करने आये थे आज लेकिन उनके लिए प्रश्नोत्तर भी संभवतः व्यापार हुआ करते थे | यूं तो कोई कमी न थी विशाल में परन्तु दो बहनों के होने से प्रश्नों में बेटी के सीक्योर भविष्य की चिंता साफ झलका गये और बदले में विशाल को अपनी नौकरी के लिए दिया पहला इंटरव्यू इससे कहीं ज्यादा सुगम जान पड़ा |
[ २ ]
     मुँह के आगे बिछी टेबल पर छरहरे बदन वाली पच्चीस वर्षीया खूबसूरत कल्पलोक की नायिका सी अपर्णा कागद रूप धर पड़ी नजर आ रही थी और सामने से हिटलरी अंदाज में जिरह | जाने किसे देखूँ किसे जवाब दूँ यह सोचते समझते टेबल व सामने देखने के बीच उलझा जाने कितने सवालों को अजीब लगने वाले जवाबों से शुशोभित करता चला गया | परिणामतः विशाल की अपर्णा से उतनी ही दूरी भी बढती चली गयी | एक सवाल तो इतने कमाल का जिसने होश ही उड़ा दिए उसके | हिसाब लगाकर पिछले पाँच साल की कमाई जोड़कर बोले- "इतना रूपया तो होगा ही तुम्हारे पास? कहीं बैंक में, कैश या किसी और तरह?" सुनकर विशाल को गुस्सा आ गया | तपाक से कहा उसने- "हाँजी है, सारा पैसा थाली में सजाकर रखा है | आपकी बेटी आयेगी तो उसके राज में भी यही काम कर दिखाऊंगा | खाना-पीना, ओढना-पहनना, आना-जाना ये सब खर्चे तो आप दे ही देंगे आकर ! हमें करना ही क्या है? कमाई तो ससुरी सगरी बैंक में ही जानी है"| भड़क गये, कहने लगे- "रामेश्वर जी ! क्या इसी बेइज्जती के लिए आप लड़की वालों को बुलाते हैं ? किसी की कोई इज्जत नहीं क्या ? शरम आनी चाहिए आप लोगों को जो घर आये मेहमान के साथ ऐसी बदजुबानी करवाया करते हैं | और ऐसे बदतमीज बददिमाग लड़के से मैं अपनी बेटी तो क्या कोई अपनी कुतिया भी न ब्याहेगा"| इसके साथ ही फोटो टेबल पर भूल उठकर चल दिए |
[ ३ ]
     सन्नाये से बाप-बेटे उसी मुद्रा में साकत हुए रह गये | शून्य में घूरती विशाल की आँखें पूर्णतः शून्य को नहीं पा सकी थीं | उनमें गर्दिश कर रही थी टेबल पर पड़ी अपर्णा की वह फोटो जिसने पहली नजर का तीर बन दिखाया था | सकता पहले रामेश्वर पर से टूटा, सीधे द्वार को भागे कहीं बच्चू हाथ लग जायें तो कुछ खरी-खोटी सुना आऊँ मगर तक़दीर के खेल उनकी दौड से तेज निकले और हरबंस गुप्ता जी का स्कूटर यह जा और वह जा | हाथी देखते ही एवं उसके गुजरने पर जिस तरह कुत्तों का भौंकना शुरू हो जाता है ठीक वैसे ही रामेश्वर जी के श्रीमुख से अमृतरस बरस रहा था पर सुनता ही कौन था इसे | तिरछे सामने वाले घर की खिडकी फटाक से बंद हुई तब जाकर तन्द्रा लौटी | भीतर आकर दूनी भडकन से फिर शुरू हो गये "नासपीटे, घुस जा इस फोटू में, बाप की इज्जत भरे बाजार लुटाकर कलेजा ठंडा नहीं हुआ जो अब इस कागद की चिंदी पे लट्टू हुए जाता है? ला इधर"| कहते हुए फोटो के चार टूंक यों किये जैसे जीती छोरी को ही चीरे जाते हों | वहीं सामने बैठे विशाल को लगा जैसे फोटो नहीं उसके दिल के टुकड़े चार हुए जा रहे हों |
[ ४ ]
     थोड़ी देर बाद डस्टबिन से बीने गये चारों टुकड़े विशाल के व्यक्तिगत कमरे में मौजूद टेबल की शोभा कुछ यूं बढ़ा रहे थे जैसे वो कोई ऑपरेशन टेबल हो और वहाँ अपर्णा का चिरा हुआ शरीर फिर टाँक दिया जाना हो | कांपते हाथों संग ट्रांसपरेंट टेप का सबसे बेहतरीन इस्तेमाल करते हुए फिर जुड गयी अपर्णा और हर्ष से अपना विशाल एकदम बावला हुआ जाता था | कुछ देर पहले का जोश अब ठंडा हो चुका था, उस पर कन्या कुंवारी अधिक भारी प्रतीत होने लगी थी | सम्बन्ध टूट जाने के दुःख ने ऑफिस से तीन दिन बिना खबर दिए गायब करवा दिया | फोन बंद, दिमाग बंद, सब बंद | तीसरे दिन जैसे बिजली का करंट लगा हो ऐसे भागता हुआ सीधे अपने कंप्यूटर पर जा चिपका वह तो शुकर है किसी ने देखा नहीं वरना बिजली से छुड़ाने के बहाने ज्यादा नहीं तब भी दो-चार डंडे तो रसीद हो ही गये होते | फेसबुक, ट्विटर, लिंक्ड-इन, ऑरकुट और जाने कहाँ-2 नहीं छान मारा | वे सारी जानकारियाँ सर्च में इस्तेमाल कर डालीं जो संभावित ससुरजी भूलवश छोड़ गये थे |
[ ५ ]
     आखिरकार फेसबुक पर मिली, परन्तु प्रोफाईल फोटो मैच नहीं हो पायी लेकिन जानकारियाँ बाकी सब टिंच लग रही थीं | आव देखा न ताव भेज दी रिक्वेस्ट, नसीब इतना जोरदार तुरंत एक्सेप्ट भी हो गयी | ऑनलाइन जानकर उससे पंचायती भी शुरू हो गयी, सारी जानकारियाँ अपने पहलु पर झाड़ू मारकर अपर्णा के इनबॉक्स में पेल दीं | एक तो बंदा स्मार्ट और ऊपर से ठीक-ठाक जॉब, पूरी तरह इग्नोर कैसे कर देती, पापा का क्या है पहले ही से जानती है कि नंबरी खडूस हैं | बड़ी बहन का रिश्ता ही लगभग बुढ़ापे में प्रवेश करते तय किया था, जाने उसके साथ क्या करते? अपने-अपने कमरों में बंद होने के बाद क्या गुल खिला रहे थे कोई न जान पाया | इधर दोनों घरों में रिश्तों की बाढ़ आ रखी थी मगर अब तक विशाल को अपर्णा का विकल्प सा कुछ नजर नहीं आया | यही हाल हरबंस गुप्ता जी के घर का भी था, कई लड़के देखे लेकिन कोई भी अपनी समूची कमाई रकम बैंक में नहीं दिखा पाया |
[ ६ ]
