आज छोटी-बड़ी हर चीज़ के दाम बढे चले जा रहे हैं ! आम आदमी बढे कई दामों से खुद को असम्बद्ध पाता है ! पर भूल जाता है वह कि हो चुकी हर बात, घटनाक्रम या फैसला उसके जीवन में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष आने वाले परिवर्तनों की जड़ होते हैं ! कैसे कह सकते हैं हम कि जब पैट्रोल के दाम बढ़ते हैं तो बीस-तीस लाख वाले को फर्क पड़ना चाहिए जो कि सिर्फ पचास-पचपन रुपये का होने ही वज़ह से उसे कोई अंतर नहीं आने वाला ! क्यूँ भूल जाते हैं हम कि वही पैट्रोल रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में हर बात को प्रभावित करता है ! चाहे वह वस्तुओं की आवाजाही हो या मनुष्यों की ! असर एक सा ही पड़ना है सब पर ! ज़रा-2 बढ़ते भाव देखे जाएँ तो सभी चीज़ों के बढे भाव जोड़ कर देखो, महीने के आखिर में कुल कितना वज़न नज़र आता है आम आदमी पर !
पहले गरीबों ने ही परेशान होने का ठेका ले रखा था लेकिन आज निम्न-मध्य वर्ग तक स्थानांतरित हो चुकी है यह परेशानी ! गरीब तो कुछ भी काम करने का आदि है, अक्सर भीख भी मांग लिया करता है ! माध्यम वर्गीय जनता क्या करे बेचारी..? अपनी कथित इज्ज़त की चादर सम्हालते-सम्हालते परिवार करीब-करीब भूखों मरने की सी नौबत तक आ चुकता है.. और इतने पर भी बेचारा परिवार अपनी इज्ज़त और झूठे संस्कारों का बोझ ढोते दिखाई पड़ता है..!!
सरकार को सभी मदों से सब्सिडी का खत्म तो ज़रूर करना चाहिए लेकिन इन इज्ज़तदार और नज़र नहीं आने वाले गरीबों की व्यथा को कौन समझेगा..? जिनकी आमदनी जस की तस पड़ी है और महंगाई सुरसा के मुँह सम बढती ही जाती है ! अपनी जीत का सपना पूरा करने के निमित्त लिए नेताओं को सब्सिडी का खेल दिखाई तो देता है पर वे यह भूल जाते हैं कि इससे कोई देश लम्बे समय तक सुचारू रूप से चल नहीं सकता ! ज़रूरत है इस समस्या के उचित हल निकले जाने की ! वर्ना निकट भविष्य में हमें नए बेबस और मजबूर गरीबों की एक नयी कतार बनी नज़र आने वाली है ! सरकार से आज के गरीब ही नहीं सम्हलते, एक नयी ज़मात कहाँ तक सम्हलेगी उससे..?
जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 29 जून 2010_02:16 pm )
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Comments
2 Responses to “आम मध्यवर्गीय आदमी”
देश के राज-नेताओं ने व्यवस्था को इस तरह अव्यवस्थित कर दिया है की गरीब
बेबस हो कर असमर्थता दिखाते हुए पीछे हट जाता है, अमीर हर स्थान पर समर्थ
है उसे कोई फ़र्क ही नहीं पड्ता, रहा मध्यम वर्ग..जो ना तो समर्थ है और ना
ही पीछे हटने का हौंसला रखता है...ऐसे मे करे तो क्या करे...? इसी उधेड-बुन
में पिसता चला जा रहा है...उसके पल्ले है सिर्फ़ बहस..... जो हम कर ही रहे हैं
@ चड्ढा साहब..
जो आप कह रहे हैं एक तरह से आज यह नियति सी बन चुकी है.. बड़ी बात यह कि हम चाहें तो इसे बदलने में योगदान भी कर सकते हैं, परन्तु उसके लिए बड़े स्तर पर जुड़ाव की आवश्यकता है, जो कि आज के स्वार्थी दौर में कदरन मुश्किल काम है..
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