सूत का गट्ठर


सूत का गट्ठर (04-09-2013)


सूत पर सूत या तांत पर तांत,
यूँ उलझन भरा ज्यों समूचा मकडजाल,
हर तांत पर उकेरा हुआ एक नाता मेरा,
समीप से दूर तलक जाती हर लकीर पर,
उकेरा गया आज एक धोखा कोई,
आँसुओं से धो-धो बंद पलकों तले,
लिखी जा रही एक कहानी नयी,
भस्म-ऐ-चिता मेरे भरोसे की,
ले माथे अपने रगड़े जा रहे सभी,
ह्रदय धमनियों में प्रवाहित मासूम,
कोमल भावों को दिमागी क़दमों तले,
पल-पल कुचले चले जाते हैं सभी,
पतले सुएनुमा पांवों का जंज़ाल लिए,
आज तथाकथित वे सारे मेरे अपने, 
घेरकर क्यों गट्ठर बना जाते हैं मुझे?

जोगेंद्र सिंह सिवायच

(Jogendra Singh Siwayach)    +91 78 78 193320

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ओस से भीगी एक रात


: ओस से भीगी एक रात :


अभी उसने बोरी के नीचे से सर निकाला ही था कि कोहरे भरी अँधेरी घनेरी रात में चल रही हवाओं की सरसराहट ने फिर दुबकने पर मजबूर कर दिया | इस साल पड़ी ठण्ड ने सारे पुराने रिकॉर्ड्स तोड़ डाले हैं | हाल ही दो दिन पहले तडके उसके बगल वाले फुटपाथ से अकड़ी हुई एक लाश म्युनिसिपैलिटी वाले उठाकर ले गए थे और इसी के साथ बरसों पुराना उसका देखा-भाला चेहरा हमेशा के लिए जाने कहाँ गारत हो गया | बड़ा पुराना नाता था हरिया से ओमी का | कितने ही साल लड़ते-झगड़ते, मेल करते गुज़ार दिए उसके संग पता ही न चला |


बोरी के नीचे जैसे कल्पलोकी चित्रपट चल रहा हो | हर दृश्य यूँ जीवंत मानो अब भी ओमी उन पलों को जी रहा हो | इंतकाल से पहले की रात का वो रोटी का झगडा तो जैसे भुलाया ही न जाता था | किस तरह नए साल की शाम किसी पार्टी से फेंके गए बटर नान, कुलचे, मिस्सी रोटियों के छोड़े गए टुकड़े और उन्ही में लिपटी सतरंगी सब्जियाँ और ढेरों प्रकार के चावल के व्यंजनों की झूठन जो रईसजादों के थाली में छोड़ने के चलन के चलते हरिया और ओमी जैसों का भी न्यू इयर करवा जाती थी पर ये दोनों टूट कर पड़े थे और इन्ही के साथ ऐसे ही कई और जिनको इस धुँध भरी रात में भीख तक मयस्सर नहीं थी | उस रात हरिया के हाथ रोटियों के टुकड़े कुछ ज्यादा ही लग गए थे जबकि ओमी के हाथ नानाप्रकार के पुलावों की मिक्सचर | ठोस खाने के लालच में उन दोनों में हाथापाई भी हो गयी जिसमें हरिया भारी पड़ा और ओमी के हिस्से वही आया जो कुछ देर पहले उसने पहले समेटा था | गालियों की बौछार के बीच उन दोनों ने साथ बैठकर अपना भी जश्न मनाया लेकिन एक का पेट भरा तो दूजे के में चूहों का आतंक मचा पड़ा था |


एक इन्सान का होना क्या होता है या देश और नागरिक या सही-गलत और इसी तरह की ढेर सारी चीजों से दोनों का दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं था | दोनों ने हर तरह के काम एक साथ कर रखे थे | छोटी-मोटी राहज़नी, हल्की-फुल्की छेड़-छाड़, कुछ पैसे हो जाने पर निचले स्तर का वेश्यागमन, बहुत सी तरह के नशे और भी जाने क्या क्या और भिखारी तो ये पैदाइशी थे | उस शाम भी किसी कार के खुले शीशे से 8PM व्हिस्की की बोतल पार कर लाये थे और नशे की झौंक में अपनी ही जगह पड़े सोते रह गए | कपडे तो कुछ खास पहले भी न थे लेकिन ओमी के पास एक हजार छेद वाला पुराना स्वेटर था |


