स्वयं से विद्रोह ● (एक कसमसाहट)


स्वयं से विद्रोह(एक कसमसाहट)
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●     क्यूँ होता है कि हमारे चारों तरफ सब कुछ दिखाई देने के बावजूद हम खुद को अकेला पाते हैं...? बालपन से बड़े होने तक का सफर जिन संगी परिजनों संग व्यतीत होता है अनायास ही होश आने के से अंदाज़ में सब पीछे को छूटते नज़र आते हैं... और एक नया साथ जिसे हम जानते तक नहीं थे अचानक हमारे जीवन की धुरी का अभिन्न पहिया बन संग सफर को चलने लग पड़ता है... वही धुरी कभी जब कब्जों से कमजोर हो लहकने लगे तो कौनसा साया हो जो अपना भीना सा अहसास करा दे आकर...? बंधनों की तड़प से मचलता व्यक्तित्व किस कदर बेबसी के आलम को जीता है यह उसे महसूस करने वाले से बेहतर और कौन है जानेगा...? न आगा नज़र पड़ता न ही पीछा जान पड़ता , कैसे बोध मिले सह-अस्तित्व का...?

●     महानगर की पुरानी वृहद बस्ती की तंग गलियों के उलझाव जैसा बंधित ह्रदय , कैसे उस उतरी पतंग की जंजालित डोर सुलझाऊँ...? जाने कब से मेरी पतंग बिजली के खम्भे पर तारों मध्य कटी फंसी है... डोर का निचला सिर भी पहुँच सीमाओं से परे है... मन हर बार मचल-मचल दायरों के बाँध तोड़ने की कोशिश में अपनी ही दरो-दीवारों पर घर्षण चिह्न बनाता जाता है और कुंए की मुंडेर पर पड़े निशानों जैसे निशान हर बार एक नए दर्द का अहसास दे जाते हैं... नया करने की कसमसाहट कब छटपटाहट में बदल जाती है पता ही नहीं चलता...इसी बीच जीवन चक्र अनेकानेक मौके उपलब्ध कराता तो है परन्तु ये मौके अदृश्य कैदखाने में से मिलने आये मुलाकाती जैसे होते हैं...

●     क्यूँ नहीं जीवन अथवा कालक्रम कुछेक हजार साल पीछे को चला जाता , जहाँ एक अलग परिदृश्य के बावजूद घुटन से आज़ादी नज़र आती थी...? कितने जद्दोजहद और मानसिक उथलपुथल के उपरांत समझ आता है अगर कुछ बरस ही पीछे लौटा जाये तो जाने कितने ही घटनाक्रम बदले जा सकते हैं... संभव है मानव मन के व्यर्थ प्रलाप हों यह सब , तब भी कुछ प्रलाप अपने अंजाम तक ना पहुँचते हुए भी भ्रमों के साथ एक अजीब सी संतुष्टि प्रदत्त करते हैं... स्वप्न लोक सी अनुभूति जिसमें मुंदी पलकें उन सब खयालों को जीवंत देखना चाहती हैं जिन खयालों को हमसे कभी मिलना तक नसीब नहीं होना था.... खुली पलकें , मुंदी पलकें... सारा खेला इन्हीं परिस्थितियों के मध्य अधरझूल पालने में लटका पड़ा रहता है...

●     आज पुनः जीवन वृत्त अपने चाप पर स्वयं को दोहरा रहा है... वो कहते हैं ना , मानसिक त्रासदी नए मार्गों की जनक होती है... परन्तु सवाल है , मन जिन अधूरे मार्गों को छोड़ नए मार्गों की ओर प्रस्थान होने हो है वे बंद तो होने से रहे और ना हमें कभी उनपर चलना ही नसीब होने वाला , तो क्यूँ ''ना इधर और ना उधर'' वाला राग अपनाया जाये...? क्यूँ नहीं वह किया जाये जो होना मस्तिष्क के लिए सकूनबख्श हो...?

●     अभी हम समूह रूप में इतने भी आजाद नहीं होने पाए हैं कि यह सब किया जा सके , पर क्या उस कथित सभ्यता के सींखचों की दरारों को और बड़ा नहीं किया जा सकता...? वस्तुस्थिति पर प्रवचनकुशल बहुतेरे मिल जायेंगे पर सामाजिकता की नकाब ओढ़े वे सारे ढकोसलेबाज़ भीतरखाने में स्वयं भी उसी कसमसाहट से गुजर रहे होते हैं और समय आने पर चोरी-छिपे अपने सभ्य चोले को उतार फैंकते हैं... तब क्या फर्क रह जाता है स्पष्ट विद्रोही होने और एक चोर डरपोक विद्रोही में...? काम तो दोनों के एक ही से हैं , परन्तु दोषी केवल एक ही क्यूँ...? क्या इन सब के पीछे हमारे समाज की वर्तमान संरचना ही तो जिम्मेदार नहीं...? ऐसा समाज जो बंधन दे तो सके परन्तु उन बंधनों में बंधे जंतुओं को उचित दिग्दर्शन ना दे सके तो किस काम की यह संरचना...? इससे बेहतर स्थिति में तो हम जानवर ही क्या बुरे थे जहाँ हर बात के लिए कोई नियमावली तो नहीं है... हाँ , शायद जानवर कहलाकर मुझे कहीं अधिक खुशी का अनुभव होगा... हाँ शायद इंसान से बेहतर जानवर ही होगा क्यूंकि उनकी बुरी दशा के लिए भी जो जिम्मेदार है वह भी इंसान ही तो है... जाने कब इंसानी चोले से मुक्ति पाकर स्वच्छंद पंछी बन गगन विचरण सम्भव होगा... प्रतीक्षा में हूँ उस घडी की जो संभवतः कभी नहीं आनी है... :(

▬● जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (02-03-2011)

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