
आम मध्यवर्गीय आदमी


पलकें


साहित्य चोर

एक प्रतिक्रिया :-
साहित्य चोरों की कोई विशेष जामत नहीं होती.. यत्र-तत्र-सर्वत्र वे मौजूद रहते हैं.. थोथी पाना ही उनका लक्ष्य होता है..वे यह भी भूल जाते हैं कि पकडे जाने पर उनकी अपनी रचनाएँ भी संदेह के घेरे में आ जाने वाली हैं.. तब उनकी अपनी मेहनत भी मिटटी हो जानी है.. (..जोगी..)
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जीत-हार

भारतीय क्रिकेट टीम ने लगभग पंद्रह वर्षों के बाद एशिया कप जीत लिया.. परन्तु क्या हमें वाकई खुश होने का हक है..? जब यही खिलाडी बेहतर परिणामों के साथ आते हैं तो ठीक वरना इससे बुरी टीम कोई नहीं..!! जीत के साथ हार क्यों नहीं पचा पते हम..?
सुप्रभात..
▬► जोगी...
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दिखावा..
क्या आप वही हैं जो आप दिखने का प्रयास करते हैं..?
सभी मित्रों से उत्तर अपेक्षित है..
▬► जोगी.....
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अहसास हूँ मैं..

तुम्हारा ना होना या..
मधुर सम्मोहन दूर से तुम्हारा..
चाहे बसा क़दमों तले सारा जहाँ..
अहसास हूँ मैं..
जाना कहाँ है तुम्हें..?
स्वप्न लोक ही सही..
पाओगे सदा हमें ही तुम..
जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 23 June2010_03:20 pm )
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चिल्ल-पौं

