तुम्हारी चुप


तुम्हारी चुपCopyright © 2009-2011

ठाले बैठे तुम्हारे विश्लेषण में , खुद को कहीं भूला जाता हूँ मैं ,
कल की बात मैं कह-सुनाऊँ , तुम में खुद ही को भुला बैठा था ,
पहले न था , अब खोया सा हूँ , तुम ही में कुछ समाया सा हूँ ,
कहते हैं वह रुसवाई जिसे , कब रही वो रुसवा हमारे लिए ?
जीवन के छिन गा लेते जिन्हें , वहीं रुसवाई कहलाने लगे हैं ,

ओंठ दबा हौले से मुस्कुरा देना तुम्हारा , दबा जाने क्या उनमें ,
दबी गाथा संघर्षों भरी , गहरे उतार चढावों भरे जीवन की गाथा ,
भिंचे ओंठ मुस्कुराते , खामोश निगाहें , गाल गड्ढे शोभा बढ़ाते ,
लरजते ओंठों मध्य लरजती मद्धम सुरीली तुम्हारी सुर सरगम ,

एक चुप तुम्हारी , देखो कितना कुछ कह जाती है आकर मुझसे ,
रुई के फाहों जैसी आकर अन्तस्तल छूती बिन कहे व्यथा तुम्हारी ,
दूर मुंडेर तक उडती मंडराती आक के फरों जैसी तुम्हारी बातें-यादें ,
निष्कपट बालक समान उनके पीछे खेतों की मुंडेरें नापता जोखता ,
तुम्हारी हर चीज़ को बावरे गाँव में आये ऊँट की तरह उत्सुकता से ,
दीदे फाड़ नयन झपकाता प्रयोगधर्मी अबोध सा बना उन्हें परखता ,

अबूझ पहेली जान , तुम्हें सुलझाने की कोशिश में खुद से उलझता ,
वीतरागी बन जीवन झंझावत के , रहस्यों से तुम्हें झूझता देखकर ,
मृत्यु लोक के खटरागों मध्य , नित प्रतिदिन तुम्हें खटता देखकर ,
बोल पड़ने को तत्पर नहीं बोल सकने को मजबूर एक पुतला पाकर ,
जाने क्यूँ ? जाने क्यूँ तुमसे अजानी नेह की इक डोर सी जुडी पाकर ,
क्यूँ तुमसी धारा में खुद को बहता पाकर एक नयी राह देख पाता हूँ ?
हाँ.. बिन नाते , अब नाते सा , तुम संग मधुर अहसास पा जाता हूँ !!

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (13-03-2011)
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