     अचानक से विशाल को लगने लगा यदि उसका प्रेम (पता नहीं पंचायती को प्रेम कैसे समझ बैठा) नहीं मिला तो रो-रोकर अपनी जान दे देगा | पता चलने पर अपर्णा ने बिना मरे ही उसकी सच्चाई का यकीन कर लिया और प्रेम के भरोसे उसी शाम भिड गयी पिता हरबंस गुप्ता से | ताने-विताने, चुटिया तक खींचकर लंबी कर दी गयी गयी मगर हरबंस जी ने न मानना था न माने | आखिरी हमले के तौर पर घर छोड़ भागकर शादी कर लेने की धमकी पर कुछ नरम पड़े लेकिन अकड अभी बाकी थी, खाते के रुपये देखने की साध पूरी तरह खत्म नहीं हुई थी | कहने लगे "पूरी ना सही आधी तनख्वाह ही दिखा दे | बनिए की छोरी से ब्याहेगा, पैसे जोड़ना नहीं सीखेगा तो और क्या है जिसके बल शादी पा पायेगा?"
[ ७ ]
     अगला दिन, रामेश्वर जी के घर सुबह ग्यारह बजे का माहौल कुछ इस तरह का था - बाएं सोफे पर पिछली बार ही की तरह धँसे फंसे बुजुर्गवार हरबंस गुप्ता अपने मुँह से धुँए के बगोले उड़ाते नये प्रश्न जड़ते चले जा रहे थे और रामेश्वर जी चुपचाप बिना जवाब दिए अपनी जगह जमे बैठे थे | चेहरा एक ही दिशा में जड़ हो रखा था जैसे कसम खा रखी हो इस चेहरे के सिवा कुछ और है ही नहीं जिसे देखाने की चाहत हो | वहीं विशाल नये सिरे से इंटरव्यू में पास होने की कोशिशों में आज एक बार फिर अपनी तैयारियों को अन्जामित होते देख रहा था | जैसे ही हरबंस गुप्ता ने रिश्ते पर मोहर लगायी रामेश्वर जी के चेहरे और गिरगिट नामक जंतु के सारे बदलते रंग आपस में गड्ड-मड्ड होने लगे | बिना वक्त गंवाए उन्होंने हरबंस जी को हाथ पकड़कर चौखट से बाहर का रास्ता दिखा दिया | अजी मौका कैसे छोड़ देते बदला लेने का, पिछली बार तो जनाब इनके बाहर पहुँचने से पहले ही चम्पत हो लिए थे, अब कोई आकर बचाए इन्हें | हरबंस जी दीन दुनिया से बेखबर बेदिमाग से खिंचे चले जा रहे थे जैसे किसी की नाक पर मुक्का मार दिया जाए तो किस तरह दिमाग कुछ क्षणों के लिए कुंद अथवा निष्क्रिय सा हो जाता है बस उसी तरह हरबंस गुप्ता जी का दिमाग भी संभवतः अंतरिक्ष की किसी निहारिका (आकाश-गंगा) में परवाज करने गया होगा | होश आया तो घर के द्वार पर खड़े शरीर को मानसिक शक्तियों के जोर से बिलकुल बेदम सा पाया | क्यों न होता बेदम? बेइज्जती का जो स्वाद अब तक दूजों को चखाते आये हैं वही अब उनकी अपनी जिव्हा पाए बैठी थी | कुछ कहने की कोशिश करी मगर मस्तिष्क की वे वाली तंत्रिकाएँ अधिक सक्रीय थीं जिनमें निकाले जाने का दृश्य रिपीट मोड में दिखाई दे रहा था | गुस्से और शर्मिंदगी की अधिकता से फूलते-पिचकते नथुनों से निकलती तीव्र वायु के कारण किसी बैल से कम नजर नहीं आ रहे थे, जाने कैसे बस किया वरना साधारण कद काठी वाले रामेश्वर जी का तो सच ही रामपुरी का टिकट कट लिया होता | लिहाजा लौटकर घर को आये और फिर एक बार अपर्णा की चुटिया लंबी कर दी गयी | इस बार छोरी के शरीर के दूसरे अंग भी दरद दे रहे थे | कई अंग भीतरी रूप से आपस में बेताली ताल मिलाये जा रहे थे |
[ ८ ]
     अकड़ी गर्दन लिए रामेश्वर जी ने अन्तःपुर में प्रवेश किया और लगे डींगें हाँकने, किस तरह उस दबंग आदमी की दुर्गत मचाई जिनकी सारा नहीं तो तिहाई शहर अवश्य दबंगई मानता होगा |  विशाल की हिम्मत नहीं पड़ी अन्तःपुर में प्रवेश की वह सीधा सोसाइटी पार्क के पीछे बहने वाले नाले पर रखे लंबे पत्थर वाली पटड़ी पर जा मातम मानाने में व्यस्त हो गया | प्रेम हार चुका था, प्रेमिका के पिता की नाक (इज्जत) बह निकली थी, कुछ दिन पहले अपनी और अपने बाप की नाक से बहते नाले दिखाई न दिए हों मगर ससुरजी की बात ही कुछ और थी | शाम का समय था इसी पटडे पर यार लोगों की बैठक जमा करती थी | नीचे बहता-रुका गंदले पानी को समेटे संकरा नाला और ऊपर तीन से पाँच दोस्त रोजाना हाथों में बोतलें लिए कै-किलबिल में लगे होते | एकाध बार इस नाले की डुबकी लेकर भी घर को जा चुके हैं कि होश का दमन छूटते ही सुध कहाँ रह जाती है | दुर्भाग्य से आज एक ही दोस्त आया था लेकिन माल पूरा था भाई के पास, आते ही शुरू को गये दोनों और दुखड़े को गाने में घंटा निकल गया | पूरे सवा घंटे बाद जब संजीव (दोस्त) ने अपर्णा का नाम सुना तो बगल में बैठे देसी आवारा कुत्ते से बाजी लेते उसके कान खड़े हो गये | कहने लगा- "ये वही अपर्णा है ना जिसका बाप हिटलर की पीढ़ी का है? जो नूतन कॉलेज के लास्ट इयर में पढ़ रही है? जिसके फेसबुक अकाउंट में ताजा फोटो एक बिलौंटी की है?" चमक कर विशाल ने कहा "हाँ-हाँ संजीव, ये वही है"| संजीव ने कहा-"कमीने तू दोस्त नहीं दोस्त के नाम पर कलंक है, पिछले एक साल से मेरा उसके साथ अफेयर चल रहा था, अचानक बोलती है उसे कोई बढ़िया नौकरी वाला लड़का बाप ने देख दिया है | वो लीचड तू निकलेगा मैंने सोचा तक नहीं था"|
[ ९ ]
     "धोखेबाज़, तूने मेरी लौंडिया उड़ाई है और मैं सोचे बैठा था जिस दिन उस नामुराद का पता मिलेगा उसका जीना मारना एक कर दूँगा"| इसी के साथ घूंसे की शक्ल में संजीव का बायाँ हाथ नशे की पिन्नक में झूमते विशाल के कान के ठीक नीचे जबड़े की जड़ में पड़ा | प्रत्युत्तर में गिरते-गिरते भी विशाल ने बाँहों से संजीव की कौली भर ली | क्षणों में दोनों नाले में पड़े कर्दम (कीचड़) संग होली मना रहे थे | लोटपोट होते कितनी कीचड़ आँख-नाक में गयी और कितनी मुँह से थूकनी पड़ी दोनों में से कोई न जान पाया | रोजाना इनके दारू के चखने से बोटियाँ पाने वाले कुत्ते मोती को शायद यह सब पसंद नहीं आया सो उसकी भऊ भऊ की आवाज भी इन दोनों के सुरों में मिलती चली गयी | थोड़ी देर बाद गिरते-पड़ते-लड़खड़ाते निकले बाहर और एक दूसरे को कानों से कीड़े झाड़ने में सक्षम शब्दावली से नवाजते हुए धीरे से उठकर अपने अपने घरों की राह चल दिए |
