मैं ही क्यूँ..?
शूल सोच रहा __________________ ( शूल=काँटा )
विलग सब मुझसे
दूर खड़ा
तरसता
निहारता
मैं
क्यूँ है अपराध
शूल होना
पुष्प संग रहता
विलग तब भी
कैसे कहूँ
बिछोह इसे
प्रेम पूरित है अंतरतम
शूल बन प्रेम मेरा
सालता उसे
देता छिद्र ह्रदय पर
वारिस प्रेम का
रक्षक सा लगता
चुभन
बनती वज़ह
अलगाव की
चाहते हुए भी
निहारना बदस्तूर
है नियति उसकी
आँखों से
दीख पड़ता
लुटता प्रेम अपना
द्वि-हस्तानुगत हो पुष्प
चल देता
मृत्यु मार्ग की ओर
मंदिर-मस्जिद
शादी-मैय्यत
या गजरे की शोभा बनने
रह जाता पीछे
रोता कलपता शूल
एक नए प्रेम
एक नए पल्लवन की प्रतीक्षा में
_____जोगेंद्र सिंह ( 18 मई 2010_12:51 pm )
(( इस चित्र में जो कांटे की तस्वीर है, वह मेरे द्वारा उतारी गयी है.. ))
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Comments
4 Responses to “मैं ही क्यूँ..?”
mughl e azam ka scene yaad aa gya...:teri mehfil mein sar apna jhuja kar hum bhi dekhenge..."
is qwwali ke baad shazada saleem (dilip saheb), phool kisi aur ko de dene ke baad anarkali se kehte hain "aur tumhare hisse mein yeh kaante aate hain anarkali..."
anarkali ka jwaab "zahe'naseeb...kaanto ko murjhane ka khauf nahi hota".
baki baad mein.
◊▬►► Albert ji.. aap to seedhe Mugal-e-Azam tak hi le gaye hain zanab...
'फूल' - 'काँटे', तो नाम हैं केवल|
जो मिला मुझको, यादगार मिला||
◊▬►► naveen ji.. दोनों का कार्य अपना अपना है.. अपनी ज़गह दोनों ही श्रेष्ठ हैं..
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