बचपन की संवेदना ::: ©




बचपन की संवेदना ::: ©

मेरे मित्र अशोक जी ने अपनी वॉल पर संवेदना को साझा किया.......
जिसके अनुसार उन्होंने लिखा "**** आज सवेरे घर से बाहर निकला तो एक जगह देखा कि कुतिया के छोटे-छोटे पिल्लै,कडकडाती ठण्ड से बचने के लिए एक दुसरे में गुत्थमगुत्था हो रहे हैं....मुझे  बचपन के दिन याद आगये....कैसे कुतिया की 'डिलेवरी' पर मोहल्ले वाले,बच्चों की अगुवाई में  उसे गुड का हलवा बना कर खिलाते थे....उसके बच्चों के लिए टाट का घर बनाते थे.... उसके बच्चों और उसके लिए समय-समय पर खाने का प्रबंध करते थे....!!!! मुझे  मालुम  है  मेरे  कुछ'नयी पीढ़ी' के  शहरी  नौज़वान  दोस्तों को मेरी ये बातें अटपटी,नितांत 'गवारुं' और आश्चर्यजनक लगेगी लेकिन क्या करूँ....उस समय का सत्य तो यही था....!! आज देखता   हूँ ...इंसान  को  इंसानों  के लिए ही  फुर्सत  कहाँ  है ..!!! भीड़ में इंसान,गिरे हुए इंसान को कुचलते हुए निकल जाता है....,फुटपाथ  पे पड़े किसी असहाय इंसान को नज़रंदाज़ कर जाता है.... किसी भूखे की लाचारी समझे बिना उसे 'उपदेश' झाड जाता है......!! कुत्तों की  तो कौन कहे....!!! इंसान,इंसान के बारे में ही लगभग संवेदना -शुन्य सा जान पड़ता है....!! सोचता  हूँ उस समय 'सहज मानवता' के साथ जी रहे इंसान ने आखिर क्या खोया..... ????? और आज आपा-धापी में लगे,इंसानियत को दोयम दर्जे का मानने वाले  इंसान(???....) ने आखिर क्या पा लिया है...... ????***

उक्त वर्णित घटनाक्रम को एक सजग संवेदनशील इंसान होने के नाते लिख कर उन्होंने अपना दुःख साझा तो कर लिया ......और........ टिप्पणियों के रूप में उपस्थित देवियों-सज्ज़नों ने उस पर बड़े-बड़े व्याख्यान भी लिख मारे......... परन्तु क्या कोई मुझे बता सकेगा जब अशोक जी उस दृश्य को निहारते हुए द्रवित हो रहे थे और बचपन में अन्य लोगो द्वरा स्थापित इंसानियत को याद कर रहे थे तब अशोक जी के मन में यह बात नहीं क्यूँ नहीं आयी कि इन पिल्लों को आज भी टाट के घर की आवश्यकता है.....? क्यूँ नहीं सोचा उस कुतिया को घी-गुड-सौंठ-गौंड का हलवा अब भी चाहिए हो सकता है...........? माफ़ करना मैंने इसलिए यह सब लिखा क्यूंकि उन्होंने यह सब किया जाना वर्णित नहीं किया है........... हमारे अन्य प्रबुद्ध वर्ग के दोस्तों ने भी अपने-अपने हिस्से आयी एक-एक भारी-भरकम संवेदनशील टिपण्णी देकर अपने-अपने दायित्वों की इति समझ ली........? क्या हमारी संवेदना लिखने भर तक ही रह गयी है..........? या हम उन बड़ी अट्टालिकाओं वाले रईसों के ही प्रकार के हुए जा रहे हैं जिसमें रक्त का एक कतरा देख कर या किसी भूखे को भूखा देख आँसू टपका देना फैशन बन गया है.....?
:( :( :( :( :(
आशा है अशोक जी मेरे इस आर्टिकल को सकारात्मक रूप में लेंगे...... :)

_____जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (29-Nov-2010)

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अशोक जी के लेख का लिंक है......
http://www.facebook.com/notes/ashok-punamia/manavata/131792756879513
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Comments

