आँखों में अरमान बसे बैठे हैं..
हम बैठे है पलकों पे तुम्हारी..
झपकाओ न पलकें तुम अपनी..
सरक न आयें हम नीचे कहीं..
कहीं ऐसा न हो, कि हो जाये पूरा..
ज़मीन तक यह सफर सपनों का..
जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 27 जून 2010_01:45 pm )
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Jogendra Singh ~ जोगेंद्र सिंह..
Comments
4 Responses to “पलकें”
सपनों का सफ़र ज़मीन पर आकर ख़त्म हो जाता है . वे टिकने के लिए पलकों में नहीं सजते . खुली आँखें भी जब सच नहीं जान पातीं तो सपने तो महज बंद आँखों का सुकून हैं . आपकी कविता सुन्दर है और सपनों को उनका आइना दिख रही
जोगी, सहज, सुन्दर, छोटी सी और प्यारी कविता....
@ अपर्णा जी.. आपने रचना के मर्म को स्पर्श किया है.. यथारूप उसे मस्तिष्क में ज़गह दे पाना आप ही की क्षमता का उद्गार है.. धन्यवाद..
थैंक्स @ रोली..
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