चिल्ल-पौं
Wednesday, 23 June 2010
- By Unknown
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कविता कोष
अभी पिछले दिनों छुट्टियां मानाने अपने घर आगरा और भरतपुर गया था ! वहाँ मेरे सबसे बड़े जीजाजी "राजीव कुमार" अचानक बोले भाई तू बड़ा लेखक और कवि बना घूमता है ! चल एक बेस देता हूँ उस पर मेरे सामने लिख कर बता ! जो शब्द मिला वह था ::"चिल्ल-पौं":: ! अब करना क्या था मरता क्या न करता भतीजे "कार्तिक सिंह" को कलम पकडाई और बोलकर लगा लिखवाने ! तब जो कुछ भी बोला और लिखा गया उसे यहाँ भी लिखे दे रहा हूँ !
::::: चिल्ल-पौं :::::
सुबह संग आती पहली किरण..
मिचमिचाती आँखें..
तिस पर कर्ण छिदाती..
हो रही चिल्ल-पौं..
कितना कहा बेगम से..
ना आने दो बहार को इतना..
यहाँ समझे कौन..?
एक के बाद एक..
आती नित नयी शक्लें..
दिव जाता हर शक्ल को..
हर बार इक नया नाम..
ज़नाब शायरे आज़म बेचारे..
शायरी में उनकी अब झलकती चिल्ल-पौं है..
आवाज़ में नूर से अधिक..
दंगल की झलक है..
आते जाते महफ़िल या सरे राह..
देख उनको राह छोड़ते लोग..
मान देना नहीं..
मकसद है जान बचाना..
घर आ फिर वही चिल्ल-पौं..
छोटे अब्दुल की टूटी चप्पल..
ज़रीना का सूट बने हैं जी का जंजाल..
गिल्लौरी बेगम साहिबा की..
खटकती है अब आँखों में..
जिन जुल्फों पर थे फ़िदा कभी..
उन्हीं का संवारना..
आज फनाँ कर जाता है..
करीम के चबूतरे पर बैठक वही..
बदल रहे मुद्दे बातों में भी..
बाहर से ज्यदा चर्चे..
घर-बेगम-औलादों के हैं..
बेगम के नाम से आज-कल..
घुल जाता कडुवा करेला सा मुँह में..
सुरीली मैना के सुर..
लगने लगे हैं अब चिल्ल-पौं..
सुबह-शाम..
हो रही चीखो पुकार..
हो चली आदत ऐसी..
बिन इसके अब नींद न आती..
न होता बर्दाश्त..
बेगम संग बच्चों का जाना कहीं..
शायरी आज भी करते हैं..
खनकती है शायरी में चिल्ल-पौं..
खो बैठे हैं बस..
शायरी के रंग सारे..
उठता कलरव सुबह के पंछी संग..
पर उनका कलरव है यही चिल्ल-पौं..
नहीं होते अब कानों में छिद्र..
न शिकवा आती बहार से है..
पुरजा बन रही जीवन का यह चिल्ल-पौं..
बिन इसके अब लगता जीवन बेजार है..
जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 05 जून 2010_04:41 pm )
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