अगली ही सुबह ठण्ड से अकड़े पड़े ओमी ने जब अपनी ऑंखें मिचमिचाकर देखा तो जरा ही पास वाले फुटपाथ से हरिया के मुड़े-तुड़े पड़े शरीर को जैसे तैसे उठाकर गाडी में ठूँसा जा रहा था और वह देखे जाने के सिवा कुछ नहीं कर पाया कि उसके अपने हाथ पाँव सही से इस्तेमाल के लायक तकरीबन दो घंटे बाद जाकर हुए थे | एकटक निहारते हुए अपने दोस्त-दुश्मन को जाते देखता रहा लेकिन मजाल है आँखों से किसी कतरे का प्रादुर्भाव तक हुआ हो | शायद यह रिश्ता था ही ऐसा |


आज जाने क्यों दसेक दिन बाद जाकर उसे हरिया की कमी महसूस हो रही थी और उसी सब का चलचित्र अपनी उस बोरी के नीचे दुबका देख रहा था जिसे कुछ घंटे पहले बगल की गली के मोडपर सोने वाले कलुआ के ऊपर से खींच लाया था | यहाँ इस तरह की चोरियाँ भी बहुत हुआ करती थीं जिनको सामान्य जीवन जीने वाले लोग शायद ही कभी समझ सकेंगे | सर्वाइवल की जंग के कितने प्रकार हो सकते हैं यह कोई एक इन्सान जानना चाहे भी तो शायद जान न पायेगा | जिस दुकान के शटर के बाहर पड़े रहकर उसने पूरा नवम्बर, दिसंबर और जनवरी के इतने दिन गुज़ार लिए उसी के आगे से हर रोज़ सुबह नौं बजे तक दुत्कार कर हड़का दिया जाता रहा था |


बहुतेरी कोशिश करी समझने की कि कौन है जो यह तय करता है कि कौन बंद खिड़की के बाहर रहेगा और कौन उन झरोखों और अट्टालिकाओं से झांक कर बाहर पड़े उन बेबसों को निहारकर एक उसांस सी भरकर पट बंद कर लेगा और थोड़ी देर में अपने उन मखमली इंडियन-कोरियन कम्बलों में दुबका चैन से सो रहा होगा पर हर बार समझ धोखा दे गयी | क्यों न देती धोखा, होती तब न | आज खाने की कोई जुगाड़ न पाकर यूँही मन बहलाते खुद को नींद के आगोश में बहा ले जाने की कोशिश में था | हरिया की ज्यादा याद आने की असल वजह भी रोटी के ज्यादा पाए वे टुकड़े थे जो उसे नहीं वरन हरिया को मिले थे | अब भी बोरी में दुबका सोच रहा था "कितना बुरा आदमी था, जब सोते ही मर जाना था तो क्यों नहीं रोटी के वे सारे स्वादिष्ट टुकड़े मुझे खिला गया"| जैसे तैसे रात गुजरी और सवेरे काफी देर बाद ना के बराबर आयी धूप के सहारे चैन नसीब हुआ |


उस दिन भी खाने की पूरी जुगाड़ नहीं जुटा पाया क्योंकि सारी दिल्ली किसी दामिनी के नाम का शोक मना रही थी और बहुत सा मार्केट बंद रहा | न किसी ने आना न किसी ने जाना फिर क्यों कोई उस फटेहाल भिखमंगे का हाल पूछता | जाने कितने लोग देख लिए उसने जो आते-जाते कुछ खाते बतियाये जा रहे थे | उन्हें देख लपलपाती जिव्हा से निकली सारी धारायें प्यास बुझा-बुझाकर ग्रीवा-ग्रसित हुई जाती थीं | बड़ी मुश्किल से शाम को जाकर एक कुत्ते से लड़-झगड़कर अपनी उदारक्षुधा शांत करी जिसके लिए कोई श्वानप्रेमी कुछ खाने को डाल गया था | अपना हक़ छिनते देख कुत्ते ने भी बाकायदा पूरी जंग लड़ी और कई पत्थर खाकर ओमी के शारीर पर एक दो जगह काटे के निशान छोड़ मुंह में जो आया उसे भर दुमदबाकर भाग गया |


