अंकुरण
Tuesday, 10 August 2010
- By Unknown
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कविता कोष
परस्पर विपरीत गुणधर्मों का मेल..
एक तरफ है सूखी धरती बंज़र-वीरान..
और है बाढ़ग्रस्त लबालब सोच सी दूजी..
मिलन उनका क्या संभव है..?
बन जाता जल मौत का वायस दोनों ही में..
फिर हो चाहे वह मौत प्यास से..
या होता प्रलय फिर बाढ़ विभीषिका सा..
क्यूँ होता है मानव मन दो भाग बँटा..?
बन बंज़र न उपजाता वह त्रण-मात्र कहीं..
न पनपता बन अतिआर्द्र भी त्रण-मात्र कहीं..
हैं विपरीत पर होता यह आकर्षण हर बार..
न संभाव्य न होता दृष्टिगत यह मेल कहीं..
तथापि "अंकुरण" पाता कोमल भाव निरंतर..
स्थान, स्थिति, अनुभूति हैं सब भिन्न-भिन्न..
है कुछ भान पारिस्थितिक वस्तुस्थिति का भी..
परन्तु है जाने कैसा मोह फंसा द्विपक्षों मध्य..
खिंचे चले आना उनका, बन रहा नियति जैसे..
है बेमेल पर नयनाभिराम सा, मेल द्वि-ध्रुवों का..
जुड़े हों जैसे रक्त-नील वर्ण परस्पर आधे-आधे..
परस्पर विपरीत गुणधर्मों का मेल..
एक तरफ है सूखी धरती बंज़र-वीरान..
और है बाढ़ग्रस्त लबालब सोच सी दूजी..
हाँ कदाचित बन जाये अब एक उपमान नया..
जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 10 अगस्त 2010 )
Photography by : Jogendra Singh ( Mumbai )
(सामान्य जीवन में अच्छे या बुरे का चरम बहुधा नहीं हुआ करता है.. परन्तु यह भी तो देखिये कि यहाँ मानव मन को अभिव्यक्त किया गया है, जिसकी सोचों का कोई पारावार नहीं होता.. जितना सोच जाये वही कम है.. सीमा बंधन सोचों के लिए बने ही नहीं हैं.. फिर लिखते वक्त मेरे मन में अपने मित्र सी हुई बातचीत थी जिसमे मैंने कहा था कि परस्पर दो विपरीत सोचों वाले लोग किस तरह एक दुसरे से आकर्षित हो लेते हैं, और होने पर जुड़े भी कैसे रह लेते हैं.. तत्पश्चात उसी के आगे पीछे जो विचार मन में आते गए, बस उन्ही को लिखता गया..)
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