गली का कुत्ता या इंसान ::: ©
गली के आवारा कुत्ते को रात में डर-डर कर पीछे को हटते देख कभी ख्याल आता है कि इन्हें कहीं ज़रा भी प्यार से पुचकार दिया जाये तो इनकी प्रतिक्रिया ही बदल जाती है... आँखों में उभरे जहाँ भर की प्रेम में लिथड़ी मासूमियत , कान कुछ पीछे को दबे हुए , लगातार दाँये-बाँये को डोलती पूँछ , गर्दन से लेकर पूँछ तक का शरीर सर्प मुद्रा में अनवरत लहराता हुआ और चारों पाँव जैसे असमंजस में आये हों कि उन्हें करना क्या है सो परिणामस्वरूप एक ही जगह यहाँ-वहाँ बेतरतीब से उठते-गिरते पैर...
तदक्षण यह खयाल व्यथित भी कर देता है कि आज के दौर की भागती-दौडती जिंदगी में मेरी खुद अपनी स्थिति भी इन निरीह प्राणियों से कितनी विलग है...? इतने सारे दिखते अपनों के मध्य भी कितना अकेला पड़ गया हूँ... इन्हें कदाचित कोई पुचकार भी जाता हो परन्तु एक प्यार भरी पुचकार तक के लिए तरस रहा हूँ... सभी अपनी आप में व्यस्त-मस्त हैं... जो किसी को फुर्सत हो तब भी इतना समय है ही किसके पास जो आकर किसी की पीड़ा को समझने यत्न करे...?
कठिन नहीं है इसे समझना... आज मनुष्य जीवन संभवतः कुक्कुर योनी से भी बदतर हो गया है... मुझे याद है भरतपुर में जब गली के कुत्ते को कोई पीट जाता था तब उसके दर्द और उस उठती आवाज़ मात्र से मेरे पालतू को होने वाली बैचेनी देखने लायक होती थी... परन्तु आज इंसान दूसरे को पीड़ा देकर खुद आगे निकल जाने की होड में इतना आगे चला गया है कि फुर्सत ही नहीं किसी का दर्द समझने की या यूँ कहें आज हम कुछ अधिक ही बहरे हो गए हैं...
कभी-कभी लगता है कोई आकर मुझे भी दो प्यार भरी पुचकार लगा जाये... लेकिन हाय री किस्मत अपने समझते नहीं परायों को मतलब नहीं... सूने नयन बेफिजूल कुछ बूंदों को जाया कर जाते हैं... जानते जो नहीं हैं इनका मोल...
कभी लगने लगता है क्या हमें गली के आवारा कुत्तों के स्तर तक आने के लिए भी मेहनत की दरकार है...? सवाल गंभीर अवश्य है लेकिन मुश्किल जरा भी नहीं...
_____जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 26 नवंबर 2010 )
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