अभी पिछले दिनों छुट्टियां मानाने अपने घर आगरा और भरतपुर गया था ! वहाँ मेरे सबसे बड़े जीजाजी "राजीव कुमार" अचानक बोले भाई तू बड़ा लेखक और कवि बना घूमता है ! चल एक बेस देता हूँ उस पर मेरे सामने लिख कर बता ! जो शब्द मिला वह था ::"चिल्ल-पौं":: ! अब करना क्या था मरता क्या न करता भतीजे "कार्तिक सिंह" को कलम पकडाई और बोलकर लगा लिखवाने ! तब जो कुछ भी बोला और लिखा गया उसे यहाँ भी लिखे दे रहा हूँ !
::::: चिल्ल-पौं :::::
सुबह संग आती पहली किरण..
मिचमिचाती आँखें..
तिस पर कर्ण छिदाती..
हो रही चिल्ल-पौं..
कितना कहा बेगम से..
ना आने दो बहार को इतना..
यहाँ समझे कौन..?
एक के बाद एक..
आती नित नयी शक्लें..
दिव जाता हर शक्ल को..
हर बार इक नया नाम..
ज़नाब शायरे आज़म बेचारे..
शायरी में उनकी अब झलकती चिल्ल-पौं है..
आवाज़ में नूर से अधिक..
दंगल की झलक है..
आते जाते महफ़िल या सरे राह..
देख उनको राह छोड़ते लोग..
मान देना नहीं..
मकसद है जान बचाना..
घर आ फिर वही चिल्ल-पौं..
छोटे अब्दुल की टूटी चप्पल..
ज़रीना का सूट बने हैं जी का जंजाल..
गिल्लौरी बेगम साहिबा की..
खटकती है अब आँखों में..
जिन जुल्फों पर थे फ़िदा कभी..
उन्हीं का संवारना..
आज फनाँ कर जाता है..
करीम के चबूतरे पर बैठक वही..
बदल रहे मुद्दे बातों में भी..
बाहर से ज्यदा चर्चे..
घर-बेगम-औलादों के हैं..
बेगम के नाम से आज-कल..
घुल जाता कडुवा करेला सा मुँह में..
सुरीली मैना के सुर..
लगने लगे हैं अब चिल्ल-पौं..
सुबह-शाम..
हो रही चीखो पुकार..
हो चली आदत ऐसी..
बिन इसके अब नींद न आती..
न होता बर्दाश्त..
बेगम संग बच्चों का जाना कहीं..
शायरी आज भी करते हैं..
खनकती है शायरी में चिल्ल-पौं..
खो बैठे हैं बस..
शायरी के रंग सारे..
उठता कलरव सुबह के पंछी संग..
पर उनका कलरव है यही चिल्ल-पौं..
नहीं होते अब कानों में छिद्र..
न शिकवा आती बहार से है..
पुरजा बन रही जीवन का यह चिल्ल-पौं..
बिन इसके अब लगता जीवन बेजार है..
जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 05 जून 2010_04:41 pm )
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भूख से बेबस
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13 जून 2010 जब मैं अपने परिवार के साथ आगरा से मुंबई आ रहा था तो अचानक "दैनिक भास्कर" में छपे एक समाचार पर नज़रें टिक गयीं ! फिर उसे पढ़ा तो सहसा यकीन ही नहीं हुआ.. ऐसा भी हो सकता है क्या..? हर रोज़ वहाँ आने वाली शताब्दी एक्सप्रेस से फैंके जाने वाली झूठन को खाकर दर्ज़नों बच्चे अपनी क्षुधा-शांति करते हैं ! इसे देख मेरा ह्रदय विदीर्ण हो उठा परन्तु ट्रेन निकल जाने से कुछ कर नहीं सका ! पर उस स्थिति पर एक कविता अवश्य ही बन पड़ी है कि शायद इसी को देख किसी का मन बदल जाये और उन मासूमों के दिन भी बदल जाएँ !!
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भोपाल स्टेशन..
दो बजे दोपहर..
हो रही उद्घोषणा..
शताब्दी के आने की आहट..
इंतजार करते..
दो ज़गह खड़े लोग..
प्लेटफॉर्म और दूजे कूड़ाघर पे..
एक जाने को उत्सुक..
दूजे भी उत्सुक..
पर भूख से बेबस..
रुकते ही गाडी ट्रेन-मैं को..
घेर लेते दर्ज़नों बच्चे..
वज़ह कोई तमाशा नहीं..
वरन..
है फैंके जाने वाली झूठन..
टूट पड़े सारे..
फैंकते ही झूठन..
वस्तु खाने की या होती वह पीने की..
खुशनसीब होता वह..
नसीब हो जाते जिसे चन्द कतरे..
मिल जाते कुछ कतरे आँसू भी..
बेबस खड़ी हम जैसी संवेदी भीड़ को..
होने को हैं दो NGO मौजूद यहाँ..
बातें भी हैं बड़ी-बड़ी..
देखा है सबने उन्हें..
स्थिति से नज़रें चुराते..
ना ही देखा गया नुमाईन्दा कभी..
महिला-बाल-विकास विभाग का..
कहते हैं बच्चे..
दिन के खाने की है जुगाड़ यह गाडी..
हो लेता है जुगाड़..
रात्रि क्षुधा का भी कुछ ऐसा ही..
कहा बेबस बच्चों ने..
झूठन ही है अब आसरा हमारा..
जोगेंद्र सिंह - Jogendra Singh ( 13 जून 2010_02:30 pm )
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फेसबुक पर नारी उत्थान
एक प्रतिक्रिया :
यह सच है फेसबुक पर आजकल सिर्फ नारी उत्थान या हित का नाम लेने भर से मख्खियों का झुण्ड सा टूट पड़ता है.. जैसे फेसबुक पर ही सारा उद्धार हो लेना है.. हालाँकि हम यह भी जानते हैं कि पूरे पूरे कुछ इलाके या सारे भारत में अपवादों को छोड़ दिया जाये तो घरों के भीतर खाने में नारी प्रशासक की सी भूमिका भी पाए बैठी है.....
..जोगी..!!
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बेवज़ह रुदन

▬► एक प्रश्न :
मयूरी शाह ▬► why do we feel like crying for noreason...........??
जोगी ▬► दुखित ह्रदय जब अपने साल रहे अहसासों से थक चुकता है और यह सीमा भी जब पार हो जाये तब रिक्त मस्तिष्क एवं वीरान ह्रदय बेवज़ह रुदन किया करता है..
Jogendra Singh ( 23 June 2010_10:44 am )
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क्या सोचते हैं बेटे
4 साल की उम्र में :- मेरे पापा महान हैं !
6 साल की उम्र में :- मेरे पापा सबको जानते हैं !
10 साल की उम्र में :- मेरे पापा अच्छे हैं पर उन्हें गुस्सा ज़रा जल्दी आ जाता है !
12 साल की उम्र में :- मेरे पापा तब मेरे लिए बहुत अच्छे जब मैं छोटा था !
14 साल की उम्र में :- मेरे पापा को खुश करना बहुत बड़ी टेढ़ी खीर है !
16 साल की उम्र में :- मेरे पापा नए ज़माने के अनुरूप नहीं चल रहे हैं !
18 साल की उम्र में :- मेरे पापा बहुत ज्यादा शक्की और सनकी बनते जा रहे हैं !
20 साल की उम्र में :- ओह ! पापा को झेलना बहुत मुश्किल होता जा रहा है !
25 साल की उम्र में :- पापा हर बात का विरोध करते हैं !
30 साल की उम्र में :- मेरे लिए अपने बेटे को सम्हालना मुश्किल होता जा रहा है !
जब मैं छोटा था तो अपने पापा से कितना डरता था !
40 साल की उम्र में :- पापा ने कितने अनुशासन के साथ मेरी परवरिश की थी !
मुझे भी वही करना चाहिए !
45 साल की उम्र में :- पता नहीं पापा ने हमें कैसे पालकर बड़ा किया होगा ?
50 साल की उम्र में :- मेरे पापा ने हमें पालने में इतनी सारी तकलीफें उठायीं और मैं
एक बेटे को ही नहीं सम्हाल पा रहा हूँ !
55 साल की उम्र में :- मेरे पापा इतने दूरदर्शी थे और उन्होंने हमारे लिए इतनी सारी
चीज़ें प्लान करके रखीं ! वह अपने आप में अनोखे थे !
60 साल की उम्र में :-मेरे पापा "महान" थे !

