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13 जून 2010 जब मैं अपने परिवार के साथ आगरा से मुंबई आ रहा था तो अचानक "दैनिक भास्कर" में छपे एक समाचार पर नज़रें टिक गयीं ! फिर उसे पढ़ा तो सहसा यकीन ही नहीं हुआ.. ऐसा भी हो सकता है क्या..? हर रोज़ वहाँ आने वाली शताब्दी एक्सप्रेस से फैंके जाने वाली झूठन को खाकर दर्ज़नों बच्चे अपनी क्षुधा-शांति करते हैं ! इसे देख मेरा ह्रदय विदीर्ण हो उठा परन्तु ट्रेन निकल जाने से कुछ कर नहीं सका ! पर उस स्थिति पर एक कविता अवश्य ही बन पड़ी है कि शायद इसी को देख किसी का मन बदल जाये और उन मासूमों के दिन भी बदल जाएँ !!
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भोपाल स्टेशन..
दो बजे दोपहर..
हो रही उद्घोषणा..
शताब्दी के आने की आहट..
इंतजार करते..
दो ज़गह खड़े लोग..
प्लेटफॉर्म और दूजे कूड़ाघर पे..
एक जाने को उत्सुक..
दूजे भी उत्सुक..
पर भूख से बेबस..
रुकते ही गाडी ट्रेन-मैं को..
घेर लेते दर्ज़नों बच्चे..
वज़ह कोई तमाशा नहीं..
वरन..
है फैंके जाने वाली झूठन..
टूट पड़े सारे..
फैंकते ही झूठन..
वस्तु खाने की या होती वह पीने की..
खुशनसीब होता वह..
नसीब हो जाते जिसे चन्द कतरे..
मिल जाते कुछ कतरे आँसू भी..
बेबस खड़ी हम जैसी संवेदी भीड़ को..
होने को हैं दो NGO मौजूद यहाँ..
बातें भी हैं बड़ी-बड़ी..
देखा है सबने उन्हें..
स्थिति से नज़रें चुराते..
ना ही देखा गया नुमाईन्दा कभी..
महिला-बाल-विकास विभाग का..
कहते हैं बच्चे..
दिन के खाने की है जुगाड़ यह गाडी..
हो लेता है जुगाड़..
रात्रि क्षुधा का भी कुछ ऐसा ही..
कहा बेबस बच्चों ने..
झूठन ही है अब आसरा हमारा..
जोगेंद्र सिंह - Jogendra Singh ( 13 जून 2010_02:30 pm )
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Comments
2 Responses to “भूख से बेबस”
meri ak adat hai ke mai kisi ko bhi jo paise mangte unhe cash dene k bajay unhe khana kilana uchit samjahta hun.aur mai aisa hi karta hun......
Aur hum kya kar sakte hai
bahut achchhi aadat hai @ Chhote.. :)
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