● स्वप्न ~ अधकचरे ● Copyright © 2009-2011
संग नयन अधर का जोड़ा,
दबे ओंठ हैं गालों गड्ढे,
सरगम सी तोहरी पायजेब,
करत तरंगित ह्रदय हिंडोला ,
स्वप्न लोक में विचरती सोच,
कोमला निर्मला कुमुदिनी सी,
निश्छल बालक सी मुस्कान,
सकुचाई शरमाई बतियाती,
आह कैसा विहंगम सृष्टा का,
हो परिणिति अधूरे स्वप्न की,
संग बगल बैठ बतियाते,
निद्रा मोरी हो गयी चंचला,
स्वप्न आते तुम न आती,
दबा खुला कहकहा तुम्हारा,
संगीत सा बतरस बाँटती,
हौले से छू जाना अवचेतन को,
खिलखिला कर हँस पड़ना,
फिर अनायास चुप कर जाना,
जाने कोई देख पाया शायद नहीं,
कितनी उत्कंठा लिए विचरता है,
चंचल हो चुका यह मेरा मन,
क्यों न संभव हो जाता,
समय का पहिया फिर से,
हो लेता विपरीत एक बार को,
वक्त बदलता काल बदलता,
संग बदल रचता रेखा नयी,
बनता ईश्वर एक दिन का और,
करता सृज़न नवजीवन का,
बावला ये मन समझे कैसे,
खुल चुके फिर चक्षु मेरे,
स्वप्न आते तुम न आती,
स्वप्न लोक में विचरती सोच,
दिवास्वप्न स्वर्गलोक सा,
बालमन सा ह्रदय मोरा,
कर रहा देखो किस प्रकार,
सृज़न फिर एक नए स्वप्न का ll
● जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (06-05-2011)
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Comments
4 Responses to “स्वप्न ~ अधकचरे”
bhaav bhini si rachna..
badhai!
बहुत सुंदर एहसास.....
▬● अपर्णा जी , आभार...........
▬● विना जी , शुक्रिया.......
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