खड़ा अकेला
जीवन पथ पर
बाप न था
आने के पहले
आते ही जिसके
हुई हज़म महतारी
कोसा गया
धकियाया गया
जीवन भर
खायी ठोकरों पर ठोकर
राह पड़े पत्थर सी
देता संबल मन को
समझाया
खुद को
दूंगा नए मोड़
जाने क्यूँ..?
हर मोड़ तक आते आते
मिल जाती इक ठोकर नयी
मिली परवरिश
खुद से खुद को
कर देखे जतन बहुतेरे
कोई न समझा मन मेरा
हो चला आक्रोशित मन
है हिकारत चेहरे पर भी
मरने नहीं देती
जिजीविषा ज़ीने की
जूझ लूँगा बूझ लूँगा
प्रश्न जीवन के सारे
देखे बालक अर्धांगिनी संग
भाग बड़ा उन संग बीता
है दास्तान पुरानी
संघर्षों की
थे बाहर
अब होते घर में भी
क्यूँ पाता अब भी..?
अकेला खुद को
कुछ कहने की कोशिश में
बात बिगड़ते अक्सर देखी
पाया ऊँचा दौर उम्र का
हूँ अकेला अब भी
कहने को तो हैं
आज भी सब मेरे
फिर क्यूँ.. हूँ अकेला अब भी..?
_____जोगेंद्र सिंह ( 22 मई 2010_11:44 pm )
(( एक बच्चा जिसे सबने दुत्कारा ! अपने दम पर आगे बढ़ कर सब पाया उसने ! उम्र के ऊंचे पड़ाव तक आते आते भी उसे अपने कहलाने वालों तक से संघर्ष करना पड़े तो उसकी दशा क्या होगी ? ))
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Comments
5 Responses to “क्यूँ अकेला हूँ अब भी..?”
आम आदमी के लिये जीवन मुश्किलो भरा होता है।
उसे हर पल अपनी उम्र से बडा बना देता है।
फिर भी जीने की जुस्तजु उसे बहुत कुछ सिखला देती है।
@उम्दा जोगी जी...जय हो
बहुत सुन्दर बात कह गए प्रतिबिम्ब जी.. जीवन वाकई इतना ही दुष्कर है जितना कि उसे आप मानो..
The poem depicts a bitter Truth. I am reminded of Paul Sartre's lines, "Man is alone, abondoned on the earth; he can count on nobody for help except himself".
Life is not always a bed of roses. It is full of odds and a man who struggles hard with these odds become successful in his life.
With best wishes
Aparna
जीवन के इस पड़ाव पर पहुँचने पर इन्सान जब अकेला रह जाता है तो बड़ा कष्ट होता है क्या ही ना उसका मन करता होगा की आपने नाती पोतों को खिलाये, उसे परिवार में सम्मान मिले. जब ऐसी आशाएं टूटती हैं तो निश्चय ही बड़ा कष्ट होता होगा. बहुत सुन्दर लिखा है बधाई स्वीकार करें!!!!!!!!
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