4 Responses to “बचपन की संवेदना ::: ©”

30 November 2010 at 6:13 am

जोगी भाई,माफ़ कीजिए,'मैं बचपन में अन्य लोगो द्वरा स्थापित इंसानियत को याद' नहीं कर रहा था, बल्कि उन बच्चों में मैं स्वयं भी उस वक़्त शामिल था,और इसीलिए मेरे मन में आज भी उन असहाय पिल्लों को देख कर पीड़ा थी.मेरे मन में यह बात भी आई थी कि उन लाचार पिल्लों के लिए भी आज 'टाट' की आवश्यकता है,लेकिन मेरे लिए ये संभव नहीं था,क्योंकि वह कुतिया मुझसे अनजान थी,और अपने पिल्लों की हिफाज़त के लिए मेरे लिए नुक्सान दायक हो सकती थी.आप शायद बचपन में इस स्तिथि से नहीं गुज़रे हैं,इसलिए आपको बताना चाहूँगा कि उस समय मुहल्ले में रहने वाले जानवर अमूमन मोहल्ले के लोगों को जानते थे,और अपवाद स्वरूप ही उन्हें नुक्सान पहुंचाते थे.उन बच्चों का रोजाना मुहल्ले के जानवरों के साथ खेलना होता था,और नवजात पिल्लों की माँ 'कुतिया' भी अपने पिल्लों को मुहल्ले के बच्चों के साथ सहज स्वीकार करती थी.
दुसरा नम्र निवेदन ये भी करना चाहूंगा कि यदि हम किसी लाचार-मजबूर की सहायता किसी कारण वश नहीं कर पायें तो इसका मतलब ये भी तो नहीं कि उसके लिए कोई चिंतन भी ना करे.....या कि उसके बारे में कोई ज़िक्र ही ना करें! संवेदनाओं को ज़िंदा रखे बगैर कोई कैसे उसे अपने कार्यों में उतार सकता है ? कार्य के स्तर पर जबकि आज वास्तव में संवेदनाओं का टोटा है, तो जोगी भाई कम से कम वैचारिक स्तर पर तो संवेदनाओं का निरंतर प्रवाह होते ही रहना चाहिए,क्योंकि आखिर विचार ही तो कभी ना कभी कार्य रूप में प्रकट होते हैं. हर व्यक्ति हर काम नहीं कर सकता,लेकिन वो उनके बारे में सोचना ही छोड़ दे-- आपके विचारों का आदर करते हुए भी,इस सोच से मेरा सहमत होना मुश्किल है.कृपया इसे बहस ना समझे,ये सिर्फ मेरे विचार हैं.

Unknown said...
30 November 2010 at 10:12 am

हाँ बहुत हद तक आप सही हैं अशोक जी...... क्यूंकि बिना विचार बने किसी के लिए माहौल भी नहीं बन सकता....... चलिए अगर अच्छा ना लगा हो तो क्षमा चाहूँगा....... :))

Unknown said...
30 November 2010 at 10:13 am

अशोक जी मैंने अपनी वॉल पर कमेन्ट में कुछ लिखा है आप भी देख लीजिए.... ((((( निर्मल जी और मेरे बाकी सभी माननीय दोस्तों..... जैसा कि यहाँ समझा जा रहा है और मेरे इनबॉक्स में भी मेरी एक अच्छी मित्र ने पूछा है कि .....///// "jogi, aapka kya ashok ji se koi purana vivaad hai... aapne kya dil dukhane ke liye ye post daali hai ? yadi aisa hai to hame sach is baat ka dukh hai.../////..... इस पर मेरा ज़वाब है "नहीं अशोक जी से मेरा कोई पुराना विवाद नहीं है..... मेरी नज़र में वो एक दोस्त हैं..... मैंने सच्चे मन से उनको हमेशा एक भाई की तरह से देखा है...... और मेरी पोस्ट उनके विरोध में नहीं है बस उसका मतलब सिर्फ इतना है कि हमें आज विचारों से आगे जाकर उनको क्रियान्वित करने के पथ पर अग्रसर होना चाहिए..... किसी भी तरह यदि अशोक जी के मन को ठेस पहुंची है तो क्षमाप्रार्थी हूँ और अगर वे कहें तो इस पोस्ट को डिलीट भी कर दूँगा..../////.....)))))

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