इस रात ओढने को कुछ नहीं था क्योंकि कुकड़ाती आंतों के मारे बोरी अपने खास स्थान पर छुपाना भूल गया था | खुले में पेढ़ी पर सोने की हिम्मत नहीं कर पाया और बगल वाली बिल्डिंग की आखिरी मंजिल से होकर छत पर निकल आया | वह जानता था यहाँ छत पर एक पानी की टंकी है जिसके पीछे तीन साइड की आड़ और जरा छपरा भी निकला हुआ था | शायद यहाँ सोने पर चलने वाली बर्फ सामान हवाओं से कुछ बचाव हो जाये यही सोचकर लेट गया मगर ठण्ड ने कब किसी से नाता निभाया है जो अब निभाती |


सीधा लेटने के बाद थोड़ी देर में फैले पाँव सिकुड़ गए | कुछ और देर बाद पींठ गोल धनुषाकार हो गयी | जाने कहाँ से वही शाम वाला कुत्ता वहां आया और इसे देख गुर्राने लगा जैसे यह जगह उसकी बपौती रही हो मगर कुछ देर तक गुर्राने के बाद वह भी इसी जगह एक कोने में खुद को सेट कर गया | जाने कब सरकते हुए दोनों के शरीर एकाकार हुए पता ही न चला | अब दोनों एक दूसरे से चिपके पड़े अपनी एक और रात बिता लेने के चक्कर में थे |


टपरे से बाहर नजर आने वाले अँधेरे भरे असमान की ओर आस भरी नजरों से टकटकी बाँध यूँ देखने लगा जैसे इस तरह ये रात सूरज के अल-गरम प्रकाश से आलोकित हो जाने वाली हो | इसी पोज़ में भोर ने चमककर अपना आगाज़ कर दिया परन्तु ओमी की खुली आँखों की टकटकी अब भी उसी दिशा में थी जडवत और रात जिस दशा में में शारीर था अब भी उसी दशा में बेहरकत पड़ा था | उधर बगल में सोये पड़े कुत्ते ने एक शानदार अंगड़ाई ली और खड़े होकर शरीर को विभिन्न दशाओं में मोड़-तोड़कर सामान्य करने लगा | कुछ सेकंड्स बाद कुत्ता अपनी नाक के अग्रभाग को हिलाता-डुलाता ओमी के अविचल पड़े बदन को सूँघने लगा फिर चल दिया सीढियों की ओर | इतने सर्द मौसम में वॉचमैन या बिल्डिंग वालों में से किसी ने ऊपर नहीं आना था | यहाँ तक कि पानी की भराई भी नीचे ग्राउंड फ्लोर पर रखी मोटर से हो जानी थी सो जल्दी किसी को पता चलने के असार भी न थे |


एक कुत्ता ही था जो जनता था इस सब के बारे में | इस नयी शाम कुत्ते के लिए नया अनुभव था भूख मिटाने का | जितनी भी खुराक कम मिली ओमी से वसूल ली | और दो दिन बाद उसका अधखाया बदन मुंह चिढ़ा रहा था हमारे उस समाज और व्यवस्था को जिसने उस रूप में भी सिवा नाक-भों सिकोड़ने के कुछ नया न किया | बिल्डिंग वालों को इस बात से फर्क पड़ा था कि कोई उस अवस्था में मिला लेकिन किसी ने यह सोचने की जहमत न उठायी कि क्या किया जाये तो अगला कोई शरीर इस हालत में न मिले | हुआ तो बस इतना कि अब ओमी भी उठाया जा रहा था ले जाये जाने के लिए | इस सब के मध्य वह इकलौता था जिसे उसके जाने से फर्क पड़ा और जो लगातार इस सारे क्रिया-कलाप को अपनी हल्की सी गुर्राहट के साथ देखे जा रहा था | उसके लिए यह सब एक बार फिर उसके मुंह से निवाला छीने जाने जैसा था |


जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh (22-01-2013)

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बैसाखी.. :| (एक निस्वार्थ प्यार)