[ १० ]
     माँ बोली- "नासपीटे, अब तक तो झूमता ही आता था और अब ये ज़माने भर की कीचड़ भी साथ लाने लगा?" दो झापड ज़माने का मन होकर भी माँ ऐसा करने की हिम्मत न जुटा पायीं, ऐसी विष्ठा से भरे चेहरे को छूने भर की भी इच्छा कौन कर सकेगा? घिन और बदबू से कै आने को थी, अपने नसीब को कोसते हुए नहाने की हिदायद देकर चलती बनीं | नहाते वक्त कई जगहों पर हाथ नहीं फेरा जा रहा था, दर्द भरी ऐंठन से सारा शरीर टूटा जा रहा था | नहाकर सबसे पहले शीशे में निहारा खुदको, अपने सूजे थोबड़े को देख संशय में पड़ गया कि मारा तो मैंने ज्यादा था पर ये परसादी मेरे हिस्से ज्यादा कैसे कैसे आ गयी? बाहर गया तो फिर एक झोंका माँ-बाप के जोड़े के श्रीमुख से निकले प्रवचनों का आया, जिस गति से बाहर आया था दूनी रफ़्तार से भीतर भी समा गया |
[ ११ ]
     कमरा बंद करके विशाल ने फोन लगाकर पूछा जरुरत क्या थी तेरे बाप को एक बार फिर नौटंकी वाले तरीकों से बात करने की? और ये संजीव शुक्ला का क्या चक्कर था तेरे साथ? एक पल को तो अपर्णा सुट्ट खींच गयी लेकिन जवाब तो देना ही था और चोटी का लम्बापन सिर की खाल को हजारों छिद्रों पर से दुखाये जा रहा था सो यह जान कि इस रिश्ते का कोई अंजाम नहीं भड़क पड़ी- "तुमने मुझे खरीदकर कोई लौंडी बांदी बना रखा है क्या जो मैं तुम्हारी हर बात का जवाब दूँ? दो कौड़ी का आदमी और उसके लिए इतनी तकलीफें झेलो? अब झेले मेरी जूती | तेरे बाप की प्रोपर्टी और तेरी नौकरी देखकर तुझे हाँ की थी वरना अच्छी सूरत तो हर गली में एक मिल जाती मुझे | आज के बाद फोन करने की जुर्रत तक न करना वरना कुत्ते छुडवा दूंगी |" इतना बोल काट दिया फोन | अपनी जगह साकत कुछ सोचने से लाचार खड़ा नसीब को कोसने लगा | हाय रे! मेरे ही मत्थे पड़ने थे इत्ते सारे दुष्ट? ओये! नरक मिलेगा सालों, कीड़े पड़ेंगे सबको (भूल गया था कि उनमे एक उसका बाप भी था) |
[ १२ ]
     भरपेट बददुआएं दे चुकने के पश्चात दरवाजा खोलकर स्टोररूम से बेगोन-स्प्रे की बोतल उठा लाया | सुसाइड करूँगा सोचकर ढक्कन खोलकर बोतल मुँह से लगाने का प्रयास किया परन्तु मरने के लिए भी हिम्मत चाहिए होती है, हिम्मत कम होने से अधपका इरादा ढक्कन चाटने जितनी दूरी ही तय कर पाया कि ढक्कन पर भी कभी न कभी बेगोन लिक्विड लगा ही होगा | अरे भईया बिना बोतल हिलाए नया ताजा माल ढक्कन तक जायेगा कैसे? और जो चला भी गया तो तू कोई मच्छर तो है नहीं कि चाट लिया और दुनिया से चट हो लिया? सुसाइड नोट लिखकर दरवाजे के पास उसी बोतल से दबाकर बीचों-बीच रख आया कि कोई आये तो पहले यही देखे |
[ १३ ]
     सबसे पहली नजर पड़ी छोटी बहन रश्मि की जिसने आज तक चैनल को भी पीछे छोड़ दिया और सबसे तेज खबर माँ बाप से कहीं आगे जाकर मौहल्ले तक के दीदार कर आयी | अब क्या था एक तो छोटा शहर ऊपर से लगभग सभी आपस में जानने वाले | जो ताने मिलने शुरू हुए पापियों को नगर भर में कि पूछो मति | बड़ी देर बाद घरवालों को सुधि आयी तो दो-झापड, दो-पुचकार और दो-फोन हॉस्पिटल और पुलिस के नाम हो गये | इधर विशाल साहब अपने स्प्रिंग बेस से बने उछाल वाले गद्दे पर पड़े सोच रहे थे- "मौत का दर्द कैसा होता होगा? कितना तडपन मिलती होगी? मुझे मिलने वाली तड़पन आखिर शुरू कब होगी? कहीं ऐसा न हो कि पता भी न चले और खुदागंज का टिकट कट ले मेरा? हाय मेरा बलिदान व्यर्थ चला जाना है"| उधर इकलौते बेटे को खोने का भय पितृपक्ष को दहलता जा रहा था | उसके बाद शुरू हुआ इलाज का दौर, जो न हुआ उसके इलाज का दौर | जाने क्या अजीब घोल सा पिलाकर सुबह से अब तक का सारा खाया-पीया कै करवा कर निकलवा लिया गया, इतनी उल्टियाँ आयीं जिनमें आँतें तब बाहर को उबल पड़ीं | गले और पिछवाड़े से होकर जाने कैसी-कैसी नलिकाएं पेट तक पहुँचाई जाने लगीं | "हाय! मैंने ढक्कन काहे चाट लिया?" अगले छः घंटों में पेट को दुधारू गाय बना पूरा दुह लिया गया, कुछ न बचा उसमें, आँतें फिर भूख से कुड़कुड़ाने लगीं | बोलने की सोची भी लेकिन दो नलियाँ मुँह में फंसी होने से आवाज निकली जरुर मगर उससे शब्द रचना नहीं हो पायी |
[ १४  ]
     खबर जंगल की आग बनी हरबंस गुप्ता जी के दर पर भी ठोकरें खाने लगी | मान-सम्मान वाले भगत मानुस थे, पहुँच गये हस्पताल इस घोषणा के साथ- "अब यही मेरा दामाद होगा | इतनी सच्ची चाहत और भला कौन दे पायेगा मेरी छोरी को?" अपर्णा भी हैरान-परेशान समझ नहीं पायी क्या प्रतिक्रिया दे इस सब पर | माँ-बाबा भी मिन्ट में रेडी हो लिए शादी के लिए | बेहोश तो हुआ न था लेकिन जैसे ही विशाल ने ये खबर सुनी खुशी से अर्ध-बेहोशी की अवस्था में पहुँच गया | वाह जी वाह, हींग लगी न फिटकरी रंग सतरंगी आयो | अगले कुछ दिनों में सगाई और शादी भी संपन्न हो गयी | घोड़ी दुल्हन के द्वार चढ़ते ही पंडित के कहने पर कुलदेवता को याद करने के बदले जो जयकारा निकला वो था "ढक्कन बाबा की जय हो"| सारे खानदानी भी सोचने लगे ये कैसे कुलदेवता हैं हमारे जिनका नाम आज ही सुनने में आया? ऐसे कुलदेवता कभी किसी ने न सुने थे सो सबकी नजरें अपने ज्ञानकोष को खंगालने लग पड़ीं परन्तु समझ कुछ न आया | इसीलिए कहता हूँ दोस्तों एक-एक ढक्कन हमेशा अपनी जेब में रखा करो क्या जाने कब काम आ जाए?

● जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (18-03-2012)
http://web-acu.com/
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आह


● आह ●

आहों की तासीर में जो इतना दम हुआ करता,
हर गली-कूंचे में दिलों का तडपना आम हुआ करता...

जोगी ● 18-03-2012

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मुस्कराहट का एक पल / हास्य

●  मुस्कराहट का एक पल / हास्य 

● केवल सोच भर का फर्क होता है वरना बुरा कुछ नहीं होता...... यदि रूखे-सूखे से जीवन में किसी प्रकार मुस्कराहट का एक पल भी नसीब हो जाए तो समझो जीवन में एक छोटी सी उपलब्धि को पा लिया...... वरना पैदा होकर मरने का इंतजार तो सभी करते हैं........

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● हास्य के स्तर को लेकर कोई गलत नहीं होता लेकिन एक सच सबसे बड़ा है और वो ये कि जिस तरह उँगलियाँ नाना-आकार में होती हैं वैसे ही लोग भी भिन्न-२ प्रकार के होते हैं...... कुछ लोग हास्य के उस स्तर तक पहुँच ही नहीं पाते जिसपर कि कथित प्रबुद्ध लोग हास्य को समझते हैं..... यदि आमजन को हास्य से परिचित कराना हो तो इसके लिए उन्हें उन्ही के स्तर से उठाते हुए ऊपर की ओर ले जाना पड़ता है, वरना हम अकेले ही हँसते नजर आते हैं..... और अकेले हँसना कैसा होता है इसे कौन नहीं समझता.........

जोगी...
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झबरू क्या जाने? © (कहानी)


झबरू क्या जाने? ● © (कहानी)
(मुख्य पात्र : झबरू बैल, जानकी गाय, बिरजू, रामदीन)

"अरे ओ बिरजू ! जा, झबरू को जाके बाँध आ" चिल्लाकर कहा रामदीन ने | बडबडाते हुए बिरजू का इंतजार किये बिना ही दडबे की ओर चल दिया "जानकी तो ऐसी न थी, छुटपन में भी काबू में बनी रहती थी और एक उसकी औलाद है कि संपट ही नहीं बैठने देती | हर बार इनके लिए नयी रस्सी लाओ और ये महाराज हैं कि इनकी उछल-कूद कम होने का नाम ही नहीं लेती | पता भी है रस्सी का एक छोटा सा टुकड़ा कितने दाम में मिलने लगा है? एक समय था जब परचूनिया बिना दाम लिए ही रस्सी थमा दिया करता था बदले में चाहे मुट्ठी भर अनाज दे आओ या ना भी दो कोई पूछने वाला नहीं था"| यूँ ही बकते झींकते रामदीन झबरू पड्डे के पास तक जा पहुँचा | देखा मियाँ झबरू रस्सी तुडाये शान से छोटी सी अपनी थूथनी ऊपर किये गर्दन से नीचे लटकने वाली लिबलिबी (खाल) को बिरजू के हाथों सहलवाने का आनंद लिए जाते थे | यह देख खून खौल उठा रामदीन का, अब फिर एक नयी रस्सी लानी पड़ेगी | "हाल ही तो लाया था पूरे पन्द्रह रुपयों के सौदे में और अब फिर से? एक तो बछिया की उम्मीद में ये बैल हाथ आ मारा और ऊपर से हर रोज का इनका चारा-पानी | हे भगवान इससे तो अच्छा ये पैदा ही न होता |" कहते हुए लाठी लेकर पिल पड़ा मासूम पर | "खा जा मुझे नासपीटे, काहे आ मारा बोझ कहीं का | सेर भर रोज तुझे चराओ, नखरे सहो, जाने कितने खरचे भी सहो | पहले ही क्या कम फकीरी थी जो कोढ़ में खाज ये जम भी आ मरा"|

उधर बिलबिलाता हुआ झबरू दडबे में यहाँ से वहाँ और जाने कहाँ-2 उछलता भागता फिर रहा था | कभी पींठ पर सीधे लट्ठ पड़ता तो कभी पसलियों का कीर्तन तो कभी जबड़ा ही जूडी का मरीज बना दिखता | खाल पर बैठी मख्खियों को उड़ाने की सी कोई चाल कामयाब ना हुई कि खाल को झरझरा के ही पड़ते लट्ठ उड़ा देता | ये सब नये नुस्खे थे जो पैदा होने बाद इन कुछ महीनों में उसने सीखे थे | सारे उपाय धराशायी होते देख और तेजी भी से बिदकता सा भागने लगा | बचना तो क्या था बल्कि इस चक्कर में कोने में रखे सानी और खल वाले तीन पक्के मटके और भूसा चरने की एक मढेंनी जरुर चकनाचूर हो गयीं | यह सब देख रामदीन का पारा सातवें आसमान पर जा पहुँचा | उसके बाद वहशत का जो नंगा नाच हुआ उसने झबरू को दोबारा उठने लायक नहीं छोड़ा |

