बात लबों पर
Friday, 6 August 2010
- By Unknown
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कविता कोष
छुपी छुपी सी है बात लबों पर..
अहसासात भी हैं दबे दबे..
असर हुआ रद्दोबदल का..
कुछ इस क़दर..
कहनी थी तुमसे जो बात..
न पहना सके..
अमली जामा हम उसे..
जद्दोज़हद में है दिल शायद..
बीच इसके..
आकर तुम चले गए..
"कल रात बरसात में..
हुई तुमसे जो बात..
इशारों पर इशारे..
मौला क्या कहूँ..
बात तब भी न कह पाए तुमसे.."
कहना होता भी कैसे..?
सफ़र बचपन से ज़वानी तक..
गुज़रा है मेरा डर-डर के..
क्यूँ न समझ लेती..?
खुद ही तुम इसे..
बात परदे की..
रह जाती परदे ही में..
न तुम कुछ कहो..
न हम कुछ कहें..
बन जाने दो अब कहानी..
अनकही इस बात को..
चाहूँगा जगह अब..
दिन रात तुम्हारे खयालो में..
दे सको दे दो जगह वर्ना..
ज़बरन घुस-पैठ कर जाऊंगा..
जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 06 अगस्त 2010 )
Photography by : Jogendra Singh ( for both the pictures )
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