● बैसाखी.. :| (एक निस्वार्थ प्यार) ●

गर है तू साथ,
हर कदम बन जाऊँ तेरा,
गर है तू साथ,
बन जाऊँ बैसाखी तेरी,
गर है तू साथ,
रहती साँस साथ निभाऊँ तेरा,
गर है तू साथ,
हमकदम बनूँ मैं तेरा,
गर है तू साथ,
हमखयाल बन जियूँ संग तेरे,
गर है तू साथ,
बहते मोती पी जाऊँ तेरे,
गर है तू साथ,
वजह ख़ुशी की तेरी मैं बन जाऊँ,
गर है तू साथ,
दर्द तेरा महसूस मैं कर जाऊँ,
गर है तू साथ,
तुझसे पहले घर खुदा का खुद देख आऊँ..

पर साथ कौन किसी के होता है..
यहाँ मुझे आना अकेले, फिर अकेले चले जाना होता है..

Jogendra Singh जोगेंद्र सिंह (2012-12-03)
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चुहिया



● चुहिया ●


सामने वाली दीवार की जड़ में बने छोटे उबड़-खाबड़ से गोल छेद को निहारे जाना जैसे मेरी रोज़ाना की आदत बन गयी थी | जब भी दिल उदास या खिन्न होता यहीं आ बैठता था मैं | वीरान पड़े इस छेद में अभी कुछ समय से हलचल सी नजर आने लगी थी मगर क्या है असल में यह नहीं समझ पा रहा था | एक दिन शाम के धुंधलके संग बत्तियाँ जलने से पहले उसमें से छोटी नुकीली सी कोई चीज़ बाहर को निकली नज़र आयी | कुछ ऐसी जैसे वह आगे से भोंथरी और उसके बाद लगातार मोती होती चली जा रही किसी डिज़ाइन को अभिव्यक्त कर रही हो | ठीक वैसे ही जैसे कोई 'कोन' | जाकर सबसे पहले लाईट जलाई कि जाने क्या हो? छोटी सी बच्ची है घर में आखिर ध्यान रखना भी आवश्यक हो जाता है | ज्यों ही बत्ती का झपाका हुआ वो उभरी चीज़ भी अपने उद्गम स्थल पर विलुप्त हो गयी |

कुछ देर पश्चात् फिर वही सब लेकिन शफ्फाक चमकती रौशनी मध्य नज़र आया | इस बार आकार कुछ और ज्यादा बाहर को निकला हुआ था | देखते ही चमक उठा ओह ये तो घर में नए मेहमान की पहली दस्तक है | काले नहीं परन्तु काले सामन धूसर रंग वाली छोटी मगर साफ सुथरी एक चुहिया अपनी थूथ आगे को निकाले उसपर उगे कुछ लम्बे कड़क बालों के नीचे वाली अपनी नाक से कुछ सूंघती नज़र आ रही थी जैसे उसके नासछिद्र मेरे कमरे की सारी वस्तुस्थिति उसके सामने स्पष्ट कर देने वाले थे | मूँगदाल जितना छोटा सा नासाग्र सूंघने के साथ ही लयबद्ध अंदाज़ में ऊपर-नीचे होता बड़ा भला सा लग रहा था | शारीर पर नये-नये मुलायम से धूसर रोम ऐसे लग रहे थे कि उनपर हाथ फिराकर देखने का मन हो आया | ज्यादा बड़ी नहीं थी इसीलिए शायद साफ सुथरी नज़र आ रही थी | वर्ना चूहे इतने प्यारे कब-कब लगने लगे..!!

मेरी निगाहें उसी पर टिकी थीं और वह घूमती ग्रीवा संग जाने क्या तलाशना चाह रही थी | देखते ही देखते सरपट उस बिल से निकलकर उस दीवान के नीचे जा घुसी जिसपर लेटा मैं उसे निहार रहा था | अगले ही पल टीवी के नीचे रखी छः फुटी आड़ी हाफ वार्डरॉब के नीचे | तुरंत ही रसोई की ओर यह जा और वह जा मुझे सोचने का मौका तक न मिला | कुछ देर की खटर-पटर के पश्चात् रोटी के उस टुकड़े संग लौटी जो स्लैब पर रह गया था | फिर सीधे अपने बिल में गायब |

