ढेर हूँ मैं मिटटी से बना



ढेर हूँ मैं मिटटी से बना
(1)
ढेर हूँ मैं मिटटी से बना,
भूल मुझे, मेरी भूल को वजह बना,
छोड़ बिखरता, परवाज यहाँ-वहाँ,
चल दिए उठकर तुम जाने किस राह?
(2)
है मोह तुम्हें अब भी इसे जानता हूँ,
खयाल अपना रखने को कहकर,
चल देने का खयाल क्यों निकाल न पाते हो,
ऐ हमसफ़र मेरे, चल देने का खयाल ही फिर,
क्यों मन में तुम ले आते हो ?
(3)
अपना न समझ पाए जिन्हें,
मरा उन्हें क्यों न जान पाए,
भूल जाना था मरने वालों को,
खास उन्हें जिन्हें अपना ही न समझ पाये,
(4)
समझो उसे कि ढेर था रेत का एक,
जिस पर कि फूँक तुमने थी दे मारी,
गया कहाँ उड़कर क्यों करते हो परवाह,
ढेर साथ है पूरा, या कि बिखर गया तुम्हें क्या,
(5)
छोड़ दीना जब टीला मिटटी का,
बिन बैठे भी उसके अंजाम का अब मोह कैसा?
क्यों कहते हो मिटटी से कि अपना ध्यान रखना?
मुर्दों संग जिया नहीं करते, जानते हो ना?
(6)
समझ लिया कम जिसे जीवन से,
मरे-जीये चाहे उसकी चिंता क्यों,
और तुम देखोगे, हर बार उड़कर,
हवा के झोंकों संग मैं ढेर बना,
जा जमने लगूंगा फिर तुम्हारे ही नीचे,
बैठ जाना उठकर फिर चाहे किसी और जगह...

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (29-08-2012)
● Instant: +91-787-819-3320
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Comments

3 Responses to “ढेर हूँ मैं मिटटी से बना”

29 August 2012 at 3:40 pm

बहुत अच्छा लिखे हैं सर!

सादर

Sunil Kumar said...
29 August 2012 at 9:47 pm

बहुत ही सुंदर रचना

12 September 2012 at 9:36 am

वाह....
बहुत सुन्दर भाव...
बहुत प्यारी अभिव्यक्ति.....

अनु

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