पलकें



आँखों में अरमान बसे बैठे हैं..
हम बैठे है पलकों पे तुम्हारी..
झपकाओ न पलकें तुम अपनी..
सरक न आयें हम नीचे कहीं..
कहीं ऐसा न हो, कि हो जाये पूरा..
ज़मीन तक यह सफर सपनों का..

जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 27 जून 2010_01:45 pm )
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Comments

4 Responses to “पलकें”

28 June 2010 at 5:56 pm

सपनों का सफ़र ज़मीन पर आकर ख़त्म हो जाता है . वे टिकने के लिए पलकों में नहीं सजते . खुली आँखें भी जब सच नहीं जान पातीं तो सपने तो महज बंद आँखों का सुकून हैं . आपकी कविता सुन्दर है और सपनों को उनका आइना दिख रही

30 June 2010 at 1:56 pm

जोगी, सहज, सुन्दर, छोटी सी और प्यारी कविता....

Unknown said...
13 July 2010 at 7:56 pm

@ अपर्णा जी.. आपने रचना के मर्म को स्पर्श किया है.. यथारूप उसे मस्तिष्क में ज़गह दे पाना आप ही की क्षमता का उद्गार है.. धन्यवाद..

Unknown said...
13 July 2010 at 7:56 pm

थैंक्स @ रोली..

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