एक विचार ►
कलयुग में सात्विक शक्तियां क्षीण हो रही हैं , यहाँ चलते रहो निरंतर जैसी बात में हर क़दम पर एक अच्छी चीज़ कम होती चली जाती है.. आसुरी प्रभाव उत्पादक दौर से गुजर रहा है.. सद्गुणों को बचाए रखना उतना ही कठिन जतन हो गया है जितना कि सूखी रेत को ढीली मुट्ठी में सम्हाले रखना.. सतयुग का समानता का अनुपात अब डगमगा गया है.. एक के अनुपात में सौ हैं..
एक के साथ एक-दो हैं , तो वहीं सौ के साथ हजारों हैं.. तामसी से बचने के लिए उसी की छात्र-छाया दिखाई देने लगी है.. बेचारा सतयुग जाये तो जाये कहाँ ?
एक के साथ एक-दो हैं , तो वहीं सौ के साथ हजारों हैं.. तामसी से बचने के लिए उसी की छात्र-छाया दिखाई देने लगी है.. बेचारा सतयुग जाये तो जाये कहाँ ?
► ...जोगी... :(
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Comments
2 Responses to “बेचारा सतयुग”
सार्थक और सराहनीय प्रस्तुती...सात्विक शक्तियाँ आज वास्तव में संकट में है ...लेकिन ये कुकर्मी और भ्रष्ट लोग भी इन सात्विक शक्तियों के कुछ -कुछ जिन्दा होने से ही सुरक्षित हैं ..जिसदिन ये सात्विक शक्तियां पूरी तरह ख़त्म हो जाएगी उस दिन शरद पवार जैसे रावणों को सरे आम जिन्दा जलाया जायेगा आसुरी शक्तियों के ही द्वारा ...?
सत्य की जीत तो जोगी भाई होती है,लेकिन सत्य आदमी के हाथ में नही है,यह तो माना जा सकता है,सत्य के लिये प्रकृति का आसरा करना भी जरूरी है,सत्य का प्रकट होना,समय से होता है,जैसे एक शरीर दिन रात सांस लेकर एक दिन के जीवन को प्रकट करता है,वैसे ही सत्य समय के पूर्ण होने पर प्रकट होता है,आपके प्रयास के लिये आभार.
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