मन भरने पर नहीं बल्कि पूरी तरह थक चुकने के बाद जाकर आराम की पहली साँस ली उसने | दूसरी तरफ बेचारा झबरू क्या जाने कि ये तो महज एक शुरुआत थी असली पीड़ा का तांडव तो ताजा मिले घावों से लगातार उठती टीसों के रूप में कई दिनों तक झेलना बाकी है | कुछ देर डरा सहमा जस का तस पड़ा रहा उसके बाद जब उठने की पहली कोशिश की तो अपनी ही जगह लद्द से गिर पड़ा | धरती पर आँख खोलने से लेकर अब तक ऐसा कुछ सोचा तक न था लेकिन बिना सोचे हो जाने का असर भी अलग ही होता है | जानवर बुद्धि : आखिर कितना समझती बातों को लेकिन दर्द समझती थी | वजह जानने समझने की कोई कोशिश नहीं की बस दर्द में कराहता-रंभाता अपनी माँ को पुकारता रहा | लेकिन उसके जख्मों को चाटकर साफ करने के लिए माँ नहीं थी | वो बंधी थी उस खूंटे पर जो रामदीन की बाँस के कनाठों वाली खाट के पास वाली मढेंनी के बगल में गडा था |

जानकी इस पूरी पिटाई के बीच अपनी जगह से निकल आने के लिए जाने कितना जोर लगा गयी लेकिन गले की पतली लोहे वाली चेन से निजात नहीं मिल पायी | हर बार मचलते आँखों से बहती गीली लकीरें उसके दिल का हाल साफ बयान किये दे रही थी | वहीं झबरू ने भी गंगा-जमुना से साक्षात्कार पा लिया था | उसे तो पता ही न था आँखों से पानी जैसी कोई गीली चीज निकल भी सकती है | खुश होना, उछालना-कूदना, बिदकना, मस्ती-मजे के सिवा किया ही क्या था अब तक | कुछ देर बाद घिसटते हुए कैसे भी करके पहुँच गया अपनी माँ के पास | उसकी हालत देख जानकी को जैसे समझ ही न आया क्या करूँ | बावली हुई बस उसके जख्मों को चाटने लगी | उसकी आँखों से बहते नाले बेरोकटोक बहिर्गमन में व्यस्त थे |

गाँव का एक गरीब गुरबा परिवार जहाँ स्वयं के भरण पोषण के लिए जद्दोजहद रोजमर्रा का हिस्सा हो वहाँ एक अनुपजाऊ नया जीवन वह भी जानवर के रूप में बोझ बन लद जाए तो अंजाम इससे कम क्या होना था | बड़े होने तक पूरा जीवन सिर्फ चराते ही जाना था इसे | कौन जाने बड़ा होने पर भी कितना काम आता? हर रोज इसे देख रामदीन का सेर भर खून कम हो जाता |

कई दिनों गर्दन उठाकर लिबलिबी सहलवाने की हिम्मत न हुई, उसे लगा शायद इसी वजह से बिरजू के नाम पर उसकी धुनाई हुई थी | बिरजू को झबरू संग खेलने का प्रतिसाद न मिलने के कारण झबरू का इकलौता मित्र भी छिन गया | अब बिरजू फिर गली के नाक पौंछते मिटटी से लिपे-पुते बच्चों के साथ खेलने का आदि हो गया | होता भी क्यों नहीं, जो उसे चाहिए था उसके लिए पुराना स्तरित विलुप्त हो जाने पर नया तो तलाशना ही था, सो तलाश लिया | दिन बीते महीने बीते अब जानकी बूढी हो चली थी | झबरू के बाद जानकी ने सात बछियायें भी दी | माँ बेटे दोनों को कभी समझ नहीं आया जो बछियायें पैदा होतीं वे कुछ महीनों के बाद कभी नजर क्यों नहीं आती थीं | क्या जानें बेचारे कि भविष्य की दुधारू गायों को मनचाहे दाम मिलने पर अलग-अलग घर दिखा दिए जाते हैं | लेकिन झबरू हमेशा यहीं रहा | भगवान ने चार थन जो नहीं बख्शे थे | एक बड़े होते सांड को कौन खरीदना चाहेगा जिसकी काया हमेशा मरियल ही रही |

कुछ साल बीत चुकने पर उसकी खुराक में अचानक ही इजाफा हो गया | पता चला उम्रदराज होते रामदीन ने उसके लिए छकडा बनवा लिया है जिसके आगे बंधकर झबरू मियाँ को घर और खेत के सारे सौदे ढोकर ले जाने होंगे | पहली बार छकड़े के आगे बाँधे जाने तक कुछ नहीं लगा लेकिन सामान लादे जाने पर जब गर्दन और पसलियों पे दोनों तरफ बोझ बढ़ने लगा तब जाकर सुध आयी कि वो बढ़ी हुई खुराक इस बोझे के लिए पूर्व तैयारियाँ थीं | टहनी वाली सटकी के किनारे पे सूत के मुलायम धागे से बंटी रस्सी के अगले सिरे को दो गाँठें बाँधकर कोड़े की तरह इस्तेमाल तय किया गया | शुरुआती हर कदम पर झबरू की पींठ सड़ाक की एक शानदार आवाज का स्वागत करती | पृष्ठ भाग की खाल सिंहर कर रह जाती | लगातार मिल रही सड़ाक-2 से बेहतर चलना को जान छकडा लिए झबरू आगे को बढ़ लिया | कई बार दगरे से गुजरते समय बिछड़ी बहनों से सामना हुआ परन्तु ज़माने बीते बिछड़ने की वजह से कोई किसी को पहचान नहीं पाया |

खाने पर रामदीन का दिया अतिरिक्त ध्यान अब फिर से कम हो गया था कि संभवतः उससे लिए जाने वाले काम की कीमत और मिलने वाले चारे की जंग में बचत नामक अर्थशास्त्र ज्यादा भारी पड़ा | रात दिन की कड़ी मेहनत और सामान्य से कम खुराक से झबरू की काया कुछ अधिक ही दुबला गयी थी | साथ ही बिरजू के कहने पर पिता रामदीन ने ट्रैक्टर किराये पर लेना छोड़कर झबरू का सदुपयोग करने की सोची | "आजकल ट्रैक्टर का किराया कितना महँगा हो चला था? ऊपर से डीजल के भाव तो जान ही लेने पर तुले थे | जे नासपीटी सरकार खा जायेगी जनता को मगर दाम नीचे को नहीं आएंगे"| लिहाजा झबरू अब खेतों और छकड़े दोनों में इस्तेमाल होने लगा था | कई दिनों से खाने के वक्त उसे घर से बाहर कर दिया जाता | भूख लगने पर खेतों के चक्कर लगा आता | हर बार किसी लाठी से मिली नयी चोट या किसी पालतू कुत्ते के काटे के निशान शरीर पर जगह बनाते जा रहे थे | यूँ तो बचपन के बाद ही से बहुधा उसे छोड़ दिया जाता था मगर अब यह हर बार की घटना होने लगी थी | पहले घर लौटने पर बची हुई भूख के नाम पर कुछ चारा मिल जाया करता था लेकिन कुछ दिनों से मढेंनी अकालग्रस्त हो गयी थी | यहाँ तक कि पुराने खाए भूसे के अवशेष तक समाप्त होने लगे थे |