हालाँकि घर में चुहिया होने से चिंता का उद्भव होना चाहिए कि अब जाने क्या-क्या न कुतरा जाये परन्तु ऐसा ना सोचकर मन में उसके आकार-प्रकार और रूप-रंग को ले कुछ और ही विचार उत्पन्न हो चले | कम से कम जिन्हें नकारात्मक तो बिलकुल भी नहीं कहा जा सकता था | काफी देर इंतज़ार किया लेकिन फिर उस दिन दोबारा नहीं दिखाई दी |

अगले दिन सुबह दस बजे के बाद नज़र आयी जिसका स्वागत बिल के बाहर पहले से रखा रोटी का टुकड़ा कर रहा था | हाँ, मैंने ही रखा था उसे वहाँ ताकि यहीं उसके साथ कुछ समय बिताने मिल सके | 'मानसिक अर्धांगी' से बोलचाल बंद है | वजह उसके लिए बड़ी ही होगी वरना यूँ नाते ख़तम तो नहीं किये जाते? मेरे लिए वो कारण वैसा नहीं था कि मेरी अपनी वजहें थी और जब वजहें हों तो उनके लिए भी जीवन में स्पेस होना चाहिए | आधे-पौने घंटे में बात करता हूँ कहकर दो घंटे में बात की और इन्फॉर्म नहीं किया और समय लगा तो उसने रिश्ता हमेशा के लिए ख़तम समझ लिया कि जब दिल में जगह नहीं तो साथ का क्या फायदा? लेकिन हर नहीं के पीछे छिपी वजहें होती हैं कि क्यों नहीं कह पाया लेकिन कोई समझे तब न और जो कुछ कहो तो हमारी बातें बड़ी-बड़ी | बहरहाल बात हमारी चुहिया की हो रही थी | हर रोज उसका आना-जाना लगा ही रहता | उसके आस-पास रहते मैं अपने होने का अहसास भी उसे कराता रहा | पहले दूर-दूर फिर एक दिन दीवान से उतर बिल के पास बैठ उसे रोटी खिलाई | धीरे-धीरे उसे भी मेरे होने की आदत पड़ने लगी | अब सीधे मेरे हाथ से कुतर-कुतर अपना भोजन लेने लगी थी |

जाने कैसा अंजाना रिश्ता था जो अनचाहे ही पनपे जा रहा था | रोज शाम चुहिया का मटक-मटककर आना जैसे वॉक के लिए निकली हो और दूर से मैं उसका हमराही बना उसके साथ अपने खोये पल जीता रहा | बचपन से अब तक अपना कोई रिश्ता बचा नहीं पाया | खुद किसी से विलग नहीं हुआ पर अकेला फिर भी जीता रहा | लेकिन इस नन्हे से बेजुबान जीव का कोई मकसद नज़र नहीं आता सिवा इसके कि कुछ समय उसका मेरे और मेरा उसके साथ गुज़र जाता | मेरी आँखों से गिरती बूंदों पर उसका चेहरा हिलाते हुए एकटक मेरी ओर निहारना यूँ जैसे मेरी कोमल भावनाओं को समझकर अपने मन के हाथों सहला रही हो | और तो और जाने कैसे उस सहलाये जाने की अनुभूति मैं भी पा जाता | हर बार लगता जैसे एक अबोला संवाद था जो उसके साथ हर रोज़ हुआ करता था | जो बातें कभी किसी को न कह पाया वे सारी उस नन्हे भोले से जीव से बाँट बैठा | पहले उसके साथ से सकून पाता फिर अनचाहे ही उसके साथ वार्तालाप शुरू कर दिया | जाने समझती थी भी कि नहीं मगर मेरा संवाद दर-दिन उसके साथ हुआ करता |

