एक सोच :
आज कितने हैं जो बिना मुखौटे रहते हैं... ? सबकी अपनी माया-खटराग हैं... कोई दाम का भूखा तो कोई नाम का भूखा... ना मिले तो दूजों की इज्ज़त या मनुष्यों की लाशों पर से गुज़रना भी इनके लिए गुरेज़ के लायक नहीं होता है... दूसरों की अस्मिता का हनन करते हुए आगे बढ़ जाना जैसे इनकी आदत में शुमार हो गया है... जिसे ये अपना मान समझते हैं चाहे वह दूसरों की नज़र में इन्हें बेशरम-बेईज्ज़त दर्शाता हो पर वही इन्हें खुद को ऊँचा महसूस करता है ...
► जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh :(
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Comments
6 Responses to “बिना मुखौटे”
अच्छी पंक्तिया लिखी है ........
जाने काशी के बारे में और अपने विचार दे :-
काशी - हिन्दू तीर्थ या गहरी आस्था....
अगर आपको कोई ब्लॉग पसंद आया हो तो कृपया उसे फॉलो करके उत्साह बढ़ाये
@ रजनीश जी , आपने मेरा उत्साह बढ़ाया यह बात मुझे याद रहेगी ... धन्यवाद ... :)
सही विचार है ।
धन्यवाद @ शरद जी ... :)
बहुत पसन्द आया
हमें भी पढवाने के लिये हार्दिक धन्यवाद
बहुत देर से पहुँच पाया ....माफी चाहता हूँ..
► संजय भास्कर जी ... पसंद करने के लिए धन्यवाद ... :)
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