इधर जानकी ज़माने हुए लतिया (दूध न देना) गयी थी | उसका दूध देखे परिवार को कई माह हो गये | पिछली बार भी उसने बहुत कम दूध दिया था | फिर एक दिन कोई कडियल सी मूँछों वाला तहमत पहने आदमी उसकी माँ को जबरन खींचते हुए ले गया | छकडा खींचते समय कई बार इसी आदमी को बाजार में लटकते माँस वाली दुकान में बैठे देखा था तब ही से इसे देख अंजनी सी दहशत होने लगी थी और आज उसकी अपनी माँ जानकी को ये दुष्ट लिए जा रहा था | सहमकर खूंटे के पीछे वाली दीवार से लगकर एकाकार हो जाने की कोशिशों में संलग्न हो गया | उस दिन के बाद अपनी माँ को फिर कभी न देखा झबरू ने |

एक दिन हल खींचते झटके से गिर पड़ा | कोई पत्थर था जिससे अटककर तेजी से चलता झबरू गिर गया था | टखने के बल उस पर गिरने और पत्थर के तीखेपन से घायल खुरों और टखने ने उसका चलना बाधित कर दिया | पहले से ज्यादा चाबुक मिलने लगे परन्तु बिगड़ी चाल फिर कभी सुधर ही नहीं पाई | कई बार की कोशिशों के बाद घर से उसे निकाल बाहर कर दिया गया | गाँव के सारे दगरे और गैलें जानी पहचानी होने से पूरा दिन यहाँ वहाँ पिटते-कुटते पेट भरकर हर शाम चौखट पर आकर सो जाता | दूसरी तरफ उसके घाव अब नासूर बन चले थे साथ ही कई कई दिन बुखार या जाने किस तरह की खुमारी में एक ही जगह पड़ा रहने लगा था | द्वार पर मिलने वाले संभावित परिणाम से आतंकित घरवाले गाँव की सीमा तक खदेड़ आते मगर हर बार की तरह वह फिर उसी दर पर मत्था टेक ही लेता |

एक रात जंगल से आने वाले गेधुए (सियार/ब्रज भाषा का एक शब्द) ने झबरू को गैल में अकेला देख पूरा भम्भोड़ डाला | आवाज सुन लाठियाँ लिए आये गाँववालों ने गेधुए को भगा तो दिया लेकिन इसके नुंचे माँस के टुकड़े कैसे लौटाते जिन्हें जाते जाते भी वह दुष्ट नोंच ले गया था | बिट्टू की ट्रॉली में पटककर गाँव की सरहद पर कूड़े के ढेर के पास ले जा फेंका गया | "झबरू क्या जाने" अब यहाँ से उसके बचे तन को भी नौंच लिया जाना है | रात सियार और दिन में आवारा कुत्तों ने पसलियाँ तक बाहर निकल दीं | दूसरी रात कुत्तों और सियारों के बीच की खींचातानी में जाने कब कब प्राण निकल गये खुद भी न जान पाया |

गाँव का भला चाहने वालों ने फिर उसे उठाकर खेतों से आगे वाले जंगल के मुहाने पर फिंकवा दिया | लेकिन इस बार बिट्टू की ट्रॉली नहीं थी | चमार ने बची-खुची चमड़ी उधेडकर फेंकने का वादा करके उसी रात कई टुकड़े करके अपनी बस्ती में जश्न मना लिया | सुनने में बेशक अजीब और अविश्वसनीय लगे लेकिन असल जिंदगी में मैंने कई बार इस तरह के कर्म वालों के बारे में सुना है जो मरे जानवर की चमड़ी उधेडकर रख लेते और बाकी बचे शरीर को अपने जश्न में इस्तेमाल किया करते हैं | गरीबी की एक दशा ऐसी भी होती है जहाँ सड़ते माँस से परहेज खत्म हो जाता है |

बहरहाल जंगल के मुहाने तक पहुँचा जरुर लेकिन जश्न में शामिल लोगों के सुबह वाले विसर्जन की शक्ल में | उधर उसके पिंजर पर कुत्ते आज भी पिले पड़े थे | विष्ठा खाने वाले कुछ पक्षी जैसे कौव्वे, गिद्ध आदि भी मंडराने लगे | जो जिसके हाथ लगा ले उड़ा | इसी बीच टूथपेस्ट बनाने वाली किसी कंपनी के एजेंट ने चमार से हुए सौदे के बाद आखिरी बचे अवशेष का इंतजाम भी कर लिया | पिंजर का चूरा अब ऊँची बिल्डिंगों वाले घरों के वाशबेसिन में हर रोज सुबह कुल्ले के साथ बह जाना था | कहानीकार के भेस में उस एक इकलौती आँख को मैं तलाशता ही रह गया जिसमें झबरू के लिए नमी की हलकी सी एक चमक तक उभरी हो |

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (15-03-2012)
http://web-acu.com/ (मेरा व्यापार)

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कुछ बातें


कुछ बातें ●

तेरे जाने से रीत चुकी हैं दर-ओ-दीवारें मेरी ...
ठहर जा ऐ वक्त कुछ बातें अभी रह गयीं हैं अधूरी..!!

● जोगिन्दर (14-3-2012)

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कुछ सवाल खुद से (अनजान डायरी के पन्नों से)


कुछ सवाल खुद से ● © (अनजान डायरी के पन्नों से)
(मुख्य पात्र : नायक, जान्हवी, साढ़े तीन फेरे)

सुबह ही से मन में कोई अंजानी सी अनुभूति पैठ जमाए बैठी थी | यूँ तो जान्हवी मेरे मन की समझती थी मगर जानते-मानते होने के बावजूद उसने कभी इसे सीधे से एक्सेप्ट नहीं किया | करती भी कैसे, ज़माने भर के रेस्ट्रिक्शन्स जो पाल रखे थे मन में | उधर मैंने भी कभी जोर नहीं दिया कि वह भी वैसे ही सोचे जैसे कि मेरा सोचना था | उठ तो मैं तडके ही गया था मगर हमेशा की तरह आज बिस्तर छोड़ने की हिम्मत न जुटा पाया और उठते-उठते भी सुबह के दस बजा दिए | करने को काम कुछ था नहीं क्या करता कुछेक मेल्स निबटा दिए, कुछ सोसियल नेट्वर्किंग कर आया फिर टहलकदमी के लिए जरा बाहर की ओर चल दिया |

जाने कहाँ से एक पिल्ला संग संग चलने लगा जैसे कह रहा हो, चिंता न करो जब कोई न होगा तब भी मैं ऐसे ही तुम्हारे साथ कदम मिलाकर चलता दिखूंगा | यह वही नवजात है जिसे यदा-कदा मेरे पाँवों या जूतों के साथ खेलने मिल जाया करता है, हाथों तक तो बेचारे की पहुँच आज तक हो ही नहीं पाई थी | सोसाइटी की अंदरूनी मुख्य सड़क के आखिरी छोर तक आकर पलटकर चल भी दिया कि इतना साथ बहुत हुआ अब सम्हालो अपनी दुनियादारी | आगे मेडिकल वाले ऑटो स्टैंड पर एक नवयुवक मिन्नतें करने में लगा था और उसकी मालकिन (प्रेमिका होकर भी उसके हाव-भाव मालकिन के से ही लग रहे थे सो मालकिन कहना मुनासिब जान पड़ा) उसके साथ कुछ यूँ बिहेव कर रही थी कि मैं उस युवक और अपने साथ आये पिल्ले में कोई बड़ा अंतर नहीं कर पाया | कम से कम वो कुक्कुर अपनी मर्जी से आना-जाना तय तो कर पाया था | उनपर से अपना ध्यान हटा आगे बढ़ गया मैं |

