गिलहरी (Squiral)


● गिलहरी ●

(कहानी)

(1)

● ज्यों ही उसने डाल से लम्बी छलांग लगायी हवा में परवाज करती सी अगले दरख़्त की आगे को झुकी लचीली टहनी की ओर तेजी से उड़ सी चली | पहुँची ही थी की धप्प से करीब पच्चीस फुट नीचे जमीन पर औंधे मुँह आ गिरी | वो जो ऐसी छलांगे यूँही खेल-खेल में लगा लिया करती थी अब काफी समय से जैसे कुछ उसके बस में ही न रहा | आये दिन छोटे से शारीर की कोई न कोई मुलायम हड्डी और ज्यादा मुलायम हो जाती | क्या करें उम्र ही ऐसी थी, यही कोई नौ वर्ष | देखने में भले ही नौ वर्ष कोई ज्यादा नहीं होते हैं लेकिन एक "गिलहरी" की औसत उम्र लगभग 9 से 10 वर्ष ही होती है सो कहा जा सकता था कि नन्ही गुदगुदी सी वह गिलहरी अपनी उम्र के अंतिम पड़ाव को जी रही थी | वह एक नर गिलहरी थी जिसके जिंदगी को लेकर भ्रम अभी तक टूटे नहीं थे वर्ना यूँ जवान गिलहरी के सामान कुलाँचें नहीं भरती | 

(2)

● कुछ तीन-एक साल पहले उसका अपनी मादा से बिछोह हुआ था | ना-ना-ना.. भगवान को प्यारी नहीं हुई थी वरन अपने लिए एक नया बांका "गिलहरा" पसंद कर लिया था उसने | क्या देखा उसमें नहीं जानता था वह मगर इतना जरुर जानता था कि उस नये गिलहरे की कुलाँचें/उछालें कहीं अधिक तेज थीं | उसका रिझाने का अंदाज़ कुछ जुदा सा लगता था | वो रुक-रुक मुँह तिरछा कर ताकना, लौट-लौट दौड़कर आना, हर वक़्त उसके गिर्द मंडराते रहना सभी कुछ तो था जिसने उसकी जिंदगी, वो जिसके साथ आधी उम्र ख़त्म हो जाने तक बितायी, उसी ज़िन्दगी को लूट ले गया | [नोट: आगे से नर गिलहरी की जगह "मैं" शब्द लिखूंगा ताकि लिखने में आसानी रहे |]

(3)

● टुकुर-टुकुर निहारते रहने के सिवा मैं कर ही क्या पाया | मेरे साथ रहते उसने एक छोटी सी गिलहरी को भी जन्म दिया मगर जाते-जाते उस नन्ही सी जान को भी अपने संग ले गयी | ले क्या गयी बल्कि नन्ही खुद ही फुदकते हुए उसके पीछे चल दी, माँ जो थी उसकी | बड़े पेड़ के खाली पड़े कोटर को आरामदायक बनाने में मैंने कोई कसर नहीं छोड़ी थी | क्या-क्या नहीं जुटाया था मैंने | जूट की बोरियों के रेशे, मुलायम घास के तिनके, घरों से निकले धागों के रेशे, कपड़ों की कतरनें, और भी जाने क्या क्या | सब कुछ तो किया था उसके लिए | खाने के जितने दाने मिलते कभी अकेले नहीं खाये | छोटे से मेरे उस कोटर के कोने में जाने कितने ही खाये-अधखाये और साबुत रसद का भंडार पड़ा था जो मेरे अपनों के संग बिताये एक-एक पल को जीता नजर आ रहा था |

(4)

● जाने संसार की बाकी गिलहरियाँ रोती भी हैं या नहीं मगर जमीन पर पड़ा मैं मात्र बूँद जितनी बड़ी अपनी मासूम आँखों में पृथक एक नन्ही सी बूँद लिए कराह रहा था | शायद बूढी गिलहरी का जीवन इसी तरह का लिखा हो | मैं कोई इन्सान तो नहीं जिसे हर सुविधा सुलभ हो फिर आज तो इन्सान भी अपनों के काम नहीं आता हम तो फिर भी निरीह जानवर हैं | जो मेरे पास कोई होता भी तो बगल में बैठा सिवा बेबसी के आलम के और दे भी क्या पाता |

(5)