मिलना बिछड़ना

मिलना बिछड़ना खेल हैं जीवन के..
इत्तफाक वगैरह कुछ नहीं..
कर कोशिश भर तू देख यहाँ..
अंजामे जुदाई फिर मिलन होगा..
_____जोगेंद्र सिंह "Jogendra Singh"( 19 जून 2010_11:21 am )
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प्रश्न हैं बहुतेरे

चुप की आड़ में जाने कितने अनुत्तरित प्रश्न उठा डाले हैं..
हकीकी ठोस ज़मीनी बातें..
साथ ही नेपथ्य से आती मिश्रित ध्वनियाँ..
सिर्फ उच्चतर ही नहीं वरन बेबसी के स्वर भी समेटे हुए हैं..
अपने आप में यह भी एक बड़ा प्रश्न है..
प्रश्न हैं बहुतेरे मगर.. हल से कदमताल करेगा कौन..?
_____जोगेंद्र सिंह "Jogendra singh" ( 17 जून 2010_11:03 pm )
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बिन तेरे

अनदेखे आँखों में बसे अधूरे स्वप्न..
हो दूर तुम, ले आते स्वप्न करीब तुम्हें..
आहट सी तेरी मिलती हर आहट पे मुझे..
क्यूँ साँसों में समायी खुशबू.. बिन आये तेरे..
_____जोगेंद्र सिंह "Jogendra Singh" ( 18 जून 2010_02:03 pm )
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आँचल की लड़ाई

छोड़ दो आँचल ज़माना क्या कहेगा ?
चल देती है कह कर इठलाती नायिका
आँचल न हुआ प्रेम पुस्तक का इक पन्ना सा हो गया
आँचल की लड़ाई तो सदियों से चली आ रही है
पूरी नायिका छोड़..
पड़ जाता नायक आँचल के पीछे
बेचारी नायिका..
स्वप्न संजोये आँचल से आगे के
इंतजार करती.. तरसती आगे के पग को
न माना नायक..
न जाता आगे आँचल से
थक हार साथ छोड़ आँचल का
कर आँचल को ही अलविदा
चली नायिका बिन आँचल अब
कशमकश में नायक बेचारा
क्या पकडे अब क्या छोड़े वह
गीत बढ़त का लाये कहाँ से ?
बन गयी आधुनिक अब नायिका
नहीं मिल पाता अंतर नवीन-पुरातन का
कैसे ढूंढे नायक अधुनातन या पुरातन को
वक़्त की करवट.. है बदली नायिका
है आ चुका अब दौर परिवर्तन का
बन विस्थापित.. है दिखता नायक अब नायिका सा !!
_____जोगेंद्र सिंह "Jogendra Singh" ( 17 जून 2010_10:53 am )
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सजा

सजा क्या देनी है उसे..
जो दिल तोड़ गया..
कर दो उसे उसे माफ़..
कि सालता रहे जीवन भर..
ग़म उसे इस माफ़ी का भी..
_____जोगेंद्र सिंह "Jogendra Singh" ( 17 जून 2010_09:10 am )
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बात-खुराफात

वो बात करना चाहते हैं..
या बात खुराफात करना चाहते हैं..
जनता की हाँ में हाँ मिलाकर..
अपनी ना की रोटियां सेंकना जानते हैं..
_____जोगेंद्र सिंह "Jogendra Singh"
( 15 जून 2010_11:25 pm )
Creating Mobile Games: Using Java ME Platform to Put the Fun into Your Mobile Device and Cell Phone (Technology in Action)
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