एक दिन जब आयी तो मैंने महसूस किया कि उसके पाँवों में वो पहले की सी जान नहीं है | कुछ लंगड़ायी कुछ दुखियाई सी मेरे पास आकर बैठ गयी | रोटी के टुकड़े की तरफ देखा तक नहीं | चुपचाप जमीन पर मुँह धरे अपनी नन्ही सी काली गोल आँखों से मेरे चेहरे को तकने लगी | मानो कह रही हो ''क्या तुम नहीं समझोगे अपनी चुहिया का दर्द? देखो न अब मेरा चलना भी मुश्किल होने लगा है | कैसे अपने नन्हे पाँवों पर यहाँ-वहाँ चौकड़ी भरा करुँगी?'' सच ही तो था उसके चौकड़ी भरने पर कभी मुझे रश्क हुआ करता था ''काश मैं भी इसी तरह दौड़-भाग सकता मगर थोडा भारी शरीर लेकर उतना सब कहाँ संभव हो पाता?'' साथ ही मैंने देखा उसके चेहरे की थूथ पर दाहिनी तरफ आँख से ज़रा नीचे बहुत छोटा सा घाव भी था जो बाद में दिखाई पड़ा | उस जरा से शारीर के लिए तो यह भी एक बड़ा घाव रहा होगा | हाथ में लेकर सोफरोमाईसिन लगाकर उसके पाँवों पर वॉलिनी लगा दी | बहुत देर तक दोनों गुमसुम एक दुसरे के साथ बैठे रहे फिर अचानक मेरे हाथ से उतरकर वह अपने बिल में खो गयी |

अगले कई दिन बीत जाने पर भी जब वो नहीं आयी तो मुझे समझ नहीं आया कहाँ जाकर ढूँढूं अपने आखिरी रिश्ते को? क्या मेरा ये रिश्ता भी खो गया? आँख से एक बूँद पानी नहीं ढलका जैसे उसने कसम दे रखी हो अब कभी नहीं रोओगे तुम | मगर बेआवाज़ होता अंतर्मन का रुदन भला रोक पाया है कोई? पत्नी को समझ ही नहीं आया क्या हुआ है | ना ही उसने जानने की कोशिश की | उसे पड़ी भी कहाँ थी श्रीमानजी की मनोदशा की | हालाँकि मुझे कई बार लगा कि उसने भी महसूस कर लिया है मेरा बदला एकाकीपन परन्तु जैसा कि होता आया है तो आज ही कौनसा नया तीर मारा जाना था | छोड़ दिया अकेला मुझे मेरे ही संग |

जाने कितने दिन अपने में भीतर सिमटे बिता दिए | अभी हाल ही दो रिश्ते खोये हैं, टूटकर बिखर सा गया हूँ | किसी से कोई बोलचाल नहीं कहीं कोई संपर्क नहीं सब रीता सब सूना | ऐसा खोखलापन पहले अनुभूत नहीं किया कभी | कहीं कुछ नहीं मस्तिष्क में एक चौंधा सा और एक अनवरत सी टींsss की आवाज ठीक वैसी ही जैसी टीवी की शुरुआत के दिनों में दूरदर्शन पर सारे प्रोग्राम्स ख़तम होने पर खड़ी धारियों वाले सतरंगी परदे के साथ सुनाई देती थी | स्पष्ट अभिप्राय था कि अब कुछ नहीं बाकी | क्यों इंतजार है तुम्हें? किसी ने वापस नहीं आना | क्या तुम अपना नसीब नहीं जानते? कब-कब तुम्हारा कोई टिकाऊ अपना हुआ? बच्चा..!! तुमको अपने मरने तक अकेले ही जीना होगा इस चौंधे और उस अनवरत दिमाग में बजने वाली टींsss की आवाज संग | और जब मर जाओगे कोई तुम्हारे लिए एक आँसू भी बहा जाये तो कहना |

कोई ना..... इसे नियति जान सूखी आँख सूखा दिल लिए बढ़ लिया जीवनपथ पर कि सहसा लम्बे सूखे के बाद पड़ी पहली बारिश का सा आनंद देती जाने कहाँ से मेरी चुहिया आ धमकी | उसके बिल के पास ही बैठा था तभी अचानक हौले से मेरी गोद में चढ़ने का प्रयास सा करती मिली | सन्न बैठा उसे देखता रह गया और जब समझ आया तो बड़े दिनों बाद लगा मानो रात बीत जाने पर सुबह सात बजने पर दूरदर्शन पर लगा सतरंगी पर्दा हट गया और सुबह के पहले प्रोग्राम की तरह सुमधुर 'वन्दे-मातरम्' का गान शुरू होकर मन-मस्तिष्क से सारे बोझों को हटाने पर लग पड़ा हो | उधर मैं अपनी हथेली पर अपनी चुहिया को बिठाये शब्दों का साथ पकडे बिना बीते दिनों की कुछ उसकी और कुछ अपनी बातें साझा करने में व्यस्त था |

● जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh (26-11-2012)

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Mr & Mrs Title



● Mr. & Mrs. Title. ●

Dear Mrs. Title,

सुबह ही से धड़का सा लगा हुआ था | एक अंजाना सा डर, एक सिहरन जिसने लगातार रीढ़ में सनसनी सी बनाये रखी थी | हर आहट पर दिल उछाले लिए बाहर आने को तत्पर | लग रहा था रहा था जाने अब क्या हो | क्या सच ही मैंने तुम्हें खो दिया? अभी कल रात ही तो जरा सी बात हुई | वो भी पूरे चार दिन के अबोले पश्चात् | कैसे न करता? तुमने कह कैसे दिया 'देखना एक दिन तुम्हारी पहुँच से इतना दूर चली जाऊँगी कि न कभी आवाज सुन पाओगे न अपनी सुना पाओगे |' अरे!! तुम्हारी हिम्मत कैसे हो गयी ऐसा कहने की | :(

ठीक है तुम अलग होना चाहती हो कि तुमको ऐसा लगा कि मेरी जिंदगी में तुम्हारी कोई जगह नहीं तो क्या हुआ तुम मेरा दिल नहीं समझ सकीं | क्या तुम जानती नहीं कि तुम्हारे बगैर अब भी मुझे केयरलैस रह जाना अधिक पसंद है? तो बात यूँ है 'मिसेज तितले' उधर तुम तुजो (दुखी होवो) इधर हम गलते रहें, कहते हुए कि बाकी ही क्या रह गया इस जीवन में कितना सही है?

कितना समय गुजरा दीन-दुनिया से बेखबर जीवन जीते कुछ खबर भी है तुम्हें? कल रात तुम्हारी आवाज में लिपटा क्रंदन क्या मैंने सुना न होगा? या मेरी भीगी आवाज से तुम्हारा अंतस पसीजा न होगा? एक दूसरे से दूर रहते ह्रदय में एक दूसरे को बसाये कैसे रह पाएंगे हम? जो दूरी में भी साथ ही रहना है तो दूरी किसलिए? ऐ हिप्पो आ जाओ ना वापस !!! कोई बात कोई सफाई नहीं देनी मुझे कि हर बात अब तुम्हें जुबानी जमा खर्च लगने लगी है | तुम्ही क्यों न बता जाती मुझे कैसे करूँ डिफ़्रेन्शिएट दिल और जुबान से निकली बातों को? बालपन से यही जाना है जो मन में है उगल दो, सामने वाला अपना है तो हर हाल में समझेगा | परन्तु ये टेढ़े-मेढ़े अंतर? कैसे इन्हें इससे या उससे अलग करके बताऊँ कि ये ऐसा नहीं, ये वैसा नहीं, ये तो बस वो है जो गर तुम भीतर झाँक सको तब भी यूँही नजर आयेगा | जाने कैसे कर पाए थे बजरंगी किसी ने कहा झट अपनी छाती चीरकर दिखला दी कहते हुए "देखो किसी मणिमाला में नहीं मेरे प्रभु, वे तो बसे सीधे मेरे ह्रदय कपाट मध्य" | शायद मेरे न चीर पाने से तुमको वह सब नजर न आता हो जो है कहीं दबा-ढंका |

हःह्ह्ह...आज फिर रुक गयी कलम | और आगे लिख पाना जाने बस में ही न रहा ! शायद गरीब बच्चे के हाथों की पेन्सिल है जिसे एक हद तक छील पाना, साँचागत कर पाना तो संभव है परन्तु उपरांत उसके आगे लिखने के लिए पेन्सिल को भी बजरंग बली की छाती की तरह बीच से चीरकर दो फाँक बना उसमें से निकली काली लैड को पकड़ नया लिखने लायक बनाना पड़े | और जो यह आखिरी लैड भी चुक चुकी हो तब? मेरी तो हर नयी कलम तुम ही से है 'Mrs.तितले', तुम्हारे जाते ही बे-कलम रह गया मैं |
तुम्हारा (जाने हूँ भी कि नहीं),

Mr. Title.............

[Written By: Jogendra Singh जोगेंद्र सिंह] (2012-11-21)

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