मिलना-बिछडना ::: ©
Thursday, 11 November 2010
- By Unknown
स्वप्न लोक से तू निकल आ ऐ रूपसी...
माना है जिंदगी चाहत का एक सिलसिला..
मिलना-बिछडना भी है लगा रहता यहाँ...
क्यूँ मांगती है आ सीख ले तू छीन लेना..
बिन मांगे न मिला है न तुझे मिलेगा कभी.. ©
जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 11-11-2010 )
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Comments
3 Responses to “मिलना-बिछडना ::: ©”
बहुत सही लिखा है बिना मांगे क्या मिला है बल्कि यहां तो छीनना पड़ता है। वैसे तो फॉलोवर हूं आपके ब्लॉग की लेकिन कुछ परेशानियों के चलते मैं कुछ समय ब्लॉगिंग से दूर रही। अच्छा हुआ आप फिर से यहां लाए...शुक्रिया...
► वीणा जी ,,,
पहले तो आपका धन्यवाद ...
और रही बात यहाँ आने या आपके ब्लॉगिंग छोड़ने की तो अगर लिखना आपका पैशन है तो आप ब्लॉगिंग कभी नहीं छोड़ सकती हैं...
मन को अच्छे लगे आपके शब्द
डॉ.शालिनिअगम
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