मन में विचार जब तक सतरंगी न हों तो उसके मन होने पर शंशय होने लगता है | विचार कैसे न होते सतरंगी जबकि मैं अपने पास पूरे सवा सेर का ह्रदय लिए बैठा था | अभी हाल ही तो अचानक जान्हवी के व्यवहार में मौसम की तरह बदलाव आया था | नहीं समझ पाया लेकिन इतना तय पा था कि जो कुछ है उसे अपने फेवर में समझ लेना निहायत ही उच्च कोटि का भ्रम होगा | दो दिन पहले ही बात हुई थी जब मैं अपने बिखरे परिवार को नहीं बिखरने देने की अपनी मंशा और कोशिश की संभावनाओं पर बात कर रहा था | उसका सोचना भी कुछ ऐसा ही था लेकिन कुछ बदलाव के साथ कि अगर किसी फौरी सख्ती से मेरे वैवाहिक जीवन में किसी तरह का सकारात्मक बदलाव आ जाने लगे तो इसमें कोई बुराई नहीं | लेकिन मैं इसके पक्ष में नहीं था क्योंकि इतने वर्षों के साथ से अपनी सहचरी को इतना तो जान ही पाया हूँ कि कोशिशों के अंजाम को अनुमानित कर पाता | सुधरने से पहले नहीं आना कहते हुए यदि उसे पीहर के दर्शन करा दिए तो मुझे पता है कि इतने साल पुराना वैवाहिक ढाँचा काँच का सकोरा साबित हो जाना था | अपना सुख तो तिलंजित किये हुए हूँ लेकिन बच्चे के लिए अपने सुख से लापरवाह होना मज़बूरी ही समझो | बच्चे के लिए तो हम ही माँ-बाप हैं फिर चाहे कितना ही प्लस-माइनस क्यों न कर लो लेकिन कोई भी दूसरा विकल्प हमारी जगह भर नहीं पाएगा |

हाँ तो दो दिन से जैसी कि उसकी पुरानी आदत है जान्हवी वजूद लगभग संवादहीनता पर आ पहुँचा | अनमने से खानापूर्ति करते से मैसेजेज अथवा बातें उसके बदलाव को अभिव्यक्त कर देने के लिए काफी थे | यूँ मैं इतना समझने लगा हूँ उसे कि उसके बदले व्यवहार का प्रकार देखकर बड़ी आसानी से अंदाजा लगा लिया करता हूँ | जान लेता हूँ आज ऊँट किस करवट बैठा है और उस करवट के नीचे मेरा क्या-क्या दुचल गया या किस तरह के मुद्दे पर मुझे उससे बात करनी चाहिए | आमतौर पर मेरा अनुमान लगभग सटीक ही रहा करता है और यह शायद मेरे उसके साथ बने सच्चे लगाव का नतीजा है जो पिछले डेढ़ साल के दौरान मुझे उससे हो गया | कोशिश तो यही थी कि ऐसे किसी लगाव से अपने आप को दूर रखूं लेकिन जिस तरह अपने उफान के दौरान बाढ़ सारे जमीनी ढलानों और गड्ढों के रिक्त से स्वयं को रिप्लेस करती चली जाती है ठीक उसी तरह पत्नी के साथ उत्पन्न रिक्त व्योम में जान्हवी का अपनी जगह बनाना सिर्फ एक वक्ती बात थी, जोकि उसने बना भी ली |

बीते वर्षों में जाने कितने चेहरे सामने से आकर चले गए | बहुत सों ने जुड़ने की कोशिशें भी की मगर कभी उनसे खुद को जोड़ नहीं पाया | परन्तु जिस मन को नवपल्लव के अंकुरण के लिए बंजर बनाये बैठा था ठीक वहीं आकर जान्हवी ने एक कच्ची कोंपल उगाकर दिखा दिया जिसे सुबह-ओ-शाम भावनाओं के झारे की आवश्यकता भी आन पड़ी | पृकृति और प्राणी मात्र से अथाह प्रेम रखने वाला मैं कब तक बचता इस नवीन भाव के प्रादुर्भाव से ? बेहद कम समय में उस बंजर में बारिशों और उर्वरकों की मौजूदगी महसूस होने लगी | मजेदार बात यह कि उसने ऐसा कुछ न तो कभी कहा और ना ही कभी दर्शाया क्योंकि उसके मन में ऐसे भावों के लिए कोई जगह न थी | अपने इस मानसिक बदलाव के बारे में उसे बताने में मैंने तनिक भी समय नहीं लगाया | कहते हैं ना कि कह देने की संतुष्टि नहीं कह पाने की सुगबुगाहट से कहीं अधिक विश्रन्तिदायक होती है | चूँकि मुझमें कोई खोट या निकृष्ट स्तरीय स्वार्थ नजर नहीं आया सो जान्हवी ने इसे अच्छी साफ-सुथरी दोस्ती के रूप में एक्सेप्ट कर लिया | दूसरी तरफ मैंने अपने दोनों भावों को एक साथ जिंदगी में जगह दी परन्तु आपस में उनके पूरी तरह सेपरेशन के साथ | इससे हमारी दोस्ती में कहीं कोई फर्क नहीं आया | दिन-ब-दिन हमारी मित्रता बदस्तूर गहराती रही |

उस दिन तो नहीं किन्तु आज मैंने पूछ ही लिया | जो जवाब आया वह अपने आप में सही होकर भी सही नहीं था | दो दिन पहले जो बात हुई उसके हवाले से उसे लगने लगा कि कहीं वो मेरे लिए परेशानी का वायस न बनती चली जाए सो अब उसे मेरी दोहरी भावनाओं में से सिर्फ एक दोस्ती रखनी थी और मेरी दूसरी कोमल अनुभूति के लिए उसके पास कोई जवाब नहीं था सिवा इसके कि यह समाज की सामान्य स्थितियों में सही नहीं है  जबकि मेरा मानना है हर दौर में इंसान ने सामाजिक कायदे कानून अपनी सहूलियत के अनुसार मैन्युपिलेट किये | चाहे जब अपनी सुविधानुसार अथवा श्रृद्धानुसर तोड़-मरोडकर उन्हें नये रूपों में इस्तेमाल कर लिया | इस मामले में मैं चाहता ही क्या था ? इतना ही ना कि मुझे अपनी कोमल भावनाओं को मन में नहीं रखकर बता देना कहीं श्रेयष्कर लगा | उससे कहा मैंने इस बारे में कि मैं अपने सारे सिद्धांत तज़ तुम्हारे सिद्धांतों को तरजीह दे रहा हूँ, जैसे चाहो इस नाते को तय करो | इसमें परेशानी काहे की ? कहती है उस दिन जो मैंने बिखरे से पड़े अपने घर को तिनका-तिनका कर जोड़े होने की और उसे बिखरने नहीं देने की बात कही उससे उसके अवचेतन पर बड़ा गहरा असर हुआ है और वह नहीं चाहती कि आगे जाकर जीवन में कभी उसकी वजह से मेरा कोई अहित हो लेकिन क्यों भूल जाती है कि हम दोनों ही अपने-अपने घरों में अपनी फैमिलीज के साथ जी रहे हैं | सामान्य तौर पर हमारा मिलना भी कहाँ हुआ करता है ? हम दोनों ही इस दुनिया के सारे सही-गलत भी समझते हैं | कभी कोई सीमा लांघने की इच्छा तक नहीं जागी तो सही-गलत के तराजू पर तौलने के लिए बाकी रह ही क्या जाता है ? एक ऐसा मानसिक रिश्ता जो अपने-अपने माहौल की अनियमितताओं, दुखों, तकलीफों से निजात दिलाता हो मैं उसे कभी गलत नहीं मान सकता |