● नीचे पड़े-पड़े सामने वाले ऊँचे दरख़्त की शानदार डालियों को देख मन भर आया | इसी दरख़्त पर कितने बरस राजी-ख़ुशी बिताये थे उस छलना संग और इसी दरख़्त पर बने ज़रा से कोटर में प्यारी सी मेरी उस नन्ही मासूम गिलहरी ने जन्म लिया था जिसके साथ उछलकूद करके जीवन के कुछ महीने उल्लास में बीते थे | मेरे देखते ही देखते मेरे ही एक साथी गिलहरे संग हो ली थी मेरी अपनी संगिनी और मैं कुछ न कर सका |

(6)

● उसी दौरान जब मोहभंग हो रहा था तो हवा के झौंके समान आयी एक नयी गिलहरी का जीवन में पदार्पण हुआ | उसकी ऑंखें जैसे बोलती प्रतीत होती थीं | मेरे लिए जैसे पीत-वस्त्र धारिणी महिला की स्थिर तस्वीर की तरह वो घंटों मुझ ही को निहारा करती | कुछ न कहती, कुछ न करती, बस मेरे सामने रहती हरदम | शांत, निश्छल, निष्कपट, उछल-कूद रहित, बेहरकत, साकत, मेरी तरफ, बस मेरे लिए | सारी उद्वेलना उसके संग झाग की तरह बैठ जाती ज्यों समुद्र किनारे उबल रहे सफ़ेद फेन को किसी ने जादू के जोर से नीचे बैठा दिया हो |

(7)

● परन्तु उसका स्वाभाव कभी समझ नहीं आया, जितना पास जाओ उछल कर उतना ही पीछे, और जाओ और पीछे | इसी तरह दो वर्ष बीत गए और एक दिन जब जंगल में वो कहीं गयी तो कभी लौटी ही नहीं | बिलकुल इसी तरह मेरे बाबा भी गायब हो गए थे और बाद में एक दिन माँ भी, कभी लौट कर ही नहीं आया कोई |

(8)

● बड़ी देर इसी सब में निकल गयी और इतना सब होने में दो बातें एक साथ हुईं | शाम का धुंधलका बढ़ने लगा और दूसरे रगड़ता-घिसटता किसी तरह मैं अपने वाले ऊँचे दरख़्त की जड़ तक आ पहुंचा था | अब एक ही काम शेष था, किसी तरह उस ऊँचे दरख़्त की मध्य ऊँचाई पर मौजूद अपनी पनाहगाह, अपने आखिरी संगी कोटर तक पहुँचा जाये |

(9)

● कांपते-कराहते घंटों की ज़द्दोज़हद के पश्चात् किसी तरह अपने कोटर तक पहुँचा | भीतर घुसने से पहले अनायास ही उठ आयी दर्द की तीव्र लहर ने बदन को अकड़ा दिया और तने पर से पकड़ ढीली हो गयी | ठक, ठक, धाड़, फटाक, सर्रर्र, ठक, और अचानक सबसे निचले तने से जुडी टूटी डाली की ऊपर को उठी बची हुई किर्चियों पर रुकते हुए आखिरी खच्च की आवाज़ | चिऊ-चिऊ की मर्मश्पर्शी दम तोडती आवाज़ कहाँ किसी ने सुनी होगी | अब और उठ पाने की शक्ति नहीं बची थी |

(10)

● मुन्दायमान गोल भोली सी आँखों से सामने वाले दरख़्त से गुजरते एक गिलहरी परिवार पर नजरें पड़ी | कोई और नहीं ये मुझे छोड़ दूजे गिलहरे संग नये बनाये परिवार की आखिरी नुमाइश थी जो ऊपर वाले ने मेरे सामने कुछ इस तरह नुमायाँ कर दी थी | सामने की तरफ से आती किलकारियाँ और दूसरी तरफ निकलते प्राण | जैसे किसी अघोषित जश्न का आयोजन हो सामने की ओर | इधर उल्टा पड़ा छोटा सा शरीर, आधा डाली के इस तरफ लटका और बाकी का आधा डाली के दूसरी तरफ | यह सब देखते-ताकते कब ऑंखें खुली रह गयीं पता ही न चला | मैं भी संभवतः अपने माँ-बाबा और अपनी उस नयी गिलहरी की तरह कभी न लौटने वाले जंगल गमन के लिये निकल लिया था | दूर कहीं अँधेरे से बड़ी, गोल, चमकदार आँखों वाले एक उल्लू ने अपनी तेज़ उड़ान भरी और इस डाली पर आ बैठा | आखिर सामने से गुजर रहे जश्न की दावत भी तो बाकी थी..!!! 

● जोगेंद्र सिंह सिवायच (Jogi-jc)

● (19-12-2013)
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