जान्हवी ने जिस तरह की भाषा में लिखकर अपनी बात को अभिव्यक्त किया उसका एक आशय यह भी था कि हमारा नाता चाहे रहे ना रहे लेकिन अब उसका कॉन्सेप्ट क्लीयर है उसमें मेरी दूसरी पैरेलल फीलिंग्स के लिए कोई जगह नहीं | मैं पूछता हूँ पहले ही क्या अलग था जो अब नया किये जाती हो ? पहले भी मन के भाव मन ही में गर्दिशें मचाया करते थे और प्रैक्टिकल रिश्ता विशुद्ध दोस्ती का ही था, तुम भी वही कहे जाती हो | आखिर बदलना क्या चाहती हो तुम ? अगर फीलिंग्स झूठी नहीं तो मना कह देने भर से क्या वे समाप्त हो जाएँगी ? कैसे सोच लिया उसने इतने बड़े झूठ की बुनियाद पर मैं अपना रिश्ता खड़ा रख पाउँगा ? यदि उसकी बात मानकर हृदयपटल पर नवांकुरित पल्लवन को बिना खाद-पानी का करके दोस्ती को आगे कर दिखाना है तो यह एक कोरा झूठ होगा | साथ बने रहने के लिए कपट का सहारा पहले कभी न लिया तो अब ही क्या ले लेना था सो साफ जता दिया कि तुमसे बेशक ना जताऊँ मगर अपनी फीलिंग्स को समाप्त कर पाने के सिलसिले में मुझे बेबस ही समझो |

लंबे समय से जान्हवी को मानसिक अर्धांगिनी का दर्जा दिए बैठा हूँ | जब एक रिश्ता तोड़ते नहीं होता तो खुद को इसके साथ बेनाता कैसे कर लूँ ? शुरू ही से संबंधों का पोषण करने के संस्कार पाए हैं | इस सम्बन्ध को क़त्ल-ओ-गारत कर पाने वाले दो हाथ कहाँ से लाऊँ ? विकराल से विकराल परेशानियों में जिस मानसिक अर्धांगिनी ने हर कदम साथ दिया और हर बार तकलीफों का अहसास कम हुआ भी जबकि सात फेरों वाला रिश्ता कहीं नजर तक न आया | अपने हिस्से के साढ़े तीन फेरों का हक झट माँग लिया जाता है लेकिन मेरे हिस्से के साढ़े तीन फेरों के हक को कुछ सवा दो साल पहले दफना चुका हूँ | वो कहते हैं ना कि वादे तो होते ही तोड़ने के लिए हैं | फेरे भी एक तरह से जीवन साथ बिताने का एग्रीमेंट ही तो हैं | उनमें तय हर बात मुद्दतों पहले वादाखिलाफी की बलि चढ गयी | इंसान को मकान से बढ़कर जहाँ घर की अनुभूति चाहिए होती है वहाँ सराय तक का अनुभव न मिला | कैसे न अपनी खुशियाँ तलाशता ? मिलीं मुझे वे सारी खुशियाँ, जान्हवी नाम की ताजा हवा वाली फॉर्म  में | कैसे कर देता अपनी जिंदगी इन नकली खोखले सामाजिक नियमों के हवाले |

जान्हवी की सोच के जवाब में क्या हो सकता है या क्या होना चाहिए या इस बारे में हमारा समाज क्या सोचता है या इस बारे में हमारी फैमिलीज की समझ क्या होगी ? नहीं है इन सवालों के जवाब और ना ही कोई परवाह है मुझे जबकि इस रिश्ते में मुलाकात तक न होती है | फिर बहानों के प्रवाह में कोई कमी क्यों नहीं ? लोगों की सोचें भौतिक अधिक हुआ करती हैं सो उनकी सोचें इस नश्वर शरीर से आगे जा ही नहीं पाती परन्तु कौन समझाये उन नामाकूलों को जिनमें खुद जान्हवी तक शरीक हुए बैठी है |

इस कहानी को यहीं विराम देता हूँ कि असल जिंदगी में इससे आगे क्या होना चाहिए हर इंसान के सिलसिले में यहाँ पृथक-पृथक बातें हो सकती हैं सो एक निश्चित अंजाम केवल उस घटना का हो सकता है जो वाकई कहीं घटी हो जबकि इस कहानी का अंत कैसे तय किया जाए जबकि सर्कम्सटेंसेज दो अलग-2 बसे घरों सॉरी सरायों के हों ? जाने कब क्या हो जाए ? साथ रहने की ख्वाहिश तो दिवा-स्वप्न ही कहलायेगी | लेकिन अंजाम को नयी आ रही हर दूसरी घटना के साथ अपने बदलाव के दौर से गुजरना पड़ेगा | अतएव बेशक एक नजर में मेरी यह कहानी, एक कहानी से ज्यादा किसी इंसान की डायरी के पन्ने सी लगे लेकिन सबसे बड़ा सच यही होगा कि संभवतः इसका कोई सटीक अंत नहीं हो सकता | पाठक स्वयं अपनी श्रृद्धा का उपयोग करे तो बेहतर |

चौधरी जोगिन्दर सिंह Choudhary Jogindar Singh (09-03-2012)
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वो अहसास तुम्हारा (हाईकू)

वो अहसास तुम्हारा (हाईकू)

कुछ यादें
कुछ फलसफे
कुछ लम्हे
कुछ बातें
कुछ आते
कुछ जाते
कुछ तंज
कुछ प्रेम
कुछ भीना
कुछ कोमल
वो अहसास तुम्हारा...

Choudhary Jogindar Singh (08-03-2012)
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Happy Holi my Friends- Jogindar जोगिन्दर



Happy Holi my Friends

रंगों से हो सरोबार होली  के लूटो मजे अपनों संग...

बने हों रंग सारे खुशी, समृद्धि, प्रेम वाले भावों से...

है कामना रह जायें घर आपके इस होली ये रंग सारे...


By:
- Jogindar  जोगिन्दर (07-03-2011)
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जिंदगी उखड़ा पलस्तर

जिंदगी उखड